'ग़ायब' होतीं दिल्ली के सूफ़ियों की मज़ार !
दिल्ली की बारिश ने बख़ूबी अपना काम किया था, कुछ गीली और कुछ सूखी मिट्टी का रंग अब एक सा हो गया था। बड़ी होशियारी से छोटी पौध की जगह बड़े पौधों को यूं रोप दिया गया था जिससे एहसास हो कि ये पौधे यहां आज-कल में नहीं लगे बल्कि कई दिनों से लगे और बड़े हुए हैं।
आख़िर कौन कह सकता है कि यहां 26 अप्रैल से पहले किसी सूफ़ी की दरगाह थी, जिसे रात के अंधेरे में ग़ायब कर दिया गया। तन्हा पेड़ आज उस पीर की सोहबत से महरूम हो गए जिन्होंने इसे बड़ा, घना और छायादार होता देखा होगा। ग़ायब मज़ार के कुछ क़रीब जाकर देखा तो कुछ फूल दिखे, शायद कोई अपने पीर को याद कर चढ़ा गया होगा।
ये फूल हमें अरुंधति रॉय की किताब अपार ख़ुशी का घराना की याद दिला गए।
कहां गई दिल्ली की सूफ़ी मज़ारें ?
जिस तरह से 2002 में गुजरात में वली दकनी की मज़ार को रातों रात हटाया गया था कुछ उसी अंदाज़ में दिल्ली में रातों रात मज़ारें ग़ायब हो रही हैं, दिल्ली में सुनहरी बाग़ के क़रीब एक मज़ार, मंडी हाउस, चुनाव आयोग, निजामुद्दीन बस्ती की मज़ार, काका नगर में सड़क किनारे बनी मज़ारों को गुपचुप तरीके से ग़ायब कर दिया गया तो कुछ को ग़ायब करने की पूरी तैयारी है।
सड़क पुरानी या मज़ार?
इन मज़ारों में से कोई सौ साल पुरानी मज़ार थी तो कोई उससे ज़्यादा। जो मज़ारें सड़कों से पुरानी थी आज उन्हीं के लिए कहा जा रहा है कि ये सड़क के बीच में आ रही हैं, सड़क पुरानी हैं या मज़ारें ये कौन तय करेगा? कैसे पता चलेगा कि कौन किस के रास्ते में आ रहा है? वे पीर, सूफ़ी जो सदियों से ख़ामोशी से लोगों के लिए दुआएं करते रहे आज उनकी मज़ारों पर सड़क पर क़ब्ज़ा करने का इल्ज़ाम लग रहा है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या कोई ये साबित कर सकता है कि सड़क पुरानी है या फिर मज़ार।
अपनी रिपोर्ट करने के दौरान हम एक ग़ायब हुई मज़ार पर पहुंचते थे तो हमारे सामने ग़ायब हुई दूसरी मज़ार का ज़िक्र छिड़ जाता था। और इस कड़ी में हमने ख़ुद कम से कम तीन ऐसी मज़ारों को पहचाना जिन्हें रात के अंधेरे में बड़ी ही ख़ामोशी के साथ ग़ायब कर दिया गया। सबसे पहले हम मंडी हाउस पहुंचे।
कहां गई मंडी हाउस पर स्थित दो सौ साल पुरानी मज़ार?
