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किसानों और सरकारी बैंकों की लूट के लिए नया सौदा तैयार

ऐसे राष्ट्रीयकृत बैंक-एनबीएफसी’’ सौदों के जरिए, सरकार वह हासिल करने की कोशिश कर रही है, जो वह तीन कृषि कानूनों के रास्ते से हासिल नहीं कर पायी है। ऐसे सौदों का वैसे ही भीषण तरीके से तथा वैसी ही एकाग्रता के साथ विरोध किया जाना चाहिए, जिससे कृषि कानूनों का किया गया था। आखिरकार, यह उसी लड़ाई का हिस्सा है। 
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ऋण, भूमि उपयोग को बदलने का शक्तिशाली औजार है और एसबीआई-अडानी सौदा, भूमि उपयोग के पैटर्न में इस तरह का बदलाव करने का ही एक तरीका है। दूसरे शब्दों में, ऐसे ‘‘राष्ट्रीयकृत बैंक-एनबीएफसी’’ सौदों के जरिए, सरकार वह हासिल करने की कोशिश कर रही है, जो वह तीन कृषि कानूनों के रास्ते से हासिल नहीं कर पायी है। ऐसे सौदों को वैसे ही भीषण तरीके से तथा वैसी ही एकाग्रता के साथ विरोध किया जाना चाहिए, जिससे कृषि कानूनों का किया गया था। आखिरकार, यह उसी लड़ाई का हिस्सा है।    

औपनिवेशिक राज के जमाने में किसानों को निजी महाजनों से कर्जे लेने पड़ते थे। प्रोविंशियल बैंकिंग इन्क्वाइरी कमेटी की रिपोर्टों के अनुसार, ये महाजन खुद वाणिज्यिक बैंकों से ऋण लिया करते थे। लेकिन, किसानों को ऋण देने में और उनसे बेहिसाब ब्याज लेने के बीच, ये महाजन कम से कम ऋणदाता का पूरा जोखिम तो अपने ऊपर लेते थे। अगर इन महाजनों से लिया ऋण किसान नहीं चुका पाते थे, तो उसके लिए कम से कम उन बैंकों पर कोई जोखिम नहीं आता था। संक्षेप में यह कि बैंकों को, इन अंतिम ऋण प्राप्तकर्ताओं से कुछ लेना-देना ही नहीं होता था।

अडानी कैपीटल और स्टेट बैंक सौदा क्या है?

लेकिन, अब जो नयी व्यवस्था लायी जा रही है, जिसका उदाहरण अडानी कैपीटल और भारतीय स्टेट बैंक के बीच हुए सौदे के रूप में सामने आया है, को-लैंडिंग यानी साझेदारी में ऋण वितरण की व्यवस्था होगी। इस साझेदारी के ऋण वितरण में, 80 फीसद हिस्सा बैंक देगा और 20 फीसद हिस्सा, किसी नॉन-बैंक फाइनेंस कंपनी (एनबीएफसी) का होगा, जैसे अडानी कैपीटल। जाहिर है कि इस साझेदारी में एनबीएफसी द्वारा ही यह तय किया जा रहा होगा कि किसे ऋण दिया जाए तथा किन शर्तों पर ऋण दिया जाए, हालांकि आशा की जाती है कि इसमें भी भारतीय रिजर्व बैंक के दिशानिर्देशों से निकलने वाले कुछ अंकुश तो काम कर ही रहे होंगे। 

दूसरी ओर, अगर अंतिम ऋण प्राप्तकर्ता ऋण चुकाने में विफल हो गया, तो इसका नुकसान बैंक तथा एनबीएफसी दोनों मिलकर उठाएंगे। संक्षेप में यह कि बैंक ऋण देने का जोखिम तो उठा रहे होंगे लेकिन, अंतत: ऋण किसे दिया जाता है, इसमें उनका कोई दखल नहीं होगा। जाहिर है कि अगर इसे तय करने में बैंक का दखल हो, तब तो यह सीधे-सीधे बैंक तथा ऋण लेने वाले, दो पक्षों के बीच ही लेन-देन का मामला हो जाएगा और किसी को-लैंडिंग या ऋण वितरण साझेदारी की कोई जरूरत ही नहीं रहेगी।

