बीएचयूः असहमति व आंदोलन करने वाले छात्र का डिग्री रोके जाने का आरोप
उत्तर प्रदेश के काशी हिंदू विश्वविद्यालय में वैचारिक असहमित रखने वाले अब स्टूडेंट दमन और उत्पीड़न के शिकार बन रहे हैं। इसका ताज़ा शिकार स्टूडेंट आशुतोष कुमार हैं, जिसे ऐसे जुर्म की सज़ा दी जा रही है जो उसने किया ही नहीं है। बीएचयू प्रशासन ने इस स्टूडेंट की पहले डिग्री रोकी तो उसने आंदोलन की राह पकड़ी और अपने साथी छात्रों के साथ सामाजिक विज्ञान संकाय के समक्ष धरना शुरू किया। विरोध के स्वर तेज़ हुए तो बीएचयू प्रशासन ने स्टूडेंट को डिग्री देने का आदेश तो जारी कर दिया, लेकिन यह शर्त जोड़ दी कि वो अब काशी हिंदू विश्वविद्यालय के किसी भी कोर्स में दाख़िला नहीं ले सके।
बीएचयू के पूर्व छात्र नेताओं का कहना है कि बीएचयू के संस्थापक महामना मदन मोहन मालवीय के जीवन काल में वैचारिक असहमति रखने वालों को अपनी बात कहने और सुनने की पूरी आज़ादी थी, जिसे मौजूदा विश्वविद्यालय प्रशासन ने तार-तार कर दिया है। बीएचयू के कुलपति की दोषपूर्ण नीतियों की ख़िलाफ़त करने वाले स्टूडेंट्स पर अब आक्रामक व राजनीतिक बदले की कार्रवाई और पुलिसिया अत्याचारों का सामना करना पड़ता है। वैचारिक असहमति रखने पर विश्वविद्यालय में दमन और उत्पीड़न का खेल नया है। आइसा से जुड़े स्टूडेंट अशुतोष कुमार के आंदोलन से कुलपति सुधीर कुमार जैन संगीन सवालों के घेरे में आ गए हैं।
बनारस के काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्टूडेंट अशुतोष कुमार पिछले पांच दिनों से सामाजिक विज्ञान संकाय के समक्ष धरने पर बैठे हैं। इन्हें आंदोलन का रास्ता तब अपनाना पड़ा जब विश्वविद्यालय प्रशासन ने इन्हें मार्क्सशीट देने से मना करते हुए दमन और उत्पीड़न शुरू कर दिया। आशुतोष का दाख़िला दिल्ली स्थित भारतीय जनसंचार संस्थान (आईआईएमसी) में हिंदी पत्रकारिता में हुआ है। इस स्टूडेंट ने सामाजिक विज्ञान संकाय से साल 2019 से 2022 के बीच राजनीति शास्त्र में ग्रेजुएशन किया है। आईआईएमसी में दाख़िला लेने के बाद पिछले महीने वह ग्रेजुएशन की मार्क्सशीट लेने बीएचयू आए तो उन्हें यह कहकर मना कर दिया गया कि उन्हें पहले निलंबित किया गया था, जिसके चलते मार्क्सशीट नहीं दी जा सकती है। इस बाबत वो बीएचयू के लीगल सेल और डेप्युटी रजिस्ट्रार (एकेडमिक) से मिले तो उनका कहना था कि निलंबन के मामले में किसी की न मार्क्सशीट रोकी जा सकती है और न ही किसी स्टूडेंट का भविष्य बिगाड़ने का कोई विधिक प्रावधान है।
क्या है निलंबन की वजह?
