नज़रिया: भारतीय राजनीति के दो मुखौटे— अटल बिहारी और नीतीश कुमार
उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में
इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए
वसीम बरेलवी का यह शे’र नीतीश कुमार पर बिल्कुल सटीक बैठता है। वो कब किधर के लगते हुए किधर के हो जाएं, उनके अलावा कोई नहीं जानता।
मेरी नज़र में भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के सबसे बड़े मुखौटा दो नेता रहे—एक थे अटल बिहारी वाजपेयी और दूसरे हैं नीतीश कुमार। यानी जैसे वे थे या हैं, वैसे दिखते नहीं, दिखाते नहीं।
दोनों नेता आज भी बहुत लोगों के श्रद्धेय और प्रात: स्मरणीय नेता हैं। अटल बिहारी वाजयेपी अब हमारे बीच नहीं हैं लेकिन आज भी वे ऐसे नेता हैं जो केवल हिन्दुत्ववादियों के ही नहीं तमाम प्रगतिशील, उदारवादी और समाजवादी लोगों के लिए सम्मानीय बने हुए हैं और इसी तरह नीतीश कुमार भी केवल समाजवादियों के लिए ही नहीं बल्कि हिन्दुत्ववादियों के भी प्रिय नेता। दोनों का गुणगान गाते आज भी अन्य नेता और लोग नहीं थकते।
जबकि दोनों ने ही भारतीय जनमानस को अपने-अपने तरीके से गुमराह किया, छला। विश्वास जगाकर विश्वास का संकट पैदा किया।
हालांकि अटल बिहारी वाजयेपी इस मायने में नीतीश कुमार से अलग हैं, क्योंकि उन्होंने कभी सरकार बनाने के लिए पलटी नहीं मारी, और जो कुछ किया अपनी पार्टी बीजेपी और उसकी नीतियों को बढ़ाने के लिए किया। ख़ुद के मंत्री या प्रधानमंत्री बने रहने के लिए नहीं किया। जबकि नीतीश कुमार ने हर बार यह साबित किया है कि उनकी महत्वकांक्षा से बड़ा कुछ भी नहीं है। न कोई विचार, न नीति, न कोई गठबंधन धर्म। न देश और लोकतंत्र की चिंता।
लेकिन दोनों ही नेताओं ने अपनी छवि इस तरह गढ़ी जिससे सब धोखा खाते रहे। एक ने हिन्दुत्वादी नेता रहते हुए अपनी छवि नरमपंथी, उदारपंथी की गढ़ी यानी उदारवाद का खोल ओढ़कर हिन्दुत्व के लिए काम किया और दूसरे ने समाजवाद का खोल ओढ़कर समाजवाद के ही विरुद्ध काम किया। बड़े नेता, साफ़-सुथरी छवि, उदारवाद, सुशासन ये सब इन दोनों नेताओं के मुखौटे ही रहे।
अटल बिहारी वाजपेयी ने बड़े बारीक ढंग से, बड़ी चतुराई से लोगों के विश्वास को छला और अपनी एक बौद्धिक और लिबरल छवि बनाते हुए उन लोगों को भी बीजेपी के साथ जोड़ा जो बीजेपी या आडवाणी की हिन्दुत्ववादी और उग्र राजनीति के साथ नहीं थे। वरना अकेले लालकृष्ण आडवाणी के बस की बात नहीं थी कि वे पार्टी को 90 के दशक के आख़ीर में सरकार बनाने की स्थिति तक ले आते। दोनों नेताओं को उस समय नरमपंथी और गरमपंथी नेता के तौर पर देखा जाता था।
आज बीजेपी जो इतनी मज़बूत स्थिति में है उसमें अटल बिहारी वाजपेयी का बड़ा योगदान है। कभी दो सांसदों वाली पार्टी को उन्होंने और उनके जोड़ीदार लालकृष्ण आडवाणी ने 90 सांसदों तक पहुंचाया और अंततः सरकार बनाने की स्थिति में भी आए। आज उन्हीं की बनाई नींव पर बीजेपी 300 से ज़्यादा सांसदों वाली पार्टी बनकर सत्ता में है।
अटल बिहारी वाजयेपी ने अपने ‘व्यक्तित्व का जादू’ इस क़दर फैलाया कि बड़े बड़े बुद्धिजीवी और राजनीतिक विश्लेषक, लेखक-पत्रकार सभी धोखा खा गए और आज तक उसके असर में हैं (अब जानबूझकर या अनजाने में कहना मुश्किल है)। आज जो देश में हिन्दुत्व या फ़ासीवाद की ख़तरा जताया जा रहा है उसके पुरोधा अटल बिहारी वाजयेपी ही थे।
