बिहार चुनाव के फ़ैसले की वजह एआईएमआईएम या कांग्रेस नहीं,बल्कि कुछ और है
“यह चुनाव,चुनाव प्रचार के दौरान जीता (और हारा) जा चुका था। भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन ने शुरुआत में बढ़त बनायी और अंत में पीछड़ गया।ऐसा उसकी ग़लतियों के चलते हुआ।” 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव पर जेम्स मैनर द्वारा किया गया यह अवलोकन इस चुनाव के बाद फिर से सच हो गया है।यह अलग बात है कि इस बार के विजेता और पराजित गठबंधन की जगह बदल गयी है।
2020 के विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार शुरू होने से पहले कई लोगों का मानना था कि बिहार विधानसभा चुनाव एनडीए के लिए आसान होगा। हालांकि,बिहार की राजनीति पर नज़दीक से नज़र रखने वाले लोगों के लिए तीन चरणों में चुनावी कार्यक्रम का रखा जाना ही ध्रुवीकरण की आशंकाओं को बढ़ाने के लिए काफ़ी था। पीछे नज़र दौड़ाने पर यह आशंका सही निकली। चूंकि तीन चरणों में मुस्लिम मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ती रही थी, तीसरे और आख़िरी चरण में यह तादाद उच्चतम अनुपात तक पहुंच गयी। इसके साथ ही भाजपा ने अपने सांप्रदायिक बयानबाज़ी को तेज़ कर दिया।
दूसरा,इस चुनाव अभियान के दौरान तेजस्वी के नेतृत्व और भीड़ खींचने की उनकी क्षमता में ज़बरदस्त सुधार हुआ। उन्होंने महागठबंधन (MGB) समर्थकों में उत्साह भर दिया,हालांकि इससे उन ग़ैर-यादव ओबीसी में जवाबी एकजुटता की प्रवृत्ति भी पैदा हुई, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की जेडी-यू के साथ ज़्यादा सहज हैं। दोनों गठबंधनों को इस बात का अहसास था कि महागठबंधन की एनडीए पर बढ़त थी। हालांकि एनडीए ने अपनी रणनीति को फिर से नया रूप-रंग दिया और ध्रुवीकरण की रणनीति का सहारा लिया (जेपी नड्डा ने अयोध्या में भूमि पूजन, एनपीआर-एनआरसी-सीएए आदि के बारे में बात की), आरजेडी को शायद इस बात को लेकर ज़्यादा ही आत्मविश्वास था कि महागठबंधन को 160 से ज़्यादा सीटें मिलेंगी।
तेजस्वी के अहम मतदाताओं ने उन्हें दूसरे और तीसरे चरण में,ख़ासकर मिथिला और तिरहुत क्षेत्र में एनडीए और कुछ निर्दलीय उम्मीदवारों की तरफ़ से उतारे गये यादव उम्मीदवारों के पक्ष में गच्चा दे दिया। मिसाल के तौर पर मुज़फ़्फ़रपुर के पारू में मुस्लिम मतदाताओं को यह विश्वास दिलाकर गुमराह किया गया कि वे यादव मतदाताओं के बिना भाजपा को हराने में सक्षम नहीं होंगे (मुस्लिम और यादव मिलकर बिहार के कुल मतदाताओं के एक तिहाई हैं)। राजद ने यह सीट कांग्रेस पार्टी को दे दी थी और कांग्रेस ने स्वच्छ छवि वाले एक स्थानीय भूमिहार को मैदान में उतारा था। भूमिहार पारू में तीसरे सबसे बड़े समुदाय हैं और भाजपा का समर्थन करते हैं। उम्मीद की जा रही थी कि कांग्रेस इस गढ़ में सेंध लगा देगी और मुसलमान और यादव वोट मिलकर भाजपा के उम्मीदवार को हराने के लिए पर्याप्त वोट हो जायेंगे। लेकिन,पिछले कई चुनावों में भाजपा के राजपूत उम्मीदवारों से लगातार हारते रहे राजद के एक बाग़ी और यादव उम्मीदवार को महागठबंधन के सभी वोट मिल गये,जिससे भाजपा को लगातार चौथी जीत मिल गयी।
