आस्था का श्राद्धः बनारस में सियासी मुनाफ़े के लिए बीजेपी सरकार ने "हाईजैक" कर ली देव-दीपावली
उत्तर प्रदेश के वाराणसी में दशकों से आयोजित हो रहे लोकपर्व को सरकार ने अब “हाईजैक” कर सरकारी इवेंट बना लिया है। पहले यह पर्व एक जन-अभियान था, अब मेगा इवेंट और सियासी हित साधने का बड़ा औजार है। देव-दीपावली लोकपर्व अब जनता का नहीं, डबल इंजन सरकार का है।
बनारस में सोमवार (07 नवंबर) की शाम गंगा घाटों के पार रेती पर जमकर आतिशबाजी हुई और सभी घाटों पर दीपक भी जले, लेकिन डेंगू से कराहते मरीजों की फ़िक्र किसी नेता और अफसर में नहीं दिखी। देव-दीवापली के मौके पर पुलिस प्रशासन ने ट्रैफिक कंट्रोल करने के लिए जो फार्मूला आजमाया वह जनसुविधा के लिए नहीं, अफसरों की अपनी सुविधा के मुताबिक थी। नतीजा, अस्सी घाट पर शाम करीब आठ बजे इतनी भीड़ उमड़ी की प्रशासन के सारे इंतजाम धरे के धरे रह गए। गनीमत यह रही कि इलाकाई लोगों ने स्थिति को संभाला और बड़े हादसे को टाल दिया। सुरक्षा मुहैया कराने के नाम पर शहर के पक्के महाल और घाटों पर पुलिस का रवैया बेहद चिंता पैदा करने वाला रहा। दीया-बाती और तेल में घपले घोटाले भी हुए, जिसके चलते कई जगहों पर हंगामा भी बरपा। कई समितियों ने तो सरकारी तेल और दीया-बाती ही लेने से मना कर दिया। पहले की तरह ही सारा इंतजाम खुद किया और दीपक जलाया।
देव-दीपावली के मौके पर आयोजित सरकारी इवेंट को लेकर कई गंभीर सवाल खड़े हुए हैं। बनारस के चिंतकों, लेखकों और प्रबुद्धजनों ने जन-अभियान को “हाईजैक” किए जाने पर खासी नाराजगी जताई है। काशी पत्रकार संघ के पूर्व अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप श्रीवास्तव कहते हैं, "देव दीपावली का लोकपर्व बनारस के लोगों ने शुरू किया था। पंचगंगा घाट से शुरू इस पर्व का जश्न देखते ही देखते फैलता चला गया। इधर, पांच साल पहले भाजपा ने इस लोक पर्व का अपहरण कर लिया। अब वो इसे इवेंट बनाकर भुनाने में जुटी है। इसमें सरकार भी घुस गई है और प्रशासन भी। एक दौर वो भी था जब देव-दीपावली बनारस की सनातन आस्था और लोक परंपरा का संगम हुआ करती थी, जो अब तमाशे में तब्दील हो गई है। इसके जरिये विशुद्ध रूप से राजनीतिक हित साधा जाने लगा है।"
'आस्था का श्राद्ध'
प्रदीप कहते हैं, "किसी भी लोक परंपरा का श्राद्ध करना हो तो उस कार्यक्रम को सरकारी बना दीजिए। ऐसे किसी भी कार्यक्रम में जब सरकार घुसती है तो लोक परंपरा का क्षरण शुरू हो जाता है। सरकारी धन से भव्यता और संसाधन में भले ही इजाफा हो जाता है, लेकिन आयोजन की मूल आत्मा छिजने लगती हैं। इस बार की देव-दीपावली को देखकर लगा कि बनारसी मौज-मस्ती का अलौकिक मर्म इस शहर से गुम होने लगा है। देव-दीपावली में आतिशबाजी और लेजर शो का जिस तरह से तड़का लगाया गया, उसे इस लोकपर्व के क्षरण की शुरूआत हो गई है। देव-दीपावली के मौके पर पहले टीचरों और सरकारी कमर्चारियों की ड्यूटी नहीं लगाई जाती थी। बनारस लोग खुद दीया-बाती का इंतजाम करते थे और जलाते भी थे। परंपरा के विपरीत घाटों पर अब झालर बत्ती लगाई जाने लगी। आतिशबाजी का नया दौर शुरू हो गया है। यह सब राजनीतिक मुनाफे के लिए किया जा रहा है, क्योंकि लोकसभा का अगला चुनाव साल 2024 में आने वाला है।"
वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप कहते हैं, "बनारस में गंगा दिनों-दिन मैली होती जा रही है और सरकार का जोर पुख्ता काम पर कम, इवेंट पर ज्यादा है। अगर ऐसा नहीं होता तो वाराणसी को पहचान देने वाली वरुणा और असी नदियों की दुर्गति नहीं होती। दोनों नदियों को डबल इंजन की सरकार ने उनके हाल पर छोड़ दिया है। इन नदियों पर कोई दीपक जलाने और इवेंट करने के लिए तैयार नहीं है। दोनों नदियों पर कार्यक्रम होना चाहिए, जनता के जरिये भी और सरकार द्वारा भी। देव-दीपावली पर दोनों नदियां उपेक्षित रहीं। सिर्फ वरुणा पुल के रेलिंग पर ही झालरों की सजावट की गई थी। बाकी पूरी नदी गंदी और उपेक्षित नजर आई। वरुणा और असी वो नदिया हैं जिसे बनारस के लोग गंगा की सगी बहनें मानते हैं। ये दोनों नदियां नहीं होती तो शायद वाराणसी का अस्तित्व भी नहीं होता। भाजपा सरकार ने देव-दीपावली को भले ही “हाईजैक” कर लिया है, लेकिन कोई नया काम नहीं किया है। अस्सी और वरुणा नदी के मुहाने पर समूचे शहर की गंदगी आज भी गंगा में गिर रही है। बनारस की नदियों के संरक्षण के लिए जो मुहिम चलनी चाहिए, वो आज तक शुरू नहीं हो सकी। यह स्थिति तब है जब साल 2014 में पीएम नरेंद्र मोदी ने कहा था कि मैं आया नहीं हूं। मुझे तो गंगा मैया ने बुलाया है।"
पुरानी है लोकपर्व की यात्रा
लोकपर्व देव-दीपावली के दिन बनारस के सभी अखबार रंगे हुए नजर आए। सीनियर कल्चरल रिपोर्टर अरविंद मिश्र दैनिक हिन्दुस्तान में देव-दीपावली का इतिहास लिखते हुए कहते हैं, "काशी में देव-दीपावली की लोकयात्रा काफी पुरानी है, जो कई बार खंडित हुई है। देव-दीपावली की दोबारा शुरुआत साल 1780 में हुई। बाद में महारानी अहिल्याबाई ने इस उत्सव को शुरू कराया। एक दौर ऐसा भी आया जब अंग्रेजों के दमन ने बनारस के लोगों का जीना दूभर कर दिया। रोजी-रोटी के लिए त्राहिमाम कर रहे लोगों से अनायास ह यह उत्सव छूट गया, लेकिन बनारस के जनमानस की कसक जनमानस नहीं मिटी। काशीनरेश डा.विभूति नारायण सिंह जूदेव ने साल 1986 में काशी के पंचगंगा घाट पर तीसरी मर्तबा देव-दीपावली की लोक परंपरा शुरू कराई। इस परंपरा को आगे बढ़ाने के लिए मंगला गौरी मंदिर के महंत नारायण गुरु ने साल 1987 में मुहिम चलाई। उन्होंने कुछ बच्चों को जुटाया। उस समय दसवीं के स्टूडेंट वागीश को टोली नायक बनाकर सिंधिया घाट का जिम्मा सौंपा और खुट जटार घाट की जिम्मेदारी संभाली।"