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के स्टूडेंट आशुतोष कुमार के ख़िलाफ़ निलंबन की कार्रवाई तब की गई जब पुलिस ने फ़र्ज़ी मामले में उन्हें गिरफ़्तार किया। यह वाक़या 15 जुलाई 2021 का है। इस दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक कार्यक्रम में शामिल होने के लिए बीएचयू के एंफीथिएटर मैदान में जाने वाले थे। बीएचयू के स्टूडेंट के लिए कोई ऐसा आदेश जारी नहीं किया गया था कि कब और किन रास्तों पर उनका आवागमन प्रतिबंधित है।
ग्रेजुएशन के स्टूडेंट आशुतोष कुमार ने सहपाठी अमरेंद्र खरवार के साथ अपनी फ़ैकल्टी से होकर सेंट्रल ऑफ़िस की ओर जा रहे थे। उस समय बीएचयू के चौकी प्रभारी राजकुमार पांडेय अपने साथी सिपाही सुमित सिंह के साथ सड़क पर थे। दारोग़ा ने दोनों को पकड़ा और अपनी बातों में उलझाए रखा। बाद में पुलिस की वैन बुलाकर लंका थाने भेज दिया। लंका थाने में अपने साथ हुई ज़ुल्म और ज़्यादती का ज़िक्र करते हुए आशुतोष कहते हैं, "खाकी वर्दी वाले हमें मारते-पीटते ले गए। पुलिस का कहना था कि हम लोग हर सरकार का विरोध और आंदोलन करते हैं। पढ़ाई के दौरान कई आंदोलनों में शामिल होने की वजह से चौकी इंचार्ज राज कुमार पांडेय हमें भली-भांति जानते-पहचानते थे और हमसे खुन्नस रखते थे। उन्होंने हम दोनों को पूरी रात नंगा करके लाठी-डंडों से पिटवाया। हमारे प्राइवेट पार्ट के बाल तक उखाड़ लिए गए। बाद में झूठे केस लादकर जेल भेज दिया गया। यह घटना बीएचयू परिसर में हुई थी, लेकिन हमें गिरफ़्तार करने से पहले बीएचयू के प्रॉक्टोरियाल बोर्ड तक को इत्तिला नहीं दी गई।"
पुलिस का दावा
वाराणसी के लंका थाना पुलिस ने बीएचयू के स्टूडेंट्स आशुतोष और अमरेंद्र के ख़िलाफ़ दफ़ा 353, 504, 506, 270 और 271 के तहत गिरफ़्तारी दिखाई। मज़े की बात यह है कि चौकी इंचार्ज राजकुमार पांडेय ने ख़ुद लंका थाने में रपट दर्ज कराई, जिसमें कहा गया है कि 16 जुलाई 2021 को अपराह्न 2.19 बजे आशुतोष कुमार (24 वर्ष) और अमरेंद्र प्रताप खरवार (21 वर्ष) पीएम के आगमन के समय ही सड़क से जाने की कोशिश करते हुए सरकारी कार्य में बाधा डालने लगे। पुलिस ने जब इन्हें रोका तो वो गालियां देते हुए बाद में देख लेने की धमकी देने लगे। कोविड नियमों के मुताबिक़ इन्हें मास्क पहनने की हिदायत दी गई थी, लेकिन वो उनके पास नहीं था। 15 जुलाई को आईआईटी बीएचयू के खेल मैदान में सभा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एमसीएच विंग का उद्घाटन करने आए थे। इस दौरान एंफीथिएटर स्थित अकेलवा बाबा मंदिर के पास कुछ छात्रों ने प्रधानमंत्री के तय रूट को बाधित करने का प्रयास किया। आरोप है कि पुलिस के कहने के बाद भी आरोपी दोनों छात्र वहां से नहीं हटे।