संक्षेप में यह कि एनबीएसफसी, औपनिवेशिक जमाने के महाजनों के मुकाबले कहीं फायदे की स्थिति में रहने जा रहे हैं। इस व्यवस्था में वे यह तय तो करेंगे कि किसे ऋण दिया जाए तथा किन शर्तों पर ऋण दिया जाए, लेकिन यह करते हुए भी उन्हें उस तरह का जोखिम उठाना ही नहीं पड़ रहा होगा, जैसा जोखिम औपनिवेशिक जमाने के महाजनों को उठाना पड़ता था। दूसरी ओर, इस मामले में बैंक, औपनिवेशिक जमाने में बैंकों की जो स्थिति होती थी, उससे बदतर या घाटे की स्थिति में होंगे। अंतिम ऋणप्राप्तकर्ता कौन होगा, यह तय करने में तो बैंकों का कोई दखल नहीं होगा लेकिन, ऋण देने का ज्यादातर जोखिम बैंकों को ही उठाना पड़ेगा।

मोदी सरकार ने एक ही झटके में अपने पूंजीपति आकाओं को, जोकि एनबीएफसी संस्थाओं के मालिक हैं, उपकृत कर दिया है। अब उनका कारोबार तेजी से फैलेगा और उनके मुनाफे तेजी से ऊपर चढ़ेंगे, जबकि इस सब में उन्हें कोई खास जोखिम भी नहीं उठाना पड़ेगा। और यह उपहार दिया जा रहा है, राष्ट्रीयकृत बैंकों की कीमत पर, जिन्हें पहले ही जमीन चटायी जा रही है, जिसका जाहिर है कि इस सरकार को कोई अफसोस नहीं है। पहले ही, इसकी योजनाएं तैयार की जा रही हैं कि राष्ट्रीयकृत बैंकों के जोखिम का बोझ, उनके जमाकर्ताओं पर ही डाला जाए और अगर ऐसा होता है तो उसके बाद, इन बैंकों के घाटों की भरपाई करने के लिए, सरकार को अपने बजट से एक पैसा भी नहीं लगाना पड़ेगा। और अगर ये घाटे ज्यादा बढ़ जाएं तो, यह सरकार मुफ्त में ही इन बैंकों का निजीकरण कर सकती है। इसके लिए वह तो पहले से तैयार ही बैठी हुई है और सार्वजनिक बैंकों का घाटा बढऩे से, उसे निजीकरण करने का एक अच्छा बहाना मिल जाएगा।

साझेदारी या लूट का मौका

अब जबकि यह सब किया जा रहा है, इससे उठने वाला एक स्वाभाविक सवाल अब भी अनुत्तरित ही है कि ऐसा किया क्यों जा रहा है? इस तरह की व्यवस्था से न तो किसानों को, न एमएसएमई को और न ही राष्ट्रीयकृत बैंकों को; किसी को भी रत्तीभर फायदा होने वाला नहीं है। हां! एनबीएफसी के पूंजीपति मालिकान की बात अलग है। बाकी सब कोई भी लाभ होने के सवाल का जवाब एक जोरदार नहीं ही है। अब तक तो सरकार की ओर से ऐसा कोई प्रवक्ता सामने आया नहीं है, जो किसी वैध तर्क से इस नहीं को गलत साबित कर सकता हो।

अडानी कैपीटल के साथ इस को-लैंडिंग के सौदे के पक्ष में भारतीय स्टेट बैंक की आधिकारिक दलील यही है कि इससे अपना, ‘ग्राहक-आधार बढ़ाने में और देश के कृषि समुदाय से, जिस तक समुचित रूप से सेवाएं नहीं पहुंच रही हैं, जुड़ने में और भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के विकास में और मदद करने में’ सहायता मिलेगी। लेकिन, यह दलील पूरी तरह से हास्यास्पद है। भारतीय स्टेट बैंक, एक विशालकाय बैंक है। यह देश का सबसे बड़ा बैंक है। देश भर में भारतीय स्टेट बैंक की 22,000 शाखाएं हैं, जबकि अडानी कैपीटल की कुल करीब 60 शाखाएं हैं। भारतीय स्टेट बैंक में किसानों के 1.4 करोड़ खाते हैं और उसका 2 लाख करोड़ रु किसानों पर बकाया है। जबकि अडानी कैपीटल में ऐसे कुल 28,000 खाते हैं और उसका 1,300 करोड़ रु का कर्ज किसानों पर है। इसे देखते हुए यह कहना कि अडानी कैपीटल के साथ हाथ मिलाने से, ‘भारतीय स्टेट बैंक  को ग्राहक आधार को बढ़ाने में मदद मिलेगी’, जो अन्यथा वह स्वयं नहीं कर सकता था (वर्ना को-लैंडिंग के सौदे की जरूरत ही क्या थी), कुछ ऐसा ही है जैसे कोई कहे कि इसरो को, शिवकाशी पटाखा निर्माताओं के साथ समझौता करने की जरूरत है, ताकि वह अपनी रॉकेट दागने की क्षमता को और बढ़ा सके!

