स्मृतिशेष: गणेश शंकर विद्यार्थी एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट
हिंदी क्षेत्र में वामपंथी आंदोलन के श्लाका पुरूष गणेश शंकर विद्यार्थी (1924-2021) का निधन हो गया है। वह 96 वर्ष के थे। उन्हें लोग प्यार से ‘गणेश दा’ कह कर बुलाते थे। पिछले महीने उन्हें कुल्हे में चोट लगी थी। गणेश दा उस चोट से उभर ही रहे थे कि कोरोना की चपेट में आ गए । कल यानी 12 जनवरी को पटना के एक निजी नर्सिंग होम में उनकी मौत हो गयी। उनकी अंत्येष्टि कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करते हुए पटना के बांसघाट पर की गई। उनके निधन से बिहार की वामपंथी राजनीति के एक युग का अंत सा हो गया। कल से लगातार बिहार के दूरदराज के कस्बों व गांवों में साधारण मजदूरों व किसानों द्वारा श्रद्धांजलि सभा आयोजित की जाने की खबरें आ रही हैं।
गणेश शंकर विद्यार्थी छात्र आंदोलन, स्वाधीनता आंदोलन और फिर किसान आंदोलन के रास्ते कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हुए। अपने आठ दशकों के लंबे सावर्जनिक जीवन की शुरूआत गणेश शंकर विद्यार्थी ने ए.आई.एस.एफ के साथ की थी। कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता उन्होंने 1942 में ग्रहण कर ली थी।
इस वर्ष सी.पी.आई (एम) अपनी स्थापना की शताब्दी वर्ष के रूप में मना रही है। गणेश शंकर विद्यार्थी से वयोवृद्ध अभी पूरे देश में सी.पी.आई (एम) में दो ही लोग बचे हैं। एक केरल के पूर्व मुख्यमंत्री वी.एस.अच्युतानंदन और दूसरे तामिलनाडु के पूर्व सी.पी.एम राज्य सचिव एन शंकरैय्या।
गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म , 1924 में , रजौली (नवादा) के एक जमींदार परिवार में हुआ था। इनके चाचा गौरीशंकर सिंह बिहार कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में से एक थे। इनके घर क्रांतिकारी किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती, जयप्रकाश नारायण सरीखे नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। उनके घर पर ‘जनता’ और ‘चिंगारी’ जैसे अखबार आया करते थे । इससे उनके अंदर समाजवादी विचारों का प्रभाव पड़ा।
स्कूली जीवन से स्वाधीनता आंदोलन में भागीदारी
इन वजहों से स्कूली जीवन में वे आंदोलनात्मक गतिविधियों में हिस्सा लेने लगे। उस दौर के संबंध में गणेश शंकर विद्यार्थी बताया करते थे कि ‘‘ 1938 में स्कूल में झंडा फहराने पर काफी विवाद हुआ। तब तक स्कूल में आई.एस.एफ बन चुका था। वहां कॉलेज तो था नहीं। हमें गांव-गांव जाकर बताना होता कि देश कैसे आजाद होगा। फिर जमींदारी जुल्म से भी परिचित हुआ कि आदमी, आदमी को पीटता है , ये ठीक नहीं है। ब्रिटिश हेडमास्टर ने मुझे स्कूल से निकाल फेंका । फलस्वरूप, हड़ताल हो गयी, लंबी चली। अंत में उन्हें समझौता करना पड़ा, पर मुझे टीसी मिल गयी और हम पटना चले आए। यहां राजाराम मोहन सेमिनरी में दाखिल हुआ। उस वक्त चारों ओर आंदोलन छिड़ा