कोविड-19 महामारी प्राकृतिक या षडयंत्र?
कोरोनावाइरस, सार्स-कोव-2 से पैदा हुई कोविड-19 की बीमारी, दुनिया की सबसे विनाशकारी महामारियों में से है। इस महामारी ने अनेक विकसित देशों की स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की अंधेरी तली को उजाकर कर दिया है, जहां निजीकृत व्यवस्था का ही बोलबाला है। अमरीका, भारत, ब्राजील तथा दूसरे अनेक देशों में इससे बहुत भारी जनहानि हुई है और आजीविकाओं की भारी हानि हुई है। इस महामारी ने यह भी दिखाया है कि चीन तथा क्यूबा जैसे देशों में जहाँ मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य-रक्षा व्यवस्थाएं मौजूद हैं, वहाँ वे इस महामारी के हमले का कहीं बेहतर तरीके से मुकाबला कर पाए हैं। बहरहाल, विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की ताकत के बल पर और खासतौर पर बड़े खुले तरीके से तथा बहुत ही तत्परता से, डॉटा के साझा किए जाने के बल पर, अपेक्षाकृत थोड़े समय में ही इस महामारी से निपटने के लिए रोग पहचान साधनों--आरटी-पीसीआर टैस्ट--और इस रोग के टीकों का भी विकास संभव हुआ है। अगर चीनी वैज्ञानिकों ने इस वाइरस के जीनोम की जानकारी को बड़ी तत्परता से शेष दुनिया के साथ साझा नहीं किया होता, तो इसके लिए रोग पहचान साधनों का और टीकों का, इतनी जल्दी से विकास भी संभव नहीं होता।
बहरहाल, वर्तमान प्रौद्योगियों के फलस्वरूप सामने आए सोशल मीडिया का अपना ही एक अंधेरा पक्ष भी है। इससे गलत जानकारियों की महामारी भी फूट पड़ी है। इसी के हिस्सा हैं, इसकी गढ़ी हुई बहसें कि सार्स-कोव-2 वाइरस, प्राकृतिक तरीके से पैदा हुआ है या उसे चीनी वैज्ञानिकों ने कृत्रिम तरीके से बनाया है या बदलावों के जरिए गढ़ा है और इस तरह बनाए जाने के बाद इस वाइरस को जान-बूझकर फैला दिया गया या फिर वह किसी तरह से प्रयोगशाला से निकल कर (लीक होकर) बाहर फैल गया है!
बहरहाल, वाइरस के प्रयोगशाला से ही निकलकर बाहर फैलने की इस परिकल्पना या थ्योरी की संभाव्यता उसी सूरत में हो सकती है, जब यह दलील स्वीकार की जा सकती हो कि इस तरह का वाइरस, प्राकृतिक रूप से पैदा हो ही नहीं सकता है और उसे तो सिर्फ कृत्रिम तरीके से ही बनाया जा सकता है। लेकिन, मानव जाति के उद्विकास के जनक, चाल्र्स डार्विन ने तो इस सवाल का बहुत पहले ही जवाब दे दिया था। अब से करीब दो सदी पहले ही डार्विन ने, साक्ष्यों तथा तर्कों के जरिए यह साबित कर दिया था कि मनुष्य भी पशु ही हैं और समान पूर्वजों से शुरू होकर, अनियंत्रित परिवर्तनों की प्रक्रिया के जरिए, अपनी वर्तमान स्थिति तक पहुंचे हैं। ये बदलाव, संबंधित जीवों की, अपने पर्यावरण के लिए बेहतर तरीके से अनुकूलन में मदद करते हैं और उनके लिए उपलब्ध संसाधनों का बेहतर तरीके से उपयोग संभव बनाते हैं, ताकि वे प्राकृतिक चयन के जरिए बचे रह सकें। यही जैविक विकास का सार है।
