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साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ पश्चिमी अफ़्रीका का प्रतिरोध

हाल में कई पश्चिमी अफ़्रीकी देशों में सेना में मौजूद क्रांतिकारी तत्वों ने, ऐसी निर्वाचित किंतु रीढ़विहीन सरकारों से सत्ता छीनकर, साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोध की एक लहर खड़ी कर दी है। 
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पश्चिमी अफ़्रीका में, जो बहुत समय तक फ्रांसीसी औपनिवेशिक शासन के ही अंतर्गत रहा था, कभी उस प्रकार का निरुपनिवेशीकरण नहीं हुआ, जैसाकि भारत में हुआ था।

पहली बात तो यह कि पूर्व फ्रांसीसी उपनिवेशों की मुद्राएं एक स्थिर विनिमय दर पर फ्रांसीसी फ्रैंक से जुड़ी रही थीं, जिसका अर्थ यह था कि ये देश अपनी मर्जी की कोई राजकोषीय तथा मौद्रिक नीति नहीं अपना सकते थे क्योंकि उनके ऐसा करने से स्थिर विनिमय दर के लिए खतरा पैदा हो सकता था। न सिर्फ इन देशों के विदेशी मुद्रा संचित भंडार, फ्रांस द्वारा उसी प्रकार अपने पास रखे जा रहे थे, जिस प्रकार औपनिवेशिक भारत के साथ हो रहा था, जहां उसके सुरक्षित स्वर्ण भंडार, जो उसने अपने ऊपर थोपे गए ऋणों के जरिए हासिल किए थे (क्योंकि उसकी सालाना निर्यात अधिशेष आमदनियां ब्रिटेन द्वारा हथिया ली जाती थीं), लंदन में ही रखे जाते थे। लेकिन, औपचारिक निरुपनिवेशीकरण के बावजूद, इन पूर्व-उपनिवेशों की राजकोषीय तथा मौद्रिक नीतियों पर भी, व्यवहार में फ्रांस का नियंत्रण बना हुआ था। उनके प्राकृतिक संसाधनों पर औद्योगिक देश के कारपोरेशनों का नियंत्रण बना हुआ था। इतना ही नहीं, निरुपनिवेशीकरण के बावजूद इन देशों में फ्रांसीसी सेनाएं बनी ही हुई थीं। शुरू में इसके लिए यह बहाना था कि फ्रांसीसी संपत्तियों की हिफाजत करने के लिए उनकी जरूरत थी। आगे चलकर यह दलील दी जाने लगी कि इन देशों की इस्लामी लड़ाकों से हिफाजत करने के लिए, इन सेनाओं का बना रहना जरूरी थी, जबकि ये इस्लामी लड़ाके खुद ही साम्राज्यवाद द्वारा लीबिया के गद्दाफी निजाम को अस्थिर किए जाने से ताकतवर हुए थे। बहरहाल, सारे बहाने अपनी जगह, वास्तव में इन सेनाओं के बनाए रखने का मकसद यह सुनिश्चित करना था कि इन नव-स्वाधीन देशों की सरकारें, फ्रांसीसी हुक्म पर चलती रहें। इन फ्रांसीसी सैनिकों से पीछा छुड़ाने की किसी भी कोशिश को ऐसे फ्रांसीसी प्रत्युत्तर का सामना करना पड़ सकता था, जिसमें जैसा कि बुर्किनो फासो के प्रकरण ने दिखाया था, तख्तापलट भी शामिल हो सकता था।

बुर्किनो फासो के क्रांतिकारी मार्क्सवादी नेता थॉमस शंकरा को, जो एक प्रतिबद्ध सर्व-अफ़्रीकावादी भी थे और जो फ्रांसीसी सेनाओं को अपने देश से बाहर करना चाहते थे, ऐसे लोगों के जरिए तख्तापलट में मरवा दिया गया, जो वैसे तो उनकी ही पार्टी से थे, लेकिन आम तौर पर जिनके संबंध में ऐसा माना जाता था कि उनकी पीठ पर फ्रांस का हाथ था। लेकिन, ज्यादातर मामलों में तो तख्तापलट तक की जरूरत नहीं थी। सामान्य चुनावी राजनीति ही, जो ऐसी राजनीतिक पार्टियां के जरिए की जा रही थी, जिनके नेता विकसित दुनिया में प्रशिक्षित हुए थे तथा जो फ्रांसीसी सेनाओं की मौजूदगी बनी ही रहने को अपने राजनीतिक एजेंडों से बाहर रखते थे, इस व्यवस्था को चलाए रखने के लिए काफी थी। यह राजनीति तो उन्हें जनतांत्रिक मुखौटा भी मुहैया करा देती थी।