वास्तव में इस सौदे को सार्वजनिक-निजी साझेदारी कहना भी, साझेदारी के अर्थ को कुछ ज्यादा ही खींचना है। हालांकि, ऐसी सभी सार्वजनिक-निजी साझेदारियों की पहचान यही है कि उनमें निजी क्षेत्र मुनाफा बटोरता है, जबकि सार्वजनिक क्षेत्र सारा जोखिम उठाता है।  फिर भी ऐसे सौदों में भी निजी क्षेत्र कम से कम कुछ तो लगा रहा होता है। ऐसे किसी सौदे में निजी क्षेत्र जो लगाता है, उसे भले ही हम बहुत वजन न दें, फिर भी वह सौदे में कम से कम खाली हाथ तो नहीं आता है। लेकिन, इस मामले में तो उतना भी नहीं है। इस मामले में अडानी कैपीटल, एसबीआई  के साथ सौदे में कुछ भी अपनी ओर से नहीं लगा रहा है। यह सौदा तो सीधे-सीधे इसी बात का है कि भारतीय स्टेट बैंक, अपने वित्तीय संसाधनों से अडानी कैपीटल की मदद करेगा और वही ऋणदाता के हिस्से का जोखिम भी उठाएगा। इस सब में भारतीय स्टेट बैंक को तो कुछ नहीं मिलेगा, पर अडानी कैपीटल को अपना कारोबार बढ़ाने का मौका मिल जाएगा।

सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के एक बैंक का इस्तेमाल इस तरह किया जा रहा है, जैसे वह उसकी निजी जागीर का हिस्सा हो। यह भारतीय स्टेट बैंक के लिए शर्मनाक है कि उसने दरबारी पूंजीवाद के ऐसे खेल के आगे समर्पण कर दिया है। और यह भारतीय रिजर्व बैंक के लिए भी बहुत ही शर्मनाक है कि उसने ऐसे सौदे के लिए अपनी मंजूरी दे दी है, जबकि उसके ऊपर देश के बैंकिंग क्षेत्र पर कुल मिलाकर नजर रखने की जिम्मेदारी है। लेकिन, हम भारतीय स्टेट बैंक के बोर्ड से और अपेक्षा भी क्या कर सकते हैं, जिसकी अध्यक्ष खुद, सेवानिवृत्ति के बाद अंबानियों की नौकरी में लग गयी, लेकिन उससे पहले वह स्टेट बैंक की ओर से अंबानी की कंपनी के साथ एक सौदे के लिए रजामंदी दे गयी, जिसमें अंबानी की कंपनी का फायदा ही फायदा है।

कृषि कानून नहीं चले तो खेल वही, चाल दूसरी

बहरहाल, यह सिर्फ दरबारी पूंजीवाद या भीमकाय कार्पोरेट खिलाडिय़ों के स्वामित्व वाली एनबीएफसी को फायदा पहुंचाने का ही मामला नहीं है। जिन कृषि कानूनों को अब रद्द किया जा चुका है, उनका एक प्रमुख लक्ष्य था, देश में कृषि भूमि के उपयोग के पैटर्न को, खाद्यान्न उत्पादन से हटाकर दूसरी ओर मोडऩा। यह विकसित देशों की पुरानी मांग रही है, जिसे कार्पोरेट-वित्तीय कुलीन तंत्र द्वारा और अनेक साम्राज्यवादपरस्त अर्थशास्त्रियों द्वारा वफादारी के साथ दोहराया जाता रहा है। विकसित देशों द्वारा इस मांग के उठाए जाने के पीछे मकसद यही है कि हम खाद्यान्न पैदा करने वाले अपने खेतों के बढ़ते हिस्से को, ऐसी फसलें पैदा करने की ओर मोड़ें जो या तो इन देशों में पैदा हो ही नहीं सकती हैं या पूरे साल पैदा नहीं हो सकती हैं। दूसरी ओर, विकसित देशों का पास जरूरत से ज्यादा खाद्यान्न पैदा हो रहा है और वे अपने इस फालतू अनाज को, उक्त पैदावारों के बदले में तीसरी दुनिया के देशों को बेचना चाहते हैं। घरेलू कारपोरेट-वित्तीय कुलीन तंत्र की इसमें इसलिए दिलचस्पी है कि जब तक देश के किसानों द्वारा पैदा किया जा रहा खाद्यान्न, सरकार द्वारा पूर्व-घोषित सुनिश्चित दाम पर खरीदा जा रहा है तथा उसका सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए वितरण हो रहा है, कृषि के क्षेत्र में घुसपैठ कर के कार्पोरेट खिलाडिय़ों द्वारा मुनाफे बटोरे जाने के मौके, सीमित ही बने रहेंगे।