आपको बात भले ही उल्टी लगे लेकिन आज जो आप आम लोगों या युवाओं को बीजेपी या मोदी का अंध समर्थक और अंध भक्त कहते हैं, उसके लिए ज़िम्मेदार यह आम लोग या युवा नहीं बल्कि वही प्रगतिशील, उदारवादी और अन्य बुद्धिजीवी हैं जो आज भी “अटल जी...अटल जी” कहते नहीं थकते। आज भी बीजेपी की नीतियों और नीयत पर सवाल उठाते हुए ये लोग अटल बिहारी वाजयेपी की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि “वे ऐसे थे, वे वैसे थे” जबकि उन्हीं के पार्टी के पूर्व नेता गोविंदाचार्य तक ने उन्हें बीजेपी का मुखौटा कहा था।
लोग इसमें नरेंद्र मोदी का नाम भी जोड़ सकते हैं। उनके भी जुमले “सबका साथ-सबका विश्वास” जैसे रहे। लेकिन सच यही है कि उनके बारे में किसी से कुछ छुपा नहीं है। कोई वहम नहीं है। साफ़ है कि वे एक हिन्दुत्ववादी नेता हैं और आरएसएस का हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते हैं। अब कोई उनको लेकर कोई भ्रम पाले तो वो या तो बेहद मासूम है या धूर्त।
ख़ैर आज मुद्दा हैं नीतीश कुमार। नीतीश कुमार की साझेदारी और समझदारी भी अटल बिहारी वाजपेयी के साथ परवान चढ़ी। आज भी वे और उनकी पार्टी बीजेपी के साथ जाने पर ‘अटल जी’ और उनके साथ बने एनडीए के ‘कॉमन मिनिमम प्रोग्राम’ की दुहाई देते रहते हैं। दोनों का अच्छा गठजोड़ रहा। सन् 1998-99 से ही वे अटल सरकार में मंत्री बनते रहे। वे इस सरकार में केंद्रीय कृषि मंत्री, भूतल परिवहन मंत्री और रेल मंत्री जैसे अहम पदों पर रहे।
और इस तरह खुद को राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण का शिष्य बताने वाले नीतीश कुमार, बीजेपी की वजह से और नीतीश कुमार की वजह से बीजेपी बिहार में मज़बूत हुई।
अभी बीते 25 दिसंबर, 2023 को ही अटल बिहारी वाजपेयी के जन्मदिन पर नीतीश कुमार ने उन्हें याद करते हुए कहा कि— अटल जी हमको बहुत मानते थे। उन्होंने मुझे अपनी कैबिनेट में जगह दी। फिर यहां का (बिहार का) मुख्यमंत्री बनाया।
ख़ैर उसके बाद ख़ासतौर पर मोदी जी के कार्यकाल में “मर जाऊंगा लेकिन बीजेपी के साथ नहीं जाऊंगा”, “मिट्टी में मिल जाऊंगा लेकिन बीजेपी के साथ नहीं जाऊंगा” जैसी कसमें खाने वाले नीतीश कुमार एक बार फिर बीजेपी के साथ हैं।
नीतीश कुमार इस तरह से पलटी मार रहे हैं कि ‘पलटूराम’ जैसा नाम भी बहुत छोटा और नाकाफ़ी लग रहा है। उनके ‘यू टर्न’ इतने हैं कि गिने नहीं जाते। नरेंद्र मोदी के साथ कभी मंच भी साझा करने में हिचकने वाले, उनका हाथ पकड़ने से भी इंकार करने वाले नीतीश कुमार कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के नाम पर एक बार फिर नरेंद्र मोदी का गुणगान कर रहे हैं। चार साल में तीसरी बार और कुल मिलाकर नौवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले रहे हैं। वे शायद पहले ऐसे नेता हैं जो घंटा भर पहले मुख्यमंत्री पद से इस्तीफ़ा ही इसलिए देते हैं कि फिर घंटा भर बाद मुख्यमंत्री पद की शपथ ले सकें।
हालांकि भारतीय राजनीति में पाला बदल और आया राम-गया राम की कहानी काफी पहले से थी। बिहार या देश की राजनीति में राम विलास पासवास को भी पलटने की वजह से मौसम विज्ञानी तक कहा गया लेकिन सुशासन बाबू की छवि बनाकर नीतीश कुमार ने जैसा भारतीय लोकतंत्र को छला है। जिस तरह अपने गठबंधन और महागठबंधन को धोखा दिया है। उसकी मिसाल दूसरी नहीं मिलती।
