अयोध्या के बाद हिंदुस्तानी मुसलमान : भविष्य और चुनौतियां
अयोध्या में "भव्य मंदिर" की स्थापना समारोह को लेकर मीडिया के एक वर्ग और लोगों में ख़ुशी की लहर है। यह वह स्थान है जहां ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद लगभग500 वर्षों से तब तक खड़ी थी जब तक कि चरमपंथी हिंदुओं ने इसे 6 दिसंबर 1992 को दिन दहाड़े गिरा नहीं दिया। स्थापना समारोह को लेकर मुस्लिम हैरान हैं कि इस पर कैसे प्रतिक्रिया दी जाए। इस विवादित स्थल पर पिछले 28 वर्षों से कोई मस्जिद नहीं थी और इस विध्वंस के बाद पूरी तरह सुचारु तरीके से हिंदू मंदिर की स्थापना की गई थी लेकिन जिस तरह से सरकारी मशीनरी ने मंदिर के निर्माण के लिए रास्ता साफ किया उससे उन्हें पूरी तरह से झटका लगा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की उपस्थिति में रखी गई आधारशिला 200 मिलियन सशक्त भारतीय मुस्लिम समुदाय के लिए एक भयावह दृश्य था। उनके ज़ेहन में दोष साबित करने वाले सबूत के बावजूदसुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद और मुस्लिम याचिकाकर्ताओंवाली ज़मीन को एक ट्रस्ट को सौंप दिया जिसकेअधिकांश सदस्य उन संगठनों जैसे वीएचपी और आरएसएस से आते हैं जिन्होंने मस्जिद गिराने में मदद की थी।
जेद्दा के एक विद्वान ओज़मा सिद्दीकी का कहना है कि अब भारतीय मुसलमानों ने सबसे मुश्किल समय देखा है। बाबरी मस्जिद का विध्वंस भारतीय मुसलमानों के ख़िलाफ़ चलाया गया सांप्रदायिकता का "आखिरी महत्वपूर्ण प्रकरण" था। इस घटना को भारत में सरकारी टेलीविज़न द्वारा काफी ज़्यादा सेंसर किया गया था लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने इसे "भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर हमले को उजागर करते हुए दुनिया भर में लाइव दिखाया।" वह कहती हैं कि इस प्रकरण ने राजनीतिक विचारधारा को नुकसान पहुंचाया। वह आगे कहती हैं, "अब, जो लोग मस्जिद के अस्तित्व का विरोध करते थे, वे जीत गए हैं और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों में आरएसएस के इलाक़े में उत्सव का माहौल है जहां बड़े बड़े बैनरों ने अयोध्या के उक्त स्थल पर मंदिर के लिए आधारशिला समारोह की घोषणा की।"
और फिर भी हालांकि कुछ लोगों को इस समय यह आश्चर्यजनक लग सकता है कि ये मस्जिद मुस्लिमों के एजेंडे में उतना अहम नहीं है। कई लोगों को लगता है कि उनके समुदाय ने उन अधिकारों को सुरक्षित रखने के लिए कुछ बेहतर किया है जो भारतीय संविधान ने उन्हें गारंटी दी है। उन्हें लगता है कि अगर उनके पास देश के किसी भी नागरिक के समान अधिकार हैं तो उन्हें नागरिक स्वतंत्रता में शामिल करना होगा और यह सुनिश्चित करने के लिए काम करना होगा कि उन अधिकारों को न छीना गया या न अनदेखा किया गया। वे उन चीजों को लेकर भी चिंतित हैं जिसने उन्हें पिछड़ेपन की कतार में रखा है जैसे कि शिक्षा, रोज़गार और उद्यमिता की कमी जो कि वर्तमान चिंता का विषय है।
