ज्ञानवापी कांड एडीएम जबलपुर की याद क्यों दिलाता है
उम्मीद है कि क़िस्मत न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ को सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश पर पछताने से बचा लेगा, जिसे वह और दो अन्य न्यायाधीश-जस्टिस सूर्यकांत और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा ने हाल ही में ज्ञानवापी मस्जिद मामले में दिया है। जी हां, ठीक उसी तरह जैसे उनके पिता वाईवी चंद्रचूड़ ने एडीएम जबलपुर के अपने फ़ैसले पर पछताया था।
सही मायने में भारत भर में प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी की बेरहमी चरम पर थी, उसी दरम्यान, यानी 28 अप्रैल 1976 को एक फ़ैसला आया था।इस फ़ैसले में वाईवी चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएन भगवती चार न्यायाधीशों में से दो ऐसे न्यायाधीश थे, जिन्होंने सरकार के इस दावे को बरक़रार रखा कि जब आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया जाता है, तो कोई भी व्यक्ति ग़लत तरीक़े से हिरासत में लिये जाने पर भी अदालत का दरवाजा नहीं खटखटा सकता। इस पर असहमति जताने वाले एकलौते न्यायाधीश न्यायमूर्ति एचआर खन्ना थे।
बाद के सालों में वाईवी चंद्रचूड़ (इसके बाद चंद्रचूड़ सीनियर) और भगवती दोनों ने एडीएम जबलपुर के उस फ़ैसले पर खेद व्यक्त किया था। इन दोनों में से एडीएम जबलपुर में चंद्रचूड़ सीनियर की स्थिति डगमगाने लगी थी, जैसा कि उन्होंने भारतीय संविधान के अपने दार्शनिक नज़रिये से संवैधानिक इतिहासकार ग्रानविले ऑस्टिन को दिए एक साक्षात्कार में बहुत साफ़ कर दिया था।
सबसे पहले चंद्रचूड़ सीनियर ने 22 अप्रैल 1978 को फ़ेडरेशन ऑफ़ इंडियन चैंबर्स ऑफ़ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री के एक भाषण में एडीएम जबलपुर में अपनी स्थिति के बारे में बताया। उन्होंने कहा, "मुझे खेद है कि मेरे पास अपना पद (यही शब्द थे) छोड़ने और लोगों को यह बताने की हिम्मत नहीं थी, 'ठीक है, यही क़ानून है।'"
उन्होंने मुख्य न्यायाधीश के पद छोड़ने के तक़रीबन एक दशक बाद 1994 में ऑस्टिन को दिये एक साक्षात्कार में अपने फिक्की भाषण में इसे और ज़्यादा स्पष्टता के साथ समझाया। ऑस्टिन लिखते हैं, "जस्टिस चंद्रचूड़ (सीनियर) ने अपनी इस धारणा को बनाये रखा कि भारतीयों के लिए न तो प्राकृतिक क़ानून है और न ही पूर्व-संवैधानिक अधिकार। उन्होंने कहा कि अगर संविधान में दिये गये स्वतंत्रता के अधिकार को निलंबित कर दिया जाता है, तो उन अधिकारो को भी निलंबित कर दिया जाता है। 'बंदी प्रत्यक्षीकरण मामले में (जिस तरह एडीएम जबलपुर भी जाना जाता है) मुझे उस क़ानून के ख़िलाफ़ जाना चाहिए था।' (पृष्ठ संख्या- 342, वर्किंग ए डेमोक्रेटिक कॉन्स्टिट्यूशन: द इंडियन एक्सपीरियंस; लेखक: ग्रानविले ऑस्टिन) दूसरे शब्दों में जैसा कि उन्होंने फिक्की के दर्शकों से कहा था कि उस क़ानून को बनाये रखने के बजाय उन्हें सुप्रीम कोर्ट से इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था।
ऑस्टिन के लिए चंद्रचूड़ सीनियर की वह टिप्पणी एक अहम बिंदु को रेखांकित करती है और वह यह है कि जब संविधान और क़ानून लोगों के साथ इंसाफ़ में बाधा डाले, तो न्यायाधीश के लिए अपना पद छोड़ देना सही तरीक़ा है।
