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तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान में क़तर का बढ़ता क़द 

क़तर अफ़ग़ानिस्तान के पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभाने के लिए ख़ुद को तैयार कर रहा है। निश्चित रूप से, पश्चिमी कंपनियां क़तर के ज़रिए पुनर्निर्माण का काम हासिल कर सकती हैं।
तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान में क़तर का बढ़ता क़द 
क़तर के अमीर शेख़ तमीम बिन हमद अल-थानी (बाएं) ने तालिबान के सह-संस्थापक अब्दुल गनी बरादर (बाएं से दूसरे), की दोहा में सितंबर 2020 में मेज़बानी की।

जब अमेरिकी विदेश विभाग ने इस बात की घोषणा की कि वह "अफ़ग़ानिस्तान के मसले पर खास हितधारकों" के साथ 30 अगस्त को एक मंत्रिस्तरीय आभासी बैठक की मेजबानी करेगा, तो इस बैठक में हिस्सा लेने वालों की सूची में आश्चर्य का एक पुट था। अमेरिका के नाटो साथी और यूरोपीयन यूनियन के उनके अपने सहयोगियों के अलावा, एक अकेला गैर-पश्चिमी देश देश – क़तर था।

इस प्रायद्वीपीय अरब देश को अमेरिका के पश्चिमी सहयोगियों के साथ इस तरह का  विशेषाधिकार देना और उसे बैठक में शामिल होने योग्य मानना अभी पच नहीं रहा है। बेशक, इसे लेकर दो बातें दिमाग में आती हैं – एक तो, दोहा अफ़ग़ानिस्तान के मुद्दे पर यूएस-तालिबान शांति वार्ता का स्थायी स्थान रहा है, जहां 20 से अधिक शीर्ष तालिबान नेता (अपने परिवारों के साथ) हाल के वर्षों में रहने आए थे, और दूसरी बात, यूएस सेंट्रल कमांड, जो भविष्य में सभी अफ़ग़ान अभियानों का मंच है, का मुख्यालय भी दोहा में है।

अमरीका के गृह सचिव एंटनी ब्लिंकन ने कल घोषणा की कि वाशिंगटन ने काबुल में अमेरिकी राजनयिक उपस्थिति को फिलहाल "निलंबित" कर दिया है, और राजनयिक कार्यालय को "संचालन के लिए दोहा में स्थानांतरित कर दिया है", और इसके बारे में जल्द ही अमरीकी संसद को सूचित किया जाएगा।

जैसा कि ब्लिंकन ने कहा, "हम दोहा में इस दफ़्तर का इस्तेमाल अफ़ग़ानिस्तान के साथ अपनी कूटनीति संबंधित कार्य करने के लिए करेंगे, जिसमें वाणिज्यिदूतीय मामलों, मानवीय सहायता देने का काम, और सहयोगियों, भागीदारों और क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हितधारकों के साथ काम किया जाएगा ताकि तालिबान के साथ हमारी बातचीत और संदेश भेजने के काम का समन्वय किया जा सके।" अधिक पढ़ें

स्पष्ट रूप से, अमेरिका क़तर को न केवल सैन्य दृष्टिकोण से बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक दृष्टि से भी तालिबान द्वारा संचालित अफ़ग़ानिस्तान की ओर अपनी भविष्य की रणनीतियों को नेविगेट करने के लिए महत्व दे रहा है। इसका क़तर, तालिबान सरकार, अमेरिका की क्षेत्रीय रणनीतियों और पश्चिम एशिया की भूराजनीति पर दूरगामी प्रभाव पड़ेगा।

सवाल यह है कि क़तर इतने जोख़िम भरे और महाशक्ति के खेल में कैसे उलझ गया? बेशक, क़तर की पूरे पश्चिम एशियाई क्षेत्र में अपने वजन से अधिक प्रतिष्ठा अर्जित करने की क्षमता है - गाजा से सीरिया तक, मिस्र से लीबिया तक और यहां तक ​​कि कुछ समय के लिए यमन तक में भी इसकी साख कायम है। इसके उद्यम शायद ही कभी सफल हुए हों, लेकिन यह तथ्य क़तर के कदम को रोकता नहीं है। हालांकि अरब स्प्रिंग आंदोलन अब ढीला पड़ गया है, लेकिन क़तर अभी भी मुस्लिम ब्रदरहुड निर्वासितों का एक सुरक्षित अड्डा बना हुआ है।

एक अत्यधिक धनी देश होने के नाते, इसके पास अतिरिक्त संसाधन बहुतायत में हैं। यद्यपि यहाँ एक कुलीन शासन है जो दमनकारी कानूनों का मेजबान है और अपने घरेलू आलोचकों को चुप कराकर रखता है, क़तर अपने को एक दमनकारी क्षेत्र में खुलेपन के रूप में पेश करता है और अरब तानाशाहों से भागने वालों को आश्रय देने के मामले में उल्लेखनीय रूप से सफल रहा है। अल-जज़ीरा बनाने की इसकी चतुरता एक मास्टरस्ट्रोक थी – एक लोकप्रिय अरब उपग्रह चैनल जो मध्य पूर्व में कहीं भी दबी-कुचली आवाज़ को प्रसारित करता है।