मुस्लिम शैक्षिक और आर्थिक मामले को लेकर अपनी सबसे बदतर स्थिति से अवगत हैं। नौकरियों और शिक्षा में उनकी हिस्सेदारी दशकों से लगातार घट रही है। क्रिस्टोफ़ जैफ़रेलोट और कलायारसन ए. ने हालिया रिपोर्ट में कहा, “इस समाज के 15-24 आयु वर्ग के केवल 39 प्रतिशत युवा शैक्षणिक संस्थानों में हैं, जबकि एससी के 44 प्रतिशत, हिंदू ओबीसी के 51 प्रतिशत और हिंदू उच्च जाति के 59 प्रतिशत हैं।” इसी रिपोर्ट में कहा गया है कि मुस्लिम युवाओं का एक बड़ा हिस्सा औपचारिक शिक्षा छोड़ रहा है और NEET जैसे श्रेणीकी तरफ जा रहा है। लेखकों का कहना है, “इस समुदाय के इकतीस प्रतिशत युवा इस श्रेणी में आते हैं जो कि देश के किसी भी समुदाय से सबसे ज़्यादा है। इसके बाद एससी के 26 प्रतिशत, हिंदू ओबीसी के 23 प्रतिशत और हिंदू उच्च जाति के 17 प्रतिशत हैं। यह प्रवृत्ति हिंदी पट्टी में अधिक स्पष्ट है।”
ऐसा नहीं है कि मुसलमानों ने प्राथमिक शिक्षा या उच्च शिक्षा में अपनी मौजूदगी दिखाने में बीते वर्षों में सुधार नहीं किया है। इसके विपरीत, उन्होंने विशेष रूप से उच्च शिक्षा में प्रगति की है। हालांकि, स्पष्ट शब्दों में वे पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जातियों सहित अन्य समुदायों के पीछे हैं। साल 2010 के अंत में मुसलमानों ने उच्च शिक्षा में अपनी मौजूदगी को लगभग तिगुना बढ़ा दिया। हालांकि, यह राष्ट्रीय औसत 23.6% और पिछड़े सामाजिक समूहों 22.1% और अनुसूचित जातियों के18.5% के मामले में पीछे है। मुस्लिम अनुसूचित जनजातियों से 0.5% पीछे है।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट नवंबर 2006 में जारी की गई थी। इसमें कुछ भविष्यवाणी की गई थी जो अब यह काफी हद तक सही हो रही है: इसने वृद्ध लोगों की तुलना में युवा मुसलमानों के बीच स्नातकों का अनुपात दोगुना पाया; लेकिन यह पाया कि मुस्लिम पुरुषों और महिलाओं के बीच अंतर अन्य सभी सामाजिक समूहों की तुलना में बढ़ रहा था। इसके अलावा इस रिपोर्ट में कहा गया कि अगर मुस्लिम की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में गिरावट की प्रवृत्ति बदलती नहीं है तो ये समाज अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों से काफी पीछे हो जाएगा।
सिद्दीकी के अनुसार, भारतीय मुसलमानों को अपनी शैक्षिक और रोज़गार की स्थिति में सुधार के तरीके से आगे बढ़ना है। वह कहती हैं, "उन्हें शिक्षा के महत्व का एहसास है और इसलिए आप मुस्लिम बस्तियों में स्कूलों की बढ़ती संख्या और सरकारी और निजी स्कूलों में उनकी उच्च उपस्थिति देखते हैं।"
हालांकि, नवीनतम राष्ट्रीय शिक्षा नीति या एनईपी चिंता का विषय है क्योंकि यह 1944 से सभी महत्वपूर्ण शिक्षा समितियों के योगदान को खत्म करने का प्रयास करता है जिसमें कोठारी कमीशन और अन्य शामिल हैं। इन समितियों ने हाशिए पर रहने वाले समुदायों, महिलाओं और कामकाजी बच्चों के उत्थान के लिए शिक्षा के महत्व को स्वीकार किया था, लेकिन नवीनतम एनईपी ने अस्तित्व खो चुकी भाषा नीति का प्रस्ताव देकर भारत को कई दशकों तक पीछे धकेल दिया।
वह कहती हैं, ''समाज का वर्ग श्रेणी के साथ विभाजन हिंदुत्व जैसी चरम विचारधाराओं या हिटलर के फासीवादी शासन की एक नकारात्मक विशेषता है जहां वंचितों के प्रति असहिष्णुता को बढ़ावा दिया जाता है।''भारत में बढ़ती असहिष्णुता मुसलमानों की लिंचिंग की बढ़ने वाली घटनाओं से स्पष्ट है, इनमें से अधिकांश ग़रीब पशु किसान थे। ये घटना पूरे भारत और दुनिया को पता है। वह कहती हैं, “भारत के निर्माण में मुस्लिमों के योगदान को ख़त्म करने के लिए इतिहास को फिर से लिखना एक और ख़तरनाक प्रवृत्ति है जिसका उद्देश्य मुसलमानों को 'बाहरी' के तौर पर बताना है। यह काफी[बुरा] नहीं है कि उन्हें 'आक्रमणकारियों' के रूप में बताया है और इसलिए वह भारत का हिस्सा नहीं हैं।"
