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जम्मू-कश्मीर में प्रशासनिक निष्ठुरता और नवउदारवादी शासन

कश्मीर में दमनात्मक नीतियां जारी हैं। शेष भारत को निश्चित तौर पर इसका एहसास होना चाहिए।
jammu and kashmir

जबसे केंद्र के एकतरफा फैसले के चलते भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त कर दिया गया और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के तहत दो केंद्र शासित प्रदेशों के रूप में राज्य को विभाजित कर दिया गया है, तबसे जम्मू-कश्मीर में न सिर्फ अशांति, अनिश्चितता, नागरिक अधिकारों का दमन, और इसकी अपनी विशिष्ट राजनीतिक पहचान पर हमले जारी हैं, बल्कि इसे भयानक शासकीय विपदा का भी सामना करना पड़ रहा है। वास्तव में इस आपदा की शुरुआत 2018 के मध्य में ही हो चुकी थी, जब विधानसभा को निलम्बित कर दिया गया था और तत्कालीन राज्य को केन्द्रीय शासन के अंतर्गत ले लिया गया था। बीजेपी द्वारा जम्मू कश्मीर में लाये गए भयानक राजनैतिक बवन्डर के शोरगुल के बीच यह कुछ इस प्रकार से घटित हुआ, जिसके कारण किसी का इस पर ध्यान ही नहीं जा सका, और उपेक्षित रहा है।

जब बीजेपी सरकार ने अपने तथाकथित जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 को लागू करने के लिए कदम बढाया तो इसे लागू करने के लिए जो कारण उसने गिनाये थे, उसमें “घाटी में बिगड़ते सुरक्षा हालात” और इसके साथ ही उसने इसमें जोड़ते हुए राज्य में "विकास की रफ़्तार में आ रही बाधा" को इसकी मुख्य वजह बताया था। पहली बात तो यह है कि ये जो भी कारण गिनाये गए, वे अपने आप में ही एक सवालिया निशान थे। और अपनी जिम्मेदारी से बीजेपी बच नहीं सकती है। जो भी कारण उसने गिनाये वे उसकी खुद की गलतियों की वजह से हैं।

2014 से केंद्र में सत्ता में ये ही लोग थे और 2018 तक राज्य सरकार में एक सत्तारूढ़ भागीदार के रूप में भी बने हुए थे, और इसके बाद राज्यपाल के शासन काल में भी राज्य में इन्हीं का शासन चलता रहा। शुरुआत से ही केंद्र ने मर्दानगी और सुरक्षा को केंद्र में रखने वाला रुख अपनाया हुआ था, जिससे कुछ भी हासिल नहीं हुआ। चूँकि सत्ता में वे ही बने हुए थे, इसलिये उनसे “सुरक्षा को लेकर बिगड़ते हालात” के साथ-साथ अवरुद्ध पड़े विकास कार्यक्रमों और प्रदेश की जनता के कल्याण के प्रति उदासीन रवैये को लेकर भी सवाल उठाये जाने की आवश्यकता है।

तमाम बयानबाजी और झूठे प्रचार के बावजूद जमीन पर किसी भी प्रकार का बदलाव नजर नहीं आता। बल्कि वास्तविकता में राज्य के लोगों के लिए हालात बद से बदतर ही होते जा रहे हैं। जनता के मूलभूत राजनैतिक और आर्थिक अधिकारों का हनन जारी है। सैन्य हस्तक्षेप और प्रशासनिक उदासीनता और तटस्थ रवैये के चलते सम्मानपूर्वक जीने का भाव और जीवन जीने के मूलभूत अधिकार, निरंतर खतरे में दिखाई पड़ रहे हैं। 12 जिलों को छोड़कर करीब-करीब बाकी जगहों पर इंटरनेट पर अभी भी तालाबंदी जारी है, और जहाँ इसकी कुछ सुविधा भी है वह भी तमाम प्रतिबंधों के साथ है। राजनैतिक गतिविधियाँ कश्मीरियों के लिए पूर्ण रूप से निषिद्ध है, और उन्हें अपनी पसंद के राजनैतिक दलों के समर्थन का अधिकार नहीं है।

जहाँ एक तरफ केंद्र की ओर से विदेशी मेहमानों के टूर बारम्बार आयोजित किये जा रहे हैं, वहीँ बेहतर शासन दे पाने का उनका रिकॉर्ड अपने बेहद खराब स्तर तक पहुँच गया है। हाल ही में हुई बर्फ़बारी के बाद प्रशासन सड़कों को खोल पाने में विफल रहा है, जबकि क्रूर हिमालयी सर्दी इस बार निर्धारित समय से पहले आ गई है और इसके बाद इसके और तेज होने के कारण, घाटी के आम लोगों को बेहद कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। बीजेपी के नेता और उनकी ओर से माफ़ी माँगने वाले लोग जिस "स्थायी" और "आउट-ऑफ-द-बॉक्स समाधान" नाम के बुलबुले का जुमला उछालते आये थे, वह तेजी से फुस्स हो चुका है।

