Skip to main content
xआप एक स्वतंत्र और सवाल पूछने वाले मीडिया के हक़दार हैं। हमें आप जैसे पाठक चाहिए। स्वतंत्र और बेबाक मीडिया का समर्थन करें।

क्या बिहार उपचुनाव के बाद फिर जाग सकती है नीतीश कुमार की 'अंतरात्मा'!

बिहार विधानसभा की दो सीटों के लिए 30 अक्टूबर को उपचुनाव हो रहे हैं। ये दो सीटें हैं- कुशेश्वरस्थान और तारापुर। दोनों ही सीटें जद(यू) के खाते में थीं। सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या जद(यू) अपनी दोनों सीटें बचा पाएगी?
Nitish kumar
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार

कुशेश्वरस्थान और तारापुर में एनडीए की तरफ से जद(यू) के ही उम्मीदवार मैदान में हैं. भाजपा को कुछ ख़ास लेना-देना नहीं है। राजद पूरा जोर लगा रहा है। इतना कि कांग्रेस को भी अपना उम्मीदवार उतारना पड़ा है। और तो और चिराग पासवान ने भी अपने उम्मीदवार उतार दिए हैं। अब खबर ये है की पशुपति कुमार पारस, नीतीश कुमार के समर्थन में उनके साथ कम से कम तीन दिन तक हेलीकाप्टर में बैठ कर जद(यू) उम्मीदवारों के समर्थन में रैली करेंगे। मोटे तौर पर बिहार में 14 फीसदी दलित वोट हैं, जिसमें एक बड़ी हिस्सेदारी, करीब 5 फीसदी पासवान वोटों की है। जिस पर चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस, दोनों दावा जता रहे हैं।

लोजपा टूट चुकी है। पशुपति पारस केंद्र में मंत्री बन चुके हैं और एनडीए के समर्थन में हैं। चिराग भाजपा से अलग नहीं हैं, लेकिन बिहार में नीतीश कुमार के खिलाफ हैं।2020 के विधान सभा चुनाव में चिराग पासवान के निर्णय की वजह से ही जद(यू) को कम सीटों पर संतोष करना पड़ा था। जिन 33 सीटों पर जद(यू) की हार हुई थी, वहाँ चिराग पासवान ने अपने उम्मीदवार खड़े किए थे और उनके उम्मीदवारों को उससे कहीं अधिक वोट मिला था। जितने से जद(यू) के उम्मीदवार हार गए थे। अन्यथा, बिहार में एनडीए जद(यू) समेत दो-तिहाई बहुमत हासिल कर सकती थी। उस हार का दुःख अभी तक नीतीश कुमार भूले नही होंगे और यही वजह रही कि न चाहते हुए भी भाजपा खुद को चिराग से दूर दिखाती है। लेकिन, भाजपा का चिराग मोह अभी ख़त्म हुआ नहीं है। बल्कि, मौजूदा उपचुनाव से यह साबित हो जाएगा कि पासवान-दलित वोट पर किसका दावा सही है। पशुपति कुमार पारस का या चिराग पासवान का।

ये भी पढ़ें: बिहार में भी दिखा रेल रोको आंदोलन का असर, वाम दलों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया

ऐसी सूरत में, नीतीश कुमार को दोनों ही सीटें जीतनी ही होंगी। अगर वे एक भी सीट हारते हैं, तो उनका लॉस 100 परसेंट माना जाएगा, साथ ही एक बार फिर ये साबित हो जाएगा कि एनडीए भले ही सरकार में साथ है, लेकिन भीतर ही भीतर भाजपा, नीतीश कुमार की पार्टी की कब्र खोदने में जुटी हुई है।

र अगर चिराग पासवान, पशुपति पारस से अधिक दलित वोट शेयर पा लेते हैं तो फिर भाजपा को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करना पड़ सकता है।फिर, भाजपा के लिए चिराग को दरकिनार करना आसान नहीं होगा. लेकिन, तब नीतीश कुमार क्या करेंगे? क्या वे एनडीए में चिराग का बने रहना स्वीकार करे पाएंगे। 2020 और मौजूदा उपचुनाव के परिणाम (अगर वे एक सीट भी हारते है) को देखते हुए नीतीश कुमार के लिए चिराग पासवान को एनडीए में स्वीकार कर पाना लगभग नामुमकिन होगा। ऐसी सूरत में अगर नीतीश कुमार की अंतरात्मा जाग जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं होनी चाहिए।

