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ग़रीबों के लिए आत्मनिर्भरता और व्यापार के लिए सरकारी समर्थन,यही नया आदर्श वाक्य है--ज़्यां द्रेज़

जाने-माने अर्थशास्त्री और सामाजिक कार्यकर्ता का कहना है कि सार्वजनिक नीतियों का मक़सद लोगों के जीवन को बेहतर बनाना होना चाहिए, न कि कुछ विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के हितों से प्रभावित होना चाहिए।
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प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ज़्यां द्रेज़ ने भारत की सार्वजनिक और सामाजिक नीति को आकार देने में अग्रणी भूमिका निभायी है। वह रोज़गार-गारंटी क़ानून मनरेगा और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA) के सिलसिले में अपनी पैरोकारी और योगदान को लेकर सबसे ज़्यादा मशहूर रहे हैं। न्यूज़क्लिक के साथ अपने इस साक्षात्कार में उन्होंने हिंदुत्व और आज के आर्थिक मॉडल के बीच के सम्बन्धों सहित भारत की सामाजिक और आर्थिक नीतियों के बारे में बात की है। उनका कहना है कि मौजूदा आर्थिक नीतियों में एक सुसंगत रणनीति देख पाना मुश्किल है, जबकि सामाजिक क्षेत्र में 'अधिकार की बात नहीं,कर्तव्य की बात की जा रही हैं'। प्रस्तुत है इस साक्षात्कार का संपादित अंश:

प्रज्ञा सिंह:आर्थिक राष्ट्रवाद ने स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया था, जिसका मतलब था कि भारतीयों ने आर्थिक क्षेत्र पर भी अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया है। इसके अलावा, इसका मतलब सार्वजनिक क्षेत्र को बढ़ावा देना भी था। इसके पीछे का उद्देश्य क्या था, और क्या हमने उन लक्ष्यों को ज़मीनी स्तर पर हासिल कर लिया है ?

ज़्यां द्रेज़: आर्थिक राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद की तरह ही अनेक रूप अख़्तियार कर सकता है। मुझे नहीं लगता कि यह तब तक बहुत ज़्यादा नीतिगत मार्गदर्शन कर पाता है, जब तक कि हम यह नहीं बताते कि राष्ट्रीय हितों को कैसे परिभाषित किया जाये। जब भारत आज़ाद हुआ था,तब अर्थव्यवस्था का नियंत्रण औपनिवेशिक सत्ता से एक निर्वाचित राष्ट्रीय सरकार के हाथों में आ गया था, और बेशक यह एक अच्छी बात थी। इससे बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में ज़्यादा गतिरोध भी ख़त्म हो गया और निरंतर विकास का मार्ग प्रशस्त हुआ था। लेकिन, सवाल है कि क्या इसका मतलब यह है कि 'भारतीयों ने आर्थिक क्षेत्र पर नियंत्रण पा लिया था'? कुछ लोगों ने ऐसा ज़रूर कर लिया था, लेकिन कुछ लोग ऐसा नहीं कर पाये। मसलन, उस कश्मीर को छोड़कर, जहां व्यापक भूमि सुधार हुए थे,भूमिहीन मज़दूर,भूमिहीन मज़दूर ही बने रहे। कुल मिलाकर, अर्थव्यवस्था को गति और चलाने की ताक़त विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के हाथों में ही रही। औपनिवेशिक सरकार के हाथों से उस विशेषाधिकार प्राप्त छोटी सी संख्या वाले भारतीयों के हाथों में सत्ता का यह हस्तांतरण आर्थिक राष्ट्रवाद का एक सीमित रूप था, जिसके देश के बड़े हिस्से के लिहाज़ से अपने आप में अपेक्षा से कम नतीजे मिल पाये थे।

प्रज्ञा सिंह:भारत के लिए एक समस्या पूंजी और श्रम के बीच के संघर्ष को सुलझाना है। ज़्यादतर कामकाजी भारतीयों के लिए सरकार का उत्पादन से पीछे हटने और औने-पौने क़ीमत पर सार्वजनिक क्षेत्रों को बेच देने का क्या मतलब है?

