निन्दक नियरे राखिये, लेकिन, अगर, मगर...
“निन्दक नियरे राखिये", यह मैं नहीं कह रहा हूँ। यह कबीर ने कहा था। कबीर को कबीर ही लिख रहा हूँ, कबीर जी नहीं, नहीं तो कबीर की अवमानना हो जायेगी। तो कबीर ने कहा था, निन्दक नियरे राखिये। उनका कहना था कि जो आपकी आलोचना करे, कमी निकाले, उसे आप अपने करीब रखें। उससे दूर न रहें। यह कबीर ने उन लोगों के लिए कहा था, जिनमें कुछ कमी हो, कुछ निन्दा करने योग्य हो। शायद उनका मानना था कि इससे उनको अपनी कमी जानने और फिर सुधारने की संभावना बनी रहती है।
लेकिन भारत के मीडिया को अब इस बारे में कोई भी गलतफहमी नहीं है। भारत का मीडिया, चाहे वह प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रॉनिक उसे पता है कि उसे कैसे काम करना है। अगर कोई उन्हें झुकाना चाहे तो वे लेट जाते हैं और कोई प्रमाण करने के लिए कहे तो वे साक्षात दण्डवत हो जाते हैं। कहते हैं, पुराना जमाना कुछ और था। बताते हैं कि प्रसिद्ध कार्टूनिस्ट शंकर अपनी पत्रिका में यदि नेहरू पर कार्टून नहीं छापते थे तो नेहरू बेचैन हो जाते थे। इंदिरा गांधी को भी प्रेस पर अंकुश लगाने के लिए इमरजेंसी लगानी पड़ी। पर अब तो बिना इमरजेंसी के ही मीडिया झुका पड़ा है। सर, आप बताइए तो सही कितनी बार सजदा करना है। हम दो चार बार फालतू ही कर देंगे।
"निन्दक नियरे राखिये" ने मुझे अपने बॉस की निन्दा करने के लिए प्रेरित किया। कौन नहीं है जो शासन के नजदीक होना चाहता है। अब शासन की नजदीकी पाने के लिए दो ही काम किये जा सकते हैं। या तो आप शासन की चमचागिरी शुरू कर दें, जो अधिकतर लोग करते हैं, या फिर आलोचना। मुझे लगा मेरा व्यक्तित्व दूसरे काम, यानी आलोचना के लिए अधिक उपयुक्त है। सो मैंने आलोचना शुरू कर दी। पर लगता है आलोचना के लिए गलत बॉस को चुन लिया।
मैंने अपने बॉस को बताया कि उन्होंने क्या गलत कहा। मैंने उन्हें बताया कि तक्षशिला बिहार में नहीं वर्तमान पाकिस्तान में है। यह भी बताया कि सिकंदर को तो पंजाब में ही रोक लिया गया था, वह तो बिहार तक पहुंचा ही नहीं था। बताया कि 1987-88 में न तो लोगों के पास डिजिटल कैमरा था और न ही इंटरनेट। समझाने की कोशिश की कि रामायण और महाभारत साहित्यिक या धार्मिक ग्रन्थ हैं न कि इतिहास या विज्ञान की पुस्तकें। पर उन्हें न मानना था न माने। उनके चमचों ने उन्हें ही सही और सच्चा माना और मुझे धमकाना शुरू कर दिया।
मैंने यह भी बताया कि नोटबंदी से लोगों को नुकसान हुआ, कठिनाई आई। लोगों का काम धंधा ही बंद हो गया। जीएसटी लागू ढंग से नहीं किया गया। उससे भी काम काज पर फर्क पड़ा। गुजारिश की कि धर्म को धर्म ही रहने दो, और कोई काम न दो। तो नियरे पहुंचने की बात तो छोड़ो, चमचे जान लेने की बात करने लगे। मुझे ऐसा लगा कि सर जी ऐसे कोई हैं, जिसमें कुछ भी कमी न हो,कुछ भी निन्दनीय न हो। पर उन जैसे सर्व गुण संपन्न, त्रुटिहीन लोगों के बारे में कबीर ने कभी भी कुछ कहा हो, मुझे ज्ञात नहीं है।
अंतिम बात: ऐसे समर्थ, गुणवान, त्रुटिहीन लोगों के बारे में भले ही कबीर ने कुछ न कहा हो, तुलसीदास जी कह गये हैं "समरथ को नहीं दोष गुसाईं।"
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