लंका थाना पुलिस की रिपोर्ट पर ग़ौर किया जाए तो उसमें ऐसी किसी बात का उल्लेख नहीं है जिससे यह माना जाए कि दोनों स्टूडेंट्स ने पीएम का रास्ता अथवा उनके काफ़िले को रोकने की कोशिश की। हैरत की बात यह है कि लंका थाने में रिपोर्ट दर्ज होने और गिरफ़्तारी के बाद बीएचयू प्रशासन ने दोनों स्टूडेंट्स को न तो नोटिस दी और न ही उनका पक्ष जानने का प्रयास किया। अलबत्ता पुलिस की कारगुज़ारियों से चार क़दम आगे बढ़कर बीएचयू प्रशासन ने यह इल्ज़ाम लगाते हुए दोनों स्टूडेंट्स को निलंबित कर दिया कि उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी का रास्ता रोका। इसके बाद स्नातक राजनीति विज्ञान विभाग के छात्र आशुतोष कुमार और समाजशास्त्र के अमरेंद्र प्रताप को विश्वविद्यालय में मिलने वाली सभी सुविधाओं से भी वंचित कर दिया गया। अशुतोष कुमार पुत्र श्याम सुंदर प्रसाद यादव चंदौली ज़िले के धरौली इलाक़े किला घानापुर गांव के निवासी हैं। इनके दादा पूर्व शिक्षक और पिता संविदा कर्मचारी हैं। आशुतोष राजाराम छात्रावास के कमरा नंबर-76 में रहकर पढ़ाई किया करते थे। अमरेंद्र प्रताप खरवार पुत्र वीरेंद्र प्रताप शिवपुर के निवासी हैं। इन्हें नरेंद्र देव छात्रावास का कमरा नंबर-100 आवंटित किया गया था।
अशुतोष कुमार कहते हैं, "बीएचयू प्रशासन ने लंका थाना पुलिस की रिपोर्ट को पढ़ा तक नहीं और हमारे माथे पर इल्ज़ाम थोप दिया कि हम पीएम के काफ़िले को रोक काला झंडा दिखाने जा रहे थे। 'नैतिक पतन' का हवाला देते हुए हमें सस्पेंड किया गया, जबकि ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी और न ही एफ़आईआर में इस बात का कोई उल्लेख है। एफ़आईआर दर्ज होने के तक़रीबन दो महीने बाद बीएचयू प्रशासन हमें अपना पक्ष रखने का अवसर नहीं दिया। कोई जांच कमेटी तक नहीं बनाई गई। अलोकतांत्रिक तरीक़े से एकपक्षीय कार्रवाई करते हुए हमें सस्पेंड कर दिया गया। वह भी ऐसे आरोप में, जो पुलिस ने हम पर लगाया भी नहीं था।"
क्या है खुन्नस की वजह
दरअसल, अखिल भारतीय छात्र संघ (आइसा) से जुड़े होने के कारण आशुतोष स्डूटेंड्स के साथ होने वाली नाइंसाफ़ी के मुखर विरोधी रहे। छात्र हितों के ख़िलाफ़ हर आदेश-निर्देश पर वो बीएचयू प्रशासन से भिड़ जाया करते थे। आशुतोष कुमार तो तभी से पुलिस की आंख के किरकरी बन गए थे जब सीएए और एनआसी आंदोलन शुरू हुआ। आंदोलन के समय पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर जेल भेजा और एक हफ़्ते बाद ज़मानत पर इनकी रिहाई हुई। 26 फरवरी 2021 को बीएचयू को पूरी तरह खोलने की मांग को लेकर लंका स्थित सिंह द्वार पर स्टूडेंट्स का धरना शुरू हुआ तो उसकी अगुवाई आशुतोष कुमार ने ही की। पांच दिनों से धरना दे रहे जिन छात्रों को पुलिस घसीटते हुए उठा ले गई, उनमें आशुतोष कुमार आमरण अनशन पर बैठे थे। स्टूडेंट्स ने पुलिस से अपनी गिरफ़्तारी से संबंधित नोटिस की डिमांड की, लेकिन खाकी वर्दी वालों ने उनकी एक नहीं सुनी। इस बीच पुलिस ने कई आंदोनकारियों के साथ मारपीट भी की। स्टूडेंट्स की रिहाई तब की गई जब बड़ी संख्या में बीएचयू के छात्रों ने लंका थाने का घेराव किया।
