ग्राउंड रिपोर्ट: पूर्वांचल में 'धान का कटोरा' कहलाने वाले इलाके में MSP से नीचे अपनी उपज बेचने को मजबूर किसान
ब्लैक राइस की बंपर पैदावार करके देश भर में सुर्खियां बटोरने वाले चंदौली के किसान मुश्किल में हैं। यह पूर्वांचल का वह इलाका है जिसे धान के कटोरे का रुतबा हासिल है। चंदौली जिले में अधिसंख्य किसान नाटी मंसूरी (एमटीयू 7029) की खेती करते हैं। किसानों की परेशानी की बड़ी वजह है नाटी मंसूरी की बंपर पैदावार, जिसे बेचने के लिए किसान मारे-मारे फिर रहे हैं। एमटीयू 7029 मोटे धान की ऐसी प्रजाति है बाढ़ भी झेल लेती है और सूखा भी।
चावल मिल मालिकों की हड़ताल और सरकारी कांटे पर धान की खरीद ठप होने की वजह से चंदौली के किसान एमएसपी से काफी कम दाम पर अपनी उपज बिचौलियों के हाथों बेचने पर मजबूर हैं। कोई गांव ऐसा नहीं है जहां इन दिनों खेत-खलिहान में धान के ढेर न दिख रहे हों। सरकारी धान क्रय केंद्रों से बैरंग लौटाए जाने की वजह से किसानों की सूनी आंखें पथराने लगी हैं। हालात इतना भयावह हो गया है कि खेत-खलिहानों में धान के ढेर की रखवाली कर रहे किसानों की आंखों के आंसू भी अब सूखने लगे हैं।
चंदौली के एक गांव में दुखड़ा सुनाता धान उत्पादक एक किसान
बजहां गांव के युवा किसान सुधीर कुमार सिंह करीब 50 एकड़ में धान की खेती करते हैं। पिछले साल सैकड़ों कुंतल धान इन्हें बिचौलियों के जरिए सिर्फ 1400 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बेचना पड़ा। जबकि गुजरे साल मोटे धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) 1815 रुपये था। इस बार एमएसपी 1940 रुपये प्रति कुंतल है, लेकिन स्थितियां जस की तस हैं। हार्वेस्टर से धान की कटाई करा रहे सुधीर कुमार सिंह ने ‘न्यूजक्लिक’ से कहा, "किसानों की लाचारी न नेता देख रहे हैं, न अफसर और न ही सरकार। धान की खेती पर बीज, खाद, दवा, जोताई, रोपाई, निराई, हार्वेस्टिंग और सिंचाई के पानी पर होने वाले निवेश देखें तो खर्च 1500 से 1600 रुपये आता है। हमारे धान की कीमत आढ़ती 1500 प्रति कुंतल लगा रहे हैं। हमारी उपज का सही मूल्यांकन न होने की वजह से बहुत से किसान अब खेती-किसानी छोड़कर भाग रहे हैं। नौजवान शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और वहां जाकर वो कोई भी धंधा करने के लिए तैयार हैं। नई पीढ़ी खेती-किसानी से सिर्फ इसलिए मुंह मोड़ रही है क्योंकि पूर्वांचल में खेती-किसानी घाटे का सौदा है, जिसे अब हेय की दृष्टि से देखा जाने लगा है।"
चंदौली के बजहां गांव में धान की पैकिंग करते किसान
सरकारी कांटे पर क्यों नहीं हो रही ख़रीद ?