जहां-जहां उम्मीदवार मुस्लिम था,वहां-वहां यादवों की महागठबंधन से छिटकने की प्रवृत्ति तेज़ थी। पहले भी जिन सीटों पर यादव जीतते रहे थे,उन सीटों पर महागठबंधन की तरफ़ से उतारे गये ग़ैर यादवों को भी यादव वोट नहीं मिले, मिसाल कै तौर पर मुज़फ़्फ़रपुर के औराई में सीपीआईएमएल के आफ़ताब आलम को लिया जा सकता है। यक़ीनन,मतदाताओं की इस भगदड़ का कारण जितना यादवकरण है,उतना भगवाकरण नहीं है। राजद यादव बहुल उस मधेपुरा में भी कुछ सीटें हार गयी, जहां मुस्लिम मतदाताओं की तादाद बहुत ही कम है।
इसके अलावे, ऐसा नहीं है कि इन भागते मतदाताओं ने अपनी वफ़ादारी सीधे-सीधे भाजपा के प्रति बदल ली थी।जिस तरह से मुजफ्फरपुर के पारू में यादव वोट राजद को नहीं गया ठीक उसी तरह से गोपालगंज में यादव वोट राजद को जाने की बजाए बीएसपी की तरफ से खड़े लालू यादव के साले साधु यादव के खाते में चला गया। पूर्व मुख्यमंत्री,अब्दुल गफ़ूर के पोते आसिफ़ गफ़ूर,लालू के गृह क्षेत्र-गोपालगंज में कांग्रेस के उम्मीदवार थे। साधु यादव को 41,000 से ज़्यादा वोट मिले, जबकि आसिफ़ को तक़रीबन 36,500 मत मिले और भाजपा ने लगभग 36,000 वोटों के अंतर से इस सीट पर जीत हासिल की।
यह धारणा कम्युनिस्ट पार्टियों की तरफ़ से लड़ी गयी 29 सीटों में से 16 सीटों पर वामपंथियों की जीत से और मज़बूत होती है, क्योंकि वामपंथी दल अपने वोट महागठबंधन को तो हस्तांतरित कर दिये,लेकिन राजद और सहयोगी दल अपने वोट पर्याप्त रूप से वामपंथी पार्टियों को स्थानांतरित नहीं कर पाये। औराई सीट तो इस धारणा का प्रतीक वाला उदाहरण है। इस सीट पर मुसलमान वोटरों की अनुमानित संख्या तक़रीबन 23% है और आफ़ताब को इतने ही वोट मिले हैं। पूर्वी चंपारण के ढाका में राजद के फ़ैसल रहमान एक फिर चुने जाने की उम्मीद कर रहे थे और भाजपा के यादव उम्मीदवार से हार गये। मिथिलांचल की सीटें तो इस धारणा को और भी साफ़ तरीक़े से सामने रख देती हैं। राजद के कई मुसलमान और यादव कार्यकर्ताओं ने इस बात का आरोप लगाया कि मिथिलांचल में राजद के ताक़तवर नेता और कथित तौर पर तेजस्वी के उस्ताद माने जाने वाले ललित यादव और भोला यादव ने महागठबंधन के मुस्लिम उम्मीदवारों के ख़िलाफ़ काम किया।
मुसलमानों के अनुमानित अनुपात की तुलना में महागठबंधन के बाक़ी कुल वोट के कुछ ही वोट इन निम्नलिखित निर्वाचन क्षेत्रों में हासिल हुए, जिनमें उन्होंने मुसलमान उम्मीदवार उतारे थे:
• दरभंगा के केवटी में 42% मुस्लिम वोट हैं, और राजद के वरिष्ठ नेता,अब्दुल बारी सिद्दीक़ी को सिर्फ़ 43.61% वोट मिले।
• गौरा बौराम में 32% मुसलमान वोट हैं, जबकि राजद के अफ़ज़ल ख़ान को 36% वोट मिले।
• जाले में 34% मुसलमान हैं और कांग्रेस के मशकूर उस्मानी को 38% वोट मिले।
• बिस्फी में 37% मुसलमान हैं और राजद के फ़ैयाज़ आलम को 42% वोट मिले।
• औराई में तक़रीबन 23% मुसलमान हैं और सीपीआईएमएल के आफ़ताब आलम को बस इतने ही वोट मिले।
• ढाका (पूर्वी चंपारण) में 43% मुसलमान हैं और राजद के फ़ैसल रहमान को इतने ही वोट मिले ।
• सुपौल (कोसी) में 28% मुसलमान हैं और कांग्रेस के मिन्नतुल्लाह रहमानी को 34% वोट मिले।