था। ‘न एक भाई, न एक पाई’ का नारा हर जगह गूंज रहा था। द्वितीय विश्व-युद्ध में अंग्रेजों की मुखालिफत तो गांधी जी ने बाद मे शुरू की, बल्कि वे कम्युनिस्टों से पीछे थे। आज भले गांधी जी हमें महान लगते हैं, लेकिन उस वक्त हमें वे अंग्रेज़ों के पिट्ठू नजर आते थे। स्कूल में हड़ताल हुईं। यहां से भी निकाले गए। अंततः राजेंद्र बाबू ( देश के प्रथम राष्ट्रपति ) ने हस्तक्षेप किया- ‘फारगेट एंड फॉरगिव’ पर समझौता हुआ। वहां से पटना कॉलेजिएट आया। अली अशरफ, सुरेंद्र शर्मा, हरिकिशेर मेहरोत्रा वहां के लीडर थे। पटना मेडिकल कॉलेज में हम लोगों का अड्डा था। ए.आई.एस.एफ का कांफ्रेंस हुआ जिसमें ‘पीपुल्स वार’ का स्लोगन पास हुआ। ‘फारवर्ड टू फ्रीडम’ करके पार्टी का पैंफलेट आया। हम लोग पचास हजार छात्रों का जुलूस लेकर सचिवालय चले गए। गोली चली। मैं आंसू गैस लगने की वजह से गिर गया था। सचिवालय वाले सात शहीदों में जो सबसे आगे वाला लड़का था, उमाकांत, वह हमारे ही स्कूल का था। इसी दौरान आंदोलनात्मक गतिविधियों में भागीदारी देख पिता जी ने शादी करा दी। उन्हें उम्मीद थी कि संभवतः शादी से कुछ सुधार आए।’’
जब अपनी मां तक ने गणेश दा को वोट नहीं दिया
शादी के बाद, गणेश शंकर विद्यार्थी ने, अपने घर से ही विद्रोह उस वक्त किया जब पत्नी को बस चढ़ाने के लिए स्टॉप पर पैदल लेकर जाते थे। सामंती परिवेश में उस वक्त, इनके परिवार के लोग, इसे अच्छा नहीं मानते थे। जमींदार परिवार में जन्म लेने के बावजूद स्वामी सहजानंद सरस्वती के जमींदारविरोधी किसान आंदोलन में हिस्सा लेना शुरू किया। स्वामी सहजानंद, गणेश शंकर विद्यार्थी को इतना पसंद किया करते थे कि 1952 में होने वाले पहले आम चुनाव में इन्हें किसान सभा से लड़ाना चाहते थे। लेकिन 1950 में स्वामी सहजानंद सरस्वती का असमय निधन हो गया। गणेश दा ने 1952 का चुनाव लड़ा। उस चुनाव में उनके चाचा भी खड़े थे। इनके परिवार के लोगों में कम्युनिस्ट राजनीति से इतनी चिढ़ थी कि इनकी मॉं तक ने इनको वोट नहीं दिया था।
जब गणेश दा स्कूल में ही थे जब रेवड़ा का प्रख्यात किसान सत्याग्रह शुरू हुआ। जमींदारों के जुल्म बारे में गणेश शंकर विद्यार्थी अक्सर अपने भाषणों में जिक्र किया करते थे। ‘‘वहां का जमींदार बेहद क्रूर था। 30 की क्राइसिस के दौरान मालगुजारी न चुका पाने के कारण भूमिहार, कुर्मी, कोइरी, दलित सबकी जमीन नीलाम होने लगी। जमींदार इतना क्रूर था कि कहा करता तहत कि यदि घर में गाय का दूघ नहीं है तो अपनी औरतों के दूघ दुह कर लाओ।’’
1955 में छात्रों पर हुए गोलीकांड़ के बाद हुए आंदोलन में गणेश दा ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। आजादी भारत में हुए इस पहले गोलीकांड में बी.एन. कॉलेज के छात्र दीनानाथ पांडे की मौत हो गयी थी। जवाहर लाल नेहरू को तब पटना आना पड़ा था।
बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह ने कहा ‘तुमसे डर लगता है’
