क्या बिहार में बाढ़ एक घोटाला है?
हर साल आने वाली बाढ़ से निपटने के लिए 1953-54 में कोसी प्रोजेक्ट की शुरुआत की गई थी। शुरुआत में लोगों ने इसकी पुरजोर मुखालिफत की। तब तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने कोसी क्षेत्र में सप्ताह भर बिताया और लोगों को बांध बनाने में सहयोग करने के लिए मनाया। राजेंद्र प्रसाद ने साल 1955 में कोसी परियोजना के शिलान्यास कार्यक्रम के दौरान सुपौल के बैरिया गांव में सभा को संबोधित करते हुए कहा था कि, "मेरी एक आंख कोसी पर रहेगी और दूसरी आंख बाक़ी हिन्दुस्तान पर।" तटबंध बनाने का मकसद था कि पानी एक सीमित धारा में ही सिमटा रहे और इससे होने वाले नुकसान को रोका जा सके। लेकिन इसके उलट तटबंध बनने के बाद आज कोसी बांध के भीतर बसे 380 गांवों के लाखों लोगों की आबादी की जिंदगी गरीबी और बदहाली के कुचक्र में फंस कर रह गई है। नदी विशेषज्ञ दिनेश कुमार मिश्रा के मुताबिक कोसी प्रोजेक्ट बनाने का उद्देश्य करीब सवा दो लाख हेक्टेयर जमीन को बचाने का था, लेकिन इसकी कीमत करीब 4,00,000 हेक्टेयर जमीन बर्बाद करके चुकानी पड़ी।
निर्माण के बाद से अब तक आठ बार टूट चुका है बांध
तटबंध पहली बार अगस्त 1963 में डलवा में टूटा था। इसके बाद अक्टूबर 1968 में दरभंगा के जमालपुर, अगस्त 1971 में सुपौल के भटनिया और अगस्त 1980, सितंबर 1984 और अगस्त 1987 में सहरसा में बांध टूटा था। जुलाई 1991 में नेपाल के जोगिनियां में कोसी का बांध टूट गया था। अंतिम बार वर्ष 2008 में भारत-नेपाल सीमा के निकट कुसहा बांध टूटा था, जिसने भारी तबाही मचाई थी।
कोसी बाढ़ पुनर्वास एवं पुनर्निर्माण नीति मात्र एक ढकोसला
अंतिम बार वर्ष 2008 में भारत-नेपाल सीमा के निकट कुसहा बांध टूटा था, जिसने भारी तबाही मचाई थी। तब विश्व बैंक ने कोसी के इलाकों के पुनर्निर्माण के लिए भारत को 14 हज़ार 808 करोड़ रुपये का कर्ज दिया था। इसके लिए कोसी पुनर्निर्माण एवं पुनर्वास नीति को मंजूरी दी गयी थी। स्पष्ट है कि कोसी परियोजना के नाम पर बेहिसाब पैसा ख़र्च होता है। और अभी भी हो रहा है। लेकिन इससे भी बड़ा दुर्भाग्य यह है कि जिन कामों के लिए पैसा ख़र्च किया गया वो आज तक जमीनी स्तर पर नहीं हो पाता है।
"हमारे पास भी घर हुआ करता था, खेती करने के लिए जमीन थी, हमारा भी गांव और टोला हुआ करता था। सब एक दिन खत्म हो गया। कोसी मैया सब ले गईं, हमरी ज़िंदगी और हमरी अगली पीढ़ी का भविष्य भी। सरकार भी अभी तक रहने के लिए कोई जमीन नहीं दी है। अब खानाबदोश की तरह जिंदगी गुजार रहे हैं। गांव में किसी मालिक के जमीन पर घर बनाते हैं और किसी का नौकर बनकर बस जी रहे हैं।" भागलपुर जिला के रंगरा प्रखंड के सहोड़ा क्षेत्र के मोती लाल एक टक में सारी बातें कह जाते हैं। 2018 में कोसी नदी के कटाव में मोती लाल के अलावा सहोड़ा क्षेत्र के 36 परिवार का घर गया था। जिसमें सिर्फ 17 घर को पुनर्वास योजना के तहत जमीन मिली है।
