दो टूक: कश्मीर में सेना की नहीं, राजनीतिक संवाद की ज़रूरत है
भारत के हिस्सेवाले कश्मीर में पिछले दिनों जो हिंसक घटनाएं हुईं, उन्होंने एक बार फिर बताया है कि भारतीय सेना के बल पर कश्मीर में शांति नहीं क़ायम हो सकती है। 1989 से लेकर अब तक का इतिहास यही है। 1989 में सेना को कश्मीर में तैनात किया गया था और उसे हर तरह की खुली छूट दे दी गयी थी।
कश्मीर में शांति क़ायम करने के लिए मज़बूत लेकिन लचीली राजनीतिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है, सेना की नहीं। तभी ख़ून-ख़राबा रुक सकता है।
इसके लिए ज़रूरी है कि कश्मीर में सेना को बैरकों में वापस भेजा जाये, राजनीतिक प्रक्रिया बहाल की जाये, अनुच्छेद 370 को रद्द करने का फ़ैसला वापस लिया जाये, यासीन मलिक समेत सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाये, और संबंधित पक्षों से बिना शर्त राजनीतिक बातचीत शुरू की जाये। जैसा वर्षों पहले नगालैंड में किया गया।
कश्मीर में पिछले दिनों (20 अप्रैल और 5 मई 2023) भारतीय सेना पर हथियारबंद विद्रोहियों (मिलिटेंट) की ओर से घात लगाकर किये गये हमलों में 10 फ़ौजी मारे गये। इसके जवाब में सेना की ओर से की गयी कार्रवाई में कुछ लोग मारे गये। सेना ने मारे गये लोगों को ‘आतंकवादी’ बताया है।
वे ‘आतंकवादी’ थे या नहीं, इसका पता कैसे चले? कोई जांच-पड़ताल होती नहीं। स्थानीय जनता की राय या विरोध का मतलब नहीं रह गया है। किसी सरकारी या प्रशासनिक स्तर पर सुनवाई होती नहीं। दस्तूर यही चल पड़ा है कि सेना जिसे ‘आतंकवादी’ बता दे, उसे वही मान लो। कश्मीर में सेना सबकुछ है।
लेकिन भारतीय सेना पर 15 दिनों के अंदर किये गये दो घातक हमलों ने फिर यह बता दिया है कि कश्मीर में शांति व अमन-चैन नहीं है। न स्थितियां सामान्य हैं। जबकि कट्टर हिंदू राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी सरकार ने अगस्त 2019 में दावा यही किया था कि संविधान के अनुच्छेद 370 को हटा देने और जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र-शासित क्षेत्रों में बांट देने से कश्मीर में स्थितियां सामान्य हो जायेंगी और अमन-चैन क़ायम हो जायेगा। स्थितियां ठीक इसके उलट हैं।
आने वाले दिनों में भारतीय सेना पर हमले की घटनाएं बढ़ सकती हैं। यह भी हो सकता है कि पुलवामा-जैसी घटना, या उससे मिलती-जुलती घटना, को दोहराने की तैयारी चल रही हो ताकि केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को 2024 के लोकसभा चुनाव में फ़ायदा मिल सके।
फ़रवरी 2019 में हुए पुलवामा हमले का सच आज तक सरकारी तौर पर सामने नहीं आया है, न उम्मीद है। इस रहस्यमय हमले में सीआरपीएफ के 40 सिपाही मारे गये थे। इस घटना से सबसे ज़्यादा फ़ायदा केंद्र की भाजपा सरकार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। 2019 के लोकसभा चुनाव में पुलवामा घटना की भरपूर फ़सल काटते हुए मोदी और भाजपा केंद्र की सत्ता पर फिर काबिज हो गयी। पुलवामा मोदी के लिए वरदान साबित हुआ।
यह समझ लेना चाहिए कि अगर कश्मीर में शांति क़ायम करनी है और ख़ून-ख़राबा रोकना है, तो सभी संबंधित पक्षों से राजनीतिक संवाद या डायलॉग शुरू करना ज़रूरी है। इसके लिए कोई पूर्व शर्त नहीं होनी चाहिए। बातचीत का माहौल बनाने की ज़रूरत है। इस बातचीत में पाकिस्तान को भी शामिल किया जाना चाहिए। कश्मीर से संबंधित कोई भी बातचीत पाकिस्तान को शामिल किये बग़ैर बेमानी है।
भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कुछ दिन पहले पाकिस्तान को ‘आतंकवाद उद्योग का प्रायोजक’ बताया। इस शांति-विरोधी अशिष्ट, अशालीन भाषा के लिए एस. जयशंकर की कड़ी निंदा की जानी चाहिए।
(लेखक कवि और राजनीतिक विश्लेषक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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