इस घड़ी किसी सामान्य कश्मीरी के लिए आम तौर पर और विशेष तौर पर इसके युवाओं के लिए गरिमापूर्ण जीवन जी सकने के मूल अधिकार एक छलावा बन चुके हैं। दमनकारी स्थितियां कुछ इस प्रकार से हैं कि वर्तमान में कश्मीर अपने शैक्षणिक संस्थानों के राज्य के द्वारा अनुमोदित लगातार तालाबंदी को झेल रहा है। लोग निरंतर भय और अनिश्चितता वाली स्थिति में जी रहे हैं।

और यह सब तब हो रहा है जब बीजेपी सरकार अपने फासीवादी नीतियों को लागू करने में मशगूल है। हालाँकि आम कश्मीरियों को फ़िलहाल जिस बात का सबसे बड़ा डर सता रहा है वह है बीजेपी के बड़े-बड़े लाभ कमाने वाले कॉर्पोरेट मित्रों के साथ की नजदीकियों के चलते, उनके राज्य के संसाधनों के बढ़ते शोषण की आशंका को लेकर। जिस प्रकार से भारत के बाकी हिस्सों में जहाँ कहीं बीजेपी चाहती है अपने कॉर्पोरेट मित्रों को खुश करने के लिए नव-उदारवादी नीतियों को लागू करना शुरू कर देती है, इसे देखते हुए यहाँ पर भी आशंकाएं बढती जा रही हैं, क्योंकि यहाँ के लिए भी पहले से ही नीतिगत उपायों को सुझाया जा चुका है।

1940 के लोकप्रिय आंदोलन के माध्यम से जम्मू-कश्मीर में अत्याचारी डोगरा सामंती राजशाही के उन्मूलन के बाद से जो विरासत शेख अब्दुल्ला जैसे नेताओं के द्वारा यहाँ के लोगों को प्राप्त हुई थी, उसमें अनुच्छेद 370 के रूप में इस प्रकार के प्रावधान सुनिश्चित करके छोड़ दिए गए थे, जिससे राज्य के लोग के अधिकारों की रक्षा होती आ रही थी, खासतौर पर किसानों और कामगार वर्ग के हित।

वे सभी गारंटियाँ अब खतरे में हैं। नव-उदारवादी शोषण का क्लासिकल नमूना इस बात में दिखता है कि राज्य के संसाधनों पर सभी आँखें गड़ाये बैठे हैं, जबकि आम लोगों की पीड़ाओं से जानबूझकर मुहँ मोड़ा जा रहा है। भाजपा के कुछ कॉरपोरेट मित्र पहले से ही राज्य की जमीन दिए जाने की माँग कर रहे हैं।

जम्मू-कश्मीर पावर डेवलपमेंट डिपार्टमेंट (JKPDD) के प्रस्तावित निजीकरण के मामले में, जहाँ पर पहले से ही कर्मचारियों और ठेका-मजदूरों के विरोध का सामना करना पड़ा है, के बारे में कहा जा रहा है कि यह दिए जाने के लिए विचाराधीन है। और भले ही प्रशासन की ओर से इसे नकार दिया गया हो, लेकिन चार अलग-अलग इकाइयों में इसके विभाजित किये जाने से कर्मचारियों के मन में डर बैठ चुका है। उल्लेखनीय है कि जम्मू-कश्मीर जल संसाधनों और बिजली उत्पादन के मामले में सौभाग्यशाली रहा है, जिसका प्रबंधन अभी तक एनएचपीसी द्वारा किया जा रहा था, और यह प्रदेश को राजस्व मुहैय्या कराने वाले प्रमुख क्षेत्रों में से एक रहा है। और यहाँ पर अब कॉरपोरेट इसे अपने हाथ में लेने का मौका नहीं गँवाना चाहते हैं। और जिस प्रकार की रिपोर्टें आ रही हैं, यदि उन पर भरोसा किया जाये तो इस प्रकार के ढेर सारे कदम उठाए जा रहे हैं, जो प्रभावी रूप से राज्य के संसाधनों को मोटा माल कमाने वाले कॉर्पोरेट्स को सौंपने की ओर ले जाते हैं।