ज़्यां द्रेज़: सार्वजनिक उद्यम,पूंजी और श्रम के बीच के संघर्ष को सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की बहुत छोटी संख्या के लिए ही हल कर सकते हैं। रोज़गार के मामले में जो सार्वजनिक धारणा है, उसके उलट भारत के सार्वजनिक क्षेत्र में हासिल यह रोज़गार दुनिया में सबसे कम है। आईएलओ के आंकड़ों के मुताबिक़ यह भारत में महज़ 5 प्रतिशत कार्यबल ही है, जबकि ब्राज़ील में 12 प्रतिशत, यूनाइटेड किंगडम में 22 प्रतिशत और चीन में 28 प्रतिशत है। निश्चित रूप से स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे क्षेत्रों में विस्तार की बहुत गुंज़ाइश है। हक़ीक़त तो यही है कि निकट भविष्य में ज़्यादतर कार्यबल को निजी क्षेत्र में नियोजित किया जायेगा। वहां पूंजी और श्रम के बीच के संघर्ष को सुलझाया तो नहीं जा सकता, लेकिन सरकार श्रमिकों को उनके अधिकारों का विस्तार करके इसे हल कर पाने में मदद कर सकती है, मिसाल के तौर पर काम के बेहतर परिवेश का अधिकार और सामाजिक सुरक्षा लाभ देकर ऐसा किया जा सकता है। इस लिहाज़ से ख़ासकर अनौपचारिक क्षेत्र में श्रमिक संगठनों का होना भी अहम हैं, जहां वे इस समय बहुत ही कम संख्या में रह गये हैं और उनकी मौजूदगी कभी-कभार ही दिख पाती है।

भविष्य में होने वाली घटनाओं का अंदाज़ा लगाता हुए अगर निजी उद्यमों के प्रबंधन में श्रमिकों के नियंत्रण नहीं,तो उनको ज़्यादा से ज़्यादा अधिकार देकर इस संघर्ष के सिलसिले में कहीं ज़्यादा आमूलचूल बदलाव हासिल किया जा सकता है। सैद्धांतिक तौर पर कई उद्यमों का प्रबंधन श्रमिकों द्वारा या श्रमिकों के प्रति जवाबदेह प्रबंधकों द्वारा किया जा सकता है। बेशक, इन उद्यमों के आका आसानी से झुकने नहीं जा रहे, लेकिन एक संगठित मज़दूर वर्ग क़दम-दर-कदम अपने प्रतिरोध को दूर कर सकता है।

प्रज्ञा सिंह:हिंदुत्व तो राष्ट्रवाद का ही एक ऐसा रूप है, जो बेहद तबाह करने वाला साबित हो रहा है। आज के प्रचार-प्रसार का आर्थिक मॉडल क्या है ? सामाजिक क्षेत्र की तरह क्या इसके भी छिपे हुए उद्देश्य हैं ?

ज़्यां द्रेज़: हिंदुत्व एक राजनीतिक आंदोलन है, और इसका असर आर्थिक से कहीं ज़्यादा राजनीतिक है, यह चाहे लोकतंत्र को ख़त्म कर दे या फिर सामाजिक ताने-बाने को ही तोड़ दे। आर्थिक नीतियों में तो बदलाव से कहीं ज़्यादा निरंतरता होती है। कुछ भी हो, व्यापार-संचालित नीतियां तेज़ हो गयी हैं, क्योंकि व्यापार और हिंदुत्व दोनों ही एक दूसरे के आपसी समर्थन के साथ खड़े हैं। हिंदुत्व तर्कसंगत सोच के अवमूल्यन, महाशक्ति की हैसियत का जुनून, केंद्रीकरण का जुनून और किसी भी विदेशी चीज़ को संदेह की नज़रों से देखने जैसे कुछ नये तत्व को भी जोड़ता है। लेकिन, आर्थिक नीति को चलाने वाले भौतिक हित तो पहले की तरह ही हैं। ऐसा कम से कम इस समय के लिए तो बिल्कुल है।

