‘एक देश एक चुनाव’ की शिगूफ़ेबाज़ी का एक दशक!
'एक देश, एक चुनाव’ का मुद्दा फिर चर्चा में है। करीब दस साल पहले प्रधानमंत्री बनने के बाद ही नरेंद्र मोदी ने सारे चुनाव एक साथ कराने का इरादा जताया था, लेकिन उसके बाद अपने पहले कार्यकाल में उन्होंने इस बारे में कुछ करना तो दूर, दोबारा इसकी चर्चा तक नहीं की। जून 2019 के लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद उन्होंने फिर इस मुद्दे को छेड़ा था और इस पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक भी बुलाई थी, जिससे अधिकांश विपक्षी दलों ने दूरी बनाए रखी थी। उसके बाद 2020 में 26 नवंबर को संविधान दिवस के मौके पर मोदी को फिर यह मुद्दा याद आया और उन्होंने पूरे देश के लिए एक मतदाता सूची बनाने की बात करते हुए कहा कि सारे चुनाव एक साथ होने चाहिए। यही नहीं, उन्होंने संसद में राष्ट्रपति से उनके अभिभाषण में भी इसका ज़िक्र करा कर यह जताने की कोशिश की थी कि उनकी सरकार वाकई इस मुद्दे पर संजीदगी से आगे बढ़ रही है।
अब जबकि लोकसभा चुनाव में महज़ सात महीने के क़रीब बाकी रह गए हैं तो सरकार को अचानक यह मुद्दा फिर याद आया है। उसने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए आनन-फानन में पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई है, जो अपने गठन के साथ ही विवादों से घिर गई है। चूंकि अपने देश में राष्ट्रपति का पद दलगत राजनीति से परे माना जाता है और अवकाशप्राप्त राष्ट्रपति का भी सार्वजनिक जीवन में एक सम्मानित स्थान होता है। ऐसे में पूर्व राष्ट्रपति कोविंद को ऐसी किसी भी समिति से जोड़ना इस पद के लिए उचित नहीं माना जाएगा, जिसकी सिफारिशें विवादास्पद हो सकती हैं। इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ कि अवकाशप्राप्त राष्ट्रपति को किसी सरकार ने ऐसी समिति से जोड़ा हो, जो अंतत: उसके प्रति ही उत्तरदायी होगी।
इस कमेटी में पूर्व राष्ट्रपति कोविंद के साथ जिन सात अन्य लोगों को सदस्य बनाया गया है, उनके नामों को देख कर भी साफ लगता है कि सरकार भले ही इस मामले में गंभीर दिखने की कोशिश कर रही हो, लेकिन वह गंभीर कतई नहीं है। समिति में सरकार की ओर से गृह मंत्री अमित शाह हैं तो विपक्ष की ओर से, लोकसभा में कांग्रेस के नेता, अधीर रंजन चौधरी को रखा गया है। हालांकि उन्होंने समिति के गठन की घोषणा के तुरंत बाद ही इस समिति में रहने से इनकार कर दिया है। दिलचस्प और हास्यास्पद यह है कि इस कमेटी राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खरगे को नहीं रखा गया है, लेकिन राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद को शामिल किया गया है, जो कि कांग्रेस से अलग होने के बाद से लगातार हर मसले पर सरकार के सुर में सुर मिला रहे हैं। इसके अलावा तीन सेवानिवृत्त नौकरशाह और एक वरिष्ठ वकील है, जो ज़ाहिर तौर पर सरकार समर्थक हैं। ऐसी स्थिति में आसानी से समझा जा सकता है कि समिति कैसी सिफारिशें सरकार को सौंपेगी।
इस मुद्दे पर सरकार की गंभीरता को अलग रख कर भी सोचें तो सवाल है कि क्या इस पर सभी राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति बन सकती है? एक अहम सवाल यह भी है कि भारत जैसे विशाल देश में क्या लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराना व्यवहारिक रूप से संभव है? अगर इन सवालों को दरकिनार करते हुए भी प्रधानमंत्री मोदी सभी चुनाव एक साथ कराने की बात को लेकर गंभीर हैं तो ऐसा करने में क्या बाधा आ रही है? लोकसभा में भी उनके पास बहुमत है और राज्यसभा में बहुमत न होते हुए भी उनकी सरकार ने कई विधेयक पारित कराए ही हैं। देश के लगभग आधे राज्यों में उनकी पार्टी या उसके गठबंधन की सरकारें हैं। उनका तो यह भी दावा है कि उन्होंने ऐसे कई काम कर दिए हैं, जो पिछले 70 सालों में नहीं हो पाए थे। तो सवाल है कि फिर यह काम क्यों नहीं हो पा रहा है?