पश्चिमी अफ़्रीका में साम्राज्यवादी विरोधी लहर

बहरहाल, हाल में कई पश्चिमी अफ्रीकी देशों में सेना में मौजूद क्रांतिकारी तत्वों ने, ऐसी निर्वाचित किंतु रीढ़विहीन सरकारों से सत्ता छीनकर, साम्राज्यवाद विरोधी प्रतिरोध की एक लहर खड़ी कर दी है। जहां साम्राज्यवादी देशों ने इस तरह के सत्ता पर कब्जा किए जाने को, जनतंत्र पर एक ऐसे प्रहार के रूप में चित्रित किया है, जिसकी निंदा की जानी चाहिए तथा जिसका विरोध किया जाना चाहिए, विडंबना यह है कि इन देशों में अवाम ने सामान्य तौर पर उत्साह के साथ इन नये शासनों का समर्थन किया है और इसके बावजूद समर्थन किया है कि इन निजामों ने ऐसी सरकारों को हटाकर उनकी जगह ली है, जिन्हें इसी जनता ने ‘‘जनतांत्रिक तरीके से’’ चुना था।

वास्तव में इन देशों ने, वर्तमान जनतंत्र की कार्य पद्धति के एक महत्वपूर्ण खोट को उजागर कर दिया है। हमारे सामने सामान्य रूप से चुनावी जनतंत्र की जो रंगी-चुनी तस्वीर पेश की जाती है, उसमें यह दिखावा किया जाता है कि कोई भी राजनीतिक पार्टी बना सकता है और कोई भी मुद्दा उठाकर चुनावी मैदान में उतर सकता है और यह मैदान, एक बराबरी का खेल का मैदान है। इसका नतीजा यह होता है कि जनता की जायज चिंताएं चुनावी नतीजों में अपरिहार्य रूप से प्रतिबिंबित हो ही जाती हैं। लेकिन, वास्तव में इस चुनावी मैदान में, अर्थशास्त्रियों की शब्दावली का प्रयोग करें तो, ‘‘प्रवेश के लिए बाधाएं’’ हैं, जो वित्तीय संसाधनों की अपर्याप्तता से पैदा होती हैं और यह इस बात को सुनिश्चित करता है कि यह मैदान, एक बराबरी का मैदान नहीं होता है। इसलिए, यह पूरी तरह से संभव है कि एक ऐसा प्रकटत: सुचारु रूप से काम करने वाला चुनावी जनतंत्र चल रहा हो, जो जनता को आंदोलित करने वाले वास्तविक मुद्दों को संबोधित ही नहीं करता हो।

इस समय पश्चिमी जनतंत्रों में ठीक यही हो रहा है, जहां चुनावी प्रणाली के प्रकटत: आराम से काम कर रहे होने के बावजूद, इन देशों की जनता के बीच शांति की जो प्रचंड आकांक्षा मौजूद है, उसकी चुनावी नतीजों में पूरी तरह से अनदेखी ही हो जाती है। और यही बात पश्चिमी अफ्रीकी जनतंत्रों के संबंध में भी सच थी, जहां चुनावी व्यवस्था की कार्य पद्धति कभी भी जनगण की इस प्रचंड इच्छा को सामने ही नहीं लाती थी कि अपने देश को, विदेशी सेनाओं की मौजूदगी से आजाद कराया जाए।

थॉमस शंकरा की परंपरा में

बहरहाल, हाल में नाइजर, माली तथा बुर्किनो फासो ने, जिनमें से हरेक पर ऐसे सैन्य नेताओं का राज है, जिन्होंने हाल ही में सत्ता अपने हाथ में ली है, फ्रांसीसी सेनाओं से अपने देश से चले जाने के लिए कह दिया है। और जहां तक इस्लामी लड़ाकों का मुकाबला करने का सवाल है, माली तो वैसे भी रूस के वैगनर ग्रुप पर भरोसा कर रहा है, जो अब तक कमोबेश रूसी राज्य के साथ जुड़ ही चुका है। इन तीनों देशों--बुर्किनो फासो, माली तथा नाइजर--ने 2024 की जुलाई में एकजुट होकर, एलाइंस ऑफ साहेल स्टेट्स के नाम से एक संघ का गठन किया है। ये तीनों निजाम, थॉमस शंकरा की ही तरह, सर्व-अफ़्रीकावाद और साम्राज्यवाद विरोध के प्रति वचनबद्ध हैं।