हमने सामाजिक नीति के मामलों में पिछले आठ सालों में बड़े बदलाव देखे हैं। अधिकार ख़त्म हो गये हैं, कर्तव्य की बात की जा रही है। मिसाल के तौर पर यह बदलाव ग्रामीण रोज़गार गारंटी, मातृत्व लाभ, सामाजिक सुरक्षा पेंशन और यहां तक कि बाल पोषण योजनाओं जैसे सामाजिक कार्यक्रमों को लेकर केंद्र सरकार के शत्रुतापूर्ण रुख़ में परिलक्षित होता है। इन सभी को किसी न किसी तरह से कमज़ोर किया गया है। आत्मानिर्भर भारत का असली मतलब ग़रीबों के लिए आत्मनिर्भरता और व्यापार के लिए सरकारी समर्थन प्रतीत होता है।

प्रज्ञा सिंह:आप अर्थव्यवस्था पर थैलीशाहों के नियंत्रण और उन्हें मिलने वाली टैक्स में छूट को कैसे देखते हैं ? क्या ऐसा है कि भारतीयों को लगता है कि उनकी सत्ता-शक्ति शोषक इसलिए नहीं है, क्योंकि वे औपनिवेशिक युग की तरह ब्रिटिश कंपनियां नहीं हैं ?

ज़्यां द्रेज़: मुझे लगता है कि बहुत से लोगों को बिना उनकी नृशंसता को महसूस किए कॉरपोरेट शक्ति और बेहद अमीर लोगों की संपत्ति को लेकर स्पष्ट जागरूकता ही नहीं है। हाल के ‘मूड ऑफ़ द नेशन’ सर्वेक्षण में ज़्यादातर जवाब देने वालों ने महसूस किया कि आज की आर्थिक नीतियों से बड़े व्यवसायों को फ़ायदा होता है। दूसरी ओर, जब कुछ दिन पहले यह बताया गया था कि न्यूनतम वेतन पर काम करने वाले सौ श्रमिकों को गौतम अडानी के पास जितनी संपत्ति है,उतनी हासिल करने में एक लाख साल लग जायेंगे, तो सोशल मीडिया पर खलबली मच गयी थी। यह इस बात को स्पष्ट कर देती है कि ज़्यादतर लोगों को यह पता ही नहीं होता कि बेहद अमीर लोग कितने अमीर और कितने ताक़तवर हैं। लेकिन, अगर उन्हें पता भी होता है, तो इससे बहुत कम फ़र्क़ पड़ता है, क्योंकि इन मामलों में जनता का बहुत कम प्रभाव होता है। भारत में ज़्यादातर लोग शायद बेहद अमीरों पर लगने वाले संपत्ति करों या उच्च संपत्ति करों का समर्थन ही करेंगे, लेकिन इसमें से किसी के होने की जल्दबाज़ी की संभावना दिख नहीं रही है। बेहद अमीरों की शक्ति में अपने विशेषाधिकारों की रक्षा करने की शक्ति भी तो शामिल होती है।

प्रज्ञा सिंह:क्या आम किसान इस बात से अवगत हैं कि व्यापार की शर्तें उनके ख़िलाफ़ किस क़दर होती हैं ?