इसी तरह बीएचयू के इतिहास विभाग में रिसर्च के लिए दाख़िला शुरू हुआ तो साक्षात्कार पैनल बनाने में अनियमितता और नतीजे की घोषणा में मनमानी बरती जाने लगी। जब क़ाबिल स्टूडेंट्स के साथ भेदभाव और अन्याय किया जाने लगा तो मुखर विरोध करने वालों में अशुतोष आंदोलनकारी स्टूडेंट्स में सबसे आगे थे। बीएचयू के पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग में कार्यरत दलित महिला प्रोफ़ेसर शोभना नेरलीकर के प्रमोशन में जब अड़ंगा डाला जाने लगा तो वो धरने पर बैठ गईं। शोभना नेरलीकर का आरोप था कि विश्वविद्यालय प्रशासन ने उनकी सर्विस में हेरफेर कर उनकी वरिष्ठता को न सिर्फ़ घटा दिया, बल्कि प्रोन्नति के लिए दावेदारी में हमेशा अड़ंगा डालता रहा। जातिगत भेदभाव का मुद्दा उठने पर ने विश्वविद्यालय प्रशासन पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा है कि दलित होने के कारण विश्वविद्यालय में उनका उत्पीड़न किया जा रहा है। शोभना धरने पर बैठीं तो उनका साथ दिया अशुतोष कुमार ने। आशुतोष ने ऐलानिया तौर पर कहा कि महिला प्रोफ़ेसर को सिर्फ़ दलित होने के नाते उत्पीड़न किया जा रहा है। उन्हें कार्यालय में लीव विदाउट पे दिखाकर उनकी सीनियारिटी को प्रभावित किया जा रहा है, क्योंकि ब्राह्मण समुदाय के शिशिर बासु को जातिगत आधार पर विभागाध्यक्ष बनाए रखना है।"
इसलिए रोकी गई मार्क्सशीट
बीएचयू के स्टूडेंट अशुतोष कुमार ने तब धरना शुरू किया जब उनकी मार्क्सशीट रोकी गई। वह कहते हैं, "मेरे सहपाठी अमरेंद्र जो उसी केस में मेरे साथ सस्पेंड हुआ था, उसका अंकपत्र विश्वविद्यालय ने दे दिया और मेरा रोक दिया गया। दिल्ली के आईआईएमसी में मेरी कक्षाएं नौ नवंबर से शुरू हो गई हैं। मार्क्सशीट न मिलने की वजह से मैं क्लास अटेंड कर पाने से वंचित हूं। बीते 11 नवंबर 2022 से लगातार भाग-दौड़ कर रहा हूं। मेरे पिता और दादा डीन से लेकर सभी प्रशासनिक अफ़सरों के दफ्तरों में माथा टेक चुके हैं, लेकिन कोई सुनने के लिए तैयार नहीं था। मार्क्सशीट के लिए सामाजिक विज्ञान संकाय की डीन रोज़ अलग-अलग कारण गिनाती रहीं। शुरू के आठ-दस दिन तो मुझे यह कह गुमराह किया गया कि मैं सस्पेंडेड हूं। ऐसे में मुझे मार्क्सशीट नहीं दी जा सकती है। जब मेरे साथी को मार्क्सशीट दे दी गई तो भला मुझे क्यों नहीं दिया जाएगा? "
आशुतोष के निलंबन और मार्क्सशीट जारी न किए जाने के सवाल पर ‘न्यूज़क्लिक’ ने बिंदा परांजपे से बात की तो उनका कहना था कि स्टूडेंट बवाली है और वह तरह-तरह की कहानियां गढ़ रहा है। बिंदा ने कहा, "मैं किसे क्या जवाब दूं? हमारे यहां दो तरह से दाख़िले का प्रावधान है। आशुतोष कुमार ने समाजिक विज्ञान विभाग में पेड सीट पर दाखिला लिया था। हर साल दस हज़ार रुपये जमा करना होता है। दो साल से उसने कोई पेमेंट नहीं किया था। फ़ीस जमा न करने के बहाने बनाता रहा। बीएचयू प्रशासन ने विश्वविद्यालय अधिनियमों के तहत उसके ख़िलाफ़ निलंबन की दंडात्मक कार्रवाई की है। कुलपति ने अब फ़ीस जमा करने के बाद मार्क्सशीट लेने की अनुमति दे दी है। जल्द ही रिजल्ट मिल जाएगा। चूंकि इस छात्र पर निलंबन की कार्रवाई हो चुकी है, इसलिए वो किसी कोर्स में दाख़िला नहीं ले सकेगा। इस बाबत आदेश जारी किया जा चुका है। कई सीनियर टीचरों ने आशुतोष को समझाने की कोशिश की, लेकिन वो कोई बात नहीं सुन रहा है। नारेबाज़ी और आंदोलन कर रहा है। स्टूडेंट्स का समर्थन जुटाने की कोशिश कर रहा है। हमारे घर अपने पिता और दादा को लेकर आया था। स्टूडेंट के घर वाले मार्क्सशीट देने के लिए गिड़गिड़ा रहे थे। पीएम के कार्यक्रम में उसने बाधा डालने की कोशिश की है, इसलिए उसका बीएचयू में अब पढ़ पाना संभव नहीं है।"