चंदौली में धान की फसल तेजी से कट रही है। चाहे जिस गांव में जाएं, खेत-खलिहानों में धान के बड़े-बड़े ढेर दिख जाएंगे। सरकारी कांटे पर धान खरीद बंद है, क्योंकि चावल मिलें बंद हैं और मालिक हड़ताल पर हैं। इसी का फायदा उठा रहे हैं बिचौलिए और अढ़तिये। बगैर अभिलेख के खरीद करने वाले अढ़तियों के यहां मोटे धान का मोल-भाव 1200 से 1300 रुपये प्रति क्विंटल से शुरू हो रहा है। जिन किसानों ने सरकारी क्रय केंद्रों पर उपज बेचने के लिए पंजीकरण कराया है उन्हें थोड़ा फायदे की उम्मीद है। खेती के अभिलेख के साथ बिचौलियों को धान सौंपने वालों को दाम मिल रहा है 1500 रुपये प्रति कुंतल। हालांकि चंदौली के बड़े और प्रभावशाली किसान अभी सरकारी क्रय केंद्रों पर खरीद शुरू होने का इंतजार कर रहे हैं।
चंदौली के बबुरी इलाके में धान की काटी गई फसल, जो अभी खेतों में ही पड़ी है
चंदौली के सैयदराजा कस्बे में एक गैर-लाइसेंसी अढ़तिए ने हमारे सामने रामभजन नाम के किसान के धान की बोली लगाई 1300 रुपये प्रति कुंतल, जो सरकारी दाम से 640 रुपये कम था। यानी कि घाटे का सौदा। नुकसान का यह सौदा करने के लिए रामभजन, नरवन इलाके से अपना धान ट्रैक्टर पर लादकर सैयदराजा पहुंचे थे। उनके मुताबिक़, "घर में लड़की की शादी है। खलिहान में उपज नहीं बेच पा रहे थे। बंटाई पर खेती करने की वजह से खेती का पंजीकरण नहीं हो सका। लाचारी में प्राइवेट अढ़तिए के यहां उपज बेचनी पड़ रही है।"
करीब 15 बीघे धान की खेती करने वाले रामभजन को किसानों के आंदोलन की जानकारी तो है, लेकिन तीनों नए कृषि कानूनों से वह वाकिफ नहीं हैं। कहते हैं, "हम बंटाई पर खेती करते हैं। सिर्फ किसानी करना जानते हैं। इसके अलावा हमें कुछ नहीं मालूम। अभी सिर्फ 30 क्विंटल धान बेचे रहे हैं, ताकि बेटी का हाथ पीले करने में आसानी हो सके।" रामभजन को लगता है कि यह सौदा भले ही मजबूरी और घाटे का है, लेकिन लेकिन उपज का नकद पैसा मिल रहा है तो बेच देना ही उचित है।
रामभजन कहते हैं, "हम जानते हैं कि घाटे में अपने धान का सौदा कर रहे हैं, लेकिन उससे संतुष्ट हैं। आज जिस धान का 1300 नगद मिल रहा है, आठ-दस महीने बाद 1500 रुपये मिलेगा, वह हमारे किस काम का। हम अपनी फसल घाटे में बेचकर लड़की की शादी कर लेंगे और हमारी खेती-किसानी भी आगे चलती रहेगी।"
चंदौली जिले में किसान हितों के लिए आए दिन आंदोलन करने वाले मनोज सिंह डब्लू बड़े फार्मर हैं। पूर्व विधायक रहे डब्लू कहते हैं, "कानून वापस लेने का मोदी सरकार फ़ैसला सही है। यूपी सहित कई राज्यों में चुनाव सिर पर है, शायद उसी का दबाव है। तभी इन्होंने तीनों काले कानून वापस ले लिए हैं। जितने आंदोलनकरी किसानों की मौतें हुई हैं, उसकी कीमत भी सरकार को ही चुकानी ही होगी। भाजपा सरकार के भरोसे चंदौली जिले के हजारों किसान कई सालों से ब्लैक राइस लेकर बैठे हैं और वो उसका एक दाना भी बेच नहीं पा रहे हैं।"
डब्लू यह भी कहते हैं, "हमारा गुनाह सिर्फ इतना है कि हम धान की खेती कर रहे हैं। सरकारी कांटे पर बंटाईदारी पर खेती करने वालों का अनाज नहीं बिक रहा है। फसल का पंजीकरण कराने वाले गिने-चुने किसानों का धान ही सरकारी कांटे पर पहुंचता है। चंदौली में धान की ख़रीद लगभग बंद है। ऐसे में किसान अपनी उपज किसको दें? प्राइवेट में धान बेचना मजबूरी है, चाहे 1100 में बिके या फिर 1200 में। कुछ जगह तो 800-900 रुपये में धान बिक रहा है। क़ानून कहता है कि किसानों के उपज का भुगतान 14 दिन में अनिवार्य रूप से हो जाना चाहिए। 14 दिन में पेमेंट करवाने वाले कानून का अनुपालन आखिर कौन कराएगा? "