• सुरसंड (सीतामढ़ी) में 24% मुसलमान हैं और राजद के सैयद अबु दोजाना को सिर्फ़ 34% वोट मिले।
• फॉर्बिसगंज (कोसी क्षेत्र) में 37% मुसलमान आबादी है और कांग्रेस के ज़ाकिर हुसैन को तक़रीबन 40% वोट मिले।
• प्राणपुर में 38% मुसलमान हैं और कांग्रेस के तौक़ीर आलम को सिर्फ़ 38% वोट मिले।
• नरपतगंज (अररिया) में भाजपा के जेपी यादव को लगभग 98,000 वोट मिले, जबकि राजद को तक़रीबन 70,000 वोट मिले।
इसलिए,राजद को कांग्रेस पर बहुत ज़्यादा इल्ज़ाम नहीं लगाना चाहिए, न ही कांग्रेस को एआईएमआईएम और असदुद्दीन ओवैसी पर दोष मढ़ना चाहिए,क्योंकि महागठबंधन की हार के पीछे का मामला कुछ और है। बताया जाता है कि लालू यादव कांग्रेस पर "ग़ुस्सा" हैं और "ग़ुस्से से खार खाये बैठे" हैं, लेकिन राजद के कार्यकर्ताओं को महागठबंधन के बाहर के यादव उम्मीदवारों की पसंदगी को देखते हुए यह ग़ुस्सा बहुत मुनासिब नहीं है। यह राजद के ग़ैर-यादव ओबीसी और दलितों तक पहुंच बनाने को लेकर उसके इनकार का भी एक नतीजा है। रमई राम को लेकर विचार कीजिए,नौ बार के इस राजद विधायक को ग़ैर-यादव डिप्टी सीएम के रूप में पेश किया जा सकता था,इसी तरह किसी अन्य नौजवान नेता को भी पेश किया जा सकता था। मुज़फ़्फ़रपुर के बोचहां से राम और सकरा से बसपा की उम्मीदवार,उनकी बेटी गीता,दोनों चुनाव हार गये और गीता को 2,000 वोट हासिल हुए। कांग्रेस पार्टी के उमेश राम ने 1,700 मतों के मामूली अंतर से यह सीट गंवा दी।
गठबंधन की राजनीति के लिए वोटों का ट्रांसफ़र होना एक अनिवार्य शर्त होता है। मसलन, एलजेपी अक्सर पासी / पासवान वोटों को अपने सहयोगी दलों को हस्तांतरित करने में कामयाब रही है।
एनडीए को सीमांचल के बाहर भी फ़ायदा
राजद और कांग्रेस को एक दूसरे या ओवैसी के ख़िलाफ़ अपने-अपने निशाने साधने से पहले अपने-अपने घर दुरुस्त करने चाहिए। आख़िरकार, एआईएमआईएम ने जिन पांच सीटों पर जीत हासिल की है, उनमें से उसने महागठबंधन के मुक़ाबले एनडीए से कहीं ज़्यादा सीटें छीन ली है। उसने शेष बची जिन 15 सीटों पर चुनाव लड़ा था,उन पर उससने एनडीए की जीत में (महागठबंधन के समर्थन में सेंध लगाकर) भी मदद नहीं की है। इसलिए,विश्लेषकों को महागठबंधन के हुए नुकसान के लिए मुसलमानों पर दोष नहीं मढ़ना चाहिए।एआईएमआईएम ने तो किशनगंज की वह सीट भी गंवा दी है, जिसे उसने एक साल पहले हुए उपचुनाव में जीती थी।
हालिया मुक़ाबले की कई दिलचस्प हालात यह संकेत देते हैं कि साफ़ तौर पर सत्ता विरोधी होने के बावजूद, पर्याप्त संख्या में मतदाताओं,ख़ास तौर पर उन ग़ैर-यादव ओबीसी और कई दलित समुदायों के मतदाता शासन में बदलाव नहीं चाहते थे,जो तेजस्वी की रैलियों में यादवों की मुखरता को देखते हुए जवाबी तौर पर एकजुट हो गये थे। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद से ही बहुत हद तक यह साफ़ हो गया था कि तेजस्वी को इन समुदायों के नेताओं को सामने लाकर ग़ैर-यादव ओबीसी और दलितों तक पहुंच बनाने की ज़रूरत थी। इसके बजाय,तेजस्वी ने सत्ता पर एकाधिकार की कोशिश की और अन्य निचले समूहों की क़ीमत पर यादववाद सामने आ गया। यह एक अहम वजह है कि राजद इस बार सरकार नहीं बना पायी। एनडीए इस बात को बख़ूबी समझता है और अब वह पिछड़ी जातियों के नेताओं को अहम पदों पर बिठाने की योजना बना रहा है।
बिहार की अंदर से बिखरी हुई राजनीति में विभिन्न सामाजिक समूह अपनी पहचान और सत्ता की साझेदारी को लेकर संघर्ष करते हैं। इसके अलावा, सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की नियमित खुराक ने तीन दशक के बाद उच्च जाति की सत्ता में वापसी के प्रयास को रास्ता दिखाया है। उत्तर प्रदेश में 2017 में योगी आदित्यनाथ के एक राजपूत मुख्यमंत्री बनने के बाद से सत्ता को लेकर उनकी बेचैनी एकदम साफ़ दिखायी देती रही है । करणी सेना और आदित्यनाथ की हिंदू युवा वाहिनी जैसे राजपूत संगठन, आदित्यनाथ के अभियान के आधार क्षेत्र,गोरखपुर से लगे बिहार के कुछ हिस्सों के राजपूत बस्तियों में अपने संगठनों और कार्यकर्ताओं का विस्तार करते रहे हैं। सुशांत सिंह राजपूत के मुद्दे को मुंबई फ़िल्म जगत से बिहार में ले आया गया था, जिसे ग़ज़ब का तमाशा बनाकर मीडिया के बड़े हिस्से ने ख़ूब हवा इसलिए दी थी, ताकि "बिहार गौरव" का राग छेड़कर तत्कालीन सरकार के ख़िलाफ़ लोगों की बेहिसाब शिकायतों को दरकिनार किया जा सके और सरकार का बचाव किया जा सके।
प्रवासी मज़दूर और बेरोज़गारी
यह चुनाव प्रवासी कामगारों के मुद्दों पर भी एक फ़ैसला था। शुरुआती दौर में महामारी को सांप्रदायिक रूप देकर प्रवासी मज़दूरों के संकट से ध्यान भटकाने की कोशिश की गयी थी, जिसमें मीडिया के एक बड़े वर्ग ने भी योगदान दिया था। हालांकि श्रमिकों को अचानक ही लॉकडाउन से दो-चार होना पड़ा था, मगर विपक्ष,सरकार और प्रशासन के एकतरफ़ा उठाये गये इन ग़लत क़दमो पर हमला करने में नाकाम रहा।
कहा गया कि राजद के तेजस्वी यादव ने इस चुनाव के दौरान नौजवानों को रोज़गार और किसानों को फ़ायदा पहुंचाने वाले एक ठोस एजेंडा को तय करके अपने नेतृत्व कौशल में बहुत सुधार किया, जिससे भारी भीड़ खींची। लेकिन,बिहार पर नज़र रखने वाले उस यादव वर्चस्व के ख़ौफ़ पर नज़र रखने से चूक गये, जो ग़ैर-यादव शूद्रों और दलितों के बीच क़ायम है। यह देखते हुए कि राजद विधायकों में से 47% (35 में से 35) यादव हैं,अन्य ओबीसी राजद के साथ कम और जदयू और भाजपा के साथ ज़्यादा जुड़ाव रखते हैं। कई सीटों पर तो मुसलमान और यादव मतदाताओं की संख्या 40% या इससे भी ज़्यादा है, लेकिन इसके बावजूद राजद,ख़ासकर शीर्ष पायदान पर पिछड़ गया है। उपेंद्र कुशवाहा, मुकेश सहनी और जीतन राम मांझी को पर्याप्त अहमियत नहीं दी गयी,हालांकि मौजूदा भगवाकरण को देखते हुए यह बहुत साफ़ है कि ये नेता अपने अहम मतदाताओं को एनडीए के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा असरदार तरीक़े से महागठबंधन में स्थानांतरित कर सकते थे।