डीन के सवालों का जवाब देते हुए छात्र आशुतोष कुमार कहते हैं, "इतिहास विभाग की डीन कहती रहीं कि दो साल का बकाया फ़ीस जमा नहीं होने के कारण मार्क्सशीट नहीं दी जा रही है, लेकिन वह जब-जब काउंडर पर जाता तो यह कहकर फ़ीस जमा करने से रोक दिया जाता था कि कुलपति का परमीशन दिखाना होगा। इस बाबत जब 21 नवंबर 2022 को कुलपति को अर्जी दी तब भी कोई जवाब नहीं मिला। बीएचयू प्रसासन के क्रूर, तानाशाह, असंवेदनशील और अलोकतांत्रिक रवयै को देखते हुए मेरे पास लोकतांत्रिक तरीक़े से आंदोलन में जाने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं था।"
"बीएचयू प्रशासन से मेरी एकमात्र मांग है कि वो मुझे तत्काल मार्क्सशीट दे। हमने चाहे जो भी जुर्म किया हो, हमारी मार्क्सशीट रोकने का बीएचयू प्रशासन को कोई अधिकार नहीं है। समूचे मामले में जटिलता पैदा करने के इतिहास विभाग की डीन बिंदा परांजपे ने कई पत्र लिखवाया। डीन ऑफ़िस के सामने मैं लगातार प्रोटेस्ट कर रहा हूं और हमसे कहा जा रहा है कि आप भविष्य में बीएचयू में न किसी कोर्स में दाख़िला पा सकेंगे, न पढ़ पाएंगे। मेरा साफ़-साफ़ कहना है कि हमारा पक्ष सुने बगैर डीन बिंदा परांजपे को हमारा करियर ख़राब करने का कोई अधिकार नहीं है।"
आशुतोष कुमार के मुताबिक़, इतिहास विभाग की डीन बिंदा परांजपे को पहले वैचारिक रूप से वामपंथ में भरोसा रखती थीं। पीएम नरेंद्र मोदी की सरकार सत्ता में आई तो अपनी डीनशिप बचाने के लिए वो आरएसएस की शाखाओं में जाने लगीं। आशुतोष ने ‘न्यूज़क्लिक’ यह तक बताया, "डीन बिंदा परांजपे ने सीएए और एनआरसी आंदोलन के समय हमें खुलेआम सहयोग दिया था। अब वो आरएसएस की शाखा में अपना नंबर बढ़वाने में जुटी रहती हैं। भगवाकरण के बाद उन पर लगे सभी पुराने इल्ज़ाम धुल गए हैं। हमें रोज़ धमकाया जा रहा है, लेकिन हमारा आंदोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक बीएचयू प्रशासन अपना नादिरशाही आदेश वापस नहीं लेगा।"
बीएचयू का भगवाकरण
इतिहास विभाग की डीन बिंदा परांजपे उस समय अख़बारों की सुर्खियां बन गई थीं, जब बीएचयू के एमए की परीक्षा में पहली मर्तबा आदिविश्वेश्वर मंदिर को तोड़ने पर सवाल पूछा गया। सोशल मीडिया में बीएचयू के कुलपति सुधीर जैन पर जब निशाना साधा जाने लगा तो परीक्षा नियंत्रक ने डीन बिंदा परांजपे से जवाब-तलब किया। दरअसल, 24 सितंबर को बीएचयू एमए के सेकंड सेमेस्टर के मध्ययुगीन भारत के राजनीतिक इतिहास के पेपर में एक सवाल किया गया था कि औरंगज़ेब ने काशी के आदिविश्वेश्वर मंदिर का विध्वंश किया। इस बात का ज़िक्र किस पुस्तक में किया गया है?