इसलिए, अचरज की बात नहीं है कि यह ऐसा मुद्दा है जिस पर साम्राज्यवाद के हित और घरेलू कार्पोरेट-वित्तीय कुलीन तंत्र के हित, एक हो जाते हैं। और ऐसे अर्थशास्त्रियों की कोई कमी नहीं है जो उनके हितों को आगे बढ़ाने के लिए यह मांग करते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था को खत्म किया जाए, न्यूनतम समर्थन मूल्य पर किसानों से सरकारी खरीद की व्यवस्था को खत्म किया जाए। वे किसानों को इसकी सलाह भी देते रहते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन से हटकर, दूसरी पैदावारों पर चले जाएं।

उक्त तीन कृषि कानून, मोदी सरकार की ओर से इसकी नंगी कोशिश थे कि मौजूदा कृषि व्यवस्था को, जो कि देश के लिए खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित करती है, उसी दिशा में बदला जाए। किसानों के अनम्य तथा गौरवपूर्ण प्रतिरोध के सामने उक्त कानूनों को सरकार जो वापस लेना पड़ा है, उससे अंतर्राष्ट्रीय कृषि व्यवसाइयों के सामने और अपने घरेलू कार्पोरेट समर्थकों के भी सामने, सरकार को नीचा देखना पड़ा है। अब उसकी इच्छा दूसरे उपायों का सहारा लेकर, देश में फसलों के उत्पादन के पैटर्न तथा इसलिए भूमि उपयोग के पैटर्न को बदलने की है। और घरेलू कारपोरेट-वित्तीय कुलीन तंत्र के स्वामित्व वाले एनबीएफसी के जरिए, सरकार के संस्थागत ऋणों के वितरण को, ऐसा ही एक उपाय बनाया जाएगा।

औपनिवेशिक ढंग की व्यवस्था के पुनर्जीवन का खेल

इस मामले में भी हमारा सामना, औपनिवेशिक शैली की व्यवस्था के ही पुनर्जीवित किए जाने से हो रहा है। चूंकि उपनिवेवादी जमाने में भूमि का लगान खास समय पर तथा खास तारीखों को देना होता था, किसानों को राजस्व भरने के लिए ऋण लेने पड़ते थे। और व्यापारी, जो ज्यादातर ईस्ट इंडिया कंपनी के ही एजेंट होते थे, उन्हें अग्रिम भुगतान के रूप में इस शर्त पर ऋण देते थे कि वे खास फसलें पैदा करेंगे और इन एजेंटों को पहले से तय कीमतों पर बेचेंगे। इसी तरह से भारत में अफीम और नील जैसी फसलों की पैदावार को बढ़ावा दिया गया था।

संक्षेप में यह कि ऋण, भूमि उपयोग को बदलने का शक्तिशाली औजार है और एसबीआई-अडानी सौदा, भूमि उपयोग के पैटर्न में इस तरह का बदलाव करने का ही एक तरीका है। दूसरे शब्दों में, ऐसे राष्ट्रीयकृत बैंक-एनबीएफसी’’ सौदों के जरिए, सरकार वह हासिल करने की कोशिश कर रही है, जो वह तीन कृषि कानूनों के रास्ते से हासिल नहीं कर पायी है। ऐसे सौदों का वैसे ही भीषण तरीके से तथा वैसी ही एकाग्रता के साथ विरोध किया जाना चाहिए, जिससे कृषि कानूनों का किया गया था। आखिरकार, यह उसी लड़ाई का हिस्सा है।

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