कुछ दिनों पहले दिल्ली के मंडी हाउस के क़रीब एक मज़ार को रातों-रात हटा दिया गया ( या कहें ग़ायब कर दिया गया तो ज़्यादा बेहतर होगा ) हज़रत नन्हे मियां चिश्ती की मज़ार आख़िर कहां गई? क़रीब डेढ़-दो सौ साल पुरानी मज़ार को क्यों हटा दिया गया? इस मज़ार के ख़ादिम अकबर अली ( मज़ार की देख रेख करने वाले ) से हमने बात की तो उन्होंने बताया कि '' ये मज़ार उस वक़्त से यहां पर है जब ये इलाका जंगल था और यहां एक नहीं बल्कि सात मज़ारें थीं, पर अब एक ही बची थी और अब उसे भी ग़ायब कर दिया गया''
अकबर अली बताते हैं कि मज़ार को हटाने की कार्रवाई सितंबर 2022 में शुरू हो गई थी। उन्हें SDM ने बुलाया था और मज़ार से जुड़े कागज मांगे गए जो उन्होंने दिखा दिए, लेकिन उनके पास दो सौ साल पुराने कागज नहीं थे तो उन्हें कहा गया कि आपने '' सरकार की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर रखा है'' तो उन्होंने भी उन सरकारी लोगों से पूछ लिया ''एक दो सौ साल पुरानी मज़ार के क़ागज़ किस के पास हो सकते हैं''?
अकबर अली ने हमें वे तमाम पेपर दिखाए जिसमें उन्होंने इस मज़ार के लिए MCD और दिल्ली सरकार से कुछ सुधार के लिए इजाज़त मांगी थी और उन्हें वे इजाज़त दी गई थी।
MCD से मिली इजाज़त का पेपर
पेपर दिखाए जाने के बावजूद अकबर अली को कहा गया कि उन्होंने NDMC ( New Delhi Municipal Council ) की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया है, हालांकि अकबर अली के दावे को मान लिया जाए तो मज़ार का इतिहास NDMC से ज़्यादा पुराना लगता है। मज़ार पुरानी थी या नई लेकिन जिस तरह से उसे हटाया गया वे कई सवाल खड़े करता है जैसे
- दरगाह हटाने से पहले कोई नोटिस क्यों नहीं दिया गया
- रात के अंधेर में ढाई से तीन बजे ही कार्रवाई क्यों की गई ?
- क्या दरगाह बीच सड़क में थी, या उससे किसी को कोई परेशानी हो रही थी?
हमने मज़ार की जगह को देखा तो पाया दो पेड़ों की छाया में सड़क किनारे बनी इस मज़ार से कोई ट्रैफिक नहीं रुक रहा था। तो आख़िर क्यों दो सौ साल पुरानी मज़ार को हटा दिया गया?
अकबर अली बताते हैं कि ''मेरी मम्मी की नानी एक हिंदू थी, मेरी मम्मी का शादी से पहले एक हिन्दू नाम था, मेरा तो परिवार ही ऐसा है जिसमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही मज़हब के मानने वाले लोग हैं हमने तो कभी ये सपने में भी नहीं सोचा था कि किसी दिन हज़रत नन्हे मियां चिश्ती की मज़ार को हटा दिया जाएगा। इस दरगाह पर आने वाले वैसे तो हर मज़हब के लोग हैं लेकिन हिन्दू भाइयों को इस मज़ार के ग़ायब होने का ज़्यादा ग़म है वे मेरे पास आकर कह रहे थे ये बहुत ग़लत हुआ पीर बाबा को यहां से हटा कर सही नहीं किया गया ''।
अकबर अली कहते हैं कि मेरा सरकार से सवाल है कि '' सरकार को क्या दिक्कत है इन दरगाहों, मज़ारों से, ये तो सदियों से शांत पड़ी हुई हैं, किसी को दिक्कत नहीं देती फिर क्यों इन्हें उखाड़ा जा रहा है, क्यों इन्हें तोड़ा जा रहा है, इनकी वजह से तो दिल्ली सलामत है, मुझे नहीं लगता कि अब दिल्ली के हालात ठीक होने वाले हैं, ये सरकार ग़लत कर रही है, ढाई-तीन सौ साल से ये बुर्जुग यहां हैं, दिल्ली की सलामती की दुआ करते रहे हैं लेकिन अब इन्हें हटाया जा रहा है आख़िर क्यों'' ?
इस क्यों का जवाब किसके पास होगा?