पचास के दशक के संबंध में चर्चित आलोचक भगवान प्रसाद सिन्हा गणेश शंकर विद्यार्थी से सुने गए अपने एक अनुभव को साझा करते हुए कहते हैं ‘‘उनके प्रभाव और राजनैतिक हैसियत के मद्देनज़र कम्युनिस्ट पार्टी ने इन्हें तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह के विरूद्ध खड़े कम्युनिस्ट उम्मीदवार भोला प्रसाद के पक्ष में चुनाव अभियान का कार्यभार सौंपा। बरबीघा स्थित श्रीकृष्ण सिंह के गांव तेउस में इन्हें दायित्व सौंपा गया कि दबंग सामंती तत्वों से गरीबों के वोटों की रक्षा की जाए। कॉमरेड गणेश शंकर विद्यार्थी मतदान की पूर्व संध्या पर पहुंचे। वहां के एक दबंग परिवार में इनकी रिश्तेदारी थी। उन्होंने उसका इस्तेमाल कम्युनिस्ट उम्मीदवार के पक्ष में किया। मतदान के वक्त बूथ पर जाकर सामंती तत्वों से सीधे टकरा गए। इसका असर यह हुआ कि इनके रिश्तेदार लोग भी बहते लहू को देख बूथ पर आ धमके और इस तरह बूथ की हिफाजत हो गयी।’’ संभवतः इन्हीं वजहों से, जैसा कि गणेश शंकर विद्यार्थी ने खुद बताया था ‘‘बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह मुझे दूर-दूर बिठाते थे। कहते थे तुमसे डर लगता है।’’
1977 में पहली बार विधायक बने, मुश्किल वक्त में पार्टी की कमान संभाली
1964 में सी.पी.आई में विभाजन हुआ तब गणेश दा उन कुछ लोगों में थे जो सी.पी.आई (एम) में शामिल हुए। इमरजेंसी के बाद 1977 के चुनाव में गणेश दा पहली बार विधायक बने। जब 1977 में विधायक निर्वाचित होने की घोषणा हुई तब उनके परिवार के जिन लोगों ने उन्हें कभी तवज्जो नहीं दी थी विजय जुलूस में आगे-आगे नजर आए। गणेश शंकर विद्यार्थी दो दफे विधायक रहे। बाद के दिनों में विधान परिषद के भी सदस्य बने। 1980 से 2005 तक वे सी.पी.आई ( एम) , बिहार के राज्य सचिव रहने के साथ-साथ सर्वोच्च नीति निर्धारक संस्था सेंट्रल कमिटि के भी लगभग 30 सालों तक सदस्य रहे।
1964 से 1980 के दरम्यान सी.पी.आई (एम ) कई बार टूटी। सबसे पहले नक्सल लोग बाहर निकले, 1973 में चर्चित मजदूर नेता ऐ.के राय के नेतृत्व में माकि्र्सस्ट कॉऑर्डिनेशन कमिटि (एम.सी.सी ) का गठन हुआ। 1980 में तत्कालीन राज्य सचिव सियावर शरण श्रीवास्तव के नेतृत्व में एक धड़ा माकि्र्सस्ट कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया; ( एम.सी.पी.आई ) बन गया। ऐसे मुश्किल मोड़ पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने पार्टी की कमान संभाली।
उन्होंने न सिर्फ पार्टी को अक्षुण्ण रखा, बल्कि सी.पी.