इतिहास के मिथकों का सच भाग-5 : क्या भारत लोकतंत्र की जननी है?
पिछले कुछ वर्षों में, इतिहास के बारे में कई बहसें और विवाद अकादमिक क्षेत्र से निकलकर व्यापक सार्वजनिक मंच पर आ गए हैं। इस दौरान एक युद्ध का मैदान उभरा है जहां विशेष संस्कृतियां, नेरेटिव और विचारधाराएं खुद को प्रभावशाली और दूसरों से श्रेष्ठ साबित करने के लिए दूसरों के खिलाफ खड़ी हो रही हैं। हिंदू दक्षिणपंथ ऐसे कई झूठे नेरेटिवों का प्रमुख समर्थक है, जिनका उद्देश्य भारत के विविध इतिहास और संस्कृति के एकमात्र और असली उत्तराधिकारी के रूप में हिंदू संस्कृति और विचारधारा के एक विशेष संस्करण को स्थापित करना है। इस तरह के झूठे नेरेटिव, अकादमिक जगत ने अब तक सबूतों के माध्यम से जो स्थापित किया था उसे त्याग देते हैं, और वे सोशल मीडिया सहित लोकप्रिय मीडिया के माध्यम से लोकप्रियता हासिल करने पर भरोसा करते हैं। न्यूज़क्लिक साक्ष्य-आधारित स्कोलर्स के शोध के आधार पर संक्षिप्त व्याख्याओं की एक श्रृंखला प्रकाशित कर रहा है जो हिंदुत्व ताकतों द्वारा प्रचारित कुछ प्रमुख मिथकों का खंडन करता है। इस शृंखला के भाग 1, 2, 3, और 4 को क्रमशः यहाँ, यहाँ यहाँ और यहाँ पढ़ा जा सकता है।
लोकतंत्र की उत्पत्ति, जैसा कि हम आज इसे समझते हैं, का इतिहास विविध है। फिलहाल, हम देख रहे हैं कि कुछ प्रमुख समूह भारत को इस इतिहास का केंद्र-बिंदु बनाने की वकालत कर रहे हैं। उनका दावा है कि भारत 'लोकतंत्र की जननी' है। इस नेरेटिव का प्रचार हम न केवल भारत में बल्कि विश्व मंच पर भी देख रहे हैं।
29 मार्च, 2023 को, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकतंत्र के लिए शिखर सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा कि, "प्राचीन भारत में निर्वाचित नेताओं का विचार, बहुत पहले ही बाकी दुनिया के मुक़ाबले एक आम विशेषता थी" और "प्राचीन भारत में गणतंत्र राज्यों के कई ऐतिहासिक संदर्भ भी हैं जहां शासक वंशानुगत नहीं थे और भारत वास्तव में लोकतंत्र की जननी है”। अन्य लोग भी इस तरह के बयान देते हैं कि, "असंख्य पुख्ता सबूतों और ठोस तथ्यों के आधार पर यह निस्संदेह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत में न केवल लोकतंत्र मौजूद था, बल्कि कई गणराज्यों ने आदर्श स्वरूप और इसकी संरचना भी स्थापित की थी"। हम प्रस्तावित साक्ष्यों को देखेंगे और जांच करेंगे कि क्या यह वास्तव में लोकतांत्रिक तर्ज पर काम करता है।
सबसे पहले, लोकतंत्र की वर्तमान अवधारणा को स्थापित करना जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग के अनुसार किसी भी लोकतंत्र की कुछ जरूरी विशेषताएं होती हैं। इनमें लोगों की इच्छा की अभिव्यक्ति, जिसमें सार्वभौमिक मताधिकार और गुप्त मतदान द्वारा समय-समय पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, मानव अधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के लिए सम्मान दिखाना, अभिव्यक्ति और राय की स्वतंत्रता और राजनीतिक दलों और संगठनों की बहुलवादी प्रणाली शामिल है। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुसार, लोकतंत्र की केंद्रीय विशेषता यह है कि "लोगों की इच्छा सरकार के आधिपत्य का आधार होगी" यानि लोगों की इच्छा से ही सरकार के भीतर शक्ति प्रवाहित होगी।