धान की ढुलाई में जुटा श्रमिक
मनोज सिंह डब्लू ने चंदौली जिले के धान उत्पादकों के बकाए को लेकर हाल में सड़क जाम किया था, तब कई किसानों को 79 लाख रुपये का चेक मिला। वह बताते हैं, "शहीद गांव के गणेश तिवारी ने साल 2019 में 2 लाख 24 हजार का धान बेचा था। मिलर ने उन्हें 1 लाख 59 हजार का जो चेक दिया, वह भी बाउंस हो गया। खाद्य एवं विपणन विभाग और चावल मिल मालिक दोनों मिल कर गजब का खेल खेल रहे हैं। घोटाला-दर-घोटाला हो रहा है। कहीं कोई छानबीन और पड़ताल नहीं हो रही है। मिल मालिक अफसरों से मिलकर अपने कारोबार में घाटा दिखाते हैं और किसानों का पैसा हजम कर जाते हैं। मिलें वही रहती हैं और लेकिन अगले साल उसके प्रोपराइटर बदल जाते हैं। इस खेल में फंस जाता है किसानों का पैसा।"
किसानों पर हावी मिलर और बिचौलिए
बजहां के युवा किसान राजू सिंह के पास खुद की 25 बीघा ज़मीन है। एमएसपी पर इनकी सारी उपज नहीं बिक पाती। कुछ धान सरकारी कांटे पर और कुछ बिचौलियों के जरिए बेचते हैं। लागत के हिसाब से उन्हें हर क्विंटल पर चार-पांच सौ रुपये का घाटा होता है। राजू सिंह को इस नुकसान को झेलने के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। वह कहते हैं, "मिल मालिकों की हड़ताल के चलते सारा धान खलिहान में पड़ा है। अबकी धान की फसल में कठुआ रोग लगने से नुकसान ज्यादा हुआ है, लेकिन हमें इस बात की खुशी है कि कृषि कानून वापस ले लिए गए हैं। यह एक अच्छा कदम है। भविष्य में एमएसपी गारंटी क़ानून बनेगा तो सभी को फायदा होगा। पंजाब में एमएसपी है तो वहां किसानों को दाम पूरे मिलते हैं।"
धान की बोझ लेकर खलिहान में जाती महिला किसान
यूपी में किसानों को सरकारी कांटे पर अपना धान बेचने के लिए पहले से ही रजिस्ट्रेशन कराना पड़ता है। सरकारी खरीद तभी होती है जब फसल अच्छी गुणवत्ता वाली पाई जाती है। चंदौली समेत समूचे पूर्वांचल में किसानों के खुलेआम शोषण किया जाता है। हर बोरे पर पांच किग्रा धान यह कहकर फोकट में ले लिया जाता है कि उपज की गुणवत्ता ठीक नहीं है। किसानों के शोषण की यह पटकथा पूर्वांचल के सभी सरकारी धान क्रय केंद्रों पर लिखी जाती है।
चंदौली में खरीदने के लिए 112 क्रय केंद्र बनाए गए हैं, लेकिन कुछ गिने-चुने किसानों का धान ही खरीदा जा सका है। खासतौर पर उनका जिन्होंने आनलाइन रजिस्ट्रेशन करने के बाद क्रय केंद्र से टोकेन ले रखा है। सहायक खाद्य एवं विपणन अधिकारी अनूप कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, "चावल मिलों की हड़ताल के चलते खरीद प्रभावित हो रही है। मिलों को कुल धान का 67 फीसदी चावल सरकार को लौटाना है और वह 65 फीसदी से ज्यादा पर अनुबंध करने के लिए तैयार नहीं हैं। बातचीत चल रही है और उम्मीद है कि जल्द धान खरीद रफ्तार पकड़ लेगी। धान खरीद के लिए साढ़े सात लाख बोरों की व्यवस्था की गई है।"