प्रधानमंत्री मोदी ने जब इस मसले पर चर्चा के लिए सर्वदलीय बैठक बुलाई थी तो कांग्रेस के अलावा समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी, द्रमुक, तृणमूल कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, तेलुगू देशम, तेलंगाना राष्ट्र समिति सहित कई क्षेत्रीय दलों ने दूरी बनाए रखी थी। जिन पार्टियों ने शिरकत की थी, उनमें से भी ज़्यादातर ने 'एक देश एक चुनाव’ की संकल्पना को अव्यवहारिक बताते हुए खारिज कर दिया था। ज़ाहिर है कि इस मामले में सरकार और भाजपा को अपने कुछ सहयोगी दलों का ही समर्थन हासिल है। हालांकि उस समय सरकार की ओर से कहा गया था कि वह इस बारे में अपनी राय थोपेगी नहीं बल्कि आम सहमति बनाने की दिशा में अपने प्रयास जारी रखेगी। याद नहीं आता कि बाद में सरकार ने इस दिशा में कोई पहल की हो।
'एक देश एक चुनाव’ की संकल्पना प्रस्तुत करते हुए प्रधानमंत्री मोदी का कहना रहा है कि देश में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से प्रशासनिक मशीनरी के नियमित कामकाज पर असर पड़ता है और विकास संबंधी गतिविधियां भी प्रभावित होती है। इसके अलावा देश का समय और पैसा भी अतिरिक्त खर्च होता है, जिसका खामियाजा अंतत: आम लोगों को ही भुगतना पड़ता है। अगर सारे चुनाव एक साथ होंगे तो समय और पैसे की बचत तो होगी ही, प्रशासनिक तंत्र को भी राहत मिलेगी और वह अपना नियमित दायित्व ज़्यादा सुचारू रूप से निभा पाएगा।
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारी चुनाव प्रणाली में कुछ बुनियादी बीमारियां घर कर गई हैं और उसमें लंबे समय से सुधार की ज़रूरत महसूस की जा रही है। चुनावों का आलम यह है कि दो-चार महीने भी ऐसे नहीं गुजरते जब देश चुनावी मोड में न दिखता हो। हालांकि इस सदी में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव की नौबत नहीं आई है। पिछले दो दशकों में लोकसभा के चार चुनाव हुए हैं और चारों चुनाव निर्धारित पांच साल की अवधि पूरी होने पर ही हुए हैं। लेकिन विधानसभाओं के चुनाव के मामले में ऐसा नहीं है। हर चार-पांच महीने बाद किसी न किसी राज्य में विधानसभा के चुनाव होते रहते हैं। इनके घोषित होते ही आचार संहिता लागू हो जाती है जिससे सरकारें अहम फैसले नहीं ले पाती और खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है।
एक अनुमान के मुताबिक विधानसभा और लोकसभा चुनाव अलग-अलग होने से हर साल करीब चार महीने आचार संहिता के दायरे में आ जाते हैं। इसका उलट पक्ष यह कि चुनाव वाले राज्यों में अपने दलीय हितों के मद्देनज़र केंद्र सरकार लोक-लुभावन फैसले लेने लगती है, जिसका नुकसान बाकी राज्यों को होता है। राजनीति का मुहावरा ऐसा बदला है कि राज्यों में भी वोट केंद्र के फैसलों पर पड़ने लगे हैं। सूचना क्रांति ने पूरे देश को जोड़ दिया है। एक कोने में हो रहे चुनाव का असर पूरे देश पर पड़ता है। बढ़ता चुनावी खर्च एक अलग समस्या है जिससे चुनाव में काले धन के इस्तेमाल को बढ़ावा मिल रहा है। सुरक्षा बलों और बाकी अमले की तैनाती में पैसे तो लगते ही है, उनकी नियमित भूमिकाएं भी प्रभावित होती है। इसलिए सरकार का तर्क है कि चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इन बीमारियों का असर कम हो सकता है।
एक साथ चुनाव कराने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी और उनकी सरकार की दलीलों से सरसरी तौर पर तो शायद ही कोई असहमत होगा, लेकिन सवाल यही है कि क्या भारत जैसे विशाल देश में ऐसा होना व्यवहारिक तौर पर संभव है और क्या हमारा चुनाव आयोग ऐसा कर पाने में सक्षम है?
एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में यह दलील भी दी जा रही है कि जब देश की आज़ादी के बाद शुरूआती दशकों में भी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होते ही थे तो अब क्यों नहीं हो सकते? यह सही है कि देश आज़ाद होने के बाद करीब दो दशक तक यानी 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही होते रहे। तब तक केंद्र और लगभग सभी राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें भारी बहुमत से बनती रहीं। लेकिन 1967 से हालात बदलने लगे। राज्यों में सत्ता पर कांग्रेस की इजारेदारी टूटी और कई राज्यों में मिली-जुली सरकारें बनीं। इस सिलसिले में कई राज्यों में सरकारें गिरती और बदलती भी रहीं और कई राज्यों में मध्यावधि चुनाव की नौबत भी आई। इस प्रकार लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने का सिलसिला टूट गया।
एक साथ चुनाव कराने का सिलसिला शुरू होना अब इसलिए भी आसान नहीं है क्योंकि उस समय और आज की स्थिति में ज़मीन-आसमान का फर्क आ गया है। 1967 के आम चुनाव में देश में कुल मतदाताओं की संख्या लगभग 25 करोड़ थी, जबकि 2019 के आम चुनाव में यह संख्या 90 करोड़ के आसपास पहुंच गई और 2024 के चुनाव तक इसके 95 करोड़ से अधिक हो जाने का अनुमान है। फिर हमारे यहां तमाम राज्यों में आबादी के लिहाज़ से पुलिस बल वैसे ही बहुत कम है। अभी भी चुनावों के वक्त पुलिस के अलावा रिजर्व पुलिस बल और अर्द्ध सैनिक बलों की तैनाती करना पड़ती है। ऐसे में पूरे देश में एक साथ सारे चुनाव कराने पर तो हमारे पूरे सैन्य बल को उसमें झोंकना पड़ेगा, जो कि व्यवहारिक रूप से संभव नहीं हो सकता।
फिर यदि सभी निकायों के चुनाव एक साथ होंगे तो राष्ट्रीय मुद्दों के शोर में स्थानीय और प्रादेशिक महत्व के मुद्दे गुम हो जाएंगे। ऐसे में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव का कोई मतलब नहीं रहेगा। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 95 करोड़ से भी ज़्यादा मतदाता लोकसभा, विधानसभा, नगर निगम, नगर पालिका और पंचायत के लिए एक साथ मतदान करेंगे तो क्या उनका दिमाग हिचकोले नहीं खाएगा और फिर उनके वोटों की गिनती कैसे होगी?