मधुबनी जिला के सोनबरसा गांव के सिर्फ 60% लोगों को विस्थापन के रूप में जमीन मिली है। इसके बावजूद भी वह सोनबरसा गांव में ही रहते हैं। बाकी 40% ग्रामीण इसलिए जमीन की मांग कर रहे हैं कि बरसात के मौसम में उन्हें राहत शिविर में नहीं रहना पड़े। सोनबरसा गांव के जगदीश मंडल बताते हैं कि, "15 धूर जमीन तो मिल गई है रहने के लिए, लेकिन सारा खेत अभी भी इसी गांव में है। इसलिए यहीं रह कर जीवनयापन कर रहा हूं। वैसे भी लोग वहीं रहना चाहते हैं जहां वे जीविकोपार्जन कर सकते हैं। बस बाढ़ के वक्त विस्थापन वाले जमीन पर जाकर रहना पड़ता है।"
वहीं सोनबरसा गांव के ही शिवनाथ शाह को विस्थापन वाली जमीन नहीं मिली है। इसके लिए वह अक्सर सरकारी कार्यालय का चक्कर लगाते हैं। शिवनाथ बताते हैं कि, "चुनाव के वक्त नेता पुनर्वास के लिए भूमि, मवेशी खरीदने के लिए सरकारी धन और चारा का वादा करते हैं। एक बार चुनाव खत्म हो जाने के बाद, वे फिर कभी अपना चेहरा नहीं दिखाते हैं।”
गंगा नदी कटाव की वजह से 25000 की आबादी 3 सालों से विस्थापित
बिहार के भागलपुर जिला अंतर्गत कहलगांव के बटेश्वर स्थान से ग्राम खवासपुर तक खेतिहर और आवासीय जमीन के बीचोबीच गंगा नदी बहती है। इसके बीच में बीरबन्ना पंचायत का गांव तौफिक और रानी दियारा साथ ही किशनदासपुर पंचायत का गांव टपुआ भी गंगा नदी के किनारे अवस्थित था। नवंबर 2019 में ये सारा क्षेत्र गंगा नदी की तीव्र समकोणीय धारा की चपेट में आ गया। फिर देखते ही देखते खेती समेत विशाल आवासीय क्षेत्र गंगा नदी में समाहित हो गई। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक लगभग 25000 की आबादी विस्थापित हुई।
अभी यह लोग कहां बसे हुए हैं? इस सवाल के जवाब में स्थानीय पत्रकार आशीष झा बताते हैं कि, "शुरुआत में सरकारी अधिकारियों के मुताबिक पीरपैंती प्रखंड अंतर्गत 682 एवं कहलगांव प्रखंड अंतर्गत 338 परिवारों को भूमिहीन विस्थापित परिवार के रूप में चिन्हित किया गया। साथ ही 1020 परिवारों को बाढ़ पीड़ितों के रूप में चिन्हित किया गया। जब कोई लाभ नहीं मिला तो कटाव की मार झेल रहे पीड़ितों ने आंदोलन किया, सड़कें जाम की, ब्लॉक का घेराव किया। जिसके बाद सरकार ने एकडारा और किशनदासपुर पंचायत की एक सड़क पर राहत शिविर बनाया। ज्यादा दिन होने के बाद पीड़ितों ने झोपड़ी का निर्माण खुद से कर लिया। आज 3 साल के बाद भी यही सड़क और सड़क किनारे 4 × 5 की झोपड़ी इनलोगों का एक मात्र ठिकाना है।
कोसी बेसिन विकास परियोजना का हाल
कोसी बेसिन विकास परियोजना का उद्देश्य बाढ़ से बचाव और बेसिन के आस पास के क्षेत्रों में पैदावार को बढ़ावा देना है। इसके अतिरिक्त यह परियोजना बिहार को आपदाओं के समय अधिक प्रतिरोधक बनाएगी।
कोसी नवनिर्माण मंच के सदस्य रंजीत यादव बताते हैं कि, "पैदावार को बढ़ावा देना तो छोड़िए यहां पर सरकार कोसी तटबंध के भीतर के गांव के किसान की जमीन को लेने पर तुली हुई है। सर्वेक्षण के नए नियम के मुताबिक तो बांध के भीतर की पूरी की पूरी जमीन राज्य सरकार की हो जाएगी।