पेगासस, जाति जनगणना और जनसंख्या नियंत्रण क़ानून 

इन तीन मुद्दों पर नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव की केमिस्ट्री कमाल की दिखी है। एक साथ दिल्ली जा कर जाति जनगणना के मुद्दे पर आवाज उठाना कोई आम घटना नहीं थी। जाति जनगणना एक ऐसा मुद्दा है, जिस पर नीतीश कुमात तेजस्वी यादव से अलग राय रख सकने की स्थिति में नहीं है। पेगासस पर भी नीतीश कुमार ने मुखर आवाज उठाई थी और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के जनसंख्या नियंत्रण क़ानून को ले कर भी सीधे-सीधे आलोचना की थी। इस तरह से देखें तो पिछले कुछ समय के दौरान, नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव, एक ही वैचारिक धरातल पर खड़े दिख रहे हैं। रह गया सवाल एनडीए सरकार का तो नीतीश कुमार भलीभांति जानते हैं कि भाजपा अब उन्हें अपना बिग बी मानने को कतई तैयार नहीं है। 2020 के विधान सभा चुनाव में जिस तरह से राजद सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर सामने आई और जिस तरह से नीतीश कुमार की पार्टी की लुटिया डुबोने का काम भाजपा वालों ने चिराग पासवान के साथ मिल कर किया। उसकी टीस आज भी नीतीश कुमार के मन में है। रही-सही कसर अब विधान सभा की इन दो सीटों के उपचुनाव नतीजों से पूरी हो सकती है। यदि, नीतीश कुमार एक भी सीट हारते हैं तो उनके लिए यह साफ़ सन्देश होगा कि न तो पशुपति पारस अपना वोट ट्रान्सफर करा पाए, न ही भाजपा वालों ने उनका साथ दिया। ऐसे में, नीतीश कुमार की अंतरात्मा सोई रह जाएगी, कहना मुश्किल है।

पीएम मैटेरियल का शिगूफा यूं ही नहीं  

नीतीश कुमार के खासमखास उपेन्द्र कुशवाहा से लेकर कई नेता कह चुके हैं कि नीतीश कुमार पीएम मैटेरियल हैं। अब पीएम मैटेरियल होना और पीएम होना, दो बातें हैं। सवाल है कि बिहार का मुख्यमंत्री रहते हुए नीतीश कुमार कैसे और किस आधार पर पीएम पद की दावेदारी जता पाएंगे। 2024 का लोकसभा चुनाव निश्चित तौर पर एक अलग रंग-ढंग के साथ होने जा रहा है। कांग्रेस जहां खुद को मजबूत कर रही है, वहीं ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में खुद को स्थापित कर चुकी हैं। मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव अस्वस्थ हो चले हैं। ऐसे में उत्तर भारत से रह गए नीतीश कुमार, जो पीएम पद के स्वाभाविक दावेदार बन सकते हैं। लेकिन, फिर सवाल वही कि क्या एनडीए के सीएम रहते हुए ये दावेदारी कर पाना संभव होगा। कतई नहीं. तब, एक ही रास्ता बचेगा, रास्ता ये कि नीतीश कुमार एनडीए से अलग हो जाएं और तेजस्वी यादव को मुख्यमंत्री बना कर बदले में उनसे पीएम पद की दावेदारी के लिए समर्थन हासिल करें। तो क्या ऐसा हो पाना असंभव है? बिलकुल नहीं, अगर उपचुनाव के नतीजे राजद के पक्ष में जाते हैं तो नीतीश कुमार के लिए ऐसा फैसला करना और भी आसान और शायद जरूरी भी हो जाएगा।

बहरहाल, राजनीति संभावनाओं का खेल है। संभावनाएं क्या गुल खिलाती हैं, इसका इंतज़ार कीजिये। लेकिन, बिहार विधान सभा के उपचुनाव निश्चित ही बिहार की राजनीति में कुछेक बदलाव ला कर रहेंगे।

ये भी पढ़ें: कश्मीर में प्रवासी मज़दूरों की हत्या के ख़िलाफ़ 20 अक्टूबर को बिहार में विरोध प्रदर्शन

अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।

टेलीग्राम पर न्यूज़क्लिक को सब्सक्राइब करें

Latest