"बाल मंडली के दूसरे सदस्य बब्बी गुरु को मान मंदिर घाट, राकेश कसेरा को मुंशी घाट, राजेश यादव को अहिल्याबाई घाट और शशि श्रीवास्तव को शिवाला का जिम्मा सौंपा। पांचों टोलियां अपने मोहल्लों में लोटा, गिलास, कटोरी लेकर घर-घर घूमने लगीं। किसी ने एक तो किसी ने चार कटोरी तेल दिया। कुछ परिवारों से घी भी मिला। दीयों के लिए घर-घर हाथ फैलाए। ज्यादातर घरों से दस से 25 पैसे मिलते रहे। कुछ दिलदार लोगों ने बाल मंडली का हौसला बढ़ाने के लिए एक और दो रुपये भी दिए। इस तरह साल 1987 में पांच नए घाटों पर देव-दीपावली मनाई जाने लगी। धीरे-धीरे देव-दीपावली मनाने वाले घाटों की संख्या बढ़ती गई। साल 1995 तक करीब चार दर्जन घाटों ने इस लोक परंपरा का विस्तार पा लिया।"
पत्रकार अरविंद मिश्र लिखते हैं, "वागीश अब आचार्य वागीशदत्त मिश्र के रूप में केंद्रीय देव-दीपावली महासमिति की कमान संभाल रहे हैं। बब्बी गुरु की पहचान संस्कृति कर्मी की है। राकेश कसेरा अपना पुश्तैनी काम संभाल रहे हैं। राजेश यादव का संघर्ष अब भी जारी है। वह साड़ी की दुकान पर सेल्समैन हैं। शशि श्रीवास्तव गंगा पर शोधकर्ता के रूप में कार्य कर रहे हैं। देव-दीपावली लोकपर्व को ज्यादा लोकप्रियता तब से मिलने लगी जब गंगा सेवा निधि ने कारगिल युद्ध के बाद शहीदों के सम्मान में काशी में आकाशदीप और गंगा आरती के आयोजन को विशेष भव्यता दी। पहली बार गंगा किनारे इंडिया गेट बना और अमर जवान ज्योति की प्रतीक ज्योति प्रज्वलित की गई। यही वह साल था जब देव-दीपावली को पहली मर्तबा राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति मिली।"
भाजपा की घुसपैठ
पिछले तेईस सालों में लोकपर्व देव-दीपावली में बहुत बदलाव आया है। 21वीं सदी के पहले के दशक में सियासी हस्तियां गंगा आरती और देव-दीपावली में शामिल होने लगीं, तब इसे दुनिया भर में ज्यादा ख्याति मिलने लगी। इस लोक पर्व की बढ़ती लोकप्रियता ने पर्यटन विभाग को मजबूर कर दिया कि वो इसे अपने टूर मैप में शामिल करे। वरिष्ठ पत्रकार अमित मौर्य कहते हैं, "भारतीय जनता पार्टी ने देश के सबसे बड़े लोक पर्व को अपना बनाने के लिए पांच साल पहले ही घुसपैठ शुरू कर दी थी। आरएसएस के लोग तभी से गंगा तट और तालाब व कुंडों को रौशन करने के लिए दीपक और तेल बांटने लगे थे। इसी बीच पर्यटन विभाग ने इस लोक पर्व का पूरी तरह सरकारीकरण करते हुए इसे अपना आयोजन बताना शुरू कर दिया। बनारस की जनता ने जब कोई विरोध नहीं किया तो इसे पूरी तरह “हाईजैक” कर लिया गया। मौजूदा समय में देव-दीपावली यूपी का सबसे बड़ा उत्सव है। देसी-विदेशी पर्यटक इस लोकपर्व की एक झलक पाने के लिए मचलते नजर आते हैं। मौजूदा समय में इस पर्व का बाजार करीब दो हजार करोड़ रुपये का है।"
पत्रकार मौर्य यह भी कहते हैं, "देव-दीपावली पर बनारस शहर के लोगों को सुरक्षा देने के नाम पर सरकारी मशीनरी ने बनारसियों की मौज-मस्ती छीन ली है। पुलिस अफसर जनता के सुविधाओं की अनदेखी करते हुए ट्रैफिक डायवर्जन का जन-विरोधी फार्मूला अपनाने लगे हैं। इस बार भी ऐसा ही हुआ। ट्रैफिक नियंत्रण के लिए मनमाने तरीके अपनाए गए। नतीजा, देव-दीवापली के दिन लाखों लोगों को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