डार्विन ने अपनी प्रसिद्घ पुस्तक, ऑरीजिन ऑफ स्पिसीज़ में महत्वपूर्ण तरीके से लिखा है: ‘यह मानना कि अपनी तमाम अनोखी युक्तियों के साथ आंख...प्राकृतिक चयन के जरिए बनी हो सकती है, मैं खुलकर मानूंगा कि बहुत ही बेतुकी बात लगती है। पहले-पहल जब यह कहा गया था कि सूरज तो अपनी जगह ही स्थिर है और दुनिया ही है जो उसके चक्कर लगाती है, मानव जाति के सामान्य ज्ञान ने इस सिद्घांत को झूठा करार दे दिया था...तर्क मुझसे कहता है कि अगर एक सरल तथा अधबनी आंख से, एक जटिल तथा परिपूर्ण आंख तक, (आंख के)अनगिनत संस्तरों की मौजूदगी दिखाई जा सकती हो...तो इस पर विश्वास करने में कठिनाई (नहीं होनी चाहिए) कि एक परिपूर्ण तथा जटिल आंख, प्राकृतिक चयन के जरिए बनी हो सकती है...उसे इस सिद्घांत का खंडन करने वाला नहीं माना जाना चाहिए, फिर भले ही यह हमारी कल्पना के लिए कितना ही दुर्गम्य हो।’ सीधे-सरल शब्दों में कहें तो उनका यही कहना था कि प्राकृतिक चयन के जरिए जटिल- सुअनुकूलित जीव-प्रणालियां भी विकसित हो सकती हैं और ऐसी प्रणालियां सोचे-समझे तरीके से या अनजाने में ही सही, किसी ने बनायी हों यह कत्तई जरूरी नहीं है।
यह तर्क कि प्रकृति वह नहीं बना सकती है, जो ईश्वर बना सकता है या जिसे प्रयोगशाल में बनाया जा सकता है, आज का नया तर्क है। कहा जा रहा है कि सार्स-कोव-2 वाइरस ने जो कुछ किया है यानी जिस जबर्दस्त संक्रामकता का प्रदर्शन किया है, वह प्रयोगशाला से निकला वाइरस ही कर सकता है। इस तरह का तर्क सार्स-कोव-2 वाइरस में आज भी जारी स्वत:स्पष्ट बदलाव की भी अनदेखी करता है, जिनका सबूत उसके अल्फा, बीटा, गामा, डेल्टा आदि, आदि वैरिएंटों का सामने आना है।
कोविड-19 महामारी
चीन में, वूहान के स्थानीय अस्पतालों ने, 29 दिसंबर 2019 को उस वाइरस के पहले चार केसों की निशानदेही की थी, जिसकी पहचान कोविड-19 के रूप में हुई। इन केसों की पहचान, उस रोग निगरानी तंत्र की मदद से की गयी थी, जिसे 2003 में सीविअर रेस्पिरेटरी सिंड्रोम कोरोनावाइरस (सार्स-कोव) के फूट पडऩे की पृष्ठभूमि में स्थापित किया गया था। ये चारों ही मामले, वूहान के सीफूड के थोक बाजार से जुड़े हुए थे।
वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरालॉजी (डब्ल्यूआइवी) के वैज्ञानिकों के इस नतीजे पर पहुंचने की देर थी कि यह बीमारी कोरोनावाइरस परिवार के किसी नये वाइरस से फैली है, उन्होंने बिना देर किए वाइरस का जीन सीक्वेंस अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को उपलब्ध करा दिया और इसकी जानकारी प्रकाशन के लिए एक पांडुलिपि के रूप में, पत्रिका नेचर को भी 20 जनवरी 2020 को ही दे दी गयी। नये वाइरस के पहले चार केसों की निशानदेही के तीन हफ्ते के अंदर-अंदर यह सब हो चुका था।
मानव रोगियों में पाए गए इस वाइरस का जीनोम सीक्वेंस, पहले के सार्स-कोव वाइरस से 94.4 फीसद समानता रखता था और इससे भी पहले हूनान की गुफाओं से एकत्र किए गए, चमगादड़ से लिए गए नमूनों में पाए गए वाइरस (आरएटीजी 13) से 96.2 फीसद समानता रखता था, जो कि इसका संकेतक था कि यह वाइरस प्राकृतिक रूप से चमगादड़ों में मौजूद हो सकता है। सभी जानते हैं कि चीनी वैज्ञानिकों के तत्परता से इस सारे डॉटा को शेष सारी दुनिया के साथ साझा करने ने ही दुनिया में इस वाइरस की आरटी-पीसीआर टैस्टिंग तथा टीकों के विकास की प्रक्रिया को तेजी दी थी। अगर यह वाइरस चीन द्वारा साजिश के तहत फैलाया गया होता, तो उन्होंने यह सब क्यों किया होता?