योगी सरकार ने ऐलान किया है कि 100 क्विंटल से कम उत्पादन वाले किसानों को सत्यापन यानी अपना वेरीफिकेशन नहीं करवाना पड़ेगा। लेकिन लेकिन अभी सत्यापन का आदेश काग़ज़ पर नहीं आया है। सत्यापन में यह देखा जाता है कि किसान ने अपने रकबे के हिसाब से कितना धान बोया है? चंदौली में मुख्य फसल धान की है। जब किसान अपना सरकारी पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन भी करता है तो उसका सत्यापन एसडीएम और लेखपाल करते हैं।
आंदोलन से किसानों में बढ़ी जागरुकता
दिल्ली की सीमा पर डेरा डाले किसानों और सरकार के बीच जारी गतिरोध ने एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य और एपीएमसी एक्ट (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी ऐक्ट) यानी 'कृषि उपज और पशुधन बाज़ार समिति' अधिनियम जैसे शब्दों को घर-घर तक पहुंचा दिया है, लेकिन चंदौली में सिर्फ आठ-दस फीसदी प्रभावशाली किसानों का ही धान सरकारी कांटे पर बिक पाता है।
चंदौली के प्रगतिशील किसान कमलेश सिंह करीब 50 एकड़ में धान की खेती करते हैं। वह कहते हैं "विपक्ष के शोरग़ुल और दबाव से भले ही क्रय केंद्र खुल गए हों लेकिन सरकारी कांटे पर कहीं कोई ख़रीद शुरू नहीं हो सकी है। बंटाई पर खेती करने वाले किसानों को एमएसपी पर भुगतान तो दूर की कौड़ी है। ये चाहकर भी अपनी उपज सरकारी कांटे नहीं बेच पाते। लाचारी में इन्हें अपना धान बनिया अथवा बिचौलियों के हवाले करना पड़ता है। लिखा-पढ़ी न होने के कारण बिचौलिए कई बार किसानों का पैसा हड़प लेते हैं। कई मर्तबा किसानों को पैसे के लिए महीनों इंतज़ार करना पड़ता है।"
बरहनी प्रखंड़ के सिकठा गांव के प्रगतिशील किसान रतन कुमार सिंह ने अबकी 50 एकड़ में धान की खेती की है। वह कहते हैं, "इस पूरे इलाक़े या फिर कहें कि पूरे राज्य के भीतर धान ख़रीद में व्याप्त भ्रष्टाचार बड़ा मसला है। पश्चमी उत्तर प्रदेश का आढ़तिए ट्रक लेकर आते हैं और फर्जी अभिलेखों के सहारे चंदौली का धान तस्करी करके अपने यहां ले जाते हैं। जिन इलाकों में धान की खेती कम होती है, वहां की उपज दिखाकर सरकारी काटें पर बेच देते हैं। हमारी सरकार से मांग है कि चंदौली में धान ख़रीद का कुल 50 फ़ीसद हिस्सा अनिवार्य रूप से खरीदा जाए।"
रतन यह भी कहते हैं, "चंदौली में नहरों का जाल बिछे होने के कारण इस इलाक़े की मुख्य उपज है धान। और इस इलाक़े में धान की वाक़ई सरप्लस पैदावार होती है। यहां की मिट्टी और आबोहवा भी अच्छी पैदावार के लिए मुफ़ीद है। धान ही इस इलाक़े की इकोनॉमी का केंद्रबिंदु भी है। सरप्लस उपज के बावजूद इस पूरे इलाक़े में सरकार वैसी ख़रीद नहीं कर पा रही और न ही किसानों को एमएसपी मिल पा रहा।"
सरप्लस उपज और ख़रीद के बीच तालमेल के अभाव पर रतन कुमार सिंह कहते हैं, "पूर्वांचल के किसी भी हिस्से में चावल मुख्य खाद्य पदार्थ है। अकेले चंदौली में करीब 1.25 लाख हेक्टयर में लगभग चार लाख टन धान का उत्पादन होता है। लाख प्रयास के बावजूद 50 हजार टन से ज्यादा धान की खरीद सरकारी कांटे पर नहीं हो पाती है। बाकी सरप्लस धान तो किसान औने-पैने दाम पर बेचने के लिए मजबूर होते हैं।"
रतन सिंह बताते हैं, "धान खरीद में गड़बड़झाला नौकरशाही करती है। वह धान के उत्पादन और रकबे के हिसाब से धान खरीद की सीमा तय नहीं करती। अलबत्ता एक ही नियम पूरे प्रदेश में लागू कर देती है। जहां धान कम पैदा होता है, वहां भी उतना ही कोटा आवंटित कर दिया जाता है, जितना चंदौली में। राजस्व विभाग और कृषि विभाग दोनों ही किसानों की फसलों की पड़ताल करते हैं। ऐसे में खरीद का कोटा खेती के रकबे के आधार पर तय होना चाहिए। किसानों को समतुल्य लाभ देने के लिए सरकार को मुकम्मल नीति बनानी चाहिए। यह तभी संभव है जब पीडीएफ प्रणाली में सिर्फ अपने राज्य का चावल-गेहूं वितरित करने की पुख्ता रणनीति बने।"