गंगा के घाट खचाखच भरे हुए थे और लाखों लोगों के आने-जाने का सिलसिला जारी रहा। भारी भीड़ के चलते पुलिस का सारा ट्रैफिक प्लान ध्वस्त हो गया। अस्सी घाट पर बढ़ती भीड़ के चलते काफी देर तक धक्का-मुक्की की स्थिति रही। महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग चीखते-चिल्लाते रहे। गनीमत रही कि स्थानीय लोगों ने साहस का परिचय देते हुए कोई अनहोनी नहीं होने दी। हालांकि भैसासुर घाट पर भीड़ की चलते रेलिंग टूट गई और कई लोग जख्मी भी हुए। दरअसल, वाराणसी कमिश्नरेट पुलिस आयुक्त ए.सतीश गणेश ने क्राउड मैनेजमेंट का जो फार्मूला अपनाया वह जनता सुविधा के हिसाब से नहीं, अपनी सुविधा और अपनी नौकरी को बचाने के लिए किया।"
देव-दीपावली को इवेंट बनाने के लिए सरकार ने जब से अपना हाथ आजमाना शुरू किया है तब से घपले-घोटाले भी शुरू हो गए हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, साल 2021 में देव-दीपावली के मौके पर जनता के बीच बांटने के लिए 12.50 लाख दीये और 2500 टिन सरसो के तेल (15 किग्रा वाला) खरीदकर बांटे गए थे। प्रदेश सरकार ने इस साल भी बजट में कोर्ई कमी नहीं की, लेकिन अबकी आठ सिर्फ लाख दीये ही वितरित कराए गए। मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, इन दीयों को लेकर घपला तब सामने आया जब चार लाख दीये मानक से छोटे और खराब निकल गए। देव-दीपावली समितियों ने इन दीयों को लेने से साफ मना कर दिया। इस बार 15 लीटर वाले 1400 टीन सरसों के तेल खरीदे जा सके।
पिछले साल मछोदरी कुंड के लिए 10 हजार दीये और आठ टिन सरसो का तेल दिया गया था। अबकी मछोदरी कुंड महासमिति को सिर्फ दो टिन तेल और तीन हजार दिये दिए गए तो तो आयोजकों ने पर्यटन विभाग को लौटा दिया। लहुराबीर स्थित महामंडल नगर पोस्ट आफिस के पास दीपक और तेल बांटे जाने को लेकर काफी देर तक जमकर हंगामा होता रहा। देव-दीपावली मनाने के लिए पिछले दो सालों में पर्यटन विभाग को शासन से कितनी धनराशि मिली और किस मद में कितनी खर्च हुई? इसका ब्योरा देने के लिए कोई अफसर तैयार नहीं है।
नेताओं-अफसरों के लिए रेड कार्पेट
वाराणसी जिला प्रशासन के आंकड़ों को सच मानें तो अबकी बनारस के घाटों को 10 लाख दीयों से रौशन किया गया। नेताओं और अफसरों के लिए नमो घाट पर रेड कार्पेट बिछाए गए तो वाराणसी के चेतसिंह घाट पर थ्री डी प्रोजेक्शन मैपिंग और लेजर शो का आयोजन किया गया। यही नहीं, विश्वनाथ मंदिर के सामने गंगा पार रेती पर ग्रीन आतिशबाजी की गई। मंदिर की दीवारों पर लाइट एंड साउंड का कार्यक्रम आयोजित किया गया। बनारस के सभी रेलवे स्टेशनों के अलावा एयरपोर्ट पर रंगोली सजाई गई और बिजली के फसाड व रंग-बिरंगी लड़ियों से प्रमुख स्थानों को रौशन किया गया।
देव-दीपावली के लिए लेजर शो और आतिशबाजी के लिए सरकारी खर्च पर बुलाए गए डोम इंटरटेनमेंट प्राइवेट के हेड ऑफ ऑपरेशन संजय प्रताप सिंह कहते हैं, "हमने आतिशबाजी के साथ बजाने के लिए एक विशेष संगीत ट्रैक बनाया था। गंगा के किनारे संगीत की धुन के साथ आतिशबाजी ने अपना अलग रंग बिखेरा। आतिशबाजी और थ्रीडी लेजर शो के लिए हमें पर्यटन विभाग ने ठेका दिया था। हमारी कंपनी पहले फिल्म फेयर अवार्ड, ज़ी सिने अवॉर्ड, स्टार सिने अवार्ड में इस तरह का कार्यक्रम आयोजित कर चुकी है।" खासबात यह है की आतिशबाजी करने के लिए डोम इंटरटेनमेंट प्राइवेट ने अपने सौ से अधिक कर्मचारी लगाए थे, वहीं प्रशासन ने दीपक जलाने के लिए कई दिन पहले हजारों शिक्षकों की तैनाती कर रखी थी।