हमने आस-पास दुकान लगाने वाले लोगों से बात की। कोई वहां 15 साल से दुकान लगा रहा था तो कोई 30 साल से। एक दुकानदार ने बताया कि '' हम सुबह आए तो देखा मज़ार ग़ायब थी हमें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था हमने क़रीब जाकर देखा तो वहां मज़ार नहीं थी, रातों-रात मज़ार को हटा दिया गया, क़रीब रात दो-तीन बजे के बीच ये काम किया गया।''
मज़ार चली गई और पीछे एक ख़ामोशी छोड़ गई, एक पीर की मज़ार के रहने या नहीं रहने से क्या ही फ़र्क पड़ने वाला है? मंडी हाउस दिल्ली का वे इलाक़ा है जहां थिएटर से जुड़े लोगों की दुनिया बसती है, समाज को अपने ही नज़रिए से देखने और बयां करने वालों की दुनिया के बीच से एक मोहब्बत का पैगाम देने वाला चला गया था और इस दर्द को कलाकार लोकेश जैन ( फ़िल्म 'घोड़े को जलेबी खिलाने जा रिया हूं' में एक प्रमुख किरदार निभाने वाले) ने 'मंडी हाउस की मज़ार-ए-मोहब्बत' शीर्षक के तहत एक लंबी पोस्ट लिखकर बयां किया।
''मज़ार से एक बेनामी प्यार का धागा वहां के हर रंगकर्मी हर कलाकार के साथ जुड़ा हुआ था, वो जो उसके आगे सिर नवाते थे, वो जो चुपचाप दूर से उसे देख कर सलाम करते गुजर जाया करते थे, वह जो नास्तिक होने के बावजूद अपने दोस्त के साथ वहां पर चाय पी लिया करते थे, उन सब की यादों को खोदकर कल रात जब शहर हमारा सो रहा था उस अंधेरी रात के अंधेरे काल में उस मज़ार को खोदकर वहां से गायब कर दिया गया। सुनने में आया कि रात को बाकायदा फोर्स के साथ खोदने की मशीन आई थी।
कहां गायब कर दिया गया?
क्यों गायब कर दिया?
किसने गायब कर दिया ?
कैसे गायब कर दिया ?
किसे तकलीफ़ थी इस मज़ार से ?
यह किसी का क्या बिगाड़ रही थी? कौन सा रास्ता जाम कर रही थी?
सवाल पर सवाल मंडी हाउस के हर संवेदनशील कलाकार, रंगकर्मी के दिल में टीस की तरह एक बहुत तेज दर्द की तरह बार-बार उठ रहे हैं, बेचैन होकर तड़प रहें है,मगर सवालों के जवाब किससे पूछें?
किससे पूछे ये सवाल लगातार हमारे भी ज़ेहन में चल रहा था, पर सवाल के जवाब में सवाल ही सामने आकर खड़ा हो जा रहा था, हम मंडी हाउस से चलने लगे तो किसी ने हमे पीछे से पुकारा और कहा कि ''किस-किस मज़ार का पता करेंगी यहां तो एक साथ बहुत सी मज़ारों को यूं ही रात को ग़ायब कर दिया गया है जाइए चुनाव आयोग के ऑफिस पता कीजिए कहां गई उसके गेट पर बनी मज़ार''
इलेक्शन कमीशन दिल्ली के गेट से हटाई गई मज़ार के बाद की तस्वीर
कहां गई चुनाव आयोग के गेट पर बनी सदियों पुरानी मज़ार?