2017 में केएस पुट्टस्वामी मामले में नौ सदस्यीय पीठ ने सर्वसम्मति से यह फ़ैसला सुनाया था कि निजता का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ (इसके बाद, चंद्रचूड़ जूनियर) ने अपने फैसले में लिखा, “जब राष्ट्रों के इतिहास लिखे जाते हैं और उनकी समालोचना की जाती है, तो स्वतंत्रता के मामले में न्यायिक निर्णय सबसे आगे होते हैं। इसके बावजूद, दूसरों को दस्तावेज़ों के ढेर के हवाले होना होता है, जहां जो कुछ होता है,मिल जाता है, लेकिन ऐसा कभी होना नहीं चाहिए था। एडीएम जबलपुर को भी ऐसा ही होना चाहिए था और उसी तरह खारिज भी कर दिया जाना चाहिए था।”
बाद के दिनों में मुंबई में ‘कला के रूप में स्वतंत्रता’ पर एक व्याख्यान में चंद्रचूड़ जूनियर ने कहा, "मुझे पता है कि वह (चंद्रचूड़ सीनियर) ज़िंदगी भर मानते रहे कि एडीएम जबलपुर ग़लत था।"
ज्ञानवापी मस्जिद
अब हम साल 2021 में आते हैं। पांच महिलाओं ने वाराणसी में एक सिविल कोर्ट में एक दरख़्वास्त दायर कर अनुरोध किया कि उन्हें ज्ञानवापी मस्जिद की बाहरी दीवार पर स्थित मां श्रृंगार गौरी स्थल की पूजा करने की अनुमति दी जाये। अदालत ने इस साल मई में मस्जिद के सर्वे का आदेश दे दिया और एक रिपोर्ट दाखिल करने को कहा, जिसकी सामग्री लीक हो गयी थी। दावा किया जाता है कि नमाज़ या नमाज़ अदा करने से पहले जिस हौज़ या तालाब में मुसलमान वुज़ू या हाथ-मुंह धोते हैं,उसमें शिवलिंग स्थित है।
हालांकि, मुसलमानों ने यह कहते हुए विरोध किया कि जिसे शिवलिंग कहा जा रहा है,वह तो एक फ़व्वारा था, जैसा कि सदियों पहले बनी कई मस्जिदों में पाया जाता है, जैसा कि इस स्टोरी से पता चलता है कि वाराणसी में उत्साह की लहर दौड़ गयी। हिंदू ज्ञानवापी मस्जिद में जमा हो गये, ज़ाहिर है कि इसके जवाबी विरोध में मुसलमान भी लामबंद होने लगे।
इस बीच ज्ञानवापी मस्जिद के रखरखाव के लिए ज़िम्मेदार अंजुमन इंतेजामिया मस्जिद की प्रबंधन समिति इस दलील के साथ सर्वोच्च न्यायालय का रुख़ कर लिया कि वाराणसी की अदालत में चल रही कार्यवाही पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 का उल्लंघन है। इसके वकील, हुज़ेफ़ा अहमदी ने दलील दी कि चूंकि मौजूदा क़ानून के तहत उन महिलाओं को कोई राहत नहीं दी जा सकती, इसलिए नागरिक प्रक्रिया संहिता के आदेश 7 नियम 11 के तहत इन महिलाओं की याचिका को खारिज कर दिया जाना चाहिए।
अहमदी का कहना था कि महिलाओं को कोई राहत इसलिए नहीं दी जा सकती, क्योंकि पूजा स्थल अधिनियम, 1991 पूजा स्थलों के धार्मिक चरित्र को उसी रूप में बनाये रखने की बात करता है,जिस तरह यह 15 अगस्त 1947 को अस्तित्व में था। कोई शक नहीं कि संसद की ओर से किसी भी क़ानून में संशोधन किया जा सकता है।
हालांकि, जैसे कि राम जन्मभूमि विवाद में वरिष्ठ अधिवक्ता और मध्यस्थ श्रीराम पंचू द प्रिंट न्यूज पोर्टल को दिये एक साक्षात्कार में बताते हैं कि 2019 के अयोध्या फैसले में डीवाई चंद्रचूड़ (बाद में चंद्रचूड़ जूनियर) सहित पांच न्यायाधीशों की एक पीठ ने सर्वसम्मति से उन विधानों की स्थिति तक इस पूजा स्थल अधिनियम को भी बढ़ा दिया, जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं को दर्शाते हैं। जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि संसद संविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन इसकी मूल संरचना में नहीं।
अयोध्या फ़ैसले का यह विश्लेषण इस बात को स्थापित कर देता है कि किस तरह पूजा स्थलों की स्थिति को ऊंचा किया गया।
अयोध्या के फ़ैसले में कहा गया है, "यह पूजा स्थल अधिनियम भारतीय संविधान के तहत धर्मनिरपेक्षता के प्रति हमारी प्रतिबद्धता को लागू किये जाने को लेकर एक अनधिक्रमणीय(non-derogable) दायित्व सौंपता है।" अनधिक्रमणीय शब्द का मतलब है कि कुछ अधिकार इतने अहम होते हैं कि उन्हें किसी भी परिस्थिति में सीमित या निलंबित नहीं किया जा सकता।