नीतीश के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी भावना को हवा दी गयी,मगर नीतीश के सहयोगी पार्टी,बीजेपी इससे बची रही,इसके लिए धारणा बनाने वाली योजनाओं को बहुत ही बारीक़ी से रंग रूप दिया गया। एलजेपी के चिराग़ पासवान एक तात्कालिक मोहरा बन गये,एलजेपी को महज़ एक सीट के साथ संतोष करना पड़ा। एनडीए विरोधी मतों को एक हद तक प्रभावहीन कर दिया गया और बीजेपी को एनडीए का सबसे बड़ा घटक बनाने के लिए जेडी-यू की रैली काफ़ी कम कर दी गयी। इस योजना से राजद को अनिवार्य रूप से जेडी-यू की क़ीमत पर बढ़त मिल गयी,क्योंकि उसे जेडी-यू के ख़िलाफ़ गड्ढा खोदते एलजेपी के चलते विभाजित एनडीए कुनबे से फ़ायदा मिला। सीमांचल को छोड़कर महागठबंधन के पीछे मुसलमानों की एकजुटता से भी उसे फ़ायदा हुआ। सीएए-एनपीआर-एनआरसी के ख़िलाफ़ नाराज़गी को देखते हुए मुसलमान जेडी-यू (बीजेपी सहयोगी होने के नाते) से तक़रीबन पूरी तरह छिटक गया। जेडी-यू के सभी 11 मुसलमान उम्मीदवार,जिन्हें दोबारा चुने जाने की उम्मीद थी, सबके सब हार गये हैं।
एआईएमआईएम के ओवैसी के भाजपा के नेतृत्व वाले नागरिकता अभियान के मुखर विरोध ने उन्हें पहली बार सीमांचल में पांच सीटें दे दीं। हालांकि इस जीत ने सीट शेयर के मामले में गठबंधन को बमुश्किल ही प्रभावित किया,लेकिन,कांग्रेस और राजद को इस बात को लेकर आत्ममंथन करने की ज़रूरत है कि एआईएमआईएम आख़िर क्यों कामयाब हुई। पिछले पांच वर्षों से राजद और कांग्रेस,दोनों ही मुसलमानों की परेशानियों को लेकर बेपरवाह रही हैं। राजद के चुनाव से पहले और चुनाव के बाद के तमाम प्लेटफ़ॉर्मों से मुसलमान नदारत रहे। तेजस्वी के चंचल चित्त वाले भाई,तेज प्रताप 12 नवंबर को मंच पर बैठे थे, लेकिन उनके साथ मंच पर कोई मुस्लिम नेता नहीं था। जिस मंच से पार्टी का घोषणापत्र जारी किया गया था,उस पर लवली आनंद (जिनके पति एक गैंगस्टर हैं) और जगदानंद सिंह, वहां दोनों राजपूतों नेता तो मौजूद थे,लेकिन उस मंच पर कोई मुसलमान नहीं था। जब सीट-बंटवारे का ऐलान किया गया था, तो उस समय भी मुसलमान नेता मौजूद नहीं थे। नौजवान मुसलमानों ने इसे लेकर सोशल मीडिया पर अपनी नाराज़गी ज़ाहिर की थी,इसके बावजूद कुछ नहीं किया गया।
जैसे-जैसे पहचान की राजनीति अहम होती जा रही है, वैसे-वैसे बिहार पर नज़र रखने वालों की दिलचस्पी इस बात को लेकर बढ़ती जा रही है कि बिहार में एक राजनीतिक ताक़त बनने के लिए भाजपा सांप्रदायिक तौर पर बंटे हुए बहुसंख्यक को एकजुट करने के काम को आगे बढ़ाती है या नहीं। ग्रामीण संकट,निजीकरण, ख़त्म होते औद्योग और बड़े पैमाने पर नौजवानों की बेरोज़गारी के चलते बढ़ती आर्थिक असमानता के कारण फिर से उठ खड़ा होने वाली वामपंथी पार्टियों से ज़्यादा चुनौतीपूर्ण भूमिका निभाने की उम्मीद होगी। 2013 के बाद से नीतीश ने सांप्रदायिकरण के बहाव को क़ाबू करने की कोशिश तो की है, लेकिन उनकी पार्टी, जेडी-यू अब संख्या के लिहाज़ से मज़बूत सहयोगी नहीं रही। ऐसे में सवाल है कि क्या सांप्रदायिक ध्रुवीकरण अब बिहार या शासन-प्रशासन में फलेगा-फूलेगा ? बिहार में विपक्ष के सामने यही सबसे बड़ी चुनौती है।
लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में आधुनिक और समकालीन भारतीय इतिहास पढ़ाते हैं। इनके विचार व्यक्तिगत हैं।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें
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