हमने तुरंत चुनाव आयोग के ऑफ़िस का रुख़ किया और वहां देखा कि एक पेड़ था, उसकी हालत देखकर लग रहा था जैसे वे कोई ज़ख़्मी जान हो, उसके जड़ों को बेहद बेदर्दी से छील दिया गया था, हमने इंटरनेट से उसकी पुरानी तस्वीर निकाली और चुनाव आयोग के गेट पर तैनात सुरक्षा कर्मियों से पूछा कि ''ये मज़ार यहां गेट पर थी कहां गई''? एक गार्ड के चेहरे के भाव ने जो बयां किया उसे हम भी लफ़्ज़ों में बयां नहीं कर पाएंगे, उन्होंने बहुत ही धीमी आवाज़ में बस यही कहा '' हमें कुछ नहीं पता'' तो आख़िर कहां गई वे मज़ार? चुनाव आयोग के दफ़्तर के सामने दिल्ली पुलिस का हेड क्वार्टर, हाई सिक्योरिटी ज़ोन और सदियों पुरानी मज़ार ग़ायब थी। हमने मज़ार के बारे में इंटरनेट पर जानकारी तलाश करना शुरू की तो पता चला यहां हज़रत कुतुब शाह चिश्ती की दरगाह थी जो भारी सुरक्षा वाले इलाक़े से 'ग़ायब' हो चुकी थी।
काका नगर की सड़क किनारे बनी सैय्यद बाबा की मज़ार भी ग़ायब
ऐसी ही एक और मज़ार को रातों रात गायब कर दिया गया और ये मज़ार थी दिल्ली के काका नगर मेन रोड पर बनी सैयद जन्नती बाबा की। मथुरा रोड को जाकिर हुसैन मार्ग से जोड़ने वाली इस सड़क के दोनों तरफ़ कुछ क़दमों की दूरी पर दो मज़ार थीं। एक मज़ार कुछ बड़ी और घेरी हुई जबकि दूसरी ( सैयद जन्नती बाबा की ) सड़क के उस पार थी जिसे ग़ायब किया जा चुका था। लोग उस फुटपाथ को रौंदते हुए आ-जा रहे थे बग़ैर इस एहसास के कि चंद रोज़ पहले वहां किसी पीर की मज़ार हुआ करती थी। हम उसी सड़क पर कभी आगे जाएं, कभी पीछे पर हटाई गई मज़ार का नाम-ओ-निशान न मिला, फिर हमने वहाँ साइकिल चला रहे कुछ छोटे-छोटे बच्चों से मज़ार के बारे में पूछा तो उन्होंने बग़ैर देर किए हमें उस जगह को दिखा दिया, एक उबड़-खाबड़ फुटपाथ, जो इस बात की चुगली कर रहा था कि यहां चंद रोज़ पहले एक सूफ़ी-संत आराम फरमा रहे थे।
काका नगर में सड़क के दोनों तरफ मज़ार थी एक हटा दी गई एक अब भी है
हम दंग रह गए कैसे किसी मज़ार को ग़ायब कर दिया गया, पर क्यों? जिस वक़्त हम इस मज़ार के पास खड़े थे सड़क पर सजावट का काम चल रहा था, दिल्ली को G20 के लिए सजाया जा रहा था, पर क्या वाकई इस सजावट में एक पीर की मौजूदगी किसी पैबंद की तरह थी जिसे यूं ग़ायब कर दिया गया?
