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लोकतंत्र के अंतरराष्ट्रीयकरण का मिथक 

एक बड़ा प्रश्न यह है कि क्या लोकतंत्र दूसरों के प्रति उसी तरह की नीति अख्तियार करता है, जिसकी वह दुनिया से अपेक्षा करता है?
लोकतंत्र

जब कभी भी लोकतंत्र का अपने घर में घेराव होता है, लोकतंत्र के हिमायती, उससे प्रेम करने वाले लोग नैतिक समर्थन पाने के लिए अपनी परिधि के पार देखने लगते हैं। अभी-अभी विश्व सूचकांक में स्वतंत्रता की एक रिपोर्ट जारी हुई है, और इसलिए कोई हैरत नहीं कि इसने भारत में लोकतंत्र को चाहने वाले सभी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। यह विश्व सूचकांक अमेरिका की 80 साल पुरानी प्रतिष्ठित संस्था फ्रीडम हाउस ने तैयार किया है, जो सरकारी धन से ही चलने वाला एक स्वायत्त संगठन है।

इस सूचकांक में कुल 100 देशों के नामों के बीच भारत को 68 में नंबर पर रखा गया है। सूचकांक में 71 से 31 देशों को “आंशिक स्वतंत्रता” वाले देशों की श्रेणी में रखा गया है, जो भारत सरकार लिए कोई अच्छा समाचार नहीं है। बीते साल, भारत को “स्वतंत्र” देश की सूची में रखा गया था, यद्यपि वह सूचकांक में इस श्रेणी के सबसे आखिरी पायदान 71वें पर था। जाहिर है कि तब श्रेणी के विभिन्न मानकों का उपयोग किया गया था। 

किसानों के जारी प्रदर्शनों को लेकर व्यक्त किये गये कुछ अंतर्राष्ट्रीय विचारों पर भारतीय राष्ट्र राज्य की जैसी घबराई प्रतिक्रिया हुई, वह लोकतंत्र को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखने के लिए कुछ नये सवाल उठाने का मौका देती है। इनमें पहला सवाल तो यही है कि क्या एक लोकतंत्र का दूसरे लोकतंत्र के बारे में बात करना नैतिक है? दूसरा,  सामान्यतः ऐसे हस्तक्षेप या अतिक्रमण लोकतंत्र को अंदर-बाहर से समृद्ध करता है?, और तीसरा, क्या लोकतंत्र ठीक उसी तरह की नीति पर अमल करता है, जैसा कि वह दूसरों से अपेक्षा करता है? इन सवालों के संदर्भ में भारत की निचली अदालत का हालिया फैसला एक नजीर साबित हो सकता है। 

गणतंत्र दिवस 26 जनवरी को किसानों के ट्रैक्टरों प्रदर्शन के बाद जब अराजकता की स्थिति उत्पन्न हुई तो दिल्ली पुलिस ने अपने अति उत्साह में बेंगलुरु में रहने वाली 22 साल की पर्यावरण कार्यकर्ता दिशा रवि को पकड़ लिया। उसने आरोप लगाया कि दिशा भारतीय सुरक्षा को खतरे में डालने वाली अंतरराष्ट्रीय साजिश का हिस्सा थी। अधिकतर जानकार भारतीयों के लिए पुलिस की यह कहानी गढ़ी गई मालूम हुई। लेकिन कानून तो कानून है और कानूनी प्रक्रिया एक कानूनी प्रक्रिया है। और, इस तरह यह मामला अदालत में पहुंचा। दिशा रवि की जमानत याचिका पर सुनवाई हुई और अदालत का शुक्रिया कि उसने उसकी जमानत दे दी। 

दिल्ली पुलिस की कहानी को पंचर कर न्यायाधीश ने दिशा रवि को जमानत देते हुए, लोकतंत्र में शांतिपूर्ण विरोध की वैधता को लेकर व्यापक संदर्भ में सवाल उठाया था :“भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में देश के नागरिकों को विरोध का अधिकार पूरी मजबूती से दिया गया है। मेरे सुविचारित मत में बोलने और अभिव्यक्ति की आजादी में वैश्विक श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर खींचने का अधिकार भी शामिल है (जोर देते हुए)” इटैलिक में दिये गये ये शब्द विशेष हैं और मेरा यह लेख उन्हीं पर पूरी तरह समर्पित है। पहेली, तब, काफी आसान है : क्यों विरोध करने का अधिकार अंतरराष्ट्रीय नहीं है ? क्या लोकतांत्रिक देशों को एक दूसरे पर निर्भर  नहीं होना चाहिए? 