ज़्यां द्रेज़: मुझे संदेह है कि ज़्यादतर किसानों का व्यापार की शर्तों को लेकर कोई स्पष्ट नज़रिया भी है। वे अर्थशास्त्रियों को लेकर भी काफ़ी हद तक स्पष्ट नहीं हैं। इसके अलावा, वे ख़ास किसानों के लिए ज़्यादा मायने रख सकते हैं या फिर नहीं भी रख सकते हैं। अगर मोटे तौर पर कहा जाये,तो व्यापार की शर्तें बाज़ार में बेची जाने वाले उत्पाद की प्रति यूनिट, बाक़ी अर्थव्यवस्था से कृषि क्षेत्र के लिए जो कुछ ख़रीदा जा सकता हैं, उस पर कब्जा जमा लेता है। यह एक अधिशेष उत्पादन वाले किसान के लिए एक उपयोगी आंकड़ा होगा। दूसरी ओर उस झारखंड के किसानों पर विचार करें, जहां कि मैं रह रहा हूं। उन किसानों में से ज़्यादतर किसान घाटे में चलने वाले ऐसे किसान हैं, जो अपने लिए कुछ खाद्य फ़सल उपजाते हैं और अन्य वस्तुओं के साथ-साथ बाक़ी खाद पदार्थ ग़ैर-कृषि क्षेत्र में मज़दूरी करने वाले मज़दूरों के रूप में अपनी कमाई से ख़रीदते हैं। व्यापार की शर्तों में सुधार से उन्हें मदद मिल भी सकती है और नहीं भी मिल सकती है। उनके पास चिंता की कई दूसरी चीज़ें भी हैं और इस चिंता की शुरुआत सूखे से होती है, जो कि इस समय इस राज्य के बड़े हिस्से में व्याप्त है।

मुझे लगता है कि ज़्यादातर किसान जो समझते हैं, वह यह है कि खेती ख़ासकर शुष्क भूमि वाले क्षेत्रों में बहुत फ़ायदेमंद काम नहीं है। उनका काम कठिन है,जो मुश्किलों और अनिश्चितताओं से भरा है, आख़िरकार वे मुश्किल से ही अपना गुज़ारा कर पाते हैं। इसके अलावा, बीतते समय के साथ इसमें बहुत बेहतरी नहीं आती है, क्योंकि इनकी उत्पादकता में जितनी बढ़ोत्तरी होती है,वह प्रति व्यक्ति जोत के सिकुड़ने की भरपाई मुश्किल से कर पाती है। इस बीच बाक़ी अर्थव्यवस्था अपेक्षाकृत तेज़ी से बढ़ रही है, इसलिए किसान पीछे छूट जाते हैं। मुझे लगता है कि यह एक ऐसा सापेक्षिक नुक़सान है, जो कि किसानों में निराशा पैदा करता है और उन्हें विकल्प तलाशने के लिए मजबूर करता है।

प्रज्ञा सिंह:आप ' ज़रूरतमंदों को दिये जाने वाले भोजन, धन आदि' और ‘मुफ़्त दिये जाने वाली चीज़ों को लेकर' होने वाली बातों को कैसे देखते हैं ?

ज़्यां द्रेज़: हमें कॉरपोरेट प्रायोजित मीडिया की ओर से इस्तेमाल किये जाने वाले खैरात और मुफ़्तखोरी जैसे प्रचारित शब्दों का इस्तेमाल किसी भी सब्सिडी को नापसंद किये जाने के लिए नहीं करना चाहिए। हमें सब्सिडी का आकलन उनके गुण-दोष के आधार पर करना चाहिए। सब्सिडी को विभिन्न आधारों पर उचित ठहराया जा सकता है, जैसे कि सामाजिक समानता, सार्वजनिक स्वास्थ्य या पर्यावरण की सुरक्षा। अगर उनका कोई औचित्य नहीं है, तो आप उन्हें फालतू की सब्सिडी कह सकते हैं। मिसाल के तौर पर भारत में ज़्यादातर यह फालतू सब्सिडी विशेषाधिकार प्राप्त समूहों और कॉर्पोरेट क्षेत्र को फ़ायदा पहुंचाती है,जैसे कि ज़्यादा सब्सिडी वाली बिजली, कर रियायतें, बिना वसूल किया जाने वाला क़र्ज़ और प्राकृतिक संसाधनों का निजीकरण आदि। अगर आप उस तरह के शब्द के इस्तेमाल पर ज़ोर देते हैं, तो ये तो बड़े खैरात हैं। इस तरह के कुछ व्यय वाली सब्सिडी से ग़रीबों को भी फ़ायदा हो सकता है, लेकिन वे तुलनात्मक रूप से काफ़ी कम हैं।

