क्यों चल रहा है नेपाल में राजतंत्र बहाली आंदोलन?
नेपाल में 13 फरवरी 1996 को नेपाली राजशाही को उखाड़ फेंकने और गणतंत्र की स्थापना के घोषित उद्देश्य के साथ सीपीएन (माओवादी) ने सशस्त्र विद्रोह की शुरुआत की थी। इस आंदोलन में हज़ारों लोग मारे गए। 21 नवंबर 2006 को एक व्यापक शांति समझौते पर हस्ताक्षर के साथ यह विद्रोह समाप्त हुआ। इस समझौते के अनुसार नेपाल की राजशाही - जो क़रीब ढाई सौ साल पुरानी थी, वह समाप्त हो गई। एक लोकतांत्रिक संविधान की रचना की गई जिसमें राजशाही के सभी प्रारूपों को समाप्त करके नेपाल को एक हिंदूराष्ट्रकी जगह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राष्ट्र बनाया गया।
नेपाल के संविधान को 16 सितंबर 2015 को संविधान सभा की बैठक में दो-तिहाई से अधिक बहुमत से पास कर दिया गया तथा नेपाल एक संघीय लोकतांत्रिक-गणतांत्रिक देश बन गया। यद्यपि नेपाल नरेश वीरेंद्र ने मई 1991 में लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त करते हुए कुछ संवैधानिक सुधारों को स्वीकार किया था तथा राजा के साथ-साथ राज्य के एक प्रमुख कार्यकारी प्रधानमंत्री के रूप में एक बहुदलीय संसद की स्थापना की थी और इसी वर्ष नेपाल में पहले आम चुनाव भी हुए थे परंतु 2015 में जारी नये संविधान में राजा की कोई भूमिका शेष नहीं रह गई थी। इस संविधान के तहत पहले आम चुनाव में माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी को बहुमत मिला और उसने सरकार बनाई। नेपाल में राजशाही की जड़ें बहुत गहरी थीं उसका एक व्यापक सामाजिक और धार्मिक आधार भी था - वहां राजा को शिव का अवतार माना जाता था। नेपाल में अशिक्षा और सामंती मूल्य-मान्यताओं के कारण इसे व्यापक सामाजिक आधार भी मिला था परंतु एक दशक तक चले माओवादी आंदोलन ने लोगों के भीतर राजशाही के ख़िलाफ़ एक चेतना ज़रूर पैदा की। हालांकि अभी भी राजशाही जैसे बहुत पुराने विचारों को लोगों के दिमाग से हटाने के लिए लोगों के भीतर व्यापक वैज्ञानिक चेतना के प्रचार-प्रसार की ज़रूरत होती है। माओवादी कम्युनिस्ट पार्टी ये कर सकती थी लेकिन वह भी क्रांति का रास्ता पूरी तरह से छोड़कर चुनावी जोड़-तोड़ में फंस गई। आज इसका फ़ायदा राजा समर्थक राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (आरपीपी) उठा रही है। उसने नेपाल में राजतंत्र और हिंदूराष्ट्रको फ़िर से बहाल करने को लेकर प्रदर्शनों के सिलसिले की शुरुआत की है। नवंबर के आखिरी हफ्ते में राजधानी काठमांडू और कुछ अन्य शहरों में लगातार तीन दिन प्रदर्शन हुए। फ़िर छुट-पुट सभाओं और कार्यक्रमों के बाद 15 दिसंबर से राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी ने इन्हीं दोनों मुद्दों पर दो महीने का जनजागरण अभियान चलाने की घोषणा की है। इस अभियान के बाद आरपीपी की योजना ‘मेची से महाकाली तक’ यानी नेपाल के पूर्वी और पश्चिमी छोरों की जोड़ते हुई एक जागरण यात्रा निकालने की है। यह पार्टी शुरू से ही गणराज के बजाय राजतंत्र समर्थक रही है। हालांकि नये संविधान के तहत पहले आम चुनाव में इसके पास कोई संसदीय सीट नहीं थी। पहली बार नेपाली संसद में आरपीपी के पास 14 सीटें हैं।