अब हम अमेरिकी राष्ट्रपति जोए बाइडेन के शब्दों पर ध्यान दें। बाइडेन ने 4 फरवरी को अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अधिकारी-कर्मचारियों को संबोधित किया था। स्पष्ट रूप से चीन और रूस के आंतरिक मामलों को उद्धृत करते हुए उन्होंने इनमें पहले देश को ‘प्रभुत्ववादी’ ठहराते हुए उसे अमेरिकी लोकतंत्र को नुकसान पहुंचाने और उसकी चुनाव-प्रक्रिया में बाधा डालने का आरोप लगाया था। बाइडेन ने स्पष्ट रूप से रूस में अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने के लिए मॉस्को पर आरोप लगाया था। उन्होंने रूस पर आक्रमण करते हुए कहा, “अलेक्सी नवलनी की कैद राजनीतिक मंशा से प्रेरित है, जिन्हें रूस के संविधान के अंतर्गत ही अधिकार दिये गये हैं। उन्हें तत्काल और बिना किसी शर्त रिहा किया जाना चाहिए।”

हालांकि बाइडेन इसमें भारत का नाम लेने से चूकने के बावजूद उसको नहीं बख्शा। उनके 19 मिनट (कुल 2492 शब्दों) के भाषण में भारत का उल्लेख जानबूझकर गायब था, जबकि उनके पास भारत के सीधे-सीधे उल्लेख करने के पर्याप्त कारण थे - नरेंद्र मोदी द्वारा 2020 के अमेरिकी चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप का खुलकर समर्थन। जहां वह “रूस की दमनकारी कार्रवाइयों द्वारा अमेरिका के चुनाव में दखल देने” के लिए उसकी आलोचनाएं कर रहे थे, वहीं इसी तरह के मामले में, बाइडेन का मोदी को नजरअंदाज करने को मोदी के अराजनयिक अक्खड़पन को चालाकी से दी एक झिड़की के रूप में ही पढ़ा जाना चाहिए। 

अमेरिकी राष्ट्रपति की एक दूसरी चूक हिंद-प्रशांत चुतष्टय (क्वाड) में भारत की सदस्यता से संबंधित है, जिसमें अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया भी भागीदार हैं। इसके बावजूद, अपने भाषण में, बाइडेन ने अमेरिका के “घनिष्ठतम मित्रों” आस्ट्रेलिया तथा जापान तक ही अपनी प्रशंसा की हद रखी, स्पष्ट रूप से, उन्होंने भारत का कोई उल्लेख नहीं किया। यह अकारण नहीं हो सकता। इसलिए कि प्रेसिडेंट के भाषण को औपचारिक रूप से दिये जाने के पहले उसके एक-एक शव्द पर बारीक नजर रखी जाती है। फिर, राजनयिक संवाद में न दिये गए वक्ततव्य को भी वक्ततव्य माना जाता है।

इसी तरह के अन्य वक्ततव्य भी हैं। उदाहरण के लिए, “हमारी विदेश नीति में सुधार के लिए अतिरिक्त कदम उठाये जाने और हमारे राजनयिक संबंधों के साथ हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों को बेहतर तरीके से एकजुट करने”, “शरणार्थी मसलों (इन्हें उठाते हुए) पर अमेरिका का नैतिक नेतृत्व है। शरणार्थियों की तादाद (मेरे) प्रशासन के पहले वित्तीय वर्ष में 1,25,000 तक चली गई थी,” “सघन विमर्श करना चाहता हूं (निश्चित रूप से अमेरिका के संदर्भ में) ताकि इसमें सभी आयाम आएं और इसमें विरोध की गुंजाइश रहे”, इसलिए कि “आप (नौकरशाह) इसे निशाना न बनाएं अथवा उसका राजनीतिकरण न करें;” “मैंने मुस्लिमों के प्रति घृणा और भेदभाव वाले प्रतिबंध (ट्रंप के कार्यकाल में) को समाप्त करने के लिए सरकारी आदेश पर दस्तख्त कर दिया है।” “नस्लीय समानता ...लाना हमारी पूरी सरकार का काम है”; और, सर्वाधिक महत्वपूर्ण, “हम समानता के अधिकारों की रक्षा करते हैं...प्रत्येक जातीय पृष्ठभूमि और धर्म के लोगों को एक समान अधिकार प्राप्त हैं।”