अयोध्या के फ़ैसले में आगे कहा गया है, "क़ानून (पूजा स्थल अधिनियम) इसलिए भारतीय राजनीति की धर्मनिरपेक्ष विशेषताओं की रक्षा के लिए बनाया गया एक विधायी साधन है, जो संविधान की बुनियादी विशेषताओं में से एक है।" इसके बाद आगे कहा गया है, "अप्रतिगमन(Non-retrogression) मौलिक संवैधानिक सिद्धांतों की एक बुनियादी ख़ासियत है, जिसका धर्मनिरपेक्षता एक मुख्य घटक है।" अप्रतिगमन शब्द का मतलब है कि एक बार लोगों को दिया गया अधिकार कम या ख़त्म नहीं किया जा सकता।
अयोध्या फ़ैसला अपने विश्लेषण के साथ इस तरह निष्कर्ष पह पहुंचता है: " इस तरह, पूजा स्थल अधिनियम एक ऐसा क़ानूनी हस्तक्षेप है, जो अप्रतिगमन(non-retrogression) को हमारे धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की एक ज़रूरी विशेषता के रूप में संरक्षित करता है …. सार्वजनिक पूजा स्थलों के चरित्र को संरक्षित करते हुए संसद ने बिना किसी लागलपेट के यह आदेश दिया है कि इतिहास और उसकी ग़लतियों को वर्तमान और भविष्य पर ज़ुल्म करने के हथियारों के रूप में इस्तेमाल नहीं किया जायेगा।”
कितने नेक भाव थे, कितनी ख़ूबसूरती से व्यक्त किये गये हैं !
दो पीढ़ियां,मगर दुविधा वही
अयोध्या फ़ैसले में व्यक्त बड़प्पन चंद्रचूड़ जूनियर की प्रतिभा से मेल खाते हैं, जिन्होंने पूजा स्थल अधिनियम में एक ऐसी कमी को माना, जिसे उसके 31 वर्षों के वजूद के दरम्यान किसी ने नहीं देखा था। पूर्व मुख्य न्यायाधीश एएम अहमदी के बेटे हुज़ेफ़ा अहमदी ने अदालत में जब दलील दी कि पूजा स्थल अधिनियम वाराणसी की अदालत में इस मुकदमें को नहीं चलाये जाने योग्य बना देता है,तब चंद्रचूड़ जूनियर ने प्रतिवाद करते हुए कहा कि "...यह अधिनियम किसी स्थान के धार्मिक चरित्र का पता लगाने में बाधक नहीं है।"
चंद्रचूड़ जूनियर ने तब एक इससे मिलती जुलती उस स्थिति का हवाला दिया, जिसके बारीक़ दलील के चलते बहुत से लोगों को अदालत जाना पड़ा, यक़ीन नहीं होता ! मगर चंद्रचूड़ जूनियर ने कहा था, "मान लीजिए कि एक अगियरी (अग्नि मंदिर) है। मान लीजिए कि उसी परिसर में अगियरी के दूसरे भाग में एक क्रॉस भी है ...तो क्या उस अगियरी की मौजूदगी उस क्रॉस को अगियरी बना देती है ?... क्या किसी क्रॉस की मौजूदगी उस अगियरी को ईसाई पूजा स्थल बना देती है...इसलिए, यह अधिनियम क्या मान्यता देता है ? यही कि किसी क्रॉस की मौजूदगी ईसाई धर्म की एक चीज़ को पारसी मान्यता वाली कोई चीज़ नहीं बना देगी, और न ही पारसी मान्यता की किसी चीज़ की मौजूदगी इसे ईसाई धर्म की कोई चीज़ बना देती है।”
दरअसल, पूजा स्थल अधिनियम धार्मिक अन्वेषण पर रोक नहीं लगाता। चंद्रचूड़ की यह व्याख्या क़ानूनी तौर पर सही प्रतीत होती है, क्योंकि उनके पिता अपने नज़रिये से 1976 में उन्होंने जो कुछ किया था, उस पर भरोसा करना भी सही था और जिसे बाद में उन्हें पछतावा भी हुआ था।
असल में पूजा स्थल अधिनियम किसी मंदिर या मस्जिद या जो कुछ भी धार्मिक चरित्र है,उसका पता लगाने का संकेत नहीं देता, शायद इसलिए कि संसद ने कभी सोचा ही नहीं रहा होगा कि इसकी ज़रूरत भी कभी पड़ेगी। संसद के विचारों को जानने के लिए पाठकों को यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि किसी को किसी स्थान के धार्मिक चरित्र का पता लगाने की आवश्यकता ही क्यों होगी ?
