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कश्मीर : धारा 370 पर सुनवाई पर सुप्रीम कोर्ट के सामने मुख्य मुद्दे

जिन लोगों ने विशेष दर्जे का समर्थन किया, उन्होंने कश्मीर के बाहर इसके उन्मूलन की राजनीतिक प्रतिध्वनि को कम करके आंका, जबकि इसके विरोधी अक्सर बहुसंख्यकवादी आवेगों में फंस कर रह गए।
Kashmir

2 अगस्त को, सुप्रीम कोर्ट धारा 370 को हटाने को चुनौती देने वाली याचिकाओं के समूह पर दैनिक सुनवाई शुरू करेगा। दैनिक लाइव सुनवाई को प्रत्यक्ष हितधारकों और संवैधानिक वकीलों के अलावा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर के लोगों और विभिन्न विषयों के स्कोलर्स द्वारा गहरी रुचि के साथ देखा जाएगा। धारा 370 और इस रद्द करने के आसपास के घटनाक्रमों को रेखांकित करने वाले राजनीतिक संदर्भ और विवादास्पद स्थिति पैदा करने के बजाय यह सुनवाई जानकारीपूर्ण और ईमानदार चर्चा से भरपूर होनी चाहिए। उच्च अदालत को ऐसे विषय पर इस किस्म की चर्चाओं से भी लाभ होगा जिनकी वास्तविकताएं कुछ ओर हैं।

सबसे पहले, धारा 370 की प्रासंगिकता को समझना होगा। यह प्रावधान भारतीय संविधान में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व वाले मुस्लिम-बहुल जम्मू और कश्मीर के भारत में विलय के समय साथ पेश किया गया था, जो 1947 में दो-राष्ट्र सिद्धांत को चुनौती देता था और एक लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष भारत का पक्ष लेता था। जैसा कि विदेश मंत्री एस जयशंकर ने तर्क दिया था कि दरअसल, जम्मू कश्मीर रियासत के शासक हरि सिंह और माउंटबेटन और अन्य 564 रियासतों ने जिस विलय पत्र के मसौदा पर हस्ताक्षर किए थे वह एक जैसा था। अन्य रियासतें हिंदू-बहुल थीं, जबकि जम्मू-कश्मीर मुस्लिम-बहुल प्रांत था।

पूर्व ब्रिटिश भारत में खासतौर पर उत्तर भारत जो सांप्रदायिक दंगों और विभाजनकारी दो-राष्ट्र वाले सिद्धांत के सिकंजे में जकड़ा पड़ा था के मुक़ाबले, शेख अब्दुल्ला, जो उस समय कश्मीर घाटी के निर्विवाद और लोकप्रिय नेता थे, ने इस महत्वपूर्ण मोड़ पर भारत का पक्ष लिया था।

9 अगस्त 1953 को अब्दुल्ला की हुई कुख्यात गिरफ्तारी से संबंधित घटनाओं के विवादित दावों में जाए बिना, जो हक़ीक़त बात है वह यह कि जम्मू-कश्मीर रियासत के भारत में शामिल होने के बाद, भारतीय सेना को पश्तून आक्रमणकारियों के खिलाफ कश्मीर घाटी में जो लोकप्रिय सफलता मिली, वह मुख्य रूप से अब्दुल्ला के जमीनी समर्थन से संभव हुई थी। और नेशनल कॉन्फ्रेंस का कैडर, जिसकी भूमिका के बारे में कई स्वतंत्र गवाही मिलती हैं के अनुसार, उसे कश्मीर घाटी में निर्विवाद रूप से लोकप्रिय समर्थन हासिल था। नेशनल कॉन्फ्रेंस के कैडर ने भारतीय सेना को हमलावरों की सटीक जानकारी दी और सेना की मदद की। कई लोगों का मानना है कि इस सबने कैसे विलय को केवल कानूनी ही नहीं, बल्कि एक नैतिक आधार देने में भी मदद की थी। 

यूएनजीए और यूएनएससी में भारत के प्रतिनिधि के रूप में, अब्दुल्ला ने फरवरी 1948 में भारत का बचाव किया था। उस वर्ष 5 फरवरी को जम्मू-कश्मीर से संबंधित एक चर्चा में भाग लेते हुए, उन्होंने कहा था कि, “जब हमलावर हमारी धरती पर आए, तो उन्होने हमारे हजारों लोगों का नरसंहार किया - जिनमें ज्यादातर हिंदू और सिख थे। लेकिन हमलावर मुसलमानों ने भी-हजारों लड़कियों, जो हिंदुओं, सिखों और मुसलमान परिवारों से थीं का अहरण कर लिया था, हमारी संपत्ति लूट ली गई और करीब-करीब लगभग हमारी सरद ऋतु वाली राजधानी श्रीनगर के दरवाजे तक पहुंच गए थे, नतीजा यह हुआ कि नागरिक, सेना और पुलिस प्रशासन सभी विफल हो गए थे। रात के स्याह अंधेरे में, महाराजा अपने दरबारियों के साथ राजधानी छोड़ कर भाग गए थे, और नतीजा पूरी तरह से दहशत भरा था।