भारत के लोकतांत्रिक लोकाचार में आई हालिया खामियों को देखते हुए, ऐसे वक्ततव्यों पर भारत के नीति-निर्माताओं के संकुल की नजर अवश्य ही गई होगी। अंतरराष्ट्रीय संबंधों का अध्ययन करने वाला एक सजग छात्र आसानी से इनके अर्थों को पढ़ सकता है। इस आधार पर बाइडेन के उनके अपने पूर्ववर्ती डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों से मौलिक प्रस्थान दिखता है-जो भारत और मोदी के लिए एक संदेश है। 

ऐसे वक्ततव्यों से बने हुए वातावरण को छोड़ दें, भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में हालिया आया पतन भारत-अमेरिका संबंधों में एक निर्णायक कारक नहीं होगा। आखिरकार, अमेरिका की भारत नीति अमेरिका के रणनीतिक और आर्थिक हितों को साधने में भारत की इच्छा-अनिच्छा से तय होगी। यह एक मिथक है कि पूंजीवाद और लोकतंत्र हमसफर होते हैं। हालांकि यह सच है कि कम्युनिस्ट हुकूमतें भी सभी विचारधारा वाले राजनीतिक दलों की सरकारों के साथ कामकाजी संबंध रखने से गुरेज नहीं करतीं हैं-वे कम से कम किसी भी संबंधित सिद्धांत के साथ खुद पर बोझ नहीं डालती हैं-कम से कम अब तो एकदम ही नहीं।

जरा, श्रीमती इंदिरा गांधी के आपातकाल की याद करें, जो और कुछ नहीं बल्कि संवैधानिक तरीके से लाई गई तानाशाही थी, पर जो सभी बड़े राष्ट्रों के लिए एक सौभाग्य की तरह था। चाहे वह अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस हो, जापान या नीदरलैंड, और यहां तक कि सोवियत संघ। इनमें से किसी को भारत में लोकतंत्र के कुचलने पर किसी तरह का कोई संदेह नहीं था। तब वे, शीतयुद्ध के प्रारंभिक दिन थे, जब अमेरिकियों और ब्रिटिश ने चीन के साम्यवाद के खिलाफ भारत को एक प्रतिरोधी मॉडल के रूप में विकसित कर उसका उपयोग करने का विचार किया था, वे दोनों वास्तव में दिशा में बहुत दूर चले गये थे। 

आपातकाल के खिलाफ तब एक भी दमदार अंतरराष्टीय आवाज अगर कोई थी तो वह पश्चिम में, मुट्ठी भर अकादमिकों, पत्रकारों और राजनीतिक उदारवादियों तक ही सीमित थी। उन्होंने अपनी सरकारों और जनमत को प्रभावित करने का अच्छा काम किया था। ऐसे में, अब जो कोई भारत में मोदी की सत्ता को एक “अघोषित आपातकाल” कह रहा है, तो उसे विश्व की राजधानियों से कोई महत्वपूर्ण प्रतिबंध लगाये जाने की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए। पहले की तरह ही सब चलता रहेगा। प्रत्येक राष्ट्र अपने सामरिक और आर्थिक चश्मे से ही भारत को देखेगा। 

एक आखिरी बात और। फ्रीडम हाउस का सूचकांक का दक्षेस (सार्क) देशों के बारे में क्या कहता है? उनका सूरतहाल शर्मनाक है। अफगानिस्तान 27वें नम्बर पर है, जो “आजाद नहीं” है। शेष सभी छह दक्षेस देशों को भारत की कोटि में ही रखा गया है, जो “आंशिक आजाद” हैं। यद्यपि उनका स्कोर बहुत नीचे है: भूटान (61), नेपाल (56), श्रीलंका (56), मालदीव (40), बांग्लादेश (39), और पाकिस्तान (37) पर हैं। भारत के लिए नाक बचाने वाली बात यही है कि सूचकांक में चीन की रेटिंग बहुत कम 9 की गई है। लेकिन यह ज्यादा खुश होने वाली बात इसलिए नहीं है क्योंकि चीन खुद के “लोकतंत्र” होने का दावा नहीं करता। इसके बजाय, वह लोकतंत्र का पाखंड करने के लिए उसका उपहास उड़ाता है।