क़तर का कैलकुलस दो शक्तिशाली अरब निरंकुश देशों, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के लिए एक कठिन चुनौती है। इन दो भाइयों का भूत उन्हें सताता है, और वास्तव में, अपनी रणनीतिक अवज्ञा के कारण क़तर पश्चिम एशिया में एक बहुकेंद्रित क्षेत्रीय व्यवस्था का जोरदार संदेश दे रहा है। दरअसल, क़तरी क्षेत्रीय नीतियों की उदार प्रकृति इसे सऊदी अरब और ईरान और तुर्की के साथ संयुक्त अरब अमीरात की प्रतिद्वंद्विता जैसी विविध स्थितियों में इसकी औकात से बड़ी तस्वीर पेश करती है।

इस प्रकार, तालिबान के साथ क़तर के जुड़ाव को एक विदेशी मोह के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। क़तर ने शांत विचार-विमर्श के जरिए संबंधों को पोषित किया है। दरअसल, यह पहले से ही एक दशक पुराना रिश्ता है, जब तालिबान के प्रतिनिधि गुप्त रूप से लगभग 2010 में पश्चिमी अधिकारियों से बात करने के लिए क़तर पहुंचे थे। अधिक पढ़ें

महत्वपूर्ण रूप से, इसमें सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात से तालिबान के मनमुटाव का पता लगाया जा सकता है। जैसा कि तालिबान ने 1990 के दशक की अपनी गलतियों को सुधारा और खुद को फिर से तैयार किया, उसने महसूस किया कि काबुल में सत्ता में रहते हुए उसने जो कुछ कमाया था, वह सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात (जो केवल दो देश थे उन पर शासन की अत्यधिक निर्भरता के कारण खो दिया था, चूंकि ये वे देश थे जो पाकिस्तान के अलावा तालिबान सरकार को मान्यता देने वाले देश थे।)

इस तरह सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात पर अत्यधिक निर्भरता ने तालिबान को वहाबी लक्षणों को अपनाने के लिए प्रेरित किया था, हालांकि वे अफ़ग़ानिस्तान में प्रचलित पारंपरिक (देवबंदी) इस्लाम के विरोधी थे। कठोर असहिष्णु सलाफी सिद्धांत ने तालिबान शासन के शरीयत को लागू करने की तरजीह को नुकसान पहुंचाया था। बदले में, तालिबान शासन के दौरान सऊदी खुफिया एजेंसी के पास अफ़ग़ानिस्तान में बड़ा ढांचा था, जिसका इस्तेमाल ईरान को अस्थिर करने के लिए एक ढाल के रूप में किया जाता था। तेहरान ने शायद बहुत बाद में संदेह करना शुरू किया था क्योंकि यह तालिबान ही था जिसने अगस्त 1999 में मजार-ए-शरीफ में वाणिज्य दूतावास से 11 ईरानी राजनयिकों उड़ा लिया था (जिनका पता आज तक भी नहीं चला हैं।)

किसी भी कीमत पर, ईरान अब सार्वजनिक रूप से तालिबान को दोष नहीं देता है। यहां यह याद रखना उपयोगी होगा कि ईरान विरोधी सऊदी राजकुमार तुर्की बिन फैसल अल सऊद, ओसामा बिन लादेन के मित्र थे, जिन्होने अल मुखबारत अल आमाह (मुख्य खुफिया निदेशालय) - सऊदी खुफिया एजेंसी - का नेतृत्व 1971 से 2001 में 9/11 हमले से दस दिन पहले तक करीब 23 वर्षों तक किया था। 

शायद, ट्रम्प प्रशासन ने तालिबान वार्ता की मेजबानी के लिए सऊदी अरब को प्राथमिकता दी होगी, लेकिन तालिबान-सऊदी संबंध टूटने से ईसा हो नहीं पाया। वास्तव में, इस तरह का विचार 2020 में राष्ट्रपति अशरफ गनी के कहने पर फिर से सामने आया था, लेकिन तालिबान ने इस विचार को खारिज कर दिया था, संभवतः पाकिस्तान की सहमति से उसने ऐसा किया था, क्योंकि पाकिस्तान के संबंध भी सऊदी अरब के साथ हाल ही में अस्थिर हो गए थे। अधिक पढ़ें

अमेरिका-तालिबान संवादों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए इस तरह के अप्रत्याशित लाभ का इस्तेमाल करने के लिए क़तर पर भरोसा किया जा सकता है। क़तर ने तालिबान के वरिष्ठ अधिकारियों की उदारता से मेजबानी की और फिर एक रिश्ता शुरू हुआ, जिसने दोहा को बेहतर स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया।  