नया कश्मीर मेनिफेस्टो की प्रगतिशील विचारदृष्टि से प्रेरित होकर जम्मू कश्मीर के पास देश का सबसे पहले का और बेहतरीन संवैधानिक प्रावधान मौजूद था, जिसके द्वारा सार्वभौमिक मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित की गई थी। इसने राज्य के वंचित समुदायों की विशाल आबादी को ढेर सारे लाभ पहुंचाए थे।

हालाँकि इस खास प्रावधान को सबसे बड़ा खतरा नव-उदारवादी नीति से है जो निजीकरण की नीति और राज्य के अधीन आने वाले स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए धन की कमी का बायस बन रहा है, जो शिक्षा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर डाल रही है। हाल ही में राज्य में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के लिए एक नई नीति लागू की गई है, जबकि पहले से संविदा पर नियुक्ति किये जाने वाले अध्यापकों वाली प्रणाली को खत्म किया जा रहा है। इसकी जगह पर, एक बेहद मनमानीपूर्ण नीति लागू की जा रही है, जो सरकार को हर लेक्चर पर 250 रुपये की दर से "आवश्यकता पर आधारित प्रणाली" के आधार पर व्याख्याताओं (लेक्चरर्स) की नियुक्ति की अनुमति प्रदान कर देगा।

इस प्रकार के सभी उपायों का राज्य के लोगों पर बेहद बुरा असर पड़ने जा रहा है, क्योंकि उन्हें गुणवत्तापूर्ण शिक्षा से वंचित किया जा रहा है, जबकि कॉर्पोरेट के लिए निवेश के रास्ते साफ़ किये जा रहे हैं। कई उदाहरणों में, पहले से ही जमीनें बड़े-बड़े कॉर्पोरेटस के नाम आवंटित कर दी गई हैं, ताकि वे महँगे स्कूलों की स्थापना कर सकें, और आमजन के लिए वहाँ तक पहुँच बनाना नामुमिकन होने जा रहा है। ऐसा ही एक स्कूल जिसका मालिकाना भारत के एक बड़े कॉरपोरेट के हाथ में है, जोकि हाल ही में पंपोर शहर की बाहरी सीमा पर, दुनिया में मशहूर केसर के खेतों के बीचों-बीच में है।

यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि पूर्व में राज्य के कानूनों में इन खेतों में जहाँ दुनिया के सबसे दुर्लभ और बेहतरीन मसालों की खेती होती थी, इस प्रकार के किसी भी निर्माण पर प्रतिबन्ध लागू थे। राज्य की शिक्षा व्यवस्था और स्वास्थ्य सेवाओं को कॉर्पोरेट के हाथों सुपुर्द कर देने से राज्य में सिर्फ वर्ग विभाजन और अपेक्षाक्रत और अधिक अभाव को बढाने वाला सिद्ध होने जा रहा है। यह आम आदमी के किसी भी प्रकार से हित में नहीं है, जैसा कि दिन-रात झूठा प्रचार किया जा रहा है।

ऐसे में हाल ही में नियुक्त उपराज्यपाल, उनके सलाहकारों और राज्य की नौकरशाही की परस्पर विरोधी भूमिकाएँ संदेह के घेरे में आ जाती हैं। बीजेपी की राजनीतिक स्थिति का पूरा लाभ उठाते हुए ये लोग अक्सर "कश्मीरी लोगों का दिल जीतने" का दावा करते रहते हैं, लेकिन जमीन पर उनकी समस्याओं और कष्टों को कम करने के लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। राज्य की नौकरशाही अपने संवैधानिक और व्यावसायिक जिम्मेदारियों को भुलाकर राज्य में भाजपा के हृदयहीन एजेंडे को लागू करने में एक पार्टी के रूप में नजर आ रही है। ऐसे परिदृश्य में, राज्य के लोग सभी दिशाओं से मुसीबतों का सामना कर रहे हैं, क्योंकि जिन्दा रहने के लिए आजीविका के मोर्चे पर भी एक ठहराव की स्थिति बन गई है और रोजमर्रा के सवालों से दो-चार होना उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती बन चुकी है।