आई (एम ) का खासा विस्तार भी किया। पार्टी ने बड़े पैमाने पर भूमि संघर्ष चलाया। उस भूमि संघर्ष में कई महत्वपूर्ण कार्यकर्ताओं की हत्या हुई। अजीत सरकार की हत्या ने पार्टी को स्तब्ध कर दिया था। माकपा राज्य सचिव अवधेश कुमार उस कठिन दौर के बारे में बताते हैं ‘‘गणेश दा की गरीब व आम जनता पर बहुत मजबूत पकड़ थी। जब 14 जून, 1998 में भूमि मुक्ति आंदोलन के नेता और पूर्णिया के विधायक अजीत सरकार की हत्या की खबर मिली तब गणेश दा के नेतृत्व में पार्टी की टीम पूर्णिया पहुंची। उस टीम का मैं भी सदस्य था। पूर्णिया बंद और पूरी जनता खासकर आदिवासी और भूमिहीन जनता का आक्रोश सड़कों पर था। राजद की सरकार थी और उनकी सरकार के खिलाफ जनाक्रोश था। लालू जी पूर्णिया आकर अजीत सरकार को श्रद्धांजलि देना चाहते थे। जनाक्रोश को लेकर दुविधा में पड़े लालू जी ने विद्यार्थी जी को फोन किया। विद्यार्थी जी ने लालू प्रसाद को आश्वस्त किया और आने के लिए कहा। लालू जी आए, श्रद्धांजलि दी और घोषणा कर वापस लौटे।’’
मंडल दौर में क्लास आउटलुक को ओझल नहीं होने देना था
1990 आते-आते विधानसभा में भी माकपा की उपस्थिति बढ़ी। कभी नवादा तो कभी भागलपुर से सी.पी.एम का सांसद भी रहा। इस वक्त मंडल आयोग की धूम थी। उस दौर पर दृष्टिपात करते हुए गणेश शंकर विद्यार्थी ने बताया ‘‘मंडल आयोग में जब पिछड़ों को आरक्षण देने की बात हुई, हमने कहा था कि ‘ क्लास आउटलुक’ का ध्यान रखना चाहिए। पिछड़ों मे भी जो गरीब हैं उनको इसका लाभ मिले लेकिन हमारी कमजोरी यह रही कि हम इस लाइन को असरदार नहीं बना पाए। यदि पिछड़े-दलितों के बीच हम वर्गीय विभाजन करने में सफल हो गए होते तो जो निहित स्वार्थ मंडल आंदोलन पर कुंडली मारकर बैठा है, वह न हुआ होता। वे जातीय भावनाओं का इस्तेमाल करने में सफल न हो पाए होते।’’
मार्क्सवाद के प्रति गणेश दा की प्रतिबद्धता ताउम्र बनी रही। अंतिम महीनों तक वे सक्रिय रहे। जब सी.पी.आई के राज्य सचिव सत्यनारायण सिंह की मौत हुई , तब गणेश दा उनकी श्रद्धांजलि सभा में आए। कोरोना काल के बाद जब ‘जनशक्ति’ का प्रकाशन शुरू हुआ गणेश दा उसमें भी शामिल हुए और पार्टी अखबार के महत्व के संबंध में सब को बताया। अंतिम समय तक मार्क्सवादी पुस्तकों के प्रति उनका लगाव बना रहा। नई-नई किताबें खरीद कर पढ़ा करते तथा दूसरों को प्रेरित किया करते थे। सी.पी.आई ( एम ) सेंट्रल कमिटि के सदस्य अरुण कुमार मिश्रा बताते हैं ‘‘गणेश दा अंतिम क्षणों तक नयी किताबों को पढ़ने के प्रति उत्सुक रहते थे जैसे कोई बच्चा नया खिलौना पाने के लिए होता है। हाल के दिनों में जब भी बातें होती थीं वे किसी न किसी किताब की चर्चा के साथ उसे पढ़ने की सलाह देते थे।’’
अंतिम कुछ वर्षों में उन्होंने अपने संस्मरणों को जलेस से जुड़े रहे साहित्यकार सिद्धेश्वर नाथ पांडे के माध्यम से लिपिबद्ध कराया था। लेकिन कुछ महीनों पूर्व उनका भी निधन हो गया था। उस पुस्तक का प्रकाशन अब तक शेष है।
गणेश दा मार्क्सवादी सिद्धांत व कम्युनिस्ट व्यवहार के दुर्लभ उदाहरण थे। इन्हीं वजहों से वामपंथ की सभी धाराओं के लोग गणेश दा से लगाव रखते थे। अपने अंतिम वर्षों में वाम आंदोलन के कार्यकर्ता, पत्रकार सभी उनके पास पहुंचा करते और कम्युनिस्ट आंदोलन की पुरानी बातों को जानने की जिज्ञासा प्रकट करते। वे कम्युनिस्ट आंदोलन के पुराने नेताओं एस.ए डांगे, पी.सी.जोशी, बी.टी.रणदिवे, ई.एम.एस नंबूदरीपाद, प्रमोद दास गुप्ता इत्यादि के संस्मरणों को सुनाया करते थे।