लोकतंत्र और उसके विकास की आधुनिक अवधारणाएँ दो प्रमुख क्रांतियों से जुड़ी हैं। सबसे पहली अवधारणा, अमेरिकी क्रांति (1765 - 1783 सीई) से जुड़ी है, जिसमें हम सरकार के उपयुक्त स्वरूप के संबंध में होने वाली विभिन्न बहसों में 'लोकतंत्र' शब्द का स्पष्ट इस्तेमाल देखते हैं, जैसा कि मेरिल जेन्सेन के पेपर में बताया गया है। पेपर के अनुसार, इस बिंदु से, लोकतंत्र के विचार को "सभी की स्वतंत्र और स्वैच्छिक सहमति, या स्वतंत्र निवासियों के बड़े हिस्से द्वारा संचालित सरकार" के रूप में समझा गया था।
दूसरी अवधारणा, फ्रांसीसी क्रांति (1789 - 1799 सीई) में मिलती है, जिसे शासितों की सहमति, लोकप्रिय संप्रभुता के सिद्धांत, साथ ही पुरुषों को सार्वभौमिक मताधिकार जैसी धारणाओं को शुरू करने और आगे विकसित करने का श्रेय दिया जाता है। इन क्रांतियों से पहले हमें ये अवधारणाएँ इस रूप में नहीं मिलतीं हैं। हालाँकि, यह सवाल कि क्या लोकतंत्र की आंशिक या क्षणभंगुर अवधारणाएँ थीं, इस चर्चा में सामने आती हैं और इसलिए इसकी जांच की जानी चाहिए।
एथेनियन लोकतंत्र को लोकप्रिय रूप से लोकतंत्र की हमारी वर्तमान अवधारणा का एक प्रमुख मूल बिंदु माना जाता है। यह प्राचीन भारत में जिसे 'लोकतंत्र' माना जाता है उसका भी समकालीन था। इससे तुलनात्मक विश्लेषण करना और यह समझना महत्वपूर्ण हो जाता है कि एथेनियन लोकतंत्र कैसे काम करता था।
हमें इस बात की सीधी समझ इसलिए मिलती है कि एथेनियाई लोगों के पास संविधान जैसे ग्रंथों मौजूद थे और यह भी पता चलता है कि एथेनियन लोकतंत्र कैसे काम करता था, जिसकी रचना अरस्तू ने की थी। आधुनिक लोकतंत्र के विपरीत, एथेंस में सार्वभौमिक मताधिकार आदर्श नहीं था। इसके बजाय, केवल दोनों पक्षों के एथेनियन माता-पिता वाले कुलीन वयस्क पुरुषों को ही वोट देने के योग्य नागरिक माना जाता था। महिलाओं और दासों को इस मामले में अयोग्य घोषित कर दिया गया था।
एथेंस में कोई आधिकारिक वर्ग भी नहीं था; मतदाता और सरकार एक ही थे। एक बार जब एथेंस का नागरिक 20 वर्ष का हो जाता था तो वह लोकप्रिय सभा का हिस्सा हो जाता और राज्य के सभी मामलों पर व्यक्तिगत वोट दे सकता था।
हिस्ट्री जर्नल के एक लेख के अनुसार, एथेनियन लोकतंत्र की एक और जरूरी विशेषता यह थी कि इसने "विशेषज्ञयों के प्रभुत्व के लिए, बहुत कम या कोई जगह नहीं छोड़ी थी और राजनीति को केवल सामान्य ज्ञान के मामले तक सीमित रखने का प्रयास किया था"। जैसा कि हम यहां देख सकते हैं, एथेनियन लोकतंत्र, लोकतंत्र की हमारी आधुनिक अवधारणाओं पर खरा नहीं उतरता है। इस मामले में, लोकतंत्र अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में था।
भारतीय संदर्भ में, सबसे प्रारंभिक सभ्यता जिसे हम किसी राज्य या शासन शैली के संकेतों के बारे में देख सकते हैं वह सिंधु सभ्यता है। कुछ प्रचारकों के अनुसार, सिंधु सभ्यता “समानता और सह-अस्तित्व की एक आद्य-लोकतांत्रिक धारणा पर आधारित थी। प्रागैतिहासिक लोगों का यह विचार बाद की पीढ़ियों में व्याप्त हो गया, जिससे एक लोकतांत्रिक समाज के लिए आधार तैयार हुआ जो इतना शक्तिशाली था कि बाद के वर्षों में अशोक जैसे क्रूर शासकों का हृदय भी परिवर्तन हो गया था। वे सिंधु शहरों की सुनियोजित प्रकृति, वजन, माप की एकरूपता, ईंटों के आकार और हथियारों और महल जैसी संरचनाओं के पुरातात्विक साक्ष्य की अनुपस्थिति में उसे लोगों की भागीदारी वाला शांतिपूर्ण, सहकारी और कुलीनतंत्रीय प्रशासन को उद्धृत करने लगे और उसके समर्थन करने का प्रयास करने लगे।