कर्ज के दलदल में फंसे हैं किसान
चंदौली में ग्रामीण पत्रकार एसोसिएशन के अध्यक्ष आनंद सिंह कहते हैं, "जिले के ज्यादातर किसानों को उचित क़ीमत नहीं मिल रही है। इन दिनों अधिसंख्य किसान अपनी सूनी आंखों से धान का ढेर निहारते नजर आते हैं। बेमौसम हुई बरसात ने फसल को भारी नुकसान पहुंचाया है। नतीजतन हजारों किसानों की लागत भी डूब गई। प्रशासन इस हक़ीकत को कबूल करने के लिए तैयार नहीं है। फसलों का बंपर उत्पादन किसी भी राज्य की अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत समझा जाता है। लेकिन चंदौली में धान की खरीद और उनके भंडारण की समुचित व्यवस्था नहीं होने की वजह से प्रतिकूल असर पड़ रहा है। यह बिडंबना ही है कि बंपर उत्पादन की वजह से जिस चंदौली ज़िले को धान का कटोरा कहा जाता है, लेकिन यही फसल अब किसानों के लिए जी का जंजाल साबित हो रही है। खासतौर पर उन किसानों के लिए जिन्होंने ब्लैक राइस की खेती की है। ऐसे किसानों को गिन पाना बेहद कठिन है जो कर्ज के दलदल में फंसे हुए हैं।"
सरकारी खरीद की नीति में एक पेंच यह भी है कि किसानों का भुगतान सिर्फ बैंकों के ज़रिए ही किया जा रहा है। तमाम किसानों का बैंक में खाता नहीं होने की वजह से उनको मजबूरन बिचौलियों की शरण में जाना पड़ता है। युवा पत्रकार पवन कुमार मौर्य कहते हैं, "अगर किसान को पूरे साल की मेहनत के बाद अपनी फसल बेच कर मुनाफ़ा नहीं मिले तो वह परिवार का पेट कैसे चलाएगा और कर्ज़ कहां से चुकाएगा? चंदौली के किसानों के पास कमाई का दूसरा कोई ज़रिया नहीं होता। जिले में कई ऐसे लोग भी हैं जो बीज और खाद का कारोबार करते हैं। 'चित भी मेरी और पट भी मेरी’ की तर्ज़ पर वही किसानों को कर्ज़ भी मुहैया कराते हैं। बाद में यह लोग किसानों से लागत से भी कम क़ीमत पर उनकी फसलों को खरीद कर घर बैठे मोटा मुनाफा कमा लेते हैं।"
धान से चावल बनाने में जुटी खानाबदोश परिवार की एक बालिका
पवन बताते हैं, "चंदौली जिले में महाजनों का मकड़जाल इस कदर उलझा है कि एक बार इनके जाल में फंसने वाला किसान चाहकर इससे मुक्त नहीं हो सकता। वर्षों की कोशिशों के बावजूद जब कर्ज़ की रकम लगातार बढ़ती जाती है तब उसे हताशा में अपनी जान देने के अलावा दूसरा कोई रास्ता नहीं सूझता। सरकार को चाहिए कि वह पहले साहूकारों और बिचौलियों का जाल ध्वस्त करे। लेकिन ऐसा करने की बजाए वह मूकदर्शक बनी हुई है।''
चंदौली में किसान-मजदूर मंच के प्रभारी अजय राय कहते हैं, "कृषि कानून लाने का मंतव्य अब हर आदमी के समझ में आ गया है। भाजपा सरकार ने पिछले दरवाजे से कृषि क़ानून लाकर किसानों पर थोप दिया। सच यह है कि जिन नेताओं ने संसद में बैठकर जिस कानून पर अपनी सहमति की मुहर लगाई थी, वो दस दिन खेतों के काम करके देख लें, आटे-दाल का भाव पता चल जाएगा। किसानों की तबाही का सारा खेल सरकार के नेरेटिव का है। अगर उन्हें धान का वाजिब मूल्य नहीं मिल रहा है तो इसके लिए भाजपा सरकार ही जिम्मेदार है।"
वाजिब दाम देने में आना-कानी क्यों?