पांच सौ साल पुरानी भूरे शाह की दरगाह पर भी चला बुलडोज़र
ऐसी ही एक और मज़ार को दो महीने पहले यूं ही गायब करने की कोशिश की गई पर शायद उस दरगाह की क़िस्मत अच्छी थी पर कितनी अच्छी थी ये तो वहां जाने पर ही पता चला। निज़ामुद्दीन में सड़क किनारे सैयद अब्दुल्लाह उर्फ भूरे शाह की दरगाह अक्सर ही आते-जाते दिखाई देती रहती थी लेकिन इस बार जब क़रीब जाकर देखा तो ये बिल्कुल पहले जैसी न रही थी, उजड़ी हुई दरगाह यूं ही फुटपाथ पर पड़ी थी ऐसा लगा कि वाकई ये दरगाह सड़क पर आ गई हो।
भूरे शाह की इस मज़ार की शक्ल बदल दी गई थी, कल तक जिस मज़ार को अकीदतमंदों ने मन्नत पूरी होने पर तरह-तरह की छतरियों और झूमरों से सज़ा रखा था वह आज सड़क किनारे फुटपाथ पर अचानक उग आई मज़ारों सी लग रही थी। हमने मज़ार के केयरटेकर( ख़ादिम) युसूफ बेग़ से बात की। वे इस मज़ार के बारे में बताते हैं कि '' ये पांच सौ साल पुरानी दरगाह है, ये निज़ामुद्दीन औलिया के मुरीदों में से एक हैं, ये सड़क यहां पहले नहीं थी ये सड़क यहां 1980 के क़रीब बनी थी, ये मिट्टी की एक पगडंडी थी, दिल्ली के जामा मस्जिद से आगरा को जाने वाली सड़क थी जिसे हम मथुरा रोड कह सकते हैं वे दूसरी तरफ़ था, ये तिकोन कब्रिस्तान से लगी हुई दरगाह है ये 13 एकड़ की ज़मीन है, एशियन गेम्स हो रहे थे उस वक़्त दिल्ली सरकार ने वक्फ बोर्ड से ज़मीन ली होगी''
वे आगे बताते हैं कि ''एक दिन SDM ऑफिस से अचानक एक साहब आए उन्होंने हमसे क़ागज़ दिखाने के लिए कहा और मुझे SDM मैडम से मिलने के लिए बुलाया, मैंने कागज दिखाए और उन्होंने कहा कि ''आपने फुटपाथ पर दरगाह बना रखी है'' मैंने उन्हें कहा कि मैं किसी फुटपाथ पर कैसे दरगाह बना सकता हूं ये पांच सौ साल पुरानी दरगाह है और जहां थी वहीं है।''
युसूफ़ बेग़ आरोप लगाते हैं कि उन्हें डराया गया, धमकाया गया और एक दिन बहुत ही बेरहमी से बुलडोज़र चला दिया गया। दरगाह की सूरत बिगाड़ दी गई, यहां आने वाले हर मज़हब के लोग इस बदली सूरत को देखकर ग़मगीन हैं। पर क्या करें सिर्फ़ अफ़सोस ज़ाहिर करने के? युसूफ़ बेग़ इस मामले को लेकर कोर्ट पहुंचे हैं लेकिन जो होना था सो हो चुका है ?
भूरे शाह की दरगाह की अब की तस्वीर
जिस तरह से दिल्ली में कई मज़ारों को अतिक्रमण के नाम पर साफ किया जा रहा है क्या वाकई ये मामला अतिक्रमण का है? हम एक मज़ार को हटाए जाने को लेकर रिपोर्ट करने निकले थे लेकिन एक के बाद एक कई मज़ारों के बारे में पता चला, एक-दो हमने तलाश कर ली जो कल गुमनामी में खो जाने वाली हैं, पर आख़िर ये कार्रवाई क्यों की जा रही है? G20 के लिए, या फिर G20 के बहाने मुस्लिम पहचान से जुड़ी सांस्कृतिक धरोहरों का नाम-ओ-निशान गायब किया जा रहा है? कभी मुगल, कभी उर्दू के बहाने किताबों से लेकर इमारतों और जगहों के नाम तक, जो चल रहा है वो हम सब देख रहे हैं, और देखकर ख़ामोश रहना ही मुनासिब समझ रहे हैं, क्या इस ख़ामोशी को इस तरह की कार्रवाई की मंजूरी मान लिया जाए?
