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''सिर्फ़ एक बंदा काफ़ी है'' क्यों पहलवान बेटियों के आंदोलन की याद दिलाती है

मनोज बाजपेयी की हाल ही में OTT पर आई एक फिल्म 'सिर्फ एक बंदा काफी है' की ख़ूब चर्चा हो रही है। इस फिल्म को देखते हुए आपको पहलवानों के आंदोलन की याद ज़रूर आएगी।
Sirf Ek Bandaa Kaafi Hai

ओटीटी प्लेटफॉर्म पर एक फिल्म रिलीज हुई है, फिल्म का नाम है 'सिर्फ एक बंदा काफी है', मनोज बाजपेयी को आख़िरी बार फिल्म 'अलीगढ़' में एक्टिंग के जिस उरूज पर देखा था इस फिल्म में उसे दोहराते हुए मनोज बाजपेयी को  एक नए मेयार को सेट करते पाया। 

इस कोर्ट रूम ड्रामा का क्लाइमैक्स सीन, 'जजमेंट डे' पूरी फिल्म की जान है, आखिरी के 15 मिनट ने साबित कर दिया कि मनोज बाजपेयी का मुकाबला किसी दूसरे ऐक्टर से नहीं बल्कि ख़ुद से ही है। 

पीड़ित पक्ष के वकील पीसी सोलंकी बने मनोज बाजपेयी ने ये डॉयलाग बोलना शुरू किया तो लगा ज़ेहन में हलचल बढ़ गई है। भले ही ये दलील कोर्ट में न दी गई हो बल्कि फिक्शन का हिस्सा हो लेकिन जिस दमदार तरीके से इसे पेश किया गया वो बांधकर रखने वाला है।

फिल्म में जज से इजाजत लेकर पीसी सोलंकी बने मनोज बाजपेयी ने एक कहानी सुनाई जिसमें रामायण में श्रीराम के द्वारा रावण के वध और मृत्यु के बाद मोक्ष न मिलने पर रावण की प्रार्थना से जुड़ी ये कहानी सुनाते हैं-

'' शिवजी मंद-मंद मुस्काए और कहा, हे पार्वती, जिस पाप का प्रभाव पूरे संसार की मानवता और प्रभुता पर सदियों तक रहता है वे महापाप के अन्तर्गत आता है, मैं रावण को माफ कर देता अगर उसने रावण बनकर सीता का अपहरण किया होता लेकिन उसने साधु का वेश धारण किया जिसका प्रभाव पूरे संसार के साधुत्व पर सदियों तक रहेगा जिसकी कोई माफी नहीं है।'' 

फिल्म के आख़िरी सीन के अलावा भी कई बार ऐसे सीन आए जब रोंगटे खड़े हो गए। पावरफुल एक्टिंग, चेहरे के हावभाव और जबरदस्त डायलॉग डिलीवरी ने ऐसा बांधा कि पता ही नहीं चला कि कब क़रीब दो घंटे 12 मिनट की फ़िल्म ख़त्म हो गई। 

ये फिल्म सच्ची घटना से प्रभावित है लेकिन जिस धार्मिक गुरु को फिल्म में दिखाया गया है किसी को समझने में देर नहीं लगेगी कि किस बाबा के केस की बात हो रही है। पूरी फ़िल्म आरोपी/दोषी के ऊपर से POCSO ( Protection of Children From Sexual Offences) Act, 2012 हटाने और आरोपी को ज़मानत दिलाने को लेकर है। 

पीसी सोलंकी की कहानी

दरअसल ये कहानी है पीसी सोलंकी की जिन्होंने असल जिन्दगी में आसाराम बापू को सलाखों के पीछे पहुंचाया था, उन्हें सज़ा दिलवाई थी। इस फिल्म में दिखाया गया है कि सच की लड़ाई कितनी मुश्किल होती है। जिस देश में बाबाओं के पास धर्म का लिबास धारण कर सियासी रसूख रखने की परम्परा रही हो वहां किसी धर्म गुरु पर आरोप लगाना और पीड़िता का डटकर खड़ा रहना ही किसी ऐलान-ए-जंग जैसा है। सेशन कोर्ट के वकील पीसी सोलंकी ने बिना फीस लिए इस हाई-प्रोफाइल केस को जीत कर दिखा दिया। केस में वक़्त-वक़्त पर कई बड़े और नामी चेहरे जुड़े ( असल जिन्दगी के बड़े वकील के तौर पर) लेकिन सच की दलील के सामने सब ध्वस्त होते चले गए। 