शिक्षा जगत के भीतर, सिंधु सभ्यता के भीतर राज्य की प्रकृति के संबंध में विभिन्न सिद्धांत और बहसें हैं। एडम एस. ग्रीन के अनुसार, दो प्रतिमान हैं जिनके द्वारा हम इन बहसों में प्रमुख मुद्दों को समझ सकते हैं। पहला "राज्यविहीन" प्रतिमान है, जो राजनीतिक केंद्रीकरण और पदानुक्रम की अनुपस्थिति का इस्तेमाल यह तर्क देने के लिए करता है कि सिंधु सभ्यता राज्य-आधारित नहीं थी और इसके बजाय कबीला प्रमुखों का एक मिश्रण था।
दूसरा "राज्य-स्तरीय" प्रतिमान है, जो बताता है कि शासक वर्ग के लिए साक्ष्य की कमी पुरातात्विक उत्खनन और उन्हे दर्ज़ करने में कमियों का परिणाम है। ये दोनों प्रतिमान हेटेरार्की की अवधारणा को जन्म देते हैं। यह प्रबंधन या नियम का एक रूप है जिसमें कोई भी इकाई परिस्थितियों के आधार पर दूसरों पर शासन कर सकती है या शासित हो सकती है, और इसलिए, कोई भी एक इकाई बाकी पर हावी नहीं होती है।
ग्रीन यह दावा करते हैं कि सिंधु सभ्यता समतावादी थी जिसमें कोई शासक नहीं था।
दूसरी ओर, जोनाथन मार्क केनोयर जैसे इतिहासकारों का तर्क है कि विभिन्न शहरों और समूहों से संबंधित अभिजात वर्ग का एक शासक वर्ग था।
कुल मिलाकर, वर्तमान में हमारे पास जो साक्ष्य उपलब्ध हैं, उनके आधार पर हम सिंधु सभ्यता के लोकतांत्रिक होने जैसा साहसिक दावा नहीं कर सकते हैं। वर्तमान उपलब्ध पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर आज भी विभिन्न इतिहासकार अलग-अलग व्याख्याएं कर सकते हैं। सिंधु राज्य के संबंध में हमारे पास कोई प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है। सिंधु राज्य कैसे संचालित होता था, इसे ठीक से समझने के लिए, हमें उनके लेखन और अभिलेखों की समझ हासिल करने के लिए उनकी लिपि को समझने/पढ़ने की जरूरत होगी। फिर भी, हमारे पास कोई विस्तारित जीवित ग्रंथ नहीं है जो सिंधु राज्य की प्रकृति के बारे में बता सके।
बाद में, गण और संघ को प्राचीन लोकतंत्र के दो लोकप्रिय उदाहरणों के रूप में उद्धृत किया गया है। इन दोनों शब्दों की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न तरीकों से की है। उनका अनुवाद गणतंत्र, कुलीनतंत्र, लोकतंत्र, संघ, इत्यादि के रूप में किया गया है। ये 500 ईसा पूर्व और 400 ईस्वी के बीच कभी अस्तित्व में रहे होंगे। इन 'गणराज्यों' के बारे में हमारी समझ बहुत ही सीमित है।
ज्यादातर मामलों में, हम उनके नाम के अलावा उनके बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते हैं। उन्हें मुख्य रूप से 'आदिवासी गणराज्य' कहा जाता है क्योंकि वे सरकार की राजशाही प्रणाली का हिस्सा नहीं थे और वे उन्हे मानते भी नहीं थे। मालव और यौधेय इन जनजातियों के प्रसिद्ध उदाहरण हैं। मुद्राशास्त्रीय साक्ष्यों के माध्यम से ही इतिहासकार मुख्य रूप से इन जनजातियों के संबंध में ज्ञान हासिल करते हैं। इन सिक्कों में किंवदंतियाँ शामिल हैं जिन्हें या तो व्यक्तिगत नाम और उपाधियों के रूप में समझा जा सकता है या एक संपूर्ण किंवदंती को पुन: पेश करने का प्रयास किया जा सकता है। इन गण-संघों द्वारा जारी किए गए सिक्कों पर अंकित शब्दों और उपाधियों की जांच करके, इतिहासकार यह स्थापित करने में सक्षम हुए हैं कि ये जनजातियाँ गैर-राजशाही थीं।
ए.एस. अल्टेकर के अनुसार के अनुसार, ये आदिवासी कुलीनतंत्र तब तक फलते-फूलते रहे जब तक उनकी सभाओं के सदस्यों के बीच सद्भाव और अमन था। ये सदस्य आम तौर पर जनजाति के वरिष्ठ कुलीन पुरुष थे। वे निर्वाचित नहीं थे; इसके बजाय उन्हें उनकी लोकप्रियता और जनता द्वारा अत्यधिक सम्मान दिए जाने के कारण वह पद दिया गया था। हालाँकि, इन सभाओं के भीतर, विभिन्न उपसमूह बन गए, जो अक्सर एक-दूसरे के साथ संघर्ष में आ जाते थे। यह अंतर्कलह अक्सर उनके पतन का कारण बनती थी।
