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दुनिया भर की: सोमालिया पर मानवीय संवेदनाओं की अकाल मौत

यह अप्रैल का महीना चल रहा है। कई लोगों का कहना है कि सोमालिया के लिए जीवन या विनाश का विकल्प देने वाला महीना साबित हो सकता है। यह महीना सोमालिया और मध्य-पूर्वी अफ्रीकी देशों में बारिश शुरू होने का होता है। लेकिन उम्मीदों पर आशंकाएं ज्यादा हावी हैं।
Somalia

सोमालिया जैसे देश हमारे लिए केवल अभिव्यंजना का माध्यम बनकर रह गए हैं। वे हमारे लिए केवल भुखमरी व कुपोषण का विशेषण मात्र हैं। वास्तव में वे हमारी सामूहिक मानवीय संवेदनशून्यता के सबसे बड़े उदाहरणों में से एक हैं। फिर जब दुनिया, यूक्रेन पर रूस के हमले जैसे मसले पर दिन-रात एक की हुई हो, तो उसमें सोमालिया या अफ्रीका के तमाम देशों में भुखमरी कोई चिंता का मसला नहीं रह जाती, तब भी नहीं जब यह युद्ध भी उस भुखमरी को बढ़ाने वाले कारणों में से एक हो।

यह अप्रैल का महीना चल रहा है। कई लोगों का कहना है कि सोमालिया के लिए जीवन या विनाश का विकल्प देने वाला महीना साबित हो सकता है। यह महीना सोमालिया और मध्य-पूर्वी अफ्रीकी देशों में बारिश शुरू होने का होता है। लेकिन उम्मीदों पर आशंकाएं ज्यादा हावी हैं।

सोमालिया पिछले चार दशकों के सबसे भीषण सूखे का सामना कर रहा है। यही स्थिति उस इलाके के तमाम देशों की है जिसे आम तौर पर होर्न ऑफ अफ्रीका कहा जाता है। दक्षिण-पश्चिम एशिया से अदन की खाड़ी से बंटे इस इलाके का यह नाम इसलिए पड़ा है क्योंकि यह नक्शे पर गैंडे के एक सींग की तरह निकला दिखाई देता है।

इस होर्न ऑफ अफ्रीका में अप्रैल में बारिश न पड़ी तो केवल सोमालिया में चालीस लाख लोगों को दाने-दाने के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। विडंबना यह कि इनमें से कई देश, सालों से गृहयुद्ध का भी शिकार हैं। सोमालिया का 90 फीसदी हिस्सा भीषण सूखे का शिकार है। दक्षिण सोमालिया के कई इलाको में दो साल से पानी की बूंद नहीं बरसी है। फसलें सूख चुकी हैं और मवेशी दम तोड़ रहे हैं।

संयुक्त राष्ट्र के विश्व खाद्य कार्यक्रम का कहना है इस साल भी बारिश ने धोखा दिया तो सोमालिया में पांच साल से कम उम्र के तकरीबन 14 लाख बच्चे भयानक कुपोषण का शिकार हो जाएंगे। वहां राहत कार्यों को संभालने वाले संयुक्त राष्ट्र के लोगों को अंदेशा है कि इन 14 लाख बच्चों में से साढ़े तीन लाख बच्चे जान गंवा देंगे। इस संख्या के बारे में सोचकर ही भय लगता है।

लाखों लोग भोजन व पानी की तलाश में अपने जानवरों के साथ घरों से पलायन कर रहे हैं। मवेशी सबसे पहले साथ छोड़ देते हैं, या यूं कहिए कि दम तोड़ देते हैं। केवल फरवरी में सोमालिया में साढ़े छह लाख मवेशी मारे गए जबकि सोमालिया में आबादी का बड़ा हिस्सा मवेशी पालकर ही रोजी-रोटी कमाता है।

डर इस वजह से और ज्यादा है क्योंकि मौसम पूर्वानुमानों का आकलन यही कहता है कि इस साल भी बारिश के तौर पर कोई राहत नहीं मिलने वाली है। अकाल की चेतावनी देने वाले नेटवर्क (फेमाइन अर्ली वार्निंग सिस्टम नेटवर्क) का कहना है कि इस साल इस इलाके को अब तक के सबसे भीषण सूखे से जूझना पड़ सकता है।