नवंबर में हुए राजतंत्र समर्थक प्रदर्शनों में मुख्य भूमिका नेपाल के सुदूर पूर्वी जिले झापा के रहने वाले दुर्गा प्रसाद नाम के एक संदिग्ध व्यक्ति की बताई जाती है जिसके नज़दीकी रिश्ते नेपाल की तीनों प्रमुख बड़ी पार्टियों से रहे हैं। इसके बारे में यह भी कहा जाता है कि इसने नेपाली बैंकों से 500 करोड़ का कर्ज़ा लिया और उसे वापस नहीं किया। इस आंदोलन का सबसे मुखर आर्थिक मुद्दा यह है कि सरकार के इशारे पर बैंक लोगों को कर्ज़ा वापस करने के लिए परेशान कर रही है राजशाही वापस आने पर बैंक सभी के सारे कर्ज़े माफ़ कर देगी।
ऐसा ही एक राजतंत्र समर्थक आंदोलन तीन साल पहले दिसंबर 2020 में भी चला था जब तत्कालीन प्रधानमंत्री के पी शर्मा ओली और राष्ट्रपति विद्या भंडारी ने अल्पमत में आ गई सरकार को आपसी समझदारी के तहत विश्वास मत के बिना ही चलाते रहने का फ़ैसला कर लिया था। बाद में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से वह स्थिति बदली और पटरी से उतरता हुआ नवजात लोकतंत्र फ़िर सही रास्ते पर चलने लगा। परन्तु इस बार के प्रदर्शन पहले की तुलना में ज़्यादा बड़े और प्रभावशाली हैं। संसद में एक राजतंत्र समर्थक दल भी मौजूद है हालाँकि राजा की प्रशंसक शक्तियों के बीच काफ़ी अंतर्विरोध है। आरपीपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजेंद्र लिंग्डेन दुर्गा प्रसाद जैसे संदिग्ध व्यक्ति को एक अराजक शक्ति बता रहे हैं और मीडिया से अपना नाम एक डिफाल्टर के साथ नहीं जोड़ने का आग्रह कर रहे हैं।
अब सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि नेपाल में लिखित संविधान लागू होने के मात्र आठ वर्षों के भीतर राजतंत्र की वापसी को लेकर शुरू हुई सुगबुगाहट को किस तरह देखा जाए। क्या नेपाल के लोगों का गणराज, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और संघवाद से इतना जल्दी मोहभंग हो गया? परन्तु कुछ बातें निश्चय ही चिंताजनक हैं जैसे कि - वहांँ के राजनेताओं में सत्ता की ललक बहुत ज़्यादा है और वे इसके लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। यह मामला केवल व्यक्तिगत विचलन का नहीं है क्योंकि दल-बदल के बजाय पूरे-पूरे ग्रुप इधर से उधर होने की घटनाएं वहां बहुत होती हैं। दूसरा मामला अस्तित्व के संकट का है। सत्ता के क़रीब नहीं रहे तो पार्टी ख़त्म हो जाएगी और अकेले पड़ गए तो जेल जाएंगे, यह डर सबको है। माओवादियों को ऐसा लगता है कि सशस्त्र संघर्ष के समय के किसी भी पुराने मामले को खोलकर उन्हें जेल भेजा जा सकता है। बाकियों को भष्टाचार के किसी मामले को खोले जाने का भय सताता रहता है। यही कारण है कि नेपाली नेताओं के आपसी रिश्ते काफ़ी सहज हैं। हर नेता को पता है कि उसे कभी भी एक ख़ेमे को छोड़कर दूसरे ख़ेमे में बैठना पड़ सकता है। इसीलिए सभी पार्टी के नेताओं में आपसी संवाद बना रहता है। इन सब कारणों से राजनीतिक दलों में चरम विचारहीनता और अवसरवाद पैदा हुआ है। इसका हाल यह है कि चीन की समर्थक समझी जाने वाली कम्युनिस्ट नेता केपी शर्मा ओली की पार्टी एनसीपी यूएमएल ने पिछला आम चुनाव राज समर्थक आरपीपी के साथ मिलकर लड़ा था।