डोनाल्ड ट्रंप को उनके कामकाज और वक्ततव्यों के लिए धन्यवाद दिया जाना चाहिए, खासकर 6 जनवरी को जब खुद उनके उकसावे पर रिपब्लिक के गुंडों ने कैपिटल हिल पर हमला किया था। आज के संदर्भ में, ट्रंप की दलील काफी वजनदार है।

विश्व सूचकांक यह सुझाता है कि कुल मिला कर ईसाई धर्म से निर्देशित-संचालित होने वाले लोकतंत्र व्यापक रूप से मजबूत हैं। इसके ठीक विपरीत, मुस्लिम बाहुल्य देशों की सच्चाई है। (ईसाई-बहुसंख्यक राष्ट्रों द्वारा उनसे मिले ऐतिहासिक अन्याय के तत्व को हालांकि अवश्य ही ध्यान में रखा जाना चाहिए।)

बौद्ध-हिन्दू राष्ट्रों का रिकॉर्ड मिला-जुला है, इसमें अपवादस्वरूप बौद्धधर्म बहुलता वाले जापान ही है, जिसे 96 प्वाइंट्स के साथ लगभग सबसे ऊपर ही रखा गया है। दक्षिणी एशियाई देशों के संदर्भ में, हिंदू-बौद्धावलम्बी भूटान, भारत, नेपाल और श्रीलंका का अपने क्षेत्र के मुस्लिम बाहुल्य देशों अफगानिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव और पाकिस्तान के बनिस्बत बेहतर रिकॉर्ड रहा है।

पुनश्च : फिनलैंड और नार्वे को स्वतंत्रता की वैश्विक श्रेणी में 100 प्वाइंट्स के साथ सर्वोच्च स्थान दिया गया है। भारत में बहुत से लोग जो ‘अपना भारत महान’ के नैरेटिव में फिट न बैठने वाली किसी भी अंतरराष्ट्रीय रेटिंग को ठेंगे पर रखते हैं, वे तुरंत यह नतीजा निकालेंगे : ऐसे छोटे-मोटे देशों की परवाह ही कौन करता है, जिनको एक साथ मिला दिया जाए तो भी हमारी दिल्ली की आधी आबादी के बराबर नहीं होंगे? ऐसे खारिज करने वाले तर्क से मुझे 1990 के दशक में श्रीलंका में मिले तिरस्कार की याद आती है। 

श्रीलंका चुनाव आयोग की मेजबानी में आयोजित औपचारिक स्वागत समारोह के दौरान, मैं सीलोन वर्कर्स कांग्रेस के अध्यक्ष एस.टोन्डमन की बगल में बैठी हुई थी। उन्हें अपने देश में एक सदाबहार राजनीतिक के रूप में जाना जाता था। वे 1978 से लेकर 1999 के दौरान अपने जीवनपर्यंत देश के हर राष्ट्रपतियों के मंत्रिमंडल में उनके कैबिनेट मंत्री रहे थे। उन दिनों मेरा गृह प्रदेश बिहार चुनावों में “बूथ लूटने” को लेकर काफी कुख्यात था। टोन्डमन ने अपनी जानी-पहचानी ढिठाई के साथ मुझसे कहा, “आपने हमारी चुनाव प्रक्रिया देखी है। क्या आपने बूथ कैप्चरिंग की ऐसी कोई घटना देखी है, जैसा कि आपके देश में होता है?”

अब मेरा तो मन हो रहा था कि मैं वहां टेबल के नीचे छिप जाऊं। फिर भी मैंने किसी तरह से अपनी राष्ट्रीय शेखी को याद किया और एक कोरा बहाना बनाते हुए उनकी राय को खारिज कर दिया, “आखिरकार, हमारा देश विशाल है, जहां ऐसी छोटी-छोटी खुराफातों का हो जाना लाजिमी हैं”। लेकिन इस पर टोन्डमन ने जो करारा जवाब दिया, उसके बाद तो मेरे लिए छिपने की कोई जगह नहीं रहने दी: “जब आप इतने बड़े देश को बेहतर तरीके से नहीं संभाल सकतीं तो उसको छोटे-छोटे टुकड़े में बांट क्यों नहीं देतीं?”

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

Myth of Internationalisation of Democracy

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