बीएचयू के छात्रों ने इस सवाल को आउट ऑफ सिलेबस बताया और समूचे मामले को ज्ञानवापी विवाद से जोड़ा जाने लगा। विवाद बढ़ने पर आरएसएस की मुस्लिम विंग से जुड़े एक प्रोफ़ेसर ने सफ़ाई पेश की कि जिस सवाल को आउट ऑफ़ सिलेबस बताया जा रहा है वो सिलेबस का हिस्सा है। मासिर-ऐ-आलमगीरी पुस्तक में आदिविश्वेश्वर मंदिर के तोड़े जाने का ज़िक्र है। प्रश्न पत्र में कुछ भी आउट ऑफ़ सिलेबस नहीं पूछा गया है। इतना ज़रूर है कि आदिविश्वेश्वर मंदिर तोड़े जाने का सवाल ज़रूर पहली बार पूछा गया है। ज्ञानवापी मामले को हवा देने के लिए बीएचयू के कोर्स में सवाल पूछे जाने पर उठे जलजले ने तूल पकड़ना शुरू किया तो भाजपा और उसके अनुसांगिक संगठन आरएसएस के लोगों ने लीपापोती शुरू कर दी। सांप्रदायिक सद्भाव बिगाड़ने वाले इस सवाल को बाद में दफ़न कर दिया गया और दोषी शिक्षकों के ख़िलाफ़ कोई एक्शन नहीं लिया गया।
क़ानून की धज्जियां तो न उड़ाइए
बीएचयू में छात्र नेता रहे प्रदीप श्रीवास्तव ‘न्यूज़क्लिक’ से कहते हैं, "कोई भी संस्था देश के संविधान के नियम और क़ानून से चलती है। इससे इतर जाकर कोई कार्रवाई मनमानी प्रवृत्ति कही जा सकती है। भारतीय संविधान में शांतिपूर्वक आंदोलन व प्रदर्शन करने का हर किसी को अधिकार है, चाहे वो पीएम और सीएम क्यों न हो? आंदोलन पर निषेध न भारतीय संविधान में है और न ही बीएचयू के अधिनियम में है। अगर ऐसा होता तो बहुत सारे स्वतंत्रता सेनानियों को सज़ा हुई थी, उन्हें तो बीएचयू को डिग्री ही नहीं देना चाहिए थी। साल 1942 के आंदोलन में डॉ.राधकृष्णन कुलपति थे और राजनारायण व प्रभुनारायण लॉ कॉलेज के स्टूडेंट थे। इन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया। इनकी गिरफ़्तारी के लिए उस दौर में पांच-पांच हज़ार का इनाम रखा गया। यह हाल ब्रिटिश शासन में हुई गिरफ़्तारी के बाद दोनों छात्र नेताओं को सज़ा हुईं, लेकिन इनकी मार्क्सशीट और डिग्री नहीं रोकी गई।"
"विश्वविद्यालय के अंदर किसी के ख़िलाफ़ कोई स्टूडेंट लोकतांत्रिक और अहिंसक तरीक़े से विरोध दर्ज कराता है तो आप उसके एकेडमिक करियर और ज़िंदगी से खिलवाड़ नहीं कर सकते। यह तानाशाही और दमन की पराकाष्ठा है। आज़ाद हिंदुस्तान में बीएचयू के अंदर बड़े-बड़े आंदोलन हुए। तमाम छात्र नेताओं के ख़िलाफ़ निलंबन और निष्कासन की तक की कार्रवाई हुई। जांच कमेटी बनाई गई और स्टूडेंट्स ने अपने पक्ष रखे, जिनमें कुछ बरी कर दिए गए। जिनका निष्कासन हुआ भी उन पर इस तरह का कभी