हर एक घंटे में सौ भारतीय किसान हो जाते हैं भूमिहीन
दिल्ली की सीमाओं पर चल रहा किसानों का विरोध प्रदर्शन भारत में किसानों के बीच बढ़ते असंतोष को दर्शाता है। उनकी पीड़ा का मुख्य कारण यह है कि छोटे और मध्यम किसान, जो किसानों का भारी बहुमत हैं, उन्हें अधिक टिकाऊ और न्यायपूर्ण कृषि प्रणाली की जरूरत है- जिसमें सरकार उनकी सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
बहुतायत किसानों की बढ़ती कठिनाइयाँ स्पष्ट रूप से इस बात को बताती हैं कि हमारे देश में हर एक घंटे लगभग 100 छोटे किसान भूमिहीन हो जाते हैं। अगर इस लेख को पढ़ने में 15 मिनट का समय लगता हैं, तो समझ लीजिए उस समय में करीब 25 किसान अपनी जमीन खो चुके होंगे। स्पष्ट रूप से यह किसी भी कृषि प्रणाली के लिए टिकाऊ स्थिति नहीं है जो बड़े पैमाने पर छोटी जोतों पर आधारित है। इसीलिए भारत को अधिक टिकाऊ खेती के रास्ते पर आगे बढ़ने के लिए बेहतर रास्ते और साधन खोजने होंगे।
आइए इन आंकड़ों पर ज्यादा विस्तार से चर्चा करते हैं: 2011 की जनगणना के आंकड़े और 2001 की स्थिति बताती है कि 2001 में 127.3 मिलियन (1,273 लाख) किसान थे, जिनकी संख्या 2011 में घटकर 118.7 मिलियन (यानि 1,187 लाख) रह गई है। यानि उन 10 वर्षों में किसानों की संख्या में 8.6 मिलियन (यानि 86 लाख) किसान कम हुए है।
दूसरी ओर, भूमिहीन खेत मजदूरों की संख्या में वृद्धि हुई। केंद्रीय श्रम मंत्री भंडारु दत्तात्रेय ने मई 2016 में एक प्रश्न के लिखित जवाब में बताया था कि, "2001 की जनगणना के अनुसार भारत में भूमिहीन कृषि मजदूरों की संख्या 10.67 करोड़ थी और जनगणना 2011 के अनुसार वह 14.43 करोड़ हो गई थी।" जिसके अनुसार उन दस सालों के दौरान लाखों किसान और कुछ हद तक काश्तकार या कारीगर भूमिहीन मजदूरों की श्रेणी में आ गए थे।
हम कह सकते हैं कि भूमिहीन खेत मजदूरों की बढ़ती संख्या का कारण किसानों की संख्या में कमी रही है। इसलिए, हम यथोचित रूप से मान सकते हैं कि इस दशक में सभी 8.6 मिलियन या 86 लाख किसानों में से अधिकांश या तो किसानों की श्रेणी से भूमिहीन खेत मजदूर या अन्य काम की श्रेणी में चले गए हैं। इसका मतलब है कि हर साल 0.86 मिलियन (8.6 लाख) भूमि-किसान अपनी ज़मीन खो रहे है, जो एक महीने में लगभग 72,000 और एक दिन में 2,400 किसान बैठता है। इस तरह भारत में हर घंटे 100 भूमि-किसान भूमिहीन खेत मजदूर की श्रेणी में आ जाते हैं।
और जब 2021 की जनगणना के आंकड़े उपलब्ध होंगे तो तब 1991 से 2011 तक के रुझान की तुलना संभव होगी। यह अनुमान एक उचित अनुमान है कि इससे भी अधिक परेशान करने वाली प्रवृत्ति सामने आएगी क्योंकि बढ़ती लागत और कर्ज़ का दबाव इस दौरान तेज हो जाएगा खासकर छोटे और सीमांत किसानों के मामले में स्थिति ओर खराब हो जाएगी।
कुछ लोगों का कहना है कि किसानों की संख्या इसलिए कम हो रही है क्योंकि भूमि जोत बड़े पैमाने में छोटे खेतों में विभाजित हो रही है। लेकिन यह केवल तस्वीर का आधा हिस्सा है। यह भूमि के पूर्ण नुकसान के बजाय हाशिए पर जाने की संभावना को अधिक दिखाता है। जिसमें परिवारों पर इतना भयंकर दबाव पड़ता है- कि वह ग्रामीण भारत और कृषि में गलत और खराब तरह से लागू की गई नीतियों के परिणाम को झेलते है- जो एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है जो लोगों को दैनिक खेत मजदूरी या असंगठित क्षेत्र की मजदूरी की तरफ धकेलती है।