इस मामले में षडयंत्र सिद्घांत के पैरोकारों द्वारा दो तरह के तर्क दिए जाते हैं। पहला तो यही कि अमरीकी खुफिया एजेंसियों के पास कोई गोपनीय साक्ष्य हैं, जो इस वारइस के प्रयोगशाला से निकला होने की संभावनाओं की पुष्टि करते हैं। लेकिन, इराक में महाविनाश के (नाभिकीय) हथियारों (डब्ल्यूएमडी) की मौजूदगी के अमरीकी खुफिया एजेंसियों के झूठे दावों और इन दावों के बल पर इराक पर अमरीका के चढ़ाई करने के प्रकरण के बाद कम से कम अमरीकी खुफिया एजेंसियों की गुप्त जानकारी के ऐसे दावों को तो हमें सीधे-सीधे प्रोपेगंडा के रूप में ही खारिज कर देना चाहिए।
दूसरी दलील यह कि इस तरह के नये वाइरस के जन्म को दो परिकल्पनाओं से ही समझा जा सकता है। पहली, कि यह प्राकृतिक रूप से पैदा हुआ होगा और दूसरी, कि उसे किसी प्रयोगशाला में बनाया गया होगा। लेकिन, कुंजीभूत मुद्दा यह है कि बेशक, ये दो परिकल्पनाएं संभव तो हैं, लेकिन इतने भर से वे समान रूप से संभव या समान रूप से वैध नहीं हो जाती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञों की टीम ने इस वाइरस के प्रयोगशााला से निकले होने की परिकल्पना की जांच-पड़ताल की थी और इस परिकल्पना को खारिज कर दिया था कि यह वाइरस मनुष्य निर्मित हो सकता है (हू रिपोर्ट ऑन ऑरीजन ऑफ सार्स-कोव-2, मार्च 30, 2019)। जहां तक इसके दुर्घटनावश किसी प्रयोगशाला से निकलकर फैल जाने की परिकल्पना का सवाल है, उसे भी विश्व स्वास्थ्य संगठन की टीम ने, ‘अत्यधिक असंभाव्य’ करार दिया था।
सार्स-कोव-2 वाइरस में फूरिन क्लीवेज नाम का स्थल पाया जाता है, जो इसकी इंसान के रिसेप्टरों को पकडऩे में मदद करता है। यही क्लीवेज, षडयंत्र-सिद्घांतवादियों की दलीलों के केंद्र में है, जिनका दावा है कि इसे इंसान द्वारा ही बनाया गया है। सार्स-कोव-2 वाइरस के मानव निर्मित होने के इस षडयंत्र सिद्घांत को आगे बढ़ाने के लिए, इसके दावे भी किए गए हैं कि नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हैल्थ में, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शस डिसीजेस के निदेशक, डा0 एंथनी फूची ‘के पास एचआइवी के एक घटक पर, जिसका उपयोग कोविड-19 को बनाने के लिए किया गया है, पेटेंट अधिकार है।’ लेकिन, सार्स-कोव-2 जीनोम सीक्वेंस में, एचआइवी का ऐसा कोई घटक तो है ही नहीं।