प्रयास नहीं हुआ कि उन्हें पढ़ने से ही रोक दिया जाए। बनारस के लोगों को याद है कि तत्कालीन कुलपति कालूलाल श्रीमाली के ख़िलाफ़ बीएचयू में सबसे लंबा आंदोलन चला। उस समय स्टूडेंट्स के ख़िलाफ़ निलंबन और निष्कासन तक की कार्रवाइयां हुईं, जिनमें शतरुद्र प्रकाश और आनंद कुमार शामिल थे। इन्हें निष्कासित कर दिया गया, लेकिन न इनका अंकपत्र रोका गया और न ही डिग्री। जिनकी परीक्षाएं बाकी थी, उन्हें इम्तिहान देने की अनुमति दी गई। हालांकि बाद में इनका दाख़िला बीएचयू में हुआ। आंदोलनकारी स्टूडेंट्स में एक मैं भी था। मुझे निलंबित किया गया। मैंने परीक्षा दी, डिग्री मिली, लेकिन दाख़िला तभी मिला जब जनता पार्टी की सरकार आई और श्रीमाली हटाए गए। ग़ुलाम और आज़ाद भारत में ऐसा नहीं हुआ कि ऐसी एक पक्षीय कार्रवाई कर दी जाए कि स्टूडेंट को कहीं दाख़िला ही न मिले। दंडित ज़रूर किया गया, लेकिन स्टूडेंट के शैक्षणिक करियर को बर्बाद करने का दंड कभी नहीं दिया गया।"
प्रदीप यह भी कहते हैं, "डबल इंजन सरकार के पास छात्रों और युवाओं को शिक्षा और नौकरियों के संबंध में देने के लिए कुछ भी नहीं हैं। अगर छात्र इसका विरोध करने के लिए लामबंद होते हैं, तो उन्हें आक्रामक राजनीतिक बदले की कार्रवाई और पुलिसिया अत्याचारों का सामना करना पड़ता है। हाल के सालों में छात्रों और नौजवानों को लगातार दमन का शिकार होना पड़ रहा है। ये विरोध की आवाज़ें बढ़ती बेरोज़गारी और कई छात्रों के लिए शिक्षा पाने के अवसरों से बहिष्कृत करने व भगवाकरण के एजेंडे के तहत शिक्षा की एक विनाशकारी प्रणाली के चलते हो रहा है। डबल इंजन की सरकार शिक्षा पर ख़र्च में लगातार कटौती और मुनाफ़ाख़ोरी को बढ़ाती रही है। पाठ्यक्रम के भगवाकरण, सांप्रदायिक हमले एवं नफ़रती भाषणों ने शैक्षणिक परिसरों में अपनी घुसपैठ बना ली है, जिसमें छात्रों को लक्षित किया जा रहा है। शैक्षणिक संस्थानों में स्टूडेंट्स पर पुलिसिया अत्याचार को राज्य-प्रयोजित हिंसा के तौर पर देखा जा सकता है। हाल के वर्षों में, छात्रों के विरोध प्रदर्शन को क्रूर बल के साथ निपटा गया है। ये घटनाएं, वो चाहे 2016 में हैदराबाद में, रोहित वेमुला की उकसाने वाली आत्महत्या रही हो या 2022 में पश्चिम बंगाल में अनीस ख़ान की हत्या का मामला हो, यह भयानक दुष्प्रवृति लगातार सिर उठाती जा रही है।"
लेखक वाराणसी स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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