जीडीपी के नए आंकड़े बताते हैं कि मोदी की नीतियों ने अर्थव्यवस्था को कैसे तबाह किया
29 मई को जारी सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों से पता चलता है कि भारत की अर्थव्यवस्था तेज़ी से नीचे जा रही है। ये प्रवृत्ति पिछले साल शुरु हुई जो अभी भी जारी है। 2019-20 के लिए सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि का अनंतिम अनुमान अब पूर्ववर्ती वर्ष में 6.1% वृद्धि की तुलना में मात्र 4.2% आंका गया है। लेकिन यह त्रैमासिक अनुमान है जो निराशाजनक तस्वीर पेश करता है।
जैसा कि नीचे दिए गए चार्ट में दिखाया गया है, पिछले वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही (जनवरी-मार्च 2018-19) की तुलना में इस साल की अंतिम तिमाही में 3.1% की निरपेक्ष वृद्धि दर्ज की गई है।
याद रहे कि ये आंकड़े 2020 की जनवरी-मार्च तिमाही के हैं यानी कि वित्त वर्ष 2019-20 की आखिरी तिमाही। यह वह समय था जब SARS-CoV-19 पहली बार एक नए वायरस के रूप में सामने आया और यह दुनिया भर में फैलने लगा। हालांकि भारत में पहला मामला 30 जनवरी को सामने आया था, फिर भी इसका प्रसार यहां बहुत धीमा था। यहां 24 मार्च तक 390 मामले सामने आए थे और नौ मौतें हुई थीं। इसलिए ये जीडीपी आंकड़े एक तरह का ट्रेलर है, जो निश्चित रूप से अप्रैल-जून तिमाही में विनाशकारी होने जा रहा है जब कोविड-19 वास्तव में भारत को प्रभावित कर रहा है।
निजी अंतिम उपभोग व्यय (प्राइवेट फाइनल कंजम्पशन एक्सपेंडिचर-पीएफसीई) जो कि परिवारों और कॉर्पोरेशनों या व्यवसायों आदि द्वारा किए गए सभी व्यय का योग है उसमें केवल 2.7% की वृद्धि हुई है। यह लोगों द्वारा सामना की जा रही गंभीर आर्थिक कठिनाई को बताता है साथ ही पैसा खर्च करने में भारतीय व्यवसायों की गहरी अनिच्छा है क्योंकि कोई ख़रीदार नहीं है।
सरकारी अंतिम उपभोग व्यय (गवर्नमेंट फाइनल कंजम्पशन एक्सपेंडिचर-जीएफसीई) पिछले वित्तीय वर्ष की इसी तिमाही में 14% से अधिक की तुलना में सभी सरकारी खर्चों का योग केवल 13.6% तक हुआ। इसका मतलब यह है कि अर्थव्यवस्था के धीमे होने के बावजूद, मोदी सरकार पैसा खर्च करने के लिए तैयार नहीं थी।
पिछले दो वर्षों में त्रैमासिक सेक्टोरल विकास दर की गणना करना कुछ अच्छी ख़बर की ओर संकेत देता है लेकिन यह बुरी ख़बर की दोहरी बाधा के चलते दिए गए मुआवजा की तुलना में कहीं अधिक है। (नीचे दिए गए चार्ट को देखें) 2018-19 की इसी तिमाही की तुलना में कृषि में पिछली तिमाही में 9% की वृद्धि हुई है। यह ज़्यादातर एक आधारभूत प्रभाव है, क्योंकि बाढ़ और अन्य कारकों के कारण पिछले वर्ष की तिमाही में जोड़ा गया कृषि सकल मूल्य कम था और इसलिए उछाल वापस बढ़ गया है। लेकिन फिर भी यह थोड़ी अच्छी ख़बर है।
दूसरी ओर, विनिर्माण, निर्माण इत्यादि (द्वितीयक क्षेत्र) जो पिछले एक साल से अस्थिर रहा था वास्तव में -0.16% की की वृद्धि दिखा रहा है। सेवा क्षेत्र जो अब तक अर्थव्यवस्था को गति दे रहा था वह अंतिम तिमाही में 2.73% की वृद्धि के साथ नीचे चला गया। इन दोनों क्षेत्रों को एक साथ रखें और आपको एक आपदा की तस्वीर मिलेगी कि वे लगभग 50% श्रमबल को रोज़गार देते हैं और जीडीपी के दो तिहाई हिस्से में योगदान करते हैं। ये मंदी नौकरी और अर्थव्यवस्था दोनों के लिए अशुभ है।
मोदी की आर्थिक नीति आपदा
ये आंकड़े इतने विनाशकारी क्यों हैं? क्योंकि मुख्य रूप से ये दिखाते हैं कि भारत पहले से ही मंदी की चपेट में था [चार्ट देखें] और इसके बाद सरकार द्वारा महामारी का कुप्रबंधन आगे संकट को और बढ़ा सकती है।