जलवायु परिवर्तन या ग्लोबल वार्मिंग को लेकर जिस खतरे की बात सारे विज्ञानी कर रहे हैं, उसका असर इस इलाके में पहले ही दिखाई देने लगा है। पिछला एक सदी के आंकड़ों का अध्ययन करने पर पता चलता है कि इस इलाके में औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्शियस बढ़ गया है जो दुनिया के औसत तापमान में इस दौरान हुई 0.7 डिग्री सेल्शियल की वृद्धि का दोगुना है। दुनिया के किसी भी और इलाके की तुलना में यहां मौसम व बारिश का व्यवहार सबसे ज्यादा बेढंगा हो गया है।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) ने अपनी हाल की रिपोर्टों में कहा है कि बढ़ते तापमान के साथ मौसम की बदमिजाजी बढ़ती जाएगी। हम खुद भारत में अप्रैल के शुरुआती दिनों में जिस गर्मी को देख रहे हैं वह पिछली दो-तीन पीढ़ियों ने तो नहीं देखी है।

मौसम की मार यानी निरंतर बढ़ती खाद्य असुरक्षा और लगातार घटती जल सुरक्षा। रेड क्रॉस ने कहा है कि अफ्रीकी महाद्वीप का तकरीबन एक-चौथाई हिस्सा खाद्य संकट का सामना कर रहा है।

इन हालात का असर कवल पोषण पर ही नहीं होता। संकट इतना होता है कि जब खाने-पीने या जान बचाने को ही हाल न बचे तो बाकी चीजों को कौन पूछता है। वास्तव में यह एक व्यापक मानवीय त्रासदी की झलक है। सोमालिया में स्कूल जाने की उम्र के 70 फीसदी से ज्यादा बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं। तमाम इलाकों में स्कूल बंद हो चुके हैं।

परिवारों की स्थिति देखिए, गांव खाली हो रहे हैं। लोगों के पास घर के सारे लोगों के लिए खाना नहीं है तो वे लड़कियों की शादी कर दे रहे हैं। ज्यादा शादी, ज्यादा कुपोषित बच्चे। गांवों से जवान लोग शहरों की तरफ चले जा रहे हैं, वृद्ध व लाचार लोग पीछे गांवों में अकेले रह जा रहे हैं, इंतजार में- बारिश होने के, बच्चों के पानी लेकर लौटने के या फिर दबे पांव मौत के चले आने के। दबाव शहरों पर पड़ रहा है तो वहां पानी व भोजन की कीमतें बढ़ रही हैं।

सोमालिया के पड़ोसी इथियोपिया या दक्षिण सुडान जैसे देश भी खाद्य संकट झेल रहे हैं तो पश्चिम अफ्रीका में माली, बुरकिना फासो, नाइजर व नाइजीरिया जैसे देश भी। एजेंसियों का कहना है कि सोमालिया में राहत देने के लिए जितने संसाधन चाहिए, उनका महज 3 फीसदी ही अभी उपलब्ध है।

जिस समय ये सारे देश पेट की आग बुझाने की जंग लड़ रहे हैं, वहीं एक बिना वजह की जंग में दुनियाभर में कीमतें उछाल ले रही हैं। पिछले सप्ताह संयुक्त राष्ट्र के खाद्य व कृषि संगठन (एफएओ) ने अपने खाद्य कीमतों के सूचकांक में 12.6 फीसदी की वृद्धि दर्ज की। यह सूचकांक खाद्य वस्तुओं की 23 श्रेणियों में अंतरराष्ट्रीय कीमतों पर आधारित होता है और 1990 के बाद से, जब यह सूचकांक अपने नए स्वरूप में लागू किया गया था, यह अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच चुका है।

आईपीसीसी सरीखी रिपोर्टें या मौसम विज्ञानियों के मॉडल हमें यह तो बता देते हैं कि क्या होने वाला है लेकिन जो होने वाला है, उससे निबटा कैसे जाएगा- असली चिंता इस बात की है। सोमालिया या पूर्वी अफ्रीका का संकट केवल क्या वहां के लोगों का संकट है? जिस समय इस इलाके को बाकी दुनिया से मदद की जरूरत है, उस समय बाकी दुनिया यूक्रेन युद्ध की वजह से अपने तेल-गैस को लेकर परेशान है।

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 58 विकासशील देशों को जलवायु परिवर्तन के असर से निबटने के लिए साल 2030 तक सालाना 70 अरब डॉलर की जरूरत है, लेकिन जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार अमीर देश अब तक सालाना 20 अरब डॉलर ही इसके लिए जुटा पाए हैं। इन्होंने ग्लासगो में वादा किया था कि वे 2025 तक इस मदद को दोगुना कर देंगे। कई इलाकों व कई जिंदगियों के लिए तो तब तक भी बहुत देर हो चुकी होगी।

सभी फोटो साभार: रॉयटर्स

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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