फूरिन क्लीवेज साइट का विशेष महत्व है क्योंकि यह वाइरस के स्पाइक प्रोटीन पर स्थित होता है और वाइरस के कोशिका में प्रवेश करने के लिए इसकी जरूरत होती है कि कोशिका जिस प्रोटीन से घिरी रहती है, उसे फूरिन जैसे प्रोटिएसों के सहारे भेदा जाए। बहरहाल, नेचर पत्रिका का (‘द कोविड लैब लीक हाइपोथीसिस: व्हाट साइंटिस्ट्स डू एंड डू नॉट नो’, 8 जून 2021) कहना है, ‘लेकिन, दूसरे अनेक कोरोना वाइरसों में फूरिन क्लीवेज साइट पाए जाते हैं, जैसे सर्दी-जुकाम पैदा करने वाला कोरोना वाइरस...साल्ट लेक सिटी की यूनिवर्सिटी के वाइरॉलिजिस्ट, स्टीफेन गोल्डस्टेन का कहना है कि यह क्लीवेज साइट संभवत: कई बार में विकसित हुआ है क्योंकि यह एक उद्विकासीय अनुकूलता मुहैया कराता है। एक केंद्राभिमुख उद्विकास, वह प्रक्रिया है जिसके तहत अलग-अलग जीव जो घनिष्ठ रूप से एक-दूसरे से जुड़े हुए नहीं होते हैं, फिर भी एक जैसे वातावरण के हिसाब से खुद को ढ़ालते हुए एक जैसी विशेषताएं विकसित करते हैं, अविश्वसनीय रूप से आम-फहम है।’ डार्विन ने आंख के जिस विकास का उल्लेख किया है, इसी तरह का एक उदाहरण है।
वाइरस की विश्व महामारियां
वाइरस ऐसे परजीवी होते हैं, जो किसी अन्य जीवधारी की कोशिकाओं में ही जीवित रह सकते हैं। जब तक उन्हें अतिक्रमण करने के लिए उपयुक्त मेजबान कोशिका नहीं मिलती है, उनमें जीवन पैदा नहीं होता है। जब उन्हें इस तरह की कोशिका मिल जाती है और वे ऐसी कोशिका में प्रवेश कर जाते हैं, उसके बाद वे अपना पुनरुत्पादन करने लगते हैं। फिर भी कोई जरूरी नहीं है कि वे विनाश करने या मारने का काम ही करें। वास्तव में, वाइरस के न्यूक्लिक एसिड का एक हिस्सा तो, स्तनपायी-पूर्व जीवों के जीनोम का हिस्सा ही बन गया और उसकी मदद से ही स्तनपायी जीवों में भ्रूण को, कोई बाहरी चीज मानकर, इन जीवधारियों के शरीर में प्रतिरोधक व्यवस्थाओं द्वारा ठुकराए जाने से, बचाना संभव होता है। दूसरे शब्दों में वाइरसों के बिना हम और अन्य स्तनपायी जीव भी, शायद अस्तित्व में ही नहीं आते।
वाइरस पहले भी पशुओं से मनुष्यों तक आए हैं और अब भी आते रहते हैं। मनुष्यों के ज्यादातर रोग, चाहे बैक्टीरिया से फैलने वाले हों या वाइरस से, पशुओं से ही आए हैं। यह तय कर पाना मुश्किल है कि कोई वाइरस, जिन पशुओं के बीच प्राकृतिक रूप से पाया जाता है उनसे, सीधे मनुष्यों के बीच आ टपका है या फिर किसी मध्यवर्ती पशु से होते हुए, उस पशु से मनुष्यों के बीच आया है (जूनोटिक ऑरीजिन)। बहुत से मामलों में, मिसाल के तौर पर इबोला वाइरस के मामले में, यह तय ही नहीं हो पाया है कि वाइरस ने क्या रास्ता लिया है। आज भी हमें पता नहीं है कि इबोला वाइरस के बार-बार फूट पडऩे के लिए, वाइरस के भंडार की भूमिका कौन सा पशु अदा कर रहा है।
इन्फ्लुएंजा की विश्व महामारी