अब बर्किनो फासो ने अपने साम्राज्यवाद-विरोध को एक कदम और आगे ले जाते हुए, अपनी सोने की दो खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया है, जो मूल रूप से ब्रिटेन की एंडेवर माइनिंग कंपनी के हाथ में हुआ करती थीं। बुर्किनो फासो को दुनिया का 13वां सबसे बड़ा स्वर्ण उत्पादक माना जाता है, जिसका सोने का सालाना उत्पादन 100 टन है यानी विश्व बाजार के मौजूदा दामों पर करीब 6 अरब डालर। सोना पूरी तरह से यूरोपीय या उत्तरी अमरीकी कंपनियों के माध्यम से बनाया जाता है, जो इस देश से बाहर सोने का शोधन करती हैं और उत्पाद के मूल्य का बड़ा हिस्सा अपने पास ही रख लेती हैं। इसी का नतीजा है कि सोने के अच्छे-खासे उत्पादन के बावजूद, इस देश का चालू सकल राष्ट्रीय उत्पाद 2022 में 19.37 अरब डालर ही था। इब्राहीन त्रारोर की मौजूदा सरकार ने न सिर्फ सोने के उत्पादन का पूरी तरह से राष्ट्रीयकरण करने का फैसला लिया है बल्कि पहली बार इस देश में एक स्थानीय स्वर्ण रिफाइनरी भी खोली है। इस कदम से अगर बुर्किनो फासो की अर्थव्यवस्था में सिर्फ 2 अरब डालर ही अतिरिक्त जुड़ते हैं, तब भी यह सकल राष्ट्रीय उत्पाद में 10 फीसद की बढ़ोतरी होगी, जिसका उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य रक्षा तथा जनता के लिए अन्य आवश्यक सेवाओं पर सरकारी खर्चे में बढ़ोतरी के लिए वित्त जुटाने के लिए किया जा सकेगा।

खनिज संपदा का दोहन कैसे नहीं करें?

जैसा कि जाने-माने अर्थशास्त्री, जॉन रोबिन्सन ने काफी पहले रेखांकित किया था, विभिन्न प्रकार के विदेशी निवेशों में बदतरीन होता है वह निवेश, जो किसी देश के खनिज संसाधनों को निकालने के लिए लाया जाता है। दूसरी तरह से कहें तो किसी भी देश को, अपने खनिज संसाधनों का विकास खुद अपने सार्वजनिक क्षेत्र के जरिए ही करना चाहिए, न कि बहुराष्ट्रीय निगमों के जरिए। इसकी वजह यह है कि खनिज तो एक खत्म हो सकने वाला संसाधन होते हैं, जो किसी भी देश के मामले में कुछ ही समय तक चलते हैं। और अगर इस खनिज संसाधन के मूल्य का अधिकांश लौटकर देश के खजाने में नहीं आता है, जिसकी मदद से इसी बीच उस देश की अर्थव्यवस्था को उपयुक्त तरीके से बहुविध बनाया जा सकता हो, संबंधित संसाधन के खत्म हो जाने पर देश खाली हाथ ही रह जाएगा।

यही हमारे अपने बगल में भी हुआ है। म्यांमार का उदाहरण लिया जा सकता है। जब तक उसके पास तेल था, इस देश में तेल निकालने से जुड़ा फौरी आर्थिक उछाल चल रहा था और तेल बहुराष्ट्रीय निगम भारी मुनाफे बटोर रहे थे। लेकिन, चूंकि इन मुनाफों का इस्तेमाल इस देश की अर्थव्यवस्था को बहुविध बनाने के लिए नहीं हो रहा था (यह तो तब होता जब तेल का विकास सार्वजनिक क्षेत्र में हो रहा होता), एक बार जब म्यांमार के तेल के भंडार खाली हो गए और बहुराष्ट्रीय निगम अपने बोरिया-बिस्तर समेट कर वहां से निकल गए, म्यांमार जहां से चला था, वहीं लौट आने की हालत में आ गया। आज उसकी गिनती, संयुक्त राष्ट्र संघ की शब्दावली में ‘सबसे कम विकसित देशों’ में होती है।