नदी की धारा वाले हिस्से को आज सरकार बना देगी, लेकिन कल को नदी धारा बदल लेगी, तो क्या होगा? मैं खुद जमीन के नदी में डूब जाने के बावजूद सरकार को जमीन का टैक्स चुका रहा हूं। इस उम्मीद से कि आज नहीं तो कल जमीन बाहर आ जाएगा”
भूमि सर्वेक्षण के 'विवादास्पद' नियम
सुपौल स्थित बंदोबस्त अधिकारी भारत भूषण सूचना के अधिकार (RTI) याचिका का जवाब देते हुए भूमि बंदोबस्त के नियमों के बारे में बताते हैं कि, "2011 के नियमों के अनुसार नदी के बहाव और तटबंधों के बीच की जमीन राज्य सरकार की है। इसके अलावा अगर नदी खेत से होकर बह रही है, तो खेत की भूमि कानूनी रूप से राज्य सरकार के कब्जे में होगी। इसके अलावा भूमि के वे हिस्से जो भूकर सर्वेक्षण में नदी में डूब गए थे, लेकिन बाद में उन्हें कृषि भूमि में बदल दिया गया था, वे भी सरकार के हो जाएंगे।" संगठन कोसी नवनिर्माण मंच के अगुवाई में बांध के भीतर के लोग भूमि सर्वेक्षण का विरोध कर रहे हैं। जिसके बाद कोसी के तटबंधों के बीच भूमि सर्वेक्षण को स्थगित कर दिया गया है। कोसी के दोनों तटबंधों के बीच लगभग 358302.803 एकड़ लाख जमीन है और दोनो तटबंधों के भीतर करीब दो लाख लोग रहते हैं।
बिहार में बाढ़ एक घोटाला है!
एक सरकारी अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर कहता हैं, "राजनेताओं, अफसर, एनजीओ और ठेकेदारों का एक समूह बाढ़ को एक अवसर के रूप में देखता है जिसके तहत अवैध कमाई की जा सके। पानी को रोकने, राहत पहुंचाने तथा पुनर्वास के नाम पर होने वाली सलाना लूट जगजाहिर है तभी तो अक्सर बाढ़ घोटाला की खबर आती रहती हैं। 2008 के कुसहा त्रासदी के बाद सुपौल के कई नामचीन लोग अमीर हो गए थें। कई एनजीओ के सदस्य करोड़पति हो गए। सरकार की अनदेखी, नियंत्रण की पुरानी नीति और भ्रष्टाचार का अर्थतंत्र जब तक हावी रहेगा तब तक कोसी तटबंध के लोग बाढ़ का दंश झेलने को विवश होते रहेंगे।"
बिहार में बाढ़ से मुआवजे और राहत कार्यों पर कोसी नवनिर्माण मंच के अध्यक्ष महेंद्र यादव बताते हैं कि, "सालों मरम्मत, नए निर्माण, बाढ़ राहत और बचाव के नाम पर जम कर पैसे का बंदरबांट किया जाता हैं। सुपौल के बीरपुर में कोसी पश्चिमी तटबंध के नेपाल प्रभाग में 15 जून 2020 को 80 करोड़ की लागत से एंटीइरोजन कार्य कराया गया था। 9 लाख क्यूसेक पानी का दबाव झेलने का वादा किया गया था लेकिन सिर्फ 2 लाख क्यूसेक से अधिक पानी डिस्चार्ज होने के साथ ही नदी का आक्रामक प्रभाव दिखने लगा है। एस्टिमेट बनता है, लेकिन काम क्या होता है? यदि तटबंधों की मरम्मत और बाढ़ से निपटने की तैयारियां सही ढंग से हो तो वे टूटेंगे कैसे?"
सुपौल के समाजसेवी और कोसी नदी पर विगत 20 सालों से काम कर रहे चंद्रशेखर झा मुआवजे और राहत कार्यों के विषय पर कहते हैं कि, "बिहार में बाढ़ एक घोटाला है।"
सभी फोटो- राहुल कुमार गौरव
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
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