हमने इस पूरे मामले पर दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद से बातचीत की उन्होंने भी बताया कि ''कुछ दिन पहले हम सुनहरी बाग़ की मस्जिद की तरफ से गुज़र रहे थे हमें बताया गया कि वहां से भी एक मज़ार को हटाया गया है, इन मज़ारों को ऐसे हटाया जा रहा है कि नाम-ओ-निशान तक बाकी न रहे''।
वे आगे कहते हैं कि '' ये कुछ वैसी ही चीज़ है जो 2002 में बहुत ही नाटकीय ढंग से की गई थी, 2002 में वली दकनी का मज़ार था, अहमदाबाद में पुलिस कमिश्नर के ऑफिस के ठीक सामने। वली दकनी जिन्हें हम 'फादर ऑफ उर्दू पोएट्री' भी कह सकते हैं उस मज़ार को रातों रात ध्वस्त कर बराबर कर दिया गया, उसी साल अप्रैल के महीने में वहां हमारा लेखकों के साथ एक इंटरैक्शन था वहां के लेखकों से हमने कहा कि इस मज़ार को दोबारा बनवाना चाहिए ये सांस्कृतिक महत्व की चीज़ है, लेकिन वहां कुछ लेखकों ने कहा कि ये मज़ार ट्रैफिक को रोक रहा है, कुछ लेखकों ने हमारा साथ दिया लेकिन कुछ लोगों ने कहा कि हम ये मांग नहीं करेंगे, बल्कि they were defending it, तो ये वही प्रवृत्ति है जिसमें मुसलमानों को, उनके धार्मिक-सांस्कृतिक महत्व के स्मारकों को निशाना बनाया जाता है। they want to wipe out muslim identity, और इसी को हम 'cultural genocide' कहते हैं''
सवाल: पर इस तरह की कार्रवाई पर ख़ामोशी दिखाई देती है?
अपूर्वानंद का जवाब : बात करने वाले वही चंद लोग हैं जिनको मुसलमानों के मारे जाने पर भी बात करनी है, रही बात मीडिया की तो वे तो उल्टा साबित कर देंगे की इन मज़ारों की वजह से ट्रैफिक जाम हो रहा है, और जिन्हें ये सब होते देख चिंता हो रही है वे अब अल्पसंख्यक होते जा रहे हैं।
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पिछले कई दिनों से 'ज़मीन जिहाद' ( मज़ार जिहाद) नाम का एक नया लफ़्ज़ सुनाई दे रहा है जिसके मार्फ़त एक नैरेटिव सेट करने की कोशिश की जा रही है और इसमें उत्तराखंड सबसे आगे दिखाई दे रहा है, वहां से क़रीब-क़रीब हर दिन खुल्लम-खुल्ला मज़ारों को निशाना बनाने की तस्वीर सामने आ रही है और उन तस्वीरों से किसी को कोई फ़र्क पड़ता दिखाई नहीं दे रहा है।
शायद हमें एक बार फिर से भक्ति और सूफ़ी आंदोलन को पढ़ने की ज़रूरत है। समझने की ज़रूरत है कि क्यों समाज को इन आंदोलनों की ज़रूरत पड़ी थी। एचसी वर्मा की किताब ''मध्यकालीन भारत भाग-1'' में लिखा है कि '' संतों तथा सूफ़ियों के प्रयासों से जो भक्ति एवं सूफ़ी आंदोलन आरंभ हुए उनसे मध्य भारत के सामाजिक एवं धार्मिक जीवन में एक नवीन शक्ति एवं गतिशीलता का संचार हुआ। प्रो. रानाडे के अनुसार भक्ति आंदोलन के परिणामों में प्रमुख थे: भक्ति के प्रति आस्था का विकास, लोक भाषाओं में साहित्य-रचना का आरंभ, इस्लाम के साथ सहयोग के परिणामस्वरूप सहिष्णुता की भावना का विकास जिसकी वजह से जाति-व्यवस्था के बंधनों में शिथिलता आई और विचार तथा कर्म दोनों स्तरों पर समाज का उन्नयन''।
वहीं बात करें सूफ़ी सिलसिलों की तो क़रीब 1192-95 के बीच ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती के साथ भारत में चिश्तिया सिलसिले की शुरुआत मानी जाती है, निज़ामुद्दीन औलिया, शेख़ सलीम चिश्ती, बाबा फरीद, अमीर ख़ुसरो को कौन नहीं जानता।
दिल्ली का सूफ़ियों से बहुत ही ख़ास नाता रहा है, दिल्ली का शायद ही कोई ऐसा कोना हो जहां सूफियों की मज़ार न हो। फिर वे निजामुद्दीन औलिया की दरगाह हो या फिर महरौली के बख़्तियार काकी की। बख़्तियार काकी की दुआओं के असर के लिए तो कहा जाता है कि कई बार उजड़ कर बसने वाली दिल्ली तब तक आबाद रहेगी जब तक उसके लिए बख़्तियार काकी दुआ करते रहेंगे। इसी मज़ार पर हर साल 'फूलवालों की सैर' का आयोजन किया जाता है, जो इस शहर के उस सांस्कृतिक ताने-बाने की मिसाल पेश करता है जो मोहब्बत के धागे से बुना गया है।
लेकिन क्या ये मोहब्बत और भाईचारे का धागा अब कमज़ोर होता जा रहा है?