हम लिच्छवी गणराज्य के बारे में बुद्ध द्वारा दी गई भविष्यवाणी में इस अंतर्कलह का एक संभावित तत्व देखते हैं। बुद्ध के अनुसार, यह गणतंत्र तभी तक समृद्ध रहेगा जब तक कुलीनतंत्र के सदस्य बार-बार मिलते हैं, उम्र, अनुभव और क्षमता के प्रति सम्मान दिखाते हैं, सद्भाव और अमन में राज्य का कारोबार करते हैं और लगातार झगड़े में लगे स्वार्थी दल संकीर्ण और स्वार्थी लक्ष्य के कारण उनका विकास नहीं होने देते हैं।"
एक बार फिर, इस संबंध में कोई निश्चित तथ्य नहीं मिलता है कि उनका राज कैसे चलता था और कैसे वह काम करता था। उत्तर-वैदिक काल में सभाओं के ये रूप धीरे-धीरे लुप्त हो गये। अल्टेकर बताते हैं कि ऐसा इसलिए है "क्योंकि राज्य आकार में बड़ा और वृद्ध हो गया था, जिससे केंद्रीय विधानसभा की बैठकें अधिक से अधिक अव्यवहारिक हो गईं थीं... इसके सदस्यों को विधानसभा की बैठकों में भाग लेने के लिए राजधानी पहुंचने में कई सप्ताह बिताने पड़ते, और अपने घरों को लौटने में भी उतना ही लंबा समय लग जाता था।”
अब तक यह बात स्पष्ट हो गई है कि राज्य और शासन के जिन रूपों को अक्सर 'लोकतांत्रिक' होने के रूप में उद्धृत किया जाता है, वे आज के लोकतंत्र की अवधारणा और विचार से काफी भिन्न हैं। लोकतंत्र के इन 'प्रोटो' रूपों में उन कई आवश्यक विशेषताओं का अभाव है जिनके द्वारा आज लोकतंत्र काम करता है। एथेनियन लोकतंत्र और गणों और संघों के भीतर, हम निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में सीमित भागीदारी देखते हैं। सार्वभौम पुरुष मताधिकार, सार्वभौम वयस्क मताधिकार तो दूर, यह सब अस्तित्व में ही नहीं था। इसके बजाय, यह अभिजात वर्ग का समूह था जिसके पास अंततः राजनीतिक शक्ति थी।
इन लोकतंत्रों का क्षेत्र और सीमा भी सीमित थी, एथेनियन लोकतंत्र एक खास शहर तक ही सीमित था, जबकि आदिवासी कुलीन वर्ग अपने समाज और राज्यों के विस्तार के कारण खुद को बनाए रखने में विफल रहे। यह स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रमाणों के अभाव में है कि सिंधु राज्य के साथ-साथ गणों और संघों की 'लोकतांत्रिक' प्रकृति के बारे में अनुमान लगाए जाते हैं।
हमारे सुदूर अतीत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के उदाहरण खोजने के ये प्रयास हमारे समकालीन लोकतांत्रिक संकटों के संदर्भ में सामने आते हैं। यह कहकर कि "लोकतंत्र हमारे डीएनए में है", वर्तमान में कमियों को सही ठहराने और उन्हे दरकिनार करने का स्पष्ट प्रयास लगता है।
भारत को 'लोकतंत्र की जननी' के रूप में दावा करना यह दिखाने का एक प्रयास है कि हम लोकतंत्र के स्वामी हैं जिससे लगता है कि हम प्राचीन 'लोकतांत्रिक' परंपराओं के उत्तराधिकारी हैं। यदि ऐसा है, तो लोकतंत्र से जुड़े मुद्दों को संभालने के मामले में वर्तमान नेता इतने गलत कैसे हो सकते हैं? अतीत के बारे में दावे करके वर्तमान को उचित ठहराने के बजाय, आज हम लोकतंत्र की जिन कमियों का सामना कर रहे हैं, उन पर खुलकर ध्यान देने की जरूरत है। अन्यथा, हम प्राचीन अतीत के कुलीन वर्गों की तरह बन सकते हैं।
लेखक न्यूज़क्लिक में इंटर्न हैं। विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें:
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