“स्थिति पर नियंत्रण पाने वाला कोई नहीं था। संकट की उस घड़ी में, नेशनल कॉन्फ्रेंस अपने 10,000 कैडर के साथ आगे बढ़ी और [कश्मीर] का प्रशासन अपने हाथ में ले लिया। वे राजधानी के बैंकों, दफ्तरों और प्रत्येक व्यक्ति के घरों की रखवाली करने लगे थे। इस तरह प्रशासन के हाथ बदल गये थे। हम वास्तव में प्रशासन के प्रभारी थे। बाद में महाराजा ने इसे कानूनी रूप दे दिया था।”

छह साल से भी कम समय में, अब्दुल्ला को 9 अगस्त 1953 को गद्दी से उतार दिया गया और गिरफ्तार कर लिया गया और इस तरह नई दिल्ली और कश्मीर घाटी के बीच अशांत संबंधों का एक अध्याय शुरू हुआ।

ऊपर दिए गए कारकों के बारे में साहित्य का एक पूरा का पूरा संग्रह मौजूद है जिनके कारण यह अलगाव हुआ था। 57 वर्षों की दृष्टि से, एक नए आज़ाद देश का जन्म पीड़ा से भरा था, जिसमें विभाजन से पीड़ित उत्तर भारत में तत्कालीन नेतृत्व की देश की एकता के बारे में अंतर्निहित असुरक्षाएं भी शामिल थीं, जिन्होने अंतत गलतफहमियों में योगदान दिया। अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली में गुणात्मक महत्व वाले अपेक्षाकृत आर्थिक रूप से अधिक समृद्ध आज के भारत के संदर्भ की तुलना उस समय के बेहद गरीब भारत, और उसके प्रति बड़ी शक्तियों के रवैये के संदर्भ में 1953 से नहीं की जा सकती है।

दूसरा, इसलिए 5 अगस्त 2019 को की गई कार्रवाई पहले के कृत्यों से कुछ अलग नहीं थी, धारा 370 के प्रावधानों को काफी हद तक पहले ही खोखला बना दिया गया था। अंतर यह है कि इस बार, संसद ने इस धारा को पूरी तरह से निष्क्रिय कर दिया था। जो वास्तविकताओं  से बहुत दूर हैं, और इनमें से कुछ पर विस्तृत चर्चा की जरूरत है, क्योंकि धारा 370 राज्य के अधिकारों की रक्षा या केंद्र की मनमानी के खिलाफ एक अचूक तंत्र से बहुत अलग था। उदाहरण के लिए, यदि धारा 370 उन प्रावधानों के साथ लागू रहती, जब इसे लागू किया गया था, तो उच्च अदालत वर्तमान मामले का फैसला नहीं कर सकती थी। यदि 1953 में सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र राज्य तक न बढ़ा होता, जैसा कि कश्मीर पर एक प्रमुख स्कॉलर ने एक बार कहा था, "तो अब्दुल्ला को भारत में लागू किसी भी कानून के तहत गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था।"

सर्वोच्च न्यायालय, भारत के चुनाव आयोग और नियंत्रक एवं महालेखाकार के अधिकार क्षेत्र को विभिन्न अंतरालों पर जम्मू-कश्मीर तक बढ़ाया गया। जम्मू-कश्मीर संविधान ने राज्यपाल शासन के दौरान राज्यपाल को असीमित शक्तियाँ दीं थीं, इस प्रावधान का इस्तेमाल बार-बार इसके विशेष दर्जे को कमजोर करने के लिए किया जाता था। सभी भारतीय राज्यों में, सरकार की विफलता के बाद राष्ट्रपति शासन लगाया जाता है, जबकि पूर्व राज्य जम्मू और कश्मीर में, राज्यपाल का शासन शुरू में सिर्फ छह महीने के लिए लगाने का प्रावधान था। इस अवधि में, जम्मू-कश्मीर संविधान की धारा 92 राज्यपाल को विधायी शक्तियाँ प्रदान करेगी। 1986 में, इस प्रावधान ने राज्यपाल को संविधान के अनुच्छेद 249 को [तत्कालीन] राज्य तक विस्तारित करने में सक्षम बनाया, ताकि संसद को राज्यसभा के संकल्प के आधार पर राज्य सूची के किसी भी मामले पर कानून बनाने का अधिकार मिल सके।