1918 की इन्फ्लुएंजा की महामारी को स्पेनिश फ्लू के नाम से जाना तो गया था, लेकिन उसकी शुरूआत स्पेन से न होकर, अमरीका में केन्सास से हुई थी। इस महामारी की चपेट में करीब 50 करोड़ लोग आए थे यानी तब की सारी दुनिया की आबादी का एक-तिहाई हिस्सा। इस महामारी में करीब 5 करोड़ लोगों की मौत हुई थी। इस महामारी में सबसे ज्यादा मौतें, तब के औपनिवेशिक भारत में हुई थीं। अब हम यह जान चुके हैं कि यह महामारी एच1एन1 वाइरस से फैली थी। इसके बारे में यह माना जाता था कि यह वाइरस चिडिय़ों से निकलकर मनुष्यों के बीच फैला था। उसके बाद से इन्फ्लुएंजा वाइरस की ऐसी ही कई महामारियां आ चुकी हैं: 1958 में (एच2एन2), 1968 में (एच3 एन2) और 2009 में (एच1एन1 पीडीएम09)। एच1एन1 पीडीएम09 को स्वाइन फ्लू के नाम से भी जाना गया क्योंकि इस वाइरस एक ऐसा जेनेटिक सीक्वेंस था जो 1992 में सामने आए यूरेशियाई स्वाइन इन्फ्लुएंजा वाइरस के जैसा था। अनुमान है कि एच1एन1 पीडीएम09 वाइरस के संक्रमण से जुड़ी श्वांस संबंधी तकलीफों के चलते, इस वाइरस के फैलने के पहले बारह महीनों के दौरान बड़ी संख्या में मौतें हुई थीं। यह वाइरस मनुष्यों में कहां से आया? अब तक तो मनुष्यों तक इस वाइरस के संक्रमण को पहुंचाने वाले, किसी मध्यवर्ती मेजबान जीव की पहचान नहीं की जा सकी है।
एचआइवी महामारी
एक्वाइर्ड इम्यून डिफीशिएंसी सिंड्रोम (एड्स), पहली बार अमरीका में न्यूयार्क में दर्ज हुआ था और इसने कुल मिलाकर करीब 3 करोड़ 50 लाख लोगों की जानें ली थीं। बाद में इस रोग के कारण के रूप में ह्यमन इम्यूनोडिफीशिएंसी वाइरस, टाइप1 (एचआइवी-1) की पहचान की गयी। एचआइवी-1 वाइरस किस जीव से होते हुए मनुष्यों तक पहुंचा था, यह एक दशक तक तो साफ ही नहीं हो पाया था। बाद में, शोधकर्ताओं की कड़ी मेहनत और कुछ संयोग के योग से, इस पर से पर्दा हटा।
एचआइवी-1 वाइरस, अपने स्वीक्वेंस तथा जीनोमिक गठन में चिम्पांजियों में पाये जाने वाले वाइरस (सिमियन इम्यूनोडिफीशिएंसी वाइरस या एसआइवी सीपीजैड) के जैसा ही है। बहरहाल, वन्य जीवों में एसआइवी सीपीजैड के संक्रमण की व्याप्ति कम ही थी। हालांकि, अफ्रीका के भौगोलिक क्षेत्र में चिम्पांजी मिलते थे, लेकिन शुरूआत में एड्स को वहां नहीं देखा गया था। इससे और एचआइवी-1 तथा एसआइवी सीपीजैड के बीच भिन्नताओं से, इस धारणा के संबंध में संदेह पैदा हो गए कि चिम्पांजी ही एचआइवी-1 वाइरस के प्राकृतिक होस्ट तथा रिजर्वायर थे। बाद में यह विचार पेश किया गया कि शायद कोई अन्य, प्राइमेट प्रजाति जिसकी पहचान होनी बाकी थी, एसआइवी सीपीजैड और एचआइवी-1 की प्राकृतिक होस्ट होगी।
