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जानिए कैसे होते हैं राष्ट्रपति चुनाव, इस बार किसका पलड़ा भारी?

राष्ट्रपति चुनाव के लिए भाजपा ने आदिवासी चेहरा उतारकर अपना ट्रंप कार्ड चल दिया है, जो न सिर्फ़ आने वाले विधानसभा चुनाव बल्कि लोकसभा चुनाव में भी मददगार साबित हो सकता है।
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तमाम तर्कों विचारों और चिंतन के बाद आख़िरकार पक्ष और विपक्ष दोनों ने अपना-अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार देश के सामने रख दिया। जिसमें अभी फिलहाल भाजपा के समर्थन वाली एनडीए बाज़ी मारती दिखाई पड़ रही है। क्योंकि एनडीए की समर्थन वाली प्रत्याशी आदिवासी समाज से आती हैं, और आज तक भारत के सर्वोच्च पद पर कोई आदिवासी नहीं बैठ सका है, ऐसे में अगर एनडीए की जीत होती है, तो द्रौपदी मुर्मू देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति बन जाएंगी। जिसका सियासी फायदा भाजपा आने वाले विधानसभा चुनावों में तो उठाएगी ही, साथ में 2024 के लोकसभा चुनावों में भी उसे फायदा मिलेगा।

आदिवासी द्रौपदी मुर्मू का मुकाबला विपक्ष के यशवंत सिन्हा से होने वाला है, यशवंत सिन्हा झारखंड के हज़ारीबाग से हैं, वे जनता पार्टी से लेकर जनता दल और भाजपा के सांसद रह चुके हैं। केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहे हैं। हालांकि, यशवंत सिन्हा ने भाजपा छोड़कर टीएमसी का दामन थाम लिया था। वहीं द्रौपदी मुर्मू ओडिशा के मयूरगंज ज़िले की रहनी वाली हैं और आदिवासी समुदाय से आती हैं। मुर्मू नगर निगम पार्षद से लेकर विधायक और झारखंड की राज्यपाल रही हैं।

एनडीए के लिए द्रौपदी मुर्मू और विपक्ष के लिए यशवंत सिन्हा कितने फायदेमंद साबित होंगे, क्यों इन्हों राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया गया है, एक-एक कर बात करते हैं। सबसे पहले बात करते हैं एनडीए प्रत्याशी और आदिवासी समाज से आने वाली द्रौपदी मुर्मू के बारे में...

भारतीय जनता पार्टी पिछले लंबे वक्त से खुद को आदिवासियों की सबसे भरोसेमंद पार्टी के तौर पर पेश करने की कोशिश कर रही है, ऐसे में राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा ने द्रौपदी मुर्मू को कैंडिडेट बनाकर आदिवासी समुदाय को साधने का सीधा सियासी दांव चला है। देश में अनुसूचित जनजाति की आबादी 8.9 फीसदी हैजो कई राज्यों में तो सियासी खेल बनाने और बिगाड़ने की ताकत रखते हैं।

देश की 47 लोकसभा सीटें और 487 विधानसभा सीटें अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित हैं। हालांकि, सियासी तौर पर आदिवासी समुदाय का असर इससे कहीं ज्यादा है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने इन 47 आरक्षित सीटों में से 31 सीटों पर जीत हासिल की थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में कई राज्यों में आदिवासी वोटों की नाराजगी के चलते नुकसान भी उठाना पड़ा था। खासकर झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात में है, जिनमें से झारखंड को छोड़कर बाकी राज्यों 2024 से पहले चुनाव होने हैं।

क्योंकि लोकसभा से पहले जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, वो भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिहाज़ से बेहद महत्वपूर्ण हैं। जैसे गुजरात गुजरात को ही देखें, तो यहां करीब 15 फीसदी आदिवासी वोट हैं, जिनके लिए 27 आरक्षित सीटें हैं। जिसे लंबे वक्त से सत्ता पर आसीन भाजपा साधने में नाकाम ही रहती है। और हमेशा से ये कांग्रेस का गढ़ माना जाता रहा है।

वहीं मध्यप्रदेश में तो आदिवासी हमेशा से किंगमेकर रहा है। साल 2018 के चुनाव में सत्ता से भाजपा की विदाई का मुख्य कारण आदिवासी समाज की नाराज़गी को ही माना जा रहा था। आपको बता दें कि यहां कुल 47 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं। जिनमें से 31 सीटें कांग्रेस को मिली थीं जबकि 16 सीटें भाजपा को मिली थीं, वहीं एक सीट पर निर्दलीय को जीत मिली थी। जो भाजपा के लिए सियासी तौर पर बड़ा झटका था।