किसान नेता अजय राय कई सालों से धान-गेहूं की उपज के लिए संपूर्ण लागत (सी 2+50 फीसदी) पर आधारित न्यूनतम समर्थन मूल्य मांग उठा रहे हैं। वह कहते हैं, "यह मांग काफी पुरानी है, लेकिन अब तक किसी भी सरकार ने इसे पूरा नहीं किया। यानी इसके हिसाब से देश में कभी भी फसलों का दाम तय नहीं किया गया, हालांकि खुद सरकार भी इस फार्मूले को सबसे बेहतर मानती है।"
"सरकार अभी ए-2+एफएल फार्मूले के आधार पर ही एमएसपी दे रही है। केंद्र सरकार दावा कर रही है कि वो उत्पादन लागत से कम से कम डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य दे रही है, लेकिन उसका आधार कौन सा है, यही समझने वाली बात है? केंद्र सरकार ने 2021-22 के लिए धान की लागत को प्रति कुंतल 1293 रुपये माना है। लागत पर 50 फीसदी रिटर्न जोड़कर उसका एमएसपी 1940 रुपये तय किया है।"
अजय राय की बातों में दम है। दरअसल, यह सी-2 लागत पर आधारित गणना नहीं है, अलबत्ता एमएसपी ए-2+एफएल फार्मूले के आधार तय की गई है। किसान सी-2 फार्मूले के हिसाब से एमएसपी मांग रहे हैं। इसके हिसाब से धान उत्पादन पर लागत प्रति क्विंटल 1,727 रुपये आती है। स्वामीनाथन कमीशन की रिपोर्ट के अनुसार 50 फीसदी रिटर्न जोड़कर एमएसपी तय की जाए तो वह 2591 रुपये बनेगा। यानी अगर एमएसपी के सर्वमान्य फार्मूले पर सरकार पैसा दे तो प्रति क्विंटल धान की सरकारी बिक्री पर किसानों को 651 रुपये ज्यादा मिलेंगे।
अपने देश में किसानों की आदमनी चपरासी से भी कम है। फसल का वाजिब दाम नहीं मिलने, कर्ज के बोझ तले दबने, उपज भंडारण सुविधाओं के अभाव और फसल नुकसान की भरपाई न होने की समस्या से किसान पहले भी जूझ रहे थे और आज भी। सरकारें आती हैं और जाती हैं लेकिन किसानों की दशा नहीं बदलती। किसान आंदोलन से जुड़ी प्रज्ञा सिंह कहती हैं, "मनरेगा के वर्क कल्चर से गांवों में कामचोरी की भावना पैदा हुई है। इससे खेती की लागत बढ़ गई है। मनरेगा में किसान चार घंटे काम करता है। वही मजदूर जब खेतों पर काम करने जाता है तो अधिक मजदूरी की मांग करता है। इस समस्या से किसान बहुत ज्यादा पीड़ित हैं।"
मजदूरों की कमी के चलते खेतों में खड़ी है धान की फसल
किसानों के खिलाफ लामबंदी
दिल्ली के कुछ दरबारी अर्थशास्त्री कहते हैं कि एमएसपी की गारंटी दी गई तो देश बर्बाद हो जाएगा। एमएसपी पर खरीदी जाने वाली 23 फसलों की पूरी खरीद सी-2+50 के फार्मूले पर की जाए तो लगभग 17 लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। ऐसे में भारत की अर्थव्यवस्था पाकिस्तान से भी ज्यादा खराब हो जाएगी। एमएसपी की गारंटी महंगाई भड़काएगी और सरकार के खजाने पर बोझ बढ़ेगा। वो चाहते हैं मक्का और गेहूं अमेरिका के रेट पर मिले, लेकिन यह बात बताना भूल जाते हैं कि वहां किसानों को भारत से कई गुना अधिक सब्सिडी मिलती है। दरबारी अर्थशास्त्रियों को यह भी लगता है कि भारत में कृषि उपज दूसरे देशों से महंगी है। उनकी नजर में फसलों के दाम में वृद्धि से देश की अर्थव्यवस्था खतरे में पड़ जाती है, जबकि दूसरी चीजों की महंगाई से इकोनॉमी मजबूत होती है। यही माइंडसेट किसानों के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा है।