एल-जी प्रशासन और इसके उदासीन नौकरशाही राज के चलते यह आम लोगों के सवालों को हल कर पाने में विफल सिद्ध हुई है। धरातल पर देखें तो कश्मीर में शासन व्यवस्था जमीनी आधार पर पूरी तरह से गायब है। जनप्रतिनिधियों को गैरकानूनी तौर पर अभी भी बंदी बनाकर रखा गया है। इनकी गैरमौजूदगी के कारण इनकी कोई जवाबदेही भी नहीं रह गई है। इस कड़कड़ाती सर्दी के मौसम में जहाँ तापमान ज़माने वाला है, बिजली और पानी जैसी बुनियादी सुविधाएं पूरी तरह से गायब हैं। श्रीनगर शहर के कुछ संपन्न इलाकों को छोड़कर, कश्मीर के अधिकांश शहरी और ग्रामीण हिस्सों में एक दिन में 10 घंटे से कम समय के लिए बिजली मुहैय्या की जा रही है।

 जिला अस्पतालों और दूर-दराज के इलाकों के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र दवा और चिकित्सा सेवा/ सहायक चिकित्सक कर्मचारियों दोनों ही की बेहद कमी से जूझ रहे हैं। घाटी में भारी बर्फबारी के कारण बुनियादी सार्वजनिक ढ़ांचे की हकीकत खुलकर सामने आ चुकी है। इस पर प्रशासन की और से जो देखने को मिला है वह बेहद दयनीय है, जिसके बारें में बताना भी बेकार है। अवैतनिक मजदूरी और रोजगार को लेकर बनी अनिश्चितताओं ने आंगनवाड़ी कर्मियों, दिहाड़ी पर काम करने वाले श्रमिकों, कैजुअल मजदूरों और ठेके पर काम कर रहे श्रमिकों को बेहद मुश्किल भरे दिन देखने पड़ रहे हैं।

राजनीतिक तौर पर जुटान और विरोध प्रदर्शनों पर पूर्ण बंदी के चलते इन समस्याओं से जूझ रहे लोग अपने दिन-प्रतिदिन के मुद्दों को लेकर सड़कों पर आने से डर रहे हैं। जिन नए कर्मचारियों की नियुक्ति की गई है, वे बेहद शोषणकारी एसआरओ-202 [विशेष भर्ती नियम] के तहत बुरी तरह से प्रभावित हैं। इस आदेश के कारण नव-नियुक्त कर्मचारियों को अपने सेवाकाल के पहले पाँच वर्ष तक तदर्थ नियुक्ति के तहत बेसिक वेतन की शर्तों के साथ दूर-दराज के इलाकों में जाकर काम करने पर मजबूर किया जा रहा है।

जेकेपीएससी (JKPSC) और जेकेएसएसएसबी (JKSSB)  जैसे महत्वपूर्ण प्रादेशिक संस्थानों को भंग किये जाने को लेकर भ्रम की स्थिति बनी हुई है। आजीविका और रोजगार मुहैय्या कराने, जिससे कि अभावों को कम से कम किया जा सके, के मुद्दे पर एल-जी प्रशासन पिछले शासनकाल की ही तरह पूरी तरह से विफल रहा है। पढ़े-लिखे युवाओं में अलगाव और बेरोजगारी की समस्या अपने चरम पर है और इसमें निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रदेश की अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट का रुख बना हुआ है, जिसमें राज्य की अर्थव्यस्था के लिए प्रमुख क्षेत्रों -बागवानी, पर्यटन और हस्तशिल्प में लगातार गिरावट का रुख जारी है।

खासतौर पर बागवानी और पर्यटन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है, जो भयानक संकट में हैं। राजनैतिक अशांति और लगातार दूसरे साल फसल कटाई के समय होने वाली बेमौसम की बर्फ़बारी की वजह से सेब की खेती में एक बार फिर नुकसान उठाना पड़ा है, जिसने एक तरह के कृषि संकट को उत्पन्न कर दिया है।ना तो केंद्र सरकार की ओर से और ना ही एलजी प्रशासन की ओर से किसानों को मुआवजा देने के लिए कोई कदम उठाये गए हैं।

आज तक नुकसान का जायजा लेने के लिए किसी भी अधिकारी ने सेब बागानों का दौरा तक नहीं किया है। यहाँ पर यह उल्लेख करना आवश्यक है कि सेब उगाने वाले किसान पहले से ही बैंक ऋण के भारी-ब्याज तले दबे हुए हैं, जबकि खाद और छिडकाव की जाने वाली तेल की कीमतों में इजाफ़ा लगातार होता जा रहा है।दमनकारी नीतियों का खामियाजा कश्मीरी जनता को लगातार भुगतना पड़ रहा है। इससे पहले कि काफी देर हो जाये, यही वह समय है जब शेष भारत के लोकप्रिय जनमत को इसके प्रति सचेत हो जाना चाहिए।

(बशारत शमीम कश्मीर में स्थित एक ब्लॉगर और लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आप नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

In J&K, Administrative Apathy and Neoliberalism Rule

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