इसी सिलसिले में अंत में फिर बात वली दकनी की और उनके बहाने 2017 में पब्लिश हुई अरुंधति रॉय की किताब अपार ख़ुशी का घराना ( The Ministry of Utmost Happiness ) की जिसका ये वाक्य हूबहू हमारे सामने आ गया है- "...अंजुम ने सफ़ाई देते हुए कहा गुजरात कभी भी दिल्ली पहुंच सकता है।'' और वो पहुंच गया है।
''उन्होंने सुझाव दिया कि अहमदाबाद में वली दकनी की मज़ार पर भी दुआ मांग लेना चाहिए जो सत्रहवीं सदी में इश्क़ के महान उर्दू शायर के तौर पर जाने जाते थे और मुलाक़ात अली को बहुत पसंद थे। उन्होंने सफ़र का खाका तैयार किया और हंसते हुए इस शायर का एक शेर दोहराया जो मुलाक़ात अली को भी प्रिय था
जिसे इश्क़ का तीर कारी लगे
उसे ज़िन्दगी क्यूं न भारी लगे
वली दकनी की मज़ार को नेस्तनाबूद कर दिया गया है और उस पर तारकोल की एक सड़क बन गई है और अब वहां मज़ार का निशान भी बाक़ी नहीं है ( मज़ार की जगह वहां अब नई तारकोल की सड़क थी, लोग सड़क पर ही फूल चढ़ाने लगे थे, लेकिन न तो पुलिस और न भीड़ और न मुख्यमंत्री उनका कुछ बिगाड़ सकते थे। जब तेज़ रफ़्तार कारों के पहियों से फूलों की लुगदी बन जाती तो ताज़ा फूल आ जाते। मसले हुए फूलों और शायरी के रिश्ते पर किसका वश चला है?)”
किताब में अंजुम के बहाने गुजरात दंगों का जिक्र और उससे पहले वहां हो रहे घटनाक्रमों के बारे में बताया गया है, दंगाइयों के हाथ लगी अंजुम को इसलिए छोड़ दिया गया क्योंकि वे एक हिजड़ा थी और ''हिजड़ों को मारना अपशगुन हो सकता है'' ऐसा अरुंधति रॉय अपनी किताब में लिखती हैं लेकिन जब वे ( अंजुम) वापस दिल्ली लौट आती हैं तो एक बच्ची जिसकी वे परवरिश कर रहीं थी, एक दिन अचानक उसका हुलिया बदल देती हैं और लड़के का लिबास पहना देती हैं और ऐसा करके वे कहती हैं कि '' ऐसे रहना कहीं ज़्यादा महफूज़ है, अंजुम ने सफ़ाई देते हुए कहा गुजरात कभी भी दिल्ली पहुंच सकता है''।
अहमदाबाद में वली दकनी की मज़ार पर क्यों तारकोल डालकर सड़क बना दी गई? वो तो कोई पीर फकीर भी न थे, वे तो उर्दू अदब के शायर थे जो इश्क़ की चाशनी में डूबी शायरी किया करते थे? पर उनकी मोहब्बत की शायरी पर उनकी मुस्लिम पहचान भारी पड़ गई और उनका नाम-ओ-निशान तक मिटा दिया गया।
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