इससे उलट बनारस के जाने-माने अर्थशास्त्री एवं महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ में प्रोफेसर डा. अनिल कुमार दिल्ली के दरबारी अर्थशास्त्रियों तीखे प्रहार करते हैं। वह कहते हैं, "किसानों को ए-2फार्मूले से फसलों का न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जा रहा है, जबकि मिलना चाहिए सी-2 फार्मूले के हिसाब से। ए-2 फार्मूले में सिर्फ बीज, खाद, कीटनाशक, मजदूरी, ईंधन व सिंचाई पर लगने वाली रकम जुड़ती है। इसमें वास्तव में खर्च की गई लागत+पारिवारिक श्रम का अनुमानित मूल्य जोड़ा जाता है। साथ ही वास्तविक खर्चों के अलावा स्वामित्व वाली भूमि और पूंजी के अनुमानित किराए और ब्याज को भी शामिल किया जाता है। स्वामीनाथन आयोग आयोग कहता है कि किसानों को सी-2 फार्मूले पर डेढ़ गुना दाम मिलना चाहिए। सरकार समग्र लागत के आधार पर फसलों का दाम तय करे और उसकी लीगल गारंटी दे तभी किसानों की दशा सुधरेगी।"
प्रो. अनिल यह भी कहते हैं, "किसान ऐसा नहीं कह रहे हैं कि उनकी सारी फसलें सरकार ही खरीदे। किसानों का तो कहना यह है कि सरकार ऐसी कानूनी व्यवस्था बना दे जिससे कि एमएसपी के दायरे में आने वाली फसलों की निजी खरीद भी उससे कम पर नहीं की जा सके। उससे कम पर खरीद करने वाले पर कानूनी कार्रवाई हो।"
प्रो. अनिल कुमार सवाल करते हैं, "अगर 17 लाख करोड़ रुपये किसानों के हाथ में आएंगे तो देश की इकोनॉमी बर्बाद कैसे हो जाएगी? क्या किसान इस पैसे को स्विस बैंक में जमा कर देंगे? क्या ये पैसा भारत में नहीं खर्च होगा। क्या यह सर्कुलेशन से बाहर हो जाएगा? सच तो यह है कि यह पैसा मार्केट में खर्च होगा। जब पैसा मार्केट में खर्च होगा तो फिर इकोनॉमी कैसे खराब हो जाएगी?"
बनारस के फार्मर एक्टिविस्ट बल्लभाचार्य पांडेय कहते हैं, "अमेरिका की तरह अपने देश की सरकार किसानों को पर्याप्त सहायता नहीं दे सकती तो उसे उपज की सरकारी खरीद और बाजार आधारित मूल्य में जो अंतर है उसका भुगतान तो करना ही चाहिए। धान की खेती करने वाले किसानों को एमएसपी देने के एवज में 440 रुपये प्रति कुंतल का अनुदान देने से सरकार को आखिर किसने रोका है? भारत में 60 फीसद लोग खेती करते हैं, और सरकार इन्हें जितना अनुदान देती है उससे कई गुना ज्यादा उद्योगपतियों और उनके कारोबारी संवर्धन पर खर्च कर देती है। इनका अरबों का लोन भी माफ कर दिया जाता है और किसानों को मामूली कर्ज पर भी जेल की हवा खानी पड़ती है।"
बल्लभाचार्य सवाल खड़ा करते हैं, "यह सरकार की कैसी नीति है जो बड़े उद्यमियों को सरकार जो आर्थिक सहयोग देती करती है उसे नाम दिया गया है प्रोत्साहन राशि (एनसीटी) और किसानों के आर्थिक सहयोग को अनुदान बताती है, जो एक तरह की भीख है। किसानों का संरक्षण और संवर्धन सरकार नहीं करेगी तो कौन करेगा? इनके लिए भावंतर योजना लागू होनी चाहिए। किसानों की जो पूंजी जमीन के रूप में फंसी है उसका किराया तो मिलना ही चाहिए। दुर्भाग्य की बात यह है कि अपने देश में उपज का मूल्य निर्धारण करते समय जमीन को घटक (कंपोनेंट) माना ही नहीं जाता। जब उद्यमियों को उनके उत्पादन में कंपोनेंट का समूचा खर्च जोड़ा जाता है तो किसानों की जमीन का किराया/ब्याज देने में सरकार का हाजमा क्यों खराब हो जाता है?"
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