इसलिए, किसी भी देश को हमेशा ही अपने खनिज तथा अन्य खत्म हो सकने वाले संसाधनों पर अपना स्वामित्व तथा नियंत्रण रखना चाहिए और अपने सार्वजनिक क्षेत्र के सहारे, अपने ही बल पर इन संसाधनों का विकास भी करना चाहिए। और बुर्किनो फासो का इस बुनियादी सिद्धांत को पहचानना, एक बड़ी प्रगति है। जाहिर है कि इस लक्ष्य को वास्तविकता में तब्दील किए जाने के खिलाफ साम्राज्यवाद जो भारी बाधाएं खड़ी करने वाला है, हमें उनको भी कम कर के नहीं आंकना चाहिए। तीसरी दुनिया के ऐसे निजामों को, जिन्होंने अपने देश के प्राकृतिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण कायम करने की कोशिश की थी, साम्राज्यवाद द्वारा अस्थिर किए जाने का लंबा इतिहास है। इस इतिहास की शुरुआत ईरान में मोसद्देह की सरकार का तख्तापलटे जाने से होती है। और जब इस सारी कपटलीला के बावजूद तीसरी दुनिया के खनिज संसाधनों का पूर्ण नियंत्रण साम्राज्यवाद के हाथों में नहीं आ पाया, उसने तीसरी दुनिया को एक नव-उदारवादी व्यवस्था के जाल में फंसा दिया, जिसका मुख्य मकसद ही यह था कि सार्वजनिक क्षेत्र को पीछे धकेला जाए और तीसरी दुनिया के प्राकृतिक संसाधनों पर पश्चिमी बहुराष्ट्रीय निगमों को फिर से नियंत्रण दिलाया जाए। इसलिए, इसका बहुत भारी महत्व है कि पश्चिमी अफ़्रीका, नव-उदारवादी व्यवस्था के कपटीपन को और इसके साथ ही अपने संसाधनों पर राष्ट्रीय नियंत्रण स्थापित करने की जरूरत को पहचान रहा है।

प्राकृतिक संसाधनों पर राष्ट्रीय नियंत्रण ज़रूरी

भारत में, अपने प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण हासिल करने के सफल संघर्ष के बाद, ‘आर्थिक निरुपनिवेशीकरण के लिए एक ऐसे संघर्ष के बाद, जो शायद राजनीतिक निरुपनिवेशीकरण के लिए संघर्ष से भी ज्यादा कठिन था और जो संघर्ष सोवियत संघ की सहायता के चलते सफल हो सका था, हम नव-उदारवाद को गले लगाने के जरिए एक बार फिर अपनी उक्त उपलब्धियों का समर्पण करते जा रहे हैं। पश्चिमी अफ़्रीका के प्रयास को देखकर, हमारी सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र को पीछे धकेलने की, प्राकृतिक संसाधनों के क्षेत्र तक में उसे पीछे धकेलने की, अपनी वर्तमान नीति पर गंभीरता से पुनर्विचार करना चाहिए।

इस क्षेत्र में घरेलू निजी उद्यम भी, बहुराष्ट्रीय निगमों से शायद ही जरा भी बेहतर होते हैं। उनमें भी ठीक वही दोष सामने आते हैं। इस तरह के राष्ट्रीय संसाधनों के विकास के लिए, सार्वजनिक क्षेत्र के सिवा और कोई विकल्प नहीं है। बेशक, यह संभव है कि सार्वजनिक क्षेत्र के होते हुए भी यह क्षेत्र, सार्वजनिक क्षेत्र में हेराफेरी या अक्षताओं के चलते, राष्ट्रीय विकास में ज्यादा योगदान नहीं कर पाए। फिर भी, सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत ही इस क्षेत्र का विकास होना, राष्ट्रीय विकास की आवश्यक शर्त है। इसके अलावा, जो निजाम सार्वजनिक क्षेत्र के लिए प्रतिबद्ध होगा, उसमें सार्वजनिक क्षेत्र के काम-काज को दुरुस्त करने की योग्यता भी तो होगी। 

(लेखक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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