इस तरह का अवसरवाद, दल-बदल, बार-बार सरकारों का बनना-गिरना, देश की आर्थिक स्थिति का लगातार ख़राब होना तथा नेताओं के भ्रष्टाचार में लिप्त होने की ख़बरों के साथ-साथ, नेताओं को तेजी से अमीर होते हुए देखना, फिर इन सबसे लोगों के मन में लोकतंत्र के प्रति भरोसा कम हुआ है। 2015 में आए विनाशकारी भूकंप ने भी नेपाल में भारी जान-माल का नुकसान पहुंचाया था। हालात कुछ सुधर ही रहे थे कि कोरोना महामारी आ गई जिसने पर्यटन पर आधारित नेपाली अर्थव्यवस्था की कमर ही तोड़कर रख दी। जैसे-तैसे कोरोना गया तो रूस-यूक्रेन युद्ध और अभी इज़राइल-फिलिस्तीनी टकराव ने मुद्रास्फीति को बेकाबू कर दिया जिसके कारण बैंकों की ब्याज दरें बहुत बढ़ गईं तथा लोगों को कर्ज़ अदायगी में दिक्कतें आने लगीं। इसका फ़ायदा भी राजतंत्र समर्थक उठा रहे हैं। क्या इन सबका मतलब यह हुआ कि नेपाल में लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता तथा बहुलता के जो मूल्य नेपाली जनयुद्ध में बहुत कुर्बानियाँ देकर मिले थे उसका पटाक्षेप होने वाला है तथा ‘एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा,एक राजा’ वाले पुराने दौर में लौटने का वक्त आ गया है।
भारत में संघ परिवार और भाजपा शुरू से नेपाली राजतंत्र तथा हिंदूराष्ट्र की समर्थक रही है। भारत में भाजपा के लगातार सत्ता में रहने पर नेपाल में भी ये ताक़तें अपना प्रभाव बढ़ा रही हैं। अभी हाल में नेपाल की तराई में नेपाल के इतिहास में पहली बार हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए तथा कर्फ्यू तक लगाना पड़ा था। इस संबंध में नेपाली राजनीति तथा वहां की धर्म और संस्कृति के जानकार समकालीन 'तीसरी दुनिया' के संपादक आनंद स्वरूप वर्मा कहते हैं कि “जब नेपाल में संविधान का निर्माण हो रहा था तभी संघ परिवार से जुड़ी हिंदूवादी ताक़तें पूरी कोशिश कर रही थीं कि नेपाल में एक धर्मनिरपेक्ष संविधान न लागू हो तथा वह हिंदूराष्ट्र बना रहे।” उसी समय उत्तराखंड राज्य की सरकार के ‘मुख्यमंत्री भगतसिंह कोश्यारी’ ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान यहां तक कह दिया था कि “नेपाल में भारी पैमाने पर भारतीय हिंदू तीर्थयात्रा के लिए जाते हैं। अगर नेपाल हिंदूराष्ट्र नहीं रहा तो इस पर बुरा असर पड़ेगा।” आनंद स्वरूप वर्मा आगे कहते हैं कि “आज नेपाल में फैली राजनीतिक अस्थिरता का फ़ायदा राजतंत्र समर्थक पार्टियां उठाने की कोशिश कर रही हैं लेकिन उन्हें इसमें सफलता मिलने की संभावना बिलकुल भी नहीं है। नेपाली समाज एक बहुधर्मीय समाज है जिसमें बहुमत जनजाति पिछड़े और दलित समाज का है। एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष नेपाल ही सभी को न्याय दे सकता है। नेपाली जनयुद्ध में सभी वर्गों ने मिलकर राजशाही के ख़िलाफ़ संघर्ष किया था इसलिए अब वे पुरानी सामाजिक व्यवस्था की ओर लौटने के लिए कभी तैयार नहीं होंगे।”
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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