यह देखना अभी बाकी है कि तालिबान मुस्लिम ब्रदरहुड के नेताओं के प्रति कितने संवेदनशील रहते हैं, जिनकी क़तर करीब एक दशक से भी अधिक समय से मेहमाननवाजी कर रहा है। इसमें  कोई शक़ नहीं कि भाइयों ने निश्चित रूप से समाज के साथ जुड़ने के लिए जमीनी स्तर पर काम करने के लिए एक उदाहरण पेश किया है और वहाँ मुस्लिम महिलाओं के काम करने या शिक्षित होने में कोई समस्या नहीं है। इससे कुछ संकेत मिलते हैं कि तालिबान बदलाव के मुहाने पर है।

इस बीच, तुर्की को भी तालिबान सरकार के साथ बेहतर संबंध बनाने के लिए क़तर के दफ्तरों के इस्तेमाल की उम्मीद रखता है। अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद भी तुर्की ने काबुल हवाई अड्डे पर अमेरिका और नाटो के हितों का प्रतिनिधित्व करने की कोशिश की थी। लेकिन तालिबान ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि तुर्की को 31 अगस्त तक सैनिकों को हटा लेना होगा। 

यह एक बुद्धिमान निर्णय था। क्योंकि तुर्की किसी भी बहाने विदेशों में सैनिकों को तैनात करता है और समय बीतने के बाद सैनिकों को वापस न करने की उसकी एक संदिग्ध प्रतिष्ठा रही है। इराक, सीरिया, लीबिया, अजरबैजान इसके वर्तमान उदाहरण हैं।

हालांकि, तालिबान कथित तौर पर काबुल हवाई अड्डे का प्रबंधन करने के मामले में क़तर के नागरिकों के लिए खुला है। हालांकि तुर्की ने अभी भी उम्मीद नहीं छोड़ी है। यह कैसे होगा यह तो वक़्त ही बताएगा कि हवा किस तरफ बह रही हैं। सऊदी अरब और यूएई ने काबुल में अपने राजनयिक मिशन खाली कर दिए हैं। संक्षेप में, क़तर तालिबान के तीन मुख्य इस्लामिक भागीदारों में से एक बन गया है, अन्य में पाकिस्तान और ईरान हैं।

यह कहते हुए, क़तर को अब तालिबान शासित अफ़ग़ानिस्तान में अपनी शक्ति को आज़माने के बाद पाकिस्तान की महत्वाकांक्षाओं के बारे में संवेदनशील होना होगा। पाकिस्तान को शायद यह पसंद न आए कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के प्रमुख साझेदार के रूप में बाइडेन प्रशासन ने उसे दरकिनार कर दिया है। राष्ट्रपति बाइडेन ने व्यक्तिगत रूप से 20 अगस्त को क़तर के अमीर तमीम बिन हमद अल थानी के साथ बात की थी और "अमीर को उस महत्वपूर्ण भूमिका के लिए धन्यवाद दिया जो क़तर ने लंबे समय से अंतर-अफ़ग़ानिस्तान वार्ता के लिए निभाई है।"

व्हाइट हाउस ने कहा है कि, "दोनों नेताओं ने अफ़ग़ानिस्तान और व्यापक मध्य पूर्व के घटनाक्रम पर निरंतर घनिष्ठ समन्वय बनाने के महत्व को रेखांकित किया है।" लेकिन बाइडेन की अभी तक पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान से फोन पर बातचीत नहीं हुई है।

क़तर अफ़ग़ान पुनर्निर्माण में बड़ी भूमिका निभाने के लिए खुद को तैयार कर रहा है। निश्चित रूप से, पश्चिमी कंपनियां कतर के जरिए काम हासिल कर सकती हैं। मुद्दा यह है कि कतर के पास संसाधन हैं, उसकी प्रतिबद्धता और राजनीतिक इच्छाशक्ति है और यह पश्चिमी दुनिया में भी अच्छी तरह से मिला हुआ है। मानवीय सहायता प्रदान करने और कठिन परिस्थितियों में अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में क़तर का उदार रिकॉर्ड इसकी क्षमताओं की गवाही देता है।

कुल मिलाकर, उचित विचार-विमर्श के बाद, अमेरिका ने तालिबान सरकार के साथ रिश्ता कायम रखने के लिए मुस्लिम दुनिया से अपने नंबर एक भागीदार के रूप में, निस्संदेह, सोच-समझकर क़तर को चुना है। क़तर हुक्म देनेवाला नहीं है। फिर भी, यह देखते हुए कि क़तर दशकों से वाशिंगटन का एक विश्वसनीय सहयोगी है, तालिबान नेतृत्व पर इसका एक स्थिर प्रभाव होने की उम्मीद है।

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिए लिंक पर क्लिक करें।

Rise and Rise of Qatar in Taliban-ruled Afghanistan

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