छत्तीसगढ़ की तो 90 में 29 सीटें आदिवासी बाहुल इलाके से हैं, जो उनके लिए आरक्षित हैं। भाजपा यहां 15 सालों तक आदिवासी वोटों के सहारे सत्ता में बनी रही, लेकिन 2018 के चुनावों में इस समाज ने भाजपा के सिरे से नकार दिया और महज़ तीन सीटों पर जीत मिली जबकि कांग्रेस ने आरक्षित सीटों में 25 सीटें जीत लीं। जबकि एक सीट अजीत जोगी जीतने में कामयाब रही थी, हालांकि उनके निधन के बाद इस सीट को भी कांग्रेस ने हासिल कर लिया था।

वहीं बात अगर राजस्थान की करें तो यहां 200 विधानसभा सीटों में कुल 25 सीटें अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित हैं। साल 2018 में कांग्रेस को 12, भाजपा को 9, बीटीपी को 2 और निर्दलीय को 2 सीटें मिली थीं। वैसे तो राजस्थान की आदिवासी बेल्ट हमेशा से भाजपा के मुफीद रही है लेकिन पिछले चुनावों में कांग्रेस सेंधमारी करने में कामयाब रही।

अब बचता है झारखंड जहां आदिवासी भाजपा को सिर-आंखो पर बिठाकर रखते थे, लेकिन पिछले चुनावों में ये मिथ भी दरक गया। यहां 81 विधानसभा सीटों में 28 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित हैं। जिसमें भाजपा के खाते में महज़ा तीन सीटें आई थीं, और बाकी 25 सीटों पर विपक्षी दलों को जीत मिली थी। इसमें जेएमएम को 19, कांग्रेस को 5 और जेवीएम को एक सीट हासिल हुई थी।

महाराष्ट्र में लोकसभा की 4 और विधानसभा की 25 सीटें आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं। ओडिशा में लोकसभा की 5 और विधानसभा की 28 सीटें एसटी के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा पूर्वोत्तर के राज्यों में ज्यादातर सीटें आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षित है। भाजपा इसी सारे समीकरण को देखते हुए आदिवासी बेल्ट में अपनी सियासी जड़े मजबूत करने की तमाम कवायद करती रही है।

इसके अलावा जिस तरह पिछले साल 15 नवंबर 2021 को प्रधानमंत्री मोदी ने भोपाल में बिरसा मुंडे की मूर्ति पर माल्यार्पण किया था और ट्राइडल प्राइड डे मनाने का ऐलान किया था, उसके बाद अब द्रौपदी मुर्मू को उम्मीदवार बनान आगे आने वाली सियासत का इशारा ही है।

दूसरी ओर विपक्ष ने कई नामों पर दांव लगाने की कोशिश की लेकिन उन्हें कोई ठीक उम्मीदवार नहीं मिल सका था। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार, महात्मा गांधी के पोते गोपालकृष्ण गांधी और फारुख़ अब्दुल्ला के मना करने के बाद किसी ऐसे शख्स की तलाश थी जो किसी न किसी प्रशासनिक पद पर रह चुका हो, जिसे भाजपा के बारे में भीतर से जानकारी हो। ऐसे में जो नाम सबसे आगे निकलकर आया वो टीएमसी का यशवंत सिन्हा था। हालांकि यशवंत सिन्हा की जीत की उम्मीद कुछ ही प्रतिशत है। जबकि भाजपा नेतृत्व वाली एनडीए द्रौपदी मुर्मू की अगुवाई में ज्यादा मज़बूत दिखाई दे रही है। क्योंकि राज्यों में विधायकों की संख्या और संसद में सांसदों की संख्या का गणित एनडीए की ओर ही झुकता दिख रहा है।

पिछले दिनों हुए 16 सीटों के लिए राज्यसभा चुनाव के नतीजे भी भाजपा को ही मज़बूती देते दिखाई दे रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक 48 प्रतिशत इलेक्टोरल कॉलेज वोट एनडीए के साथ हैं, 38 प्रतिशत इलेक्टोरल कॉलेज यूपी एक साथ हैं, जबकि 14 प्रतिशत क़रीब आंध्र प्रदेश के जगनमोहन रेड्डी की पार्टी, बीजेडी, टीएमसी और लेफ्ट के साथ हैं। यानी अगर पूरा विपक्ष देखें तो 52 फीसदी प्रतिशत इलेक्टोरल कॉलेज वोट इन्ही के पास है, यानी अगर किसी भी तरह विपक्ष एक साथ रहता है तो लड़ाई हो सकती है लेकिन ऐसा फिलहाल संभव होता दिख नहीं रहा। क्योंकि नवीन पटनायक ने हालही में प्रधानमंत्री नरेंद्र से मुलाकात की थी। इसके अलावा द्रौपदी मुर्मू के नाम पर मुहर लगने के बाद मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने इसका स्वागत किया और कहा कि ये ओडिशा के लिए गर्व की बात है। क्योंकि द्रौपदी ओडिशा की ही रहने वाली हैं। इसके अलावा बचते हैं रेड्डी तो उनका भी द्रौपदी की ओर झुकाव लगभग तय माना जा रहा है, हां अगर किसी कारणवश कोई विपक्षी दल नहीं भी जाता है तो भाजपा जोड़-तोड़ माहिर है ही। यानी कुल मिलाकर पूरा माहौल एनडीए की ओर ही बनता दिखाई दे रहा है।

अब जानते हैं कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट कैसे डाले जाते हैंहमने जो अभी इलेक्टोरल कॉलेज की बात की उसके लिए वोट वैल्यू कैसे निकली जाती है या एक विधायक की वोट वैल्यू कितनी होती है?

राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनता नहीं बल्कि जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि मतदान करते हैं। जैसे विधायक, लोकसभा सांसद और राज्यसभा सांसद।

देश में विधायकों की संख्या : 4033

लोकसभा सांसदों की कुल संख्या : 543

राज्यसभा के कुल सांसदों की संख्या : 233

भारत के राष्ट्रपति चुनाव के लिए वोट करने वालों की संख्या : 4809

वोट डालने के लिए हर सदस्य के वोट का मूल्य होता है, जिसमें सबसे ज्यादा वोट का मूल्य उत्तर प्रदेश के विधायकों का होता है। इसे निकालने के लिए एक फॉर्मूले का इस्तेमाल किया जाता है।

क्योंकि उत्तर प्रदेश में सबसे ज्यादा विधायक होते हैं, इसलिए यही का उदारण लेकर फॉर्मूले के ज़रिए विधायकों के वोट की वैल्यू निकालते हैं:

1971 की जनगणना के हिसाब से उत्तर प्रदेश की जनसंख्या को भाग देंगे विधानसभा के निर्वाचित सद्स्यों से, जो संख्या आएगी उसे 1000 से भाग देंगे :

8,38,49,905/403= 20818 2080664.28/1000= 208.064

यानी एक विधायक के वोट की वैल्यू 208.064 होगी। ध्यान देने वाली बात ये है कि अगर दशमलव के बाद संख्या 500 से ऊपर होती तो हम इसमें एक जोड़कर संख्या राउंडफिगर में पूरी कर लेते हैं, लेकिन अगर दशमलव के बाद की संख्या 500 से कम होती है तो हम उसे नहीं लेते हैं।

यानी उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट का मूल्य होगा : 208

उत्तर प्रदेश की तरह ही बारी राज्यों के विधायकों का वोट मूल्य निकालकर आपस में जोड़ दिया जाता है। जो निकलकर आता है 5,49,495.

इसी तरह से देश के सांसदों के वोट का मूल्य भी निकाला जाता है हालांकि उसका तरीका थोड़ा सहज है। देश के सभी विधायकों के वोटों का जो मूल्य आएगा उसे लोकसभा और राज्यसभा सांसदों की कुल संख्या से भाग दिया जाता है। फिर जो अंक हासिल होता है वही एक सांसद के वोट का मूल्य होता है। अगर इस तरह भाग देने पर शेष 0.5 से ज्यादा बचता हो तो वेटेज में एक का इजाफा हो जाता है। यानी एक सांसद के वोट की वैल्यू 708 होती है। यानी कुल 776 सांसदों जिसमें 543 लोकसभा और 233 राज्यसभा के वोटों की संख्या 549408 है।

सभी राज्यों के वोट की कुल वैल्यू/कुल सांसद

क्योंकि सभी राज्यों के कुल विधायकों की संख्या 549495 हैं।

राज्यसभा और लोकसभा को मिलाकर कुल सांसद 776 हैं।  

यानी... 549495/776 : 708

एक सांसद के वोट का मूल्य 708 है।

कुल सांसदों का वोट मूल्य 708 गुणा 776= 5,49,408

इसी तरह सभी राज्यों के विधायकों का कुल वोट मूल्य : 5,49,495 है।

राष्ट्रपति चुनाव के लिए कुल वोट मूल्य— 5,49,408+ 5,49,495 = 10,98,903

इन्ही वोटों के आधार पर वोटों के गिनती की जाती है और जिस उम्मीदवार के पास वोटों का मूल्य ज्यादा होता है उसे राष्ट्रपति चुना जाता है। निर्वाचित सदस्य अपनी पसंद के हिसाब से पहला, दूसरा, तीसरा और चौथा उम्मीदवार चुनते हैं। फिर संविधान के कोट सिस्टम को लगाकर वोटों को की गिनती कर ली जाती है।

आपको बता दें कि 29 जून तक राष्ट्रपति पद के लिए सभी उम्मीदवार नामांकन दाख़िल करा सकते हैं, 18 जुलाई को मतदान होगा और 21 जुलाई को नतीजे आएंगे। जिसके बाद देश के नए राष्ट्रपति 25 जुलाई को शपथ लेंगे या लेंगी।

ग़ौरतलब है कि राष्ट्रपति पद के लिए 25 जुलाई का दिन ही निहित है। दरअसल 25 जुलाई 1977 को नीलम संजीव रेड्डी ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। तब से ही हर साल 25 जुलाई को राष्ट्रपति शपथ लेते आ रहे हैं।

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