चुनाव आयोग की बात करें तो कुछ समय पहले उसने भी सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए सभी चुनाव एक साथ कराने की पैरवी की थी। उसकी ओर से कहा गया था कि वह एक साथ सभी चुनाव कराने में सक्षम हैं। लेकिन उसके इस दावे पर कई सवालिया निशान हैं, क्योंकि उसकी क्षमताओं की सीमा पिछले कुछ सालों में बार-बार दयनीय और हास्यास्पद रूप में उजागर हुई हैं। मसलन गुजरात और हिमाचल प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल लगभग एक साथ खत्म होता है, लेकिन चुनाव आयोग इन दोनों राज्यों के चुनाव कभी साथ में नहीं कराता है, जबकि आबादी और विधानसभा की सीटों के लिहाज़ दोनों ही राज्य अन्य कई राज्यों की तुलना में बहुत छोटे हैं।
सवाल है कि जब चुनाव आयोग दो राज्यों में एक साथ चुनाव नहीं करा सकता है तो वह पूरे देश में एक साथ कैसे चुनाव कराएगा? 2019 के लोकसभा चुनाव भी उसने दो महीने में सात चरणों में कराए थे। पूछा जा सकता है कि इतना लंबा चुनाव कार्यक्रम बनाने का क्या औचित्य रहा होगा? उस लोकसभा चुनाव के बाद गुजरात में राज्यसभा की एक साथ रिक्त हुई दो सीटों के लिए अलग-अलग चुनाव कराने का उसका फैसला तो हर तरह से हास्यास्पद ही था, जिसके बारे में वह कोई सफाई नहीं दे पाया था।
सवाल यह भी है कि एक साथ चुनाव हो जाने की स्थिति में भी अगर निर्धारित कार्यकाल से पहले ही लोकसभा के भंग होने की नौबत आ गई तो ऐसी स्थिति में क्या सभी विधानसभाओं और स्थानीय निकायों को भी भंग कर एक साथ मध्यावधि चुनाव कराए जाएंगे? यही सवाल विधानसभाओं के संदर्भ में भी उठता है। अगर चुनाव के बाद किसी राज्य में सरकार नहीं बन पाती है या कार्यकाल पूरा होने से पहले ही गिर जाती है और वैकल्पिक सरकार नहीं बन पाती है तो क्या वहां मध्यावधि चुनाव नहीं कराए जाएंगे? और अगर वहां मध्यावधि चुनाव हुए तो क्या उस राज्य की विधानसभा को एक साथ चुनाव कराने के लिए उसकी निर्धारित अवधि से पहले ही भंग कर दिया जाएगा? ऐसे और भी कई सवाल हैं जो 'एक देश एक चुनाव' की संकल्पना को अव्यवहारिक ठहराते हैं।
लेकिन इसका यह मतलब कतई नहीं कि चुनाव सुधार के बुनियादी सवालों से मुंह मोड़ लिया जाए। गंभीर रूप से बीमार हो चुकी हमारी चुनाव प्रणाली का उपचार तो हर हाल में होना ही चाहिए। इस दिशा में सबसे पहले तो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की गड़बड़ियों को दूर करने की ज़रूरत है, जिनको लेकर हर चुनाव में शिकायतें मिलती हैं। इसके साथ ही चुनाव आयोग को वास्तविक रूप से स्वायत्तता देने और उसकी कार्यप्रणाली को पारदर्शी बनाने की भी ज़रूरत है। पिछले कुछ वर्षों से हर चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर गंभीर सवाल उठते आ रहे हैं और उसकी छवि सीबीआई, आयकर और प्रवर्तन निदेशालय जैसी सरकारी एजेंसियों की तरह हो गई हैं, जो सरकार के राजनीतिक इरादों से प्रेरित इशारों पर काम करती हैं। इस सिलसिले में टीएन शेषन और जेएम लिंगदोह जैसे मुख्य चुनाव आयुक्तों को याद किया जा सकता है। उनके नेतृत्व में चुनाव आयोग ने कई चुनाव सुधार लागू किए थे, जिनके चलते चुनाव में होने वाली तमाम गड़बड़ियों पर काफी हद तक अंकुश लग गया था। इसलिए लोकतंत्र की मजबूती के लिए आवश्यकता एक साथ चुनाव कराने की नहीं बल्कि चुनाव प्रक्रिया को साफ-सुथरा और पारदर्शी बनाने की है।
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