उनके मामले में अकबर इलाहाबादी का यही शे’र याद आता है कि—
मेरा ईमान मुझसे क्या पूछती हो मुन्नी
शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी
जेडीयू के प्रवक्ता केसी त्यागी नीतीश की पलटी पर कहते हैं कि कांग्रेस ने नीतीश कुमार को धोखा दिया है। लेकिन वे यह नहीं बताते कि नीतीश कुमार ने किस-किस को धोखा दिया है।
केसी त्यागी कहते हैं कि कांग्रेस के गैरज़िम्मेदाराना और अड़ियल रवैये की वजह से इंडिया गठबंधन टूट के कगार पर है। लेकिन वह यह नहीं बताते कि बिहार में तो नीतीश ख़ुद आरजेडी से दामन छुड़ा रहे हैं। कांग्रेस से कोई मसला हो सकता है लेकिन बिहार में आरजेडी मुख्यतः नीतीश की साझेदार है। तो उससे अलग होकर कौन सी मजबूरी के तहत नीतीश बीजेपी के पाले में जा रहे हैं।
रविवार, 28 जनवरी को भी नीतीश कुमार के इस्तीफ़े और नई सरकार के लिए जाने के दौरान उन्होंने मीडिया से जो कहा, वह बड़ा दिलचस्प था। वे सारा ठीकरा कांग्रेस पर फोड़ते हैं। उनके कहने का लब्बोलुआब यही था—
हमें कांग्रेस से दिक्कत थी, इसलिए आरजेडी से नाता तोड़ दिया!
कांग्रेस बीजेपी से लड़ने के लिए सीरियस नहीं थी, इसलिए हम बीजेपी के साथ चले गए...!
अब इन तर्कों पर सिर्फ़ हंसा ही जा सकता है। या फिर अफ़सोस किया जा सकता है।
हालांकि राजनीति के जानकार बता रहे हैं कि नीतीश की पार्टी खुद टूट के कगार पर थी। बताया जा रहा है कि बीजेपी की राजनीति या ‘ऑपरेशन लोटस’ के चलते नीतीश के कई सांसद 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के साथ जाना चाहते थे। उनके क्षेत्र का समीकरण ऐसा है कि इन सांसदों का सोचना है कि अगले चुनाव में आरजेडी या इंडिया गठबंधन के तहत वे नहीं जीत सकते, जबकि बीजेपी के साथ से उनकी नैय्या पार लग सकती है। कहा जा रहा है कि इन सांसदों ने नीतीश बाबू को साफ़ बता दिया था कि आप भले इंडिया में रहें लेकिन वे तो चले- बीजेपी के साथ। अब नीतीश के सामने मजबूरी थी कि वे या तो अपने सांसदों को अपने साथ रखकर इस बार का लोकसभा चुनाव लड़ें या उनके बगैर। इन सांसदों के टूटने से उन्हें अपनी स्थिति और बुरी होने की आशंका थी। जेडीयू में बहुत से विधायक भी अपनी जाति-वर्ग की स्थिति या फिर क्षेत्रीय राजनीति के समीकरण के अनुसार बीजेपी के साथ जाने के पैरोकार हैं।
यानी साफ़ है कि नीतीश को भी डर था कि उनकी स्थिति उद्धव ठाकरे या उनकी शिव सेना जैसी न हो। बीजेपी ने तो महाराष्ट्र में भारतीय राजनीति के दिग्गज शरद पवार की एनसीपी को भी तोड़ लिया (अब यह उनकी सहमति से हुआ या विरोध के बावजूद, आप बेहतर समझ सकते हैं।)
मेरी मां एक कहावत सुनाया करती थी-
“जहां देखी तवा-परात, वहीं बिताई सारी रात”
यानी जहां देखा कि खाने-पीने का पूरा इंतज़ाम है, वही टिक गए, वहीं लेट गए। नीतीश बाबू भी कुछ ऐसा ही कर रहे हैं। जहां देख रहे हैं कि आगे फ़ायदा हो सकता है, उनकी सत्ता बरकरार रह सकती है, मुख्यमंत्री बना रहा जा सकता है, उसी के साथ हो जाते हैं। अभी भी कोई भरोसा नहीं कि 2024 के लोकसभा चुनाव या 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव बाद वे कहां जाएं, किसके साथ रहें।
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