मौसम की प्रतिकूल परिस्थितियों और प्राकृतिक आपदाओं से सुरक्षा में कमी के चलते, जिसमें भ्रष्टाचार-ग्रस्त बीमा योजनाओं की विफलता और कुप्रबंधन भी शामिल है, ने जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को वंचित तबके पर तेज कर दिया है। इसमें बहुत बड़ी संख्या में छोटे किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य न मिलना शामिल है; तब आप समझेंगे कि किसान नए कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग क्यों कर रहे हैं। न्यूनतम समर्थन मूल्य आधारित सरकारी खरीद प्रणाली की किसानों तक अपेक्षाकृत कम संख्या तक पहुँच है, और वह भी बड़े पैमाने पर गेहूं और चावल उगाने वाले किसानों तक है।
रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अंधाधुंध इस्तेमाल के कारण, मिट्टी की प्राकृतिक उर्वरकता में गिरावट आई है, जबकि पोषक तत्वों को बढ़ाने वाली मिश्रित कृषि प्रणालियों को हानिकारक मोनोकल्चर के द्वारा बदल दिया गया है। किसान के अनुकूल केंचुए और सूक्ष्म जीव जो मिट्टी की गुणवत्ता में सुधार करते थे की प्रणाली को नुकसान पहुंचाया गया हैं और मधुमक्खियों और तितलियों जैसे परागणकों में बहुत गिरावट आई है, जल स्रोत कम हो गए हैं और प्रदूषित भी हैं। इसने किसानों द्वारा खुद से मिट्टी का उपचार करने को हताश कर दिया है, और अन्य समाधान उनके खर्च को बढ़ाते हैं और उनके वांछनीय परिणाम भी नहीं मिलते हैं। जलवायु परिवर्तन की वजहों से इनमें से कुछ समस्याओं की अधिक बढ़ने की संभावना है।
वास्तविक मुद्दों और समाधानों से बेखबर, कृषि पर व्यावसायिक हितों का वर्चस्व बढ़ रहा है, जो पहले से ही संकटपूर्ण स्थिति को और खराब किए दे रहा है। खासतौर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियां के समाधान से जुड़े गंभीर जोखिमों के बावजूद आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों पर जोर दिया जा रहा हैं। बड़े व्यावसायिक या व्यापारिक हित अनुबंध खेती के जरिए फसल विकल्पों को निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं और कृषि उपज में विपणन और स्टॉकिंग-जमाखोरी में अपनी बड़ी भूमिका को सुरक्षित करने की कोशिश कर रहे हैं। सरकार बड़े व्यापारिक हितों को साधने के लिए तैयार है, जिससे टिकाऊ खेती चलन से बाहर हो जाएगी और छोटे किसानों को नुकसान उठाना पड़ेगा।
इन सभी कारणों से, छोटे और मध्यम किसानों के बढ़ते संकट और उसके खिलाफ बढ़ते असंतोष से किसी को भी आश्चर्यचकित नहीं होना चाहिए। टिकाऊ खेती अभी भी भूमिहीन खेत मजदूरों बटाईदारों, किराये पर खेती करने वालों और छोटे व्यापारियों साथ ही महिला किसान की मदद कर सकती है। 2011 की जनगणना में दर्ज़ 10.6 करोड़ कृषि मजदूरों में से 4.9 करोड़ (देश में कुल महिला श्रमिकों की 38.9 प्रतिशत) महिलाएं हैं, और उनकी भूमिका की शायद ही कभी क़द्र की जाती है।
यही कारण है कि तीन विवादास्पद कृषि-कानूनों को निरस्त करने की मांग के लिए उठे किसानों के आंदोलन को समर्थन देने की जरूरत है, क्योंकि छोटे किसानों तक ज्यादा पहुंचने के लिए और तिलहन, दलहन और बाजरा जैसी कई प्रकार की फसलों को कवर करने के लिए इस खरीद प्रणाली को बेहतर बनाने की जरूरत है। क्यूबा जैसे देश में पर्यावरण के अनुकूल खेती की व्यवस्था को लागू किया गया है, इसलिए ऐसा कोई कारण मौजूद नहीं है कि यह प्रणाली भारत सहित अन्य जगहों पर काम नहीं करेगी। उचित मजदूरी और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना को बेहतरीन ढंग से लागू करने के साथ-साथ भूमि सुधार के एजेंडे को भी वापस लाने की जरूरत है।
लेखक, पत्रकार हैं। उनकी हालिया पुस्तकों में प्लेनेट इन पेरिल और प्रोटेक्टिंग अर्थ फ़ॉर चिल्ड्रन शामिल हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करे
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