किसी ढांचे की ऐतिहासिकता का निर्धारण करने के लिए एक सम्मोहक कारण हो सकता है। लेकिन, यह पहले से ही अच्छी तरह से दर्ज है कि मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने 1669 में विश्वनाथ मंदिर को ध्वस्त कर दिया था और ज्ञानवापी मस्जिद का निर्माण कराया था। ज्ञानवापी के बगल में 1780 में विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण किया गया था। जिन पांच महिलाओं ने याचिका दायर की है,उनमें में से कोई भी इतिहासकार या पुरातत्वविद् नहीं हैं। मुकदमे में उनकी दलील है कि उन्हें ज्ञानवापी परिसर में मां श्रृंगार गौरी की पूजा करने की अनुमति दी जाये। उनकी यह दलील परिसर के इतिहास में उनकी दिलचस्पी को नहीं दिखाती।
इस तरह, ज्ञानवापी मस्जिद के धार्मिक चरित्र का पता लगाना पांच हिंदू महिलाओं के दावों से इस केस को जोड़ देता है । ज़ाहिर है, हम वाराणसी की ज़िला अदालत के फ़ैसले के बारे में पहले से अनुमान नहीं लगा सकते, जिसे अब यह मुक़दमा सौंप दिया गया है।
तब भी बाबरी मस्जिद विवाद के अनुभव को भी समझना होगा। 19वीं शताब्दी में जब से बाबरी मस्जिद पर इस आधार पर दावा किया गया कि यह वही स्थान है, जहां भगवान राम का जन्म हुआ था, तब से एक सदी के दौरान हुए न्यायिक फ़ैसलों से हिंदुओं के अधिकारों का ही विस्तार हुआ है।
अगले आठ हफ़्तों के दौरान,यानी जिस अवधि के दौरान ज़िला अदालत को अपना फ़ैसला सुनाना है,उस दौरान ज्ञानवापी मस्जिद में शिवलिंग होने का विश्वास मज़बूत होता जायेगा। मथुरा की एक अदालत ने अब कह दिया है कि धार्मिक पूजा स्थल अधिनियम,1968 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि और शाही ईदगाह के बीच हुए समझौते के ख़िलाफ़ याचिका पर कोई रोक नहीं लगाता। पूजा स्थलों को लेकर इस तरह के विवाद अब देश भर में सामने आयेंगे।
ज़ाहिर है कि यह दलील दी जा सकती है कि समग्र राष्ट्रवाद के समर्थकों और हिंदुत्व को समर्थन देने वालों के बीच की लड़ाई को अदालतों में नहीं,बल्कि राजनीतिक क्षेत्र में लड़ा जाना चाहिए । लेकिन, जब मस्जिदों को लेकर होने वाले ये विवाद पूजा स्थल अधिनियम के उल्लंघन में न्यायिक वैधता हासिल कर लेते हैं और बदले में देश में कहीं और भी इसी तरह के कृत्यों को प्रोत्साहित किया जाता है, तो राजनीतिक क्षेत्र में लड़ने के लिए बहुत कम गुंज़ाइश रह जायेगी। ऐसे में सवाल है कि गणतंत्र के अवशेषों पर विलाप करने और संविधान के प्रतिगामी होने को देखने के लिए हमारे पास क्या बचा रहेगा।
लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।इनके व्यक्त विचार निजी हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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