करीब 20 साल बाद, 1999 में ही कहीं जाकर इस वाइरस के मनुष्यों तक पहुंचने की वास्तविक जन्तु कड़ी को खोजा जा सका। एक मादा चिम्पांजी (जिसको मेरिलिन का नाम दिया गया था) को, जो चिम्पांजियों की पैन ट्रोग्लोडेटस प्रजाति से थी, अफ्रीका के जंगल से पकड़ा गया था और अपनी शैशवावस्था में ही अमरीका ले जाया गया था। इस चिम्पांजी को एचआइवी से संक्रमित कोई रक्त नहीं मिला था। फिर भी, 1985 में जब 98 चिम्पांजियों के बीच सीरो सर्वे किया गया, मेरलिन के शरीर में एचआइवी-1 के लिए एंटी-बाडी की बहुत अधिक मात्रा पायी गयी। इसके कुछ ही समय बाद, अजन्मे ट्विन्स के जन्म के दौरान उसकी मौत हो गयी। 1999 में मेरलिन के शरीर के जमाए गए अंशों से निकले ऊतकों का जब पॉलीमरेज चेन रिएक्शन (पीसीआर) विश्लेषण किया गया, उसमें उस वाइरस की मौजूदगी का पता चला, जिसे अब एसआइवी सीएचजैडपीटीटी के नाम से जाना जाता है और जिसका एचआइवी-1 वाइरस से, सबसे नजदीजी रिश्ता है। इस तरह, इस वाइरस को मनुष्यों तक पहुंचाने वाले वन्य जीव का पता चल गया।
मनुष्यों के बीच बीमारियां फैलाने वाले अन्य वाइरसों की ही तरह, सार्स-कोव-2 का भी जन्म प्राकृतिक रूप से हुआ है। बेशक, इसके मनुष्यों के बीच पहुंचने के वास्तविक रास्ते का पता लगाना आसान नहीं है। हो सकता है कि यह सीधे चमगादड़ से मनुष्यों तक आ गया हो या फिर चमगादड़ों से किसी अन्य पशु में पहुंचा हो और वहां से ही मनुष्यों तक पहुंचा हो। इस वाइरस की मूल पालनकर्ता, चमगादड़ आबादी का पता लगाने में या उससे इस वाइरस को लेकर मनुष्यों तक पहुंचाने वाले किसी मध्यवर्ती जीव का पता लगाने में बरसों लगने के बाद भी, किसी संयोग की भी जरूरत पड़ सकती है। इबोला और ऐसी ही अन्य बीमारियों का अनुभव हमें यही बताता है। याद रहे कि स्तनपायी जीवों में दूसरे नंबर पर सबसे ज्यादा प्रजातियां, चमगादड़ों की ही पायी जाती हैं।
ऐसे बयान तथा लेख, जो इसकी अटकलें लगाते हैं कि यह वाइरस कृत्रिम तरीके से पैदा किया गया होगा और इसे दुर्घटनावश या जान-बूझकर मनुष्यों के बीच फैला दिया गया होगा, वास्तव उनकी कोई वैज्ञानिक विश्वसनीयता नहीं है और षडयंत्रवादी सिद्घांतों की ही प्रकृति के हैं। इसे देखते हुए, कुछ वैज्ञानिकों तथा सरकारों द्वारा इस वाइरस के वूहान इंस्टीट्यूट ऑफ वाइरॉलाजी (डब्ल्यूआइवी) की प्रयोगशाला से निकले होने की जांच के लिए जो जोर लगाया जा रहा है और इसके लिए परोक्ष रूप से चीन से, जोकि विश्व अर्थव्यवस्था की एक बड़ी ताकत बन चला है, मुआवजे की जो मांगें उठायी जा रही हैं। इन सब के पीछे शायद चीन का डर और इन ताकतों की अपनी हताशा ही काम कर रही है।
अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।