आठ दशकों के अपने लंबे राजनीतिक जीवन में उन्होंने काफी उतार-चढ़ाव देखा। शोषणविहीन समाज की स्थापना का लक्ष्य कभी ऑंखों से ओझल नहीं हुआ। लेकिन समाजवादी के स्थापना की राह आसान भी नहीं है। इस दौरान वे लगभग छह वर्षों तक जेल में रहे। स्वधीनता सेनानी रहने के बावजूद उन्होंने कभी पेंशन नहीं ली।
जिनको जमीन दिलायी उनको पॉलिटिसाइज नहीं किया
राज्य सचिव का पद छोड़ने के वक्त उन्होंने एक अखबार को दिए गए साक्षात्कार में, वामपंथी आंदोलन में संसदीय भटकाव के संबंध में, लगभग चेतावनी के लहजे में कहा था ‘‘यह एक तथ्य है कि हमारे लोगों में संसदवाद हावी हो गया है। लोग कुछ नहीं तो कम से कम मुखिया या कैबिनेट के मेंबर ही बन जाना चाहते हैं। पहले जैसे हत्या वगैरह होती थी, तो लोग खुद ही धरना, प्रदर्शन, घेराव वगैरह शुरू कर देते थे। अब तो आलम यह है कि कार्यकर्ता कहता है कि धरना प्रदर्शन से क्या होगा? कलक्टर या एस.पी से बात करके काम करवा दीजिए न। बाप के सामने बेटी के साथ दुष्कर्म होता है तो वह लड़ने के बजाए समझौता कर के कुछ मुआवजा पाना चाहता है। आखिर ये लड़ने का जज्बा क्यों खत्म हो रहा है ? यहां तक कि वैसे परिवारों में भी जिसे हम लोगों ने काफी मेहनत, संघर्ष करके जमीन दिलायी, वो अब राजद में चला गया है।’’
फिर इसका कारण बताते हए वे कहते हैं ‘‘ऐसा इसलिए हुआ कि हमने उन्हें पॉलिटिसाइज नहीं किया। जमीन दिलाकर एक लड़ाई में हमने जीत अवश्य हासिल की, पर उनसे रोज-ब-रोज संपर्क स्थापित कर पार्टी साहित्य से परिचित कराना, लगातार चेतना के स्तर को उन्नत करने का काम नहीं किया। उन्हें कम्युनिस्ट नहीं बनाया। उसकी वर्गीय चेतना विकसित कर पार्टी का मेंबर बनाने में कोताही बरती गयी। खुद आरक्षण के समय वर्गीय पहलू को आगे ले जाने को लेकर हमने बातें की, कागज पर फैसला भी लिया गया, पर जनता में इन चीजों को नहीं ले गए। वर्ग संघर्ष तेज न कर पाए। परिणाम ये हुआ कि वामपंथी पार्टियों की दिक्कत बढ़ी। जातीय प्रभाव हम पर भी पड़ा। कार्यकर्ताओं में अवसरवाद आ गया कि राजद मे रहेंगे तो एम.एस.ए और एम.पी बनेंगे, सी.पी.आई, सी.पी.एम और सी.पी.आई-एमएल में रहे तो कुछ हाथ न आएगा। इस किस्म की फीलिंग्स बढ़ी।’’
गणेश शंकर विद्यार्थी अक्सर कहा करते बदलाव का रास्ता लंबा होता है। उसी इंटरव्यू में उन्होंने वामपंथ के बारे में बेहद अंर्तदृष्टिसंपन्न टिप्पणी की थी ‘‘बदलाव का कोई शार्टकाट नहीं होता है। बदलाव का एक ही रास्ता है-लड़ाई, संघर्ष। वर्गीय शक्तियों को अपने पक्ष में नहीं करेंगे, तो बदलाव नहीं ला पाएंगे। वामपंथी लोग एक साथ मिलकर इस दिशा में प्रयास करें तो परिवर्तन अवश्य आएगा।’’
(अनीश अंकुर वरिष्ठ लेखक और स्वतंत्र पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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