धन का पुनर्वितरण सरकार की एक ज़रूरी भूमिका है, और ग़रीबों को कुछ सुविधायें या वस्तुयें मुफ़्त में उपलब्ध कराकर उनकी सहायता करने में कुछ भी ग़लत नहीं है। राजनेता अक्सर अपने मक़सद के लिए बढ़ा-चढ़ाकर वादे करते हैं, जो कि हमेशा अच्छी बात नहीं होती। लेकिन, भारत के असंतुलित लोकतंत्र में इस तरह के वादों के निचोड़ने से ही ग़रीबों को कुछ मिल पाता है। हाल के दिनों में रोज़गार गारंटी अधिनियम और राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम वाली सामाजिक नीति जैसे ज़्यादतर बड़े-बड़े क़दम लोकतांत्रिक राजनीति से संभव हो पाये थे। जैसा कि कथित तौर पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इस प्रक्रिया को रोकने का विचार काफ़ी ख़तरनाक़ है।

प्रज्ञा सिंह:क्या भारत इस संकट का सामना कर रहा है कि इसकी अगली विकास रणनीति क्या होनी चाहिए? और रास्ता क्या है ?

ज़्यां द्रेज़: व्यापार को लेकर दिखाये जा रहे आम प्रीति से परे मौजूदा आर्थिक नीतियों में एक सुसंगत रणनीति का देखा जाना वास्तव में मुश्किल है। एनडीए सरकार विदेशों में जमा काले धन की वापसी के लिए एक स्पष्ट आह्वान के साथ सत्ता में आयी थी, लेकिन यह एक जटिल या लंबी और आमतौर पर बेनतीजा तलाश साबित हुआ। देश के भीतर के काले धन पर होने वाली सर्जिकल स्ट्राइक अगला क़दम था, लेकिन इसका बुरा असर तब हुआ, जब नोटबंदी ने अर्थव्यवस्था को पटरी से ही उतार दिया। मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटीज़, आत्मानिर्भर भारत, "एक ज़िला-एक उत्पाद", और 2022 (जो कि यही साल है) तक कृषि आय को दोगुना करने या 2024 तक भारत को 5 ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था बनाने जैसे त्वरित लक्ष्यों वाली उलझी नीतियों का सिलसिला अब भी जारी है।

इन नीतियों का सामान्य नतीजा यह है कि वे कल्पना के लिए बहुत कुछ छोड़ देते हैं, इसलिए इन विशिष्टताओं को आसानी से व्यावसायिक रियायतों में बदल दिया जाता है। मसलन, आत्मानिर्भ भारत, ओला और ऐप्पल जैसी विदेशी कंपनियों सहित बड़े व्यवसायों के लिए 2 लाख करोड़ रुपये की सब्सिडी वाली कथित "उत्पादन से जुड़ी प्रोत्साहन योजना" में तेज़ी से रूपांतरित हो गया। जैसा कि रघुराम राजन का कहना है कि हम किसी तरह से लाइसेंस राज की वापसी के ख़तरे की ज़द में हैं।

इसका हल सार्वजनिक नीतियों के लिए वह प्रयास है, जो विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के हितों से प्रभावित होने के बजाय लोगों के जीवन को बेहतर बनाने पर ध्यान केंद्रित करे। मानव क्षमताओं का विस्तार महज़ कल्याण का मुद्दा भर नहीं है, यह विकास के लिए छलांग लगाने वाला एक आधार भी है। कर-जीडीपी अनुपात में मामूली बढ़ोत्तरी, फ़ालतू की सब्सिडी में कटौती और स्वास्थ्य, पोषण, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा में बड़ा निवेश एक अच्छी शुरुआत होगी। इससे तिहरे लक्ष्य की पूर्ति होगी,क्योंकि इससे आर्थिक विकास होगा,ग़रीबों को मदद पहुंचेगी और भारत की व्यापक स्तर पर फैली ग़ैर-बराबरी पर अंकुश लगेगी।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करेंः

‘Self-reliance for Poor and State Support for Business is the New Motto’—Jean Dreze

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