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समर्थन मूल्य पर किसानों का गला घोंटती मोदी सरकार 

रबी की फसल के न्यूनतम समर्थन मूल्य(एमएसपी) में मामूली बढ़ोतरी ने किसानों को फिर से वैसा ही झटका दिया है जैसा खरीफ़ की फसल के वक़्त हुआ था।
meagre MSPs

सरकार ने हाल ही में 6 प्रमुख रबी (सर्दियों) फसलों - गेहूं, जौ, चना, मसूर, सफ़ेद सरसों और कुसुम के फूल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की घोषणा की है। इस साल के शुरुआत में ही यानी जुलाई महीने में सरकार ने धान, तीन मोटे अनाज, तीन दालें, पांच तिलहन और कपास सहित 14 प्रमुख खरीफ़ (मानसून) फसलों के समर्थन मूल्य की घोषणा की थी।

दोनों ही घोषणाएं किसानों की तरफ़ से वर्षों से की जा रही जरूरी मांगों से काफ़ी नीचे हैं, मांग के तहत उत्पादन की कुल लागत का कम से कम 1.5 गुना होना लाज़मी है। लेकिन, आम तौर पर नरेंद्र मोदी सरकार खेती की लागत को ही कम करके आँकती है और किसानों को झांसा देती है और फिर यह दिखावा करती है कि वह उनके द्वारा की गई मांगों कहीं अधिक दे रही है।

खरीफ़ के समर्थन मूल्य की घोषणा के लिए, सरकार ने उत्पादन की लागत की एमएसपी से तुलना की है, जिसे ए2+एफ़एल के रूप में जाना जाता है। इसका मतलब है कि यह सभी इनपुट लागतों और पारिवारिक श्रम की अनुमानित लागतों का योग है। इसमें तय लागत यानी भूमि के किराए का मूल्य और निश्चित पूंजी पर ब्याज शामिल नहीं है। एक बार जब इन्हें जोड़ लिया जाता है, तो वास्तविक लागत निकलती है, जिसे सी2 के रूप में जाना जाता है।

हाल ही में रबी के समर्थन मूल्य की घोषणा में, सरकार ने अपनी पुरानी करनी को जारी रखा है और गर्व से दावा कर रही है कि नया समर्थन मूल्य उत्पादन की लागत से दोगुना है, जिसका मतलब है कि वे सीमित ए2+एफ़एल (A2+FL) दे रहे हैं।

किसान कितना कमाएगा?

नीचे दी गई तालिका से पता चलता है कि अगर एक बार क्षेत्रीय विविधताओं को यहाँ छोड़ भी देते हैं, तो किसान औसतन कितना कमाएंगे। फसल की कुल लागत सरकार के कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) से ली जाती है। उदाहरण के लिए एक गेहूं किसान प्रति क्विंटल (100 किलोग्राम) गेहूं की कटाई के लिए 500 रुपये कमाता है। इसी तरह, अन्य फसलों पर भी वह यही कमाता है।

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यदि आप सोच रहे हैं कि यह ज़्यादा बुरा नहीं है यानी गेहूं के लिए 5 रुपये प्रति किलोग्राम लाभ तो एक बार फिर से सोचें। क्योंकि गेहूं की फसल की खेती करने में औसतन चार महीने लगते हैं। किसान और उसके परिवार के चार महीने के गहन श्रम के बाद, फसल को पानी देना, खाद्य और कीटनाशक लगाना, निराई करना और आम तौर पर इसकी देखभाल करना इसमें शामिल हैं। अंत में किसान को 500 रुपये प्रति क्विंटल मिलता है। या कहें कि चार महीने की अवधि और कड़ी मेहनत के बाद उसे प्रति माह लगभग 125 रुपया ही मिलता है।

उदाहरणात्मक मामला- यूपी का गेहूं किसान 

आइए, उत्तर प्रदेश (यूपी) के गेहूं किसान का उदाहरण लें, जो संयोगवश, भारत के 31 प्रतिशत गेहूं का उत्पादन करता है। 2015-16 की अंतिम कृषि जनगणना के अनुसार, राज्य में औसत भूमि का आकार 0.73 हेक्टेयर है। गेहूं की औसत उपज या उत्पादकता लगभग 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो कि पंजाब जैसे उन्नत राज्य (जहां 40 से अधिक के उत्पादकता है) से कम है।

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जैसा कि ऊपर की तालिका में देखा जा सकता है कि किसान अपनी भूमि पर लगभग 22 क्विंटल गेहूं का उत्पादन करेगा। खेती की व्यापक लागत (सी2) 1521 रुपया प्रति क्विंटल है जिसे कृषि लागत और मूल्य आयोग (सीएसीपी) द्वारा अनुमानित किया गया है, इसलिए किसान अपनी फसल पर बुवाई से लेकर कटाई तक लगभग 33,421 रुपये ख़र्च करेगा।

अब इसमें एक बाधा है। यदि किसान अपनी उपज को सरकार द्वारा निर्धारित समर्थन मूल्य(एमएसपी) पर बेचता है, तो कुल मूल्य जो उसे मिलता है वह है 42,298 रुपया। यह सूत्र परिवार की चार महीने की कड़ी मेहनत के बदले महज़ 8877 रुपए का शुद्ध लाभ देता है। इसे दूसरे तरीक़े से देखें कि चार महीने के फसल चक्र के एवज में परिवार की आय लगभग 219 रुपए प्रति माह है।

क्या यह पर्याप्त है? क्या यह उचित है? प्रधानमंत्री यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि उन्होंने ग़रीबी देखी है, क्योंकि उन्होने रेलवे स्टेशन पर चाय बेची है। क्या वे सोच सकते हैं कि इस किसान की ग़रीबी किसे कहते हैं? और अगर वे ऐसा सोच सकते हैं, तो उन्हें किसानों को बेहतर क़ीमत देने से कौन रोक सकता है?

अंग्रेजी में लिखा मूल आलेख आपने नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते हैं।

Modi Govt Continues to Smother Farmers with Meagre MSPs

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