काशी विश्वनाथ मंदिर के पूर्व महंत राजेंद्र तिवारी लोक पर्व देव-दीपावली के नए रंग-रूप और इवेंट से आहत हैं। वह कहते हैं, "वैश्विक ख्याति दिलाने वाली देव-दीपावली को डबल इंजन की सरकार द्वारा “हाईजैक” कर इवेंट में बदला जाना ठीक नहीं है। लोक परंपरा का अपहरण कर भाजपा ने इसे जिस तरह का इवेंट बनाया है और पानी की तरह पैसा फूंका है वह श्रद्धा का श्राद्ध करने जैसी बात है। देव-दीपावली आस्था का लोकपर्व है। सरकारी इवेंट के जरिये श्रद्धा का श्रद्ध किया जाना अनुचित है। रंग-बिरंगी लड़ियों और फसाड की चकाचौध से खांटी बनारसी खासे मर्माहत हैं। भाजपा नगाड़ा पीट रही है कि ऐसा इवेंट आज तक कोई नहीं करा पाया। यह तो आस्था का बाजारीकरण और खाटी बनारसियों के मूल पर प्रतिघात है।"
बनारस में कराह रही वरुणा और असी नदियों के हाल पर चिंता जताते हुए महंत राजेंद्र तिवारी कहते हैं, "काश, नौकरशाही दोनों नदियों की धड़कनों को बचाने पर यही धन खर्च कर दी होती तो बनारस की जतना सरकार का जयजयकार करती। गंगा की तरह वहां भी दीप जलवाती और दोनों नदियों की परंपरा व पहचान को जिंदा रखने की कोशिश करती। गंगा में गिरने वाले मल-जल रोकती। बनारस का हर प्रबुद्ध व्यक्ति जानता है कि देव-दीपावली के मेगा इवेंट का निहितार्थ है साल 2024 में होने वाला लोकसभा चुनाव।"
पूर्व महंत राजेंद्र यहीं नहीं रुकते। वह कहते हैं, "बनारस में डेंगू महामारी का रूप लेता जा रहा है। लोग मर रहे हैं और सरकार तमाशे में लगी हुई है। सरकारी और गैर-सरकारी अस्पताल तो डेंगू के मरीजों से खचाखच भरे पड़े हैं। लोगों की जानें जा रही हैं। आप ऐसे समय में जश्न मना रहे हैं और सरकारी धन लुटा रहे हैं जब बनारस के लोग तिल-तिलकर मर रहे हैं। बाबतपुर एयरपोर्ट के ट्रैफिक कंट्रोल विभाग के प्रबंधक श्रवण कुमार (32) की शनिवार की रात डेंगू ने जान ले ली। डेंगू के मच्छरों ने बनारस में कई औरतों की विधवा किया है और कई औरतों से उनके बेटे छीने हैं। मगर अफसोस यह है कि कि डेंगू के इलाज के लिए न बेड है, न दवाएं हैं और न ही प्लेटलेट्स मौजूद हैं। गौर करने की बात यह है कि कोई भी समारोह और कोई भी परंपरा चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो वह जन से ही खड़ी होती है। किसी भी लोकपर्व का सारा श्रृंगार जनता से ही है। इस समय जन संकट में है और डेंगू से बेहाल लोग दम तोड़ते जा रहे हैं। लगता है कि भाजपा सरकार को जनता से नहीं, अपने इवेंट के सियासी मुनाफे से मतलब है। ऐसे में आस्था और परंपरा कहां जिंदा रहेगी? यह तो राष्ट्र और आस्था दोनों पर प्रहार है।"
(विजय विनीत वरिष्ठ पत्रकार हैं।)
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