तीसरा, धारा 370 के समर्थकों ने देश भर में इसके रद्द होने की राजनीतिक प्रतिध्वनि को कम करके आंका। ऐसा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 35ए जैसे इसके परस्पर जुड़े प्रावधानों की कठोर व्याख्या के कारण भी है। यह अनुच्छेद जम्मू-कश्मीर राज्य विधानमंडल को राज्य के "स्थायी निवासियों" को परिभाषित करने और उन्हें विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करने का अधिकार देता है। इसने जम्मू-कश्मीर में कुछ दीर्घकालिक निवासियों को इमिग्रेशन अधिकार हासिल करने से रोक दिया था, जिनमें विभाजन के शरणार्थी भी शामिल थे, जिनमें से कई दलित और गरीब थे। इन तथ्यों को धारा 370 को रद्द करने वाले समर्थकों ने ज़ोर-शोर के साथ पेश किया।  

यह भी सच है कि द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और वामपंथी दलों को छोड़कर भारत के अधिकांश राजनीतिक दल धारा 370 को निरस्त करने के खिलाफ खुलकर सामने नहीं आए। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 अगस्त 2019 को राष्ट्र के नाम अपने भाषण में "वाल्मीकि समुदाय" की दुर्दशा का उल्लेख किया था। यह कोई संयोग नहीं था कि केंद्र के फैसले का समर्थन करने वाले पहले विपक्षी नेताओं में बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्ष मायावती भी थीं। उन्होंने 6 अगस्त को ट्वीट किया, ''धारा 370 और 35ए को हटाकर देश में संविधान के 'सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय' को लागू करने की मांग लंबे समय से लंबित थी। बीएसपी को उम्मीद है कि केंद्र सरकार के फैसले का लाभ वहां के लोगों को मिलेगा.'' अनुसूचित जनजातियों के लिए राजनीतिक आरक्षण के मुद्दे पर जम्मू-कश्मीर के राजनीतिक अभिजात वर्ग द्वारा उसी अभद्र रवैये का प्रदर्शन किया गया था। अनुसूचित जनजातियों को राजनीतिक आरक्षण, नए कानून का हिस्सा होने के नाते, मुख्य रूप से जम्मू-कश्मीर में दो 100 प्रतिशत मुस्लिम समुदायों, गुज्जरों और बकरवालों को लाभान्वित करेगा।

चौथा, जम्मू-कश्मीर से अलग होने के बाद 5 अगस्त 2019 को धारा 370 को निरस्त करने के साथ ही नए केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख का निर्माण भी किया गया। 2019 में, लेह में नए केंद्र शासित प्रदेश के दर्जे को लेकर शुरुआती उत्साह कम होने में ज्यादा समय नहीं लगा। नई संवैधानिक व्यवस्था में लेह और कारगिल की निर्वाचित परिषदों की शक्तियों पर स्पष्टता की कमी से अशांति पैदा हुई। नई व्यवस्था में, गैर-निर्वाचित उपराज्यपाल सरकार और राज्य का वास्तविक प्रमुख है। केंद्र द्वारा लद्दाख के लिए सालाना लगभग 6,000 करोड़ रुपये आवंटित करता होई और उसमें लगभग 9 प्रतिशत दोनों परिषदों को जाता है। बाकी उपराज्यपाल प्रशासन के अधीन रहता है।

इन इलाकों में काम करने का मौसम छह महीने से कम होता है, और 5 अगस्त 2019 से पहले बेखर्च निधियों को रोलओवर करने के सिद्धांत का पालन किया गया था। अब, बेखर्च  निधियां समाप्त हो गई हैं। उपराज्यपाल और निर्वाचित परिषद के प्रशासन के बीच संस्थागत समन्वय के लिए किसी भी तंत्र का भी अभाव है, जिसमें वरिष्ठ नौकरशाह उपराज्यपाल को रिपोर्ट करते हैं। लद्दाख के लिए भारतीय संविधान की पूर्वोत्तर वाली छठी अनुसूची लागू करने की भी मांग की जा रही है।