फिल्म में  POCSO  एक्ट की जानकारी 

फिल्म में एक लफ़्ज़ जो लगातार इस्तेमाल हुआ है वह पॉक्सो है। दिल्ली के निर्भया केस के बाद 2012 में लाए गए इस अधिनियम के बारे में फिल्म में बहुत ही विस्तार से बात की गई है।फ़िल्म में केस के मद्देनज़र बताया गया कि पॉक्सो एक्ट क्या है? वे कैसे बच्चों को यौन शोषण को रोकने के लिए बनाया गया था? कब लाया गया? फ़िल्म में लगातार पीड़िता को बालिग साबित कर पॉक्सो एक्ट हटाने की कोशिश की जाती रही लेकिन वकील पीसी सोलंकी ने भी सारे सबूतों को सच के धागे में मज़बूती से पिरो कर कोर्ट में पेश कर दिया और केस जीत लिया। 

क्या है फिल्म की कहानी? 

फिल्म की कहानी एक नाबालिग लड़की नू की है। कहानी छिंदवाड़ा, दिल्ली और जोधपुर से होती हुई दोबारा दिल्ली के कमला नगर पुलिस थाने में पहुंचती है जहां लड़की के मां-बाप एक बाबा के खिलाफ अपनी नाबालिग बेटी के यौन शोषण का केस दर्ज करवाते हैं, भारी सुरक्षा बल की मौजूदगी में बाबा को गिरफ़्तार कर लिया जाता है। मामला कोर्ट पहुंचता है और यहां एक नाबालिग बच्ची को बालिग साबित कर पॉक्सो को हटाने की कोशिश शुरू हो जाती है, पैसा और पावर सबका इस्तेमाल किया जाता है। गवाहों को रास्ते से हटाया जाता है लेकिन एक आम वकील पीसी सोलंकी ने (जोधपुर में)  बहुत ही बहादुरी और होशियारी से इस केस को जीत कर एक बच्ची को इंसाफ दिलाया।

फिल्म पहलवानों के आंदोलन की याद दिलाती है

जिस दौरान हम इस फिल्म को देख रहे थे ऐसा लग रहा था कि 2013 से 2018 तक चले इस केस की कहानी को जिस तरह से बुना गया है वे हमें रह रह कर महिला पहलवानों के आंदोलन के दौरान पेश आ रहे प्रभाव और दबाव के साथ ही POCSO को हटाने को लेकर चल रही कोशिश की याद दिला रहा था। फ़िल्म में जिस तरह से लगातार एक कोशिश शुरू से आख़िर तक की जाती रही वो थी बाबा पर लगे POCSO एक्ट को हटाने की, और कुछ ऐसी ही कोशिश लोकसभा सदस्य और भारतीय कुश्ती महासंघ ( WFI ) के प्रमुख बृजभूषण शरण सिंह की तरफ से भी शुरू हो गई है। 

गौरतलब है कि 5 जून को अयोध्या के राम कथा पार्क में जन चेतना महारैली का आयोजन कर यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण के लिए बने POCSO एक्ट 2012 में संशोधन की मांग की जाएगी, संत समाज को अपनी तरफ कर बृजभूषण शरण सिंह शक्ति प्रदर्शन करने की तैयारी कर रहे हैं। उनकी तरफ से आह्वान किया गया है कि ''संतों के नेतृत्व में हम सरकार को पॉक्सो कानून बदलने के लिए मजबूर करेंगे।''

इसके साथ ही कुछ घटनाक्रम ऐसे हुए हैं जो इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि इस केस में भी किसी भी तरह से POCSO एक्ट को हटाने की कोशिश हो रही है, बताया जा रहा है कि यौन शोषण का आरोप लगाने वाली पीडि़ता के चाचा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा है कि ''लड़की बालिग है और उसका इस्तेमाल किया जा रहा है।'' जबकि इस प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद आरोप लगाने वाली नाबालिग लड़की के पिता भी सामने आए और उन्होंने चाचा के दावे को खारिज कर दिया। 