आर्थिक विकास पहले से ही तेज़ी से घट रहा था, बेरोज़गारी अभूतपूर्व स्तर पर व्याप्त थी, लगभग वर्ष भर 7-9% के बीच इसकी स्थिति बनी हुई थी और एकमात्र महत्वपूर्ण कारक जो इस स्थिति को और अधिक बिगड़ने से बचा सकता था वह सरकारी ख़र्च था लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से इसका आकार घटता रहा। यह अंतिम कारक दर्शाता है कि मोदी सरकार निजी निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए सरकारी ख़र्च में कटौती करने की बदनाम नव-उदारवादी नीति की चपेट में थी। ग़लत तरीके से उन्होंने सोचा कि निजी निवेश नई उत्पादक क्षमताओं का निर्माण करके अर्थव्यवस्था में तेज़ी लाएगा, अधिक रोज़गार पैदा करेगा और इस प्रकार अधिक मांग पैदा करेगा। सितंबर 2019 में कॉर्पोरेट करों में मोदी सरकार की भारी कटौती, या निर्माण/ रीयल स्टेट क्षेत्र में मदद के लिए धन इकट्ठा करने के बावजूद पिछले कई महीनों में कुछ भी नहीं हुआ। न ही बैंक ऋण में ढील दी गई जो उद्योग द्वारा लिए जा रहे अधिक ऋणों में मदद की गई।
वास्तव में, बेरोज़गारी बढ़ती रही, मज़दूरी स्थिर बनी रही और 2018 में परिवारों द्वारा उपभोग ख़र्च में सबसे ज्यादा परेशान लोगों का भयानक संकेतक गिरावट के रुप में सामने आया जिसने मंदी के लिए आधार तैयार किया। यह अंतिम जानकारी एनएसएसओ की एक सर्वेक्षण रिपोर्ट से सामने आई थी जो लीक हो गई थी और जिसे सरकार ने अंततः जारी नहीं किया।
लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को तबाह कर दिया
ऐसी स्थिति में मोदी सरकार ने 24 मार्च को अभूतपूर्व लॉकडाउन की घोषणा की जिसका मतलब था कि पहले से ही डूबती हुई अर्थव्यवस्था (जैसा कि इन आंकड़ों से संकेत मिलता है) पर एक तरह का घातक प्रहार कर दिया गया। वस्तुतः सभी आर्थिक गतिविधियां बंद हो गईं, बेरोज़गारी अप्रैल तक 12 करोड़ तक पहुंच गई, लाखों श्रमिकों को बिना मज़दूरी दिए ही हटा दिया गया और उन्हें घर वापस जाने के लिए उनके कार्यक्षेत्र को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। कृषि क्षेत्र में देर से रबी की कटाई की अनुमति दी गई थी लेकिन सरकारी ख़रीद में अनियंत्रित गिरावट हो गई जिसका मतलब है कि किसानों को ऑफर किए गए न्यूनतम समर्थन मूल्य का थोड़ा भी फायदा नहीं मिला।
यहां तक कि सरकार रुरल जॉब गारंटी स्कीम (मनरेगा) जैसे कार्यक्रमों को चलाती है जिसे अप्रैल के तीसरे सप्ताह में फिर से शुरू होने तक प्रभावी ढंग से बंद कर दिया गया था। इससे न केवल मैनुअल काम से मिलने वाली सीमित कमाई छीन ली गई बल्कि इससे पोषण सुरक्षा (न्यूट्रिशनल सिक्योरिटी) को भी नुकसान पहुंचा। आधिकारिक तौर पर बड़े पैमाने पर मिड-डे-मील योजना के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं है लेकिन सभी रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि यह रुक सा गया है।
यह सब पहले से ही डूबती आर्थिक स्थिति के शीर्ष पर आ गया है जैसा कि जनवरी-मार्च जीडीपी आंकड़ों द्वारा दर्शाया गया है। मोदी सरकार न केवल किसी भी विवेकपूर्ण तरीके से अर्थव्यवस्था को रिबूट करने में विफल रही है बल्कि इसकी लोगों की उपेक्षा ने देश को नोवेल कोरोनावायरस के विनाशकारी प्रभाव से निपटने में तैयार नहीं किया। अगर सरकार ने अपने ख़र्च को बढ़ाने के आधार पर अलग-अलग नीतियां अपनाईं होती तो अर्थव्यवस्था - और लोग - COVID-19 महामारी और आगामी आर्थिक तबाही का सामना करने के लिए बहुत बेहतर स्थिति में होते।
भारत में महामारी अभी चरम पर है और यह एक गंभीर स्थिति की ओर बढ़ रहा है। लेकिन लोगों की आर्थिक स्थिति ठीक होने में ज़्यादा वक़्त लगेगा। आने वाले दिनों में भारत बहुत ही भयावह आर्थिक संकट का सामना करने जा रहा है और दुख की बात है कि यह सब अनुभवहीन नेतृत्व के चलते हुआ।
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