छठी अनुसूची मुख्य रूप से असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के आदिवासी इलाकों के लिए डिज़ाइन की गई थी, जहां स्वायत्त जिला और क्षेत्रीय परिषदें विधायी, कार्यकारी, न्यायिक और वित्तीय शक्तियों से संपन्न हैं। इन मांगों की व्यवहार्यता संभव हो भी सकती है और नहीं भी, लेकिन लेह और कारगिल के बीच एकता के इस दुर्लभ क्षण को नजरअंदाज करना मुश्किल है।

लद्दाख में नए राजनीतिक रुझान ग्लोबल वार्मिंग और अन्य महत्वपूर्ण जलवायु परिवर्तनों के संदर्भ में सामने आए हैं, जिसमें ग्लेशियर जो पहले ठंडे रेगिस्तान में प्रचुर मात्रा में थे, तेजी से पिघल रहे हैं। इसका सीधा प्रभाव निचली, घनी आबादी वाले सिंधु जल बेसिन पर पड़ रहा है। भारत और चीन की निरंतर सैन्य प्रतिस्पर्धाओं को देखते हुए यह चुनौती गंभीर है।

पांचवां, धारा 370 को निरस्त करना भारत जैसे विविध समाज में संघवाद और इसके विकास के बारे में एक ईमानदार बहस को करारा झटका है। वास्तव में, भारतीय जनता पार्टी का पिछला नेतृत्व सत्ता हस्तांतरण के मुद्दों पर चर्चा के प्रति उदासीन नहीं था। पिछली भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार के तहत, अरुण जेटली और केसी पंत जैसे वार्ताकारों को जम्मू-कश्मीर पर वार्ताकार नियुक्त किया गया था।

संयुक्त राज्य अमेरिका या यूनाइटेड किंगडम जैसे कई पश्चिमी लोकतंत्रों की तुलना में, भारत का संविधान कम संघीय है। हालाँकि, ग्लोबल साउथ के संदर्भ में, यह कुछ हद तक असममित संघवाद को समायोजित करता है। इसे भारतीय संविधान के भाग XXI और XXII में दर्शाया गया है, जिसका अनुच्छेद 371 कुछ राज्यों को अस्थायी, संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान प्रदान करता है।

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के मामले में सौराष्ट्र और कच्छ के लिए स्वतंत्र विकास बोर्ड बनाने के लिए राज्य के राज्यपाल को विशेष अधिकार दिए गए थे। अनुच्छेद 371ए (नागालैंड) के अलावा महाराष्ट्र (विदर्भ और मराठवाड़ा) के लिए अनुकूलित प्रावधान हैं; 371बी (असम); 371सी (मणिपुर); 371डी और ई (आंध्र प्रदेश); 371एफ (सिक्किम); 371जी (मिजोरम); 371एच (अरुणाचल प्रदेश) और 371जी (गोवा) के लिए है।

मणिपुर में हाल की घटनाओं से साबित होता है कि किसी विशेष क्षेत्र के लिए संघवाद का डिज़ाइन कैसा होना चाहिए, और मौलिक अधिकारों को कम किए बिना विविध समुदायों की आकांक्षाओं और उनके बीच संबंधों को संबोधित करने के लिए इसे लगातार विकसित करना होगा।

विविध समाजों की आकांक्षाओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे ग्लोबल साउथ के दायरे में, भारत के संघवाद के अनुभवों को पश्चिमी देशों के अनुभव की तुलना में महत्वपूर्ण माना जाता है, जिनके सामाजिक-आर्थिक संदर्भ मौलिक रूप से भिन्न हैं। बहुपक्षीय क्षेत्र में काम के तौर पर, संघवाद में भारतीय प्रयोगों के ज्ञान ने इस लेखक को म्यांमार जैसे अन्य बहु-जातीय और बहु-धार्मिक समाजों की चुनौतियों को परिप्रेक्ष्य में रखने और इन मुद्दों पर रचनात्मक रूप से जुड़ने में मदद की है।

अफसोस की बात है कि धारा 370 के आसपास के नेरेटिव सममित संघवाद तक ही सीमित हो गया है और अन्य कारणों के अलावा, दोनों तरफ के बहुसंख्यक लोग आवेगों का शिकार हो सकते है। परिणामस्वरूप, समर्थकों और विरोधियों दोनों ने असममित संघवाद के अधिक तार्किक और रचनात्मक दायरे में भारत की विविध इकाइयों की आकांक्षाओं और चुनौतियों पर चर्चा को आगे बढ़ाने का अवसर खो दिया है।

लेखक, जम्मू-कश्मीर पर दो पुस्तक लिख चुके हैं, जिनमें कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित एलओसी के पार भी शामिल है। विचार निजी हैं।

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