यह भी एक सच्चाई है कि मुसलमानों को शिक्षा हासिल करते समय कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है चाहे वह सरकारी या निजी संस्थान हो। अपनी किताब मदरिंग ए मुस्लिम में नाजिया एरम ने लिखा कि किस तरह मुस्लिम छात्रों को बहुत कम उम्र से सामाजिक भेदभाव से परेशान किया जाता है। एरम ने स्कूल जाने वाले मुस्लिम बच्चों के माताओं से बातचीत की, लेकिन उनमें से ज्यादातर ने उन्हें एक ही जैसी बात बताई। वे कहती हैं, "वे अपने बच्चों के लिए चिंतित और भयभीत थीं, इनमें से कई अपनी कक्षाओं और खेल के मैदानों में इस्लामोफोबिया और [अति] राष्ट्रवाद के शिकार थें।” एरम कहती हैं, ''मैं उनकी बातों से हिल गई थी। वे कहती हैं, "मुझे सलाह दी गई कि मैं अपने खोज को न छापूं,नहीं तो ऐसा न हो कि मैं कट्टरता का निशाना बन जाऊं...लेकिन बड़े पैमाने पर हुई घटनाओं और इस विषय को लेकर रिपोर्टिंग में कमी ने मुझे काफी परेशान किया।"
एरम ने पाया कि 100 से अधिक मामलों में से 85%मामलों में बच्चों को उनके धर्म के कारण स्कूल में तंग किया गया, पीटा गया या बहिष्कार किया गया। एरम कहती हैं, “मैंने अपना शोध पूरा करने के बाद भी देश भर से ऐसी और भी घटनाएं सुनीं। और फिर भी हम मुस्लिम समुदाय के भीतर भी इसके बारे में खुलकर बात नहीं करते हैं। परेशानी बढ़ती जा रही है लेकिन बहुत से लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं क्योंकि पीड़ित के माता-पिता केवल मित्रों और परिवार में बात करते हैं। शायद ही वेकभी स्कूल और मीडिया से बात करते हैं।”
सरकार द्वारा और अधिक अहमियत न देने के भय सहित भीतर और बाहर की चुनौतियों के बावजूद मुस्लिम बुनियादी चीजों पर काम करने की कोशिश कर रहे हैं। वे देश के लगभग हर हिस्से में नए स्कूल और कॉलेज खोल रहे हैं। वे सिविल सेवा के लिए तैयार करने के अलावा अपने बच्चों को NEET और JEE के लिए तैयार करनेके लिए कोचिंग सेंटर शुरू कर रहे हैं। हालांकि ये बच्चोंके कदम की तरह लग सकते हैं लेकिन वे पहले से ही परिणाम दे रहे हैं। ऐतिहासिक बाबरी मस्जिद से उनके वंचित होने, मुस्लिमों को उनके पर्सनल लॉ के लिए दंडित करने की चिंता और जम्मू-कश्मीर में धारा 370 को निरस्त करने जैसी घटनाओं के बीच इस तरह की पहल को देखना आश्चर्यजनक और स्वागत योग्य है।
मुंबई स्थित अकबर पीरभॉय कॉलेज ऑफ कॉमर्स एंड इकोनॉमिक्स के सहायक निदेशक डॉ. हनीफ लकड़ावाला ने मुझे बताया कि मुस्लिमों को घेट्टो और पिछड़ेपन से दूर होने के लिए शिक्षा और उद्यमशीलता को बेहतर करना होगा। उन्होंने कहा कि वे एक उद्यमी सामाजिक समूह हैं और मदरसों सहित संस्थानों का एक बड़ा नेटवर्क है। वे कहते हैं, “दुर्भाग्य से, उन्होंने… केवल लाभ पर ध्यान केंद्रित करने के पूंजीवादी मॉडल को अपनाया। परिणाम स्पष्ट है; संपूर्ण समाज सहायता देने के बजाय मांग रहा है; उनका ध्यान आत्मनिर्भरता के बजाय निर्भरता पर है।” जैसा कि वे कहते हैं भविष्य उज्ज्वल तभी हो सकता है जब दृष्टि उज्ज्वल हो और साथ प्रगति-उन्मुख भी हो।
लेखक स्तंभकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल लेख को यहां क्लिक कर पढ़ा जा सकता है।
https://www.newsclick.in/indian-muslims-ayodhya-way-ahead-challenges
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