जिस तरह से फिल्म में बाबा पर आरोप लगाने वाली लड़की के स्कूल के डॉक्यूमेंट के साथ छेड़छाड़ कर केस को घुमाने की कोशिश की गई थी, वारदात के वक्त उसे बालिग ठहराने की कोशिश की गई थी कुछ उसी अंदाज़ में आरोप लगाने वाली नाबालिग पहलवान बेटी के भी स्कूल के सर्टिफिकेट का हवाला देकर उसके बालिग होने की बात कही जा रही है। 

यहां कुछ सवाल उठते हैं जैसे कि- 

- जनवरी से उठे मुद्दे में आरोप लगाने वाली नाबालिग लड़की के चाचा अब तक कहां थे? 

-आरोप लगाने वाली नाबालिग लड़की के चाचा जंतर-मंतर से आंदोलन के ख़त्म होने के बाद ही सामने क्यों आए? 

- अब तक मेन स्ट्रीम मीडिया ने इस मुद्दे पर ख़ामोशी साध रखी थी लेकिन जिस दिन से जंतर-मंतर से आंदोलन को हटाया गया है उसी दिन से वह हरकत में आ गया है और कई तरह के नैरेटिव प्राइम टाइम में पेश किए जा रहे हैं। ऐसा क्यों? 

पॉक्सो एक्ट में मामला दर्ज है लेकिन अब तक बृजभूषण शरण सिंह की गिरफ़्तारी नहीं हुई है इसपर राज्यसभा के सदस्य और वकील कपिल सिब्बल भी सवाल उठा चुके हैं। उन्होंने कहा कि पॉक्सो कानून और इसके तहत तत्काल गिरफ़्तारी का प्रावधान क्या बृजभूषण शरण सिंह पर लागू नहीं होता क्योंकि वे बीजेपी के सांसद हैं। 

पॉक्सो एक्ट, यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण करने और उन्हें जल्द से जल्द इंसाफ दिलाने के लिए लाया गया लेकिन अब एक सांसद की तरफ से ही इसके ग़लत इस्तेमाल का हवाला देते हुए इसे बदलने की बात कही जा रही है।

फिल्म में एक जगह पीड़ित बच्ची से पूछा गया कि घटना के 6 दिन बाद क्यों FIR दर्ज करवाई गई? जिसके जवाब में पीड़ित बच्ची ने कहा कि '' मैंने जिसे भगवान समझा उन्होंने मेरे साथ ऐसा किया, इस बात का विश्वास मुझे अभी तक नहीं हो रहा'' पीड़ित बच्ची की ये बात सुन हमें लगातार पहलवानों के आंदोलन को कवर करने के दौरान उन मां, उभरती हुए कुश्ती खिलाड़ी की बातें याद आने लगी जो कह रही थी कि ''अब हमारे घर वालों के लिए किसी पर भरोसा करना मुश्किल होगा, अब कोई हमें कैसे घर से बाहर भेजेगा? अब हम किसी पर कैसे विश्वास करेंगे, हमारे परिवार वालों के लिए हमें बाहर भेजना मुश्किल हो जाएगा।'’

बहरहाल, ये हम सब जानते हैं कि ये महज एक इत्तेफाक है कि फिल्म में उठाए गए कुछ सवाल पहलवान बेटियों के आंदोलन को दबाने की कोशिश से मिल रहे हैं। लेकिन जब दोनों मामलों को देखें तो कुछ चीजें जो एक सी दिखाई देती हैं वे हैं - पावर, पैसा और धर्म का सहारा।

इन सबको देखकर ऐसा महसूस होता है कि बेटियों की इंसाफ की लड़ाई की राह में एक चीज़ जो कभी नहीं बदलती वो है लंबा चलने वाला संघर्ष। 

फिर भी फिल्म के डायरेक्टर, प्रोड्यूसर को बधाई दी जानी चाहिए क्योंकि प्रोपेगैंडा फिल्मों के दौर में इस तरह की फ़िल्म का बनना और दर्शकों के बीच लाना ही एक हिम्मत का काम है। भले ही फिल्म OTT पर आई है लेकिन उसे तलाश कर देखा जा रहा है। फिल्म को मिल रही तारीफ़ बताती है कि आज भी इंसाफ के लिए लड़ी गई मामूली इंसान ( पीसी सोलंकी) की लड़ाई समाज को बड़ा संदेश देती है।

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