Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

संसद का विशेष सत्र: महिला आरक्षण बिल की मांग पर विपक्ष एकजुट

आरोप है कि 2014 चुनावों से पहले महिला आरक्षण बिल को पारित करने का वादा करने वाली मौजूदा बीजेपी सरकार अब इस पर अपनी प्रतिबद्धता नहीं दिखा रही है।
women's reservation bill
प्रतीकात्मक तस्वीर। फ़ोटो साभार : PrepLadder

देश में एक बार फिर महिला आरक्षण बिल चर्चा में है, कारण यह है कि विपक्ष, संसद के विशेष सत्र के दौरान लोकसभा में इस विधेयक को पारित करने की मांग कर रहा है, जो अभी तक दशकों से अधर में लटका है। विशेष सत्र से पहले आयोजित सर्वदलीय बैठक में भी विपक्ष की सभी पार्टियों ने एकजुट होकर इस बिल के लिए आवाज़ उठाई। हालांकि सत्ताधारी मोदी सरकार फिलहाल इस बिल को लेकर अपने विचार स्पष्ट नहीं कर रही। सर्वदलीय बैठक के बाद जहां कांग्रेस, बीजेडी समेत तमाम दलों के नेताओं ने आधी आबादी को 33 फ़ीसदी आरक्षण देने की बात पर ज़ोर दिया, तो वहीं संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने कहा कि महिला आरक्षण विधेयक को पारित करने को लेकर "उचित समय पर उचित निर्णय" लिया जाएगा।

विपक्ष का आरोप है कि केंद्र की मोदी सरकार बार-बार महिला हितैषी फैसले लेने का दावा तो करती है, लेकिन जब भी बात महिला आरक्षण बिल की सामने आती है, तो चुप्पी साध लेती है। साल 2010 में अरुण जेटली राज्य सभा में नेता प्रतिपक्ष थे और सदन से महिला आरक्षण बिल के पास होने पर उन्होंने इसे अपने लिए गर्व और सम्मान का ऐतिहासिक पल कहा था। पूर्व विदेश मंत्री सुषमा स्वराज उस समय लोकसभा में विपक्ष की नेता थीं, वे इस बिल की सबसे प्रमुख पैरोकारों में एक थीं लेकिन आज 2023 में ये विडंबना ही है कि उनकी पार्टी बीजेपी दूसरी बार सत्ता में भारी बहुमत से काबिज़ है लेकिन महिला आरक्षण के सवाल पर प्रतिबद्धता नज़र नहीं आ रही।

एक नज़र महिला आरक्षण बिल के अब तक के सफर पर..

पहली बार साल 1996 में महिला आरक्षण बिल को एच.डी. देवगौड़ा के नेतृत्व वाली सरकार ने 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में संसद में पेश किया था। लेकिन देवगौड़ा की सरकार बहुमत से अल्पमत की ओर आ गई थी, जिस कारण यह विधेयक पास नहीं कराया जा सका।

इसके बाद साल 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने लोकसभा में फिर से यह विधेयक पेश किया। लेकिन गठबंधन की सरकार में अलग अलग विचारधाराओं की बहुलता के चलते इस विधेयक को भारी विरोध का सामना करना पड़ा। साल 1999, 2002 और 2003 में इस विधेयक को दोबारा लाया गया लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।

फिर आया साल 2008 , जब मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार ने लोकसभा और विधानसभाओं में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण से जुड़ा 108वां संविधान संशोधन विधेयक संसद के उच्च सदन राज्यसभा में पेश किया जिसके दो साल बाद साल 2010 में तमाम तरह के विरोधों के बावजूद यह विधेयक राज्यसभा में पारित करा दिया गया। लेकिन लोकसभा में सरकार के पास बहुमत होने के बावजूद यह पारित न हो सका।

दो बार सत्ता पर भारी बहुमत से काबिज़ बीजेपी, फिर भी पास नहीं हुआ बिल

साल 2014से लेकर अब तक बीजेपी दो बार सत्ता पर भारी बहुमत से काबिज़ हुई है लेकिन ये विधेयक उसकी प्राथमिकता में कभी नज़र नहीं आया। ऐसा लगता है मानो, ये सरकारी पन्नों में कहीं खो गया है जिसकी ज़रूरत पुरुषप्रधान राजनीति में महसूस नहीं की गई। महिला आरक्षण बिल को राज्यसभा में पेश किए जाने के कारण यह विधेयक अभी भी जीवित है जिसमें मौजूदा केंद्र सरकार चाहे तो बहुत ही आसानी से इसे पास करा सकती है।

बीते साल 2022 में भी राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की सांसद डॉक्टर फौज़िया ख़ान ने संसद में महिलाओं की संख्या बढ़ाने यानी राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने को लेकर केंद्र की मोदी सरकार से सवाल पूछा था। डॉक्टर फौज़िया ख़ान शासन के अलग-अलग स्तरों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व की जानकारी चाहती थीं। मोटे तौर पर आसान भाषा में महिला रिज़र्वेशन बिल के मुद्दे पर रोशनी चाहती थीं लेकिन हर बार कि तरह इस बार भी इस मामले पर सरकार का जवाब निराशाजनक ही नहीं अजीब भी रहा था। केंद्र की ओर से कानून मंत्री किरन रिजिजू ने अपने आधिकारिक जवाब में लिखा, 'सूचना एकत्रित की जा रही है और सदन के पटल पर रख दी जाएगी।'

बीजेपी पर कथनी-करनी में फर्क का आरोप

प्राप्त जानकारी के मुताबिक भारतीय संसद के दोनों सदनों में कुल मिला कर 788 सदस्य हैं जिनमें से सिर्फ 103 महिलाएं हैं, यानी सिर्फ 13 प्रतिशत। राज्य सभा के 245 सदस्यों में से सिर्फ 25 महिलाएं हैं, यानी लगभग 10 प्रतिशत। लोक सभा में 543 सदस्यों में से सिर्फ 78 महिलाएं हैं, यानी 14 प्रतिशत। केंद्रीय सरकार में भी सिर्फ 14 प्रतिशत मंत्री महिलाएं हैं। विधान सभाओं में तो स्थिति और बुरी है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक देश में 4,120 विधायकों में से सिर्फ नौ प्रतिशत विधायक महिलाएं हैं। पार्टियां, महिलाओं को चुनाव लड़ने का अवसर भी कम देती हैं।

गौरतलब है कि चुनाव आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 2002 से 2019 तक लोक सभा चुनावों में लड़ने वाले उम्मीदवारों में से 93 प्रतिशत उम्मीदवार पुरुष थे। इसी अवधि में विधान सभा चुनावों में यह आंकड़ा 92 प्रतिशत था। यानी महिलाएं दूर-दूर तक बराबरी के अंकों से दूर ही नज़र आती हैं। कल्पना कीजिए सिर्फ 33 फ़ीसद आरक्षण के लिए इसे संसद में सहयोग नहीं मिल पा रहा है फिर महिलाओं से जुड़े बाकी मामलों में सरकार से क्या उम्मीद रखी जा सकती है? इस बात की गंभीरता को इससे भी समझा जा सकता है कि 2014 चुनावों से पहले भारी भरकम वायदों की सूची को घोषणा पत्र में शामिल करने वाली केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी की सरकार ने महिला आरक्षण बिल को भी पारित करने का वादा किया था लेकिन साल 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी ने यह मुद्दा अपने संकल्प पत्र में शामिल करना ज़रूरी तक नहीं समझा। इसी कारण बीजेपी पर अक्सर कथनी और करनी में फर्क का आरोप लगता है।

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest