पड़ताल: मध्य प्रदेश में सांप्रदायिक दंगों के जरिए चुनावी तैयारी में जुटी है भाजपा
इस बार रामनवमी के मौके पर वैसे तो देश के कई हिस्सों में सांप्रदायिक टकराव और हिंसा की घटनाएं हुई हैं, लेकिन मध्य प्रदेश में हुई घटनाओं का सीधा संबंध आगामी विधानसभा चुनाव से है। हालांकि मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए अभी 20 महीने यानी डेढ़ साल से ज्यादा का वक्त बाकी है, लेकिन सूबे के मालवा-निमाड़ अंचल की सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बताती हैं कि चुनाव के लिए सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी ने अभी से तैयारी शुरू कर दी है।
मालवा निमाड़ के इलाके में जो घटनाएं घटी हैं, वे आकस्मिक नहीं हैं। जिस पैटर्न पर देश के विभिन्न हिस्सों में पिछले एक पखवाड़े से सांप्रदायिक टकराव का माहौल बनाया जा रहा था, वैसा ही सब कुछ इस इलाके में भी चल रहा था- नवरात्रि के नाम पर मांस की बिक्री का विरोध, मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकर हटाने की मांग और लाउडस्पीकर पर होने वाली अजान के जवाब में मस्जिदों के सामने लाउडस्पीकर पर हनुमान चालीसा का पाठ।
यही नहीं, रामनवमी के दिन विभिन्न शहरों और कस्बों में जो धार्मिक जुलूस निकाले गए, उनमें भी अश्लील और भड़काऊ नारे और गाने, मस्जिदों के सामने भगवा झंडे लहराते हुए प्रदर्शन, यह सब पुलिस की मौजूदगी में और उसकी देख-रेख में। यही नहीं, कई मजारों पर तो रातो-रात भगवा रंग पोत कर उन पर भगवा झंडे लगा दिए गए। सांप्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए जैसा माहौल इस बार बना, वैसा पहले कभी नहीं देखा और सुना गया- उस दौर में भी नहीं जब भाजपा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का अयोध्या आंदोलन पूरे उफान पर था और लालकृष्ण आडवाणी अपनी रथयात्रा के माध्यम से पूरे देश में सांप्रदायिक नफरत की फसल बोने के लिए निकले हुए थे।
हमेशा की तरह इस बार भी सभी जगह सांप्रदायिक हिंसा और तनाव के लिए मुसलमानों को जिम्मेदार ठहराया गया है, लेकिन हकीकत यह नहीं है। दरअसल आम मुसलमान भी धार्मिक रूप से बेहद जज्बाती तो है लेकिन वह बेवकूफ कतई नहीं है। मौजूदा वक्त में वे जानते हैं कि सरकार, प्रशासन, पुलिस, मीडिया और सोशल मीडिया में सक्रिय सरकार समर्थक लोग उनकी किसी भी गलती का इंतजार कर रहे हैं। ऐसे में वे जान-बूझ कर ऐसा कुछ नहीं कर सकते जिससे कि उनका अपना जीवन, रोजगार और अपने जीवन भर की कमाई दांव पर लग जाए।
कोरोना संक्रमण के दौरान भी मुस्लिम समुदाय ने अभूतपूर्व नफरत का सामना किया था। सबने देखा है कि उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में सरकारों से लेकर स्थानीय प्रशासन, पुलिस, मीडिया और भाजपा-आरएसएस से जुड़े संगठनों ने तबलीगी जमात के बहाने पूरे मुस्लिम समुदाय को कोरोना फैलने के लिए जिम्मेदार ठहरा उसके खिलाफ किस कदर नफरत फैलाई थी। उस समय सब्जी और फल बेचने वाले मुसलमानों को हिंदू रहवासी क्षेत्रों में घुसने तक पर रोक लगा दी गई थी। सब्जी और फल विक्रेताओं से उनका नाम पूछ-पूछ कर उनके साथ मारपीट की गई थी और उनके फल-सब्जी नष्ट कर दिए गए थे। यही नहीं, हर स्तर पर मुस्लिम समुदाय के आर्थिक और सामाजिक बहिष्कार की अपील खुलेआम की जा रही थी।
यह ठीक है कि मुस्लिम समुदाय संयम बरते हुए हैं, लेकिन इसी के साथ यह भी सच है कि वह अपने ऊपर हमला होने की स्थिति में अपनी सुरक्षा और जवाबी कार्रवाई की तैयारी भी रखता है...और सच यह भी है कि मुसलमानों में भी सभी तरह के लोग हैं। 'राजनीतिक रामभक्तों’ की तरह उनमें भी खुराफाती मानसिकता वाले 'अल्लाह के बंदे’ होते हैं और हैं, जो मौके की तलाश में रहते हैं कि कब उन्हें धर्म के नाम अपनी हैवानियत के जौहर दिखाने को मिले।
मध्य प्रदेश में भाजपा और आरएसएस के बगलबच्चा हिंदू संगठनों की योजना तो व्यापक स्तर पर सांप्रदायिक हिंसा फैलाने की थी लेकिन मुस्लिम समुदाय के संयम और समझदारी की वजह से खरगोन और बड़वानी को छोड़ कर ज्यादातर जगह पर यह योजना असफल हो गई। खरगोन और बड़वानी में जो घटनाएं हुईं वह मुसलमानों की आत्मरक्षा की तैयारी और जवाबी कार्रवाई का परिणाम कही जा सकती है और इसी में मुसलमानों के भीतर आपराधिक और नफरती तत्वों को भी अपने हाथ सेंकने का मौका मिल गया। सूबे के जो शहर, गांव और कस्बे हिंसक टकराव से बच गए वहां इन दो शहरों की घटनाओं से सांप्रदायिक उत्तेजना का माहौल तो बन ही गया।
दरअसल किसी भी गांव, कस्बे या शहर में सांप्रदायिक दंगा होना या टकराव के हालात बनना इस बात का सबूत होता है कि वहां का स्थानीय प्रशासन और पुलिस नेतृत्व यानी कलेक्टर, एसडीएम, एसएसपी, एसपी, सीएसपी, थानेदार इत्यादि अयोग्य, मक्कार या भ्रष्ट हैं। वे खुद भी दंगाई मानसिकता के हो सकते है या दंगाइयों से मिले हो सकते हैं।
अगर सरकार का राजनीतिक नेतृत्व, स्थानीय पुलिस और प्रशासन ठान ले कि वे अपने सूबे या अपने इलाके में दंगा नहीं होने देंगे तो कोई ताकत दंगा नहीं भड़का सकती, फिर चाहे वह हिंदू-मुसलमान या फिर कोई और समुदाय। यह बात सभी प्रदेशों पर लागू होती है, वह चाहे भाजपा या कांग्रेस शासित राज्य हो या किसी अन्य पार्टी से शासित राज्य।
कहा जा सकता है कि रामनवमी पर जहां-जहां से भी पत्थरबाजी, आगजनी और खून खराबे की खबरें आई हैं, वे निश्चित ही पूर्व नियोजित घटनाएं रही हैं और इसके लिए सीधे-सीधे वहां के पुलिस और प्रशासनिक अधिकारी जिम्मेदार हैं, जिन्होंने अपने राजनीतिक आकाओं के इशारे पर राजनीतिक मकसद से उन घटनाओं को होने दिया।
मध्य प्रदेश की घटनाएं तो स्पष्ट रूप से एक व्यापक राजनीतिक परियोजना का हिस्सा है। इसका संकेत खरगोन की घटनाओं के बाद प्रदेश के गृह मंत्री नरोत्तम मिश्र के आए बयानों से भी मिलता है। घटना की पूरी जांच-पड़ताल के बगैर ही उन्होंने घटना के लिए मुसलमानों को दोषी करार दे दिया। उन्होंने कहा कि जिन्होंने रामनवमी के जुलूस पर पत्थर फेंके हैं, उनके घरों को पत्थरों के ढेर में बदल दिया जाएगा।
सूबे के गृह मंत्री का यह बयान आते ही जिला प्रशासन ने बुलडोजरों के साथ मुसलमानों के कच्चे-पक्के मकानों पर हमला बोल दिया। प्रशासनिक अधिकारियों पर बुलडोजर से मुसलमानों के मकानों को जमींदोज करने का जुनून इस कदर हावी था कि उन्होंने प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकानों को भी मलबे के ढेर में तब्दील कर दिया। यानी सरकार ही अदालत बन गई और उसने आरोपियों को अपराधी मान कर उन्हें सजा दे दी।
मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने और सांप्रदायिक टकराव के हालात पैदा करने की यह राजनीतिक परियोजना नई नहीं है। इस परियोजना पर भाजपा ने प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा कर सत्ता पर काबिज होते ही काम शुरू कर दिया था। पहले कोरोना महामारी के दौर में और फिर धार्मिक जुलूसों पर कथित पत्थरबाजी के बहाने। पिछले साल दिसंबर में यानी महज चार महीने पहले मालवा अंचल के ही उज्जैन शहर में राम मंदिर के लिए चंदा जुटाने के लिए निकले आरएसएस के जुलूस पर मुस्लिम बस्ती में पत्थर फेंके जाने की घटना हुई थी।
उस समय मीडिया में यही खबरें आई थीं कि उज्जैन में हिंदुओं के जुलूस पर मुसलमानों ने पथराव किया, लेकिन चार दिन बाद ही घटना की जांच में साफ हुआ कि जुलूस के मुस्लिम बस्ती से गुजरने के दौरान जुलूस में शामिल कुछ लोगों ने मुसलमानों खास कर उनकी महिलाओं को निशाना बनाते हुए अश्लील और भड़काऊ नारे लगाए थे, जिसके जवाब में मुसलमानों ने पत्थरबाजी की थी। हालांकि वह जांच रिपोर्ट दबा दी गई थी।
गौरतलब है कि राजनीतिक लिहाज से मालवा-निमाड़ का इलाका पिछले तीन दशक से और खास कर मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ के अलग होने के बाद से एक ऐसा क्षेत्र बन गया जो हर चुनाव में तय करता है कि सूबे की सत्ता पर कौन काबिज होगा। यह भाजपा का मजबूत गढ़ माना जाता रहा है और आरएसएस की प्रयोगशाला भी। लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में यहां भाजपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था और वह 15 साल बाद सत्ता से बाहर हो गई थी।
मध्य प्रदेश की 230 सदस्यों वाली विधानसभा में इस इलाके की 66 सीटें आती हैं। पिछले चुनाव में यहां भाजपा को महज 27 सीटें जीत सकी थी, जबकि 36 सीटें कांग्रेस को मिली थीं। इससे पहले 2013 के चुनाव में यहां से भाजपा को 66 में से 56 सीटों पर जीत हासिल हुई थी, जबकि कांग्रेस को महज 8 सीटों पर ही जीत नसीब हो सकी थी।
पिछले विधानसभा में इस इलाके में मिली खासी कामयाबी के बूते ही कांग्रेस जैसे-तैसे भाजपा को सत्ता से बेदखल कर पाई थी और उसका सत्ता से 15 साल का वनवास खत्म हुआ था। हालांकि कांग्रेस की सरकार एक साल ही चल पाई। अपने ही अंतर्विरोधों और बड़े पैमाने पर हुए दलबदल के चलते उसका पतन हो गया और भाजपा फिर सत्ता पर काबिज हो गई।
दोबारा सत्ता में आने के साथ ही भाजपा ने अपनी खोई हुई राजनीतिक ताकत फिर से अर्जित करने पर काम शुरू कर दिया। चूंकि प्रदेश की आर्थिक स्थिति बेहद जर्जर हो चुकी है या यूं कहें कि राज्य सरकार आर्थिक रूप से दिवालिया हो चुकी है। उस पर हर दिन कर्ज का बोझ बढ़ता जा रहा है। विभिन्न संस्थानों से जो कर्ज लिया जा रहा है, वह भी सिर्फ धार्मिक तमाशेबाजी और कर्मचारियों की तनख्वाह बांटने पर ही खर्च हो रहा है। महंगाई और बेरोजगारी चरम पर है ही, किसानों की हालत भी बद से बदतर होती जा रही है। प्रदेश में नए उद्योग-धंधे लग नहीं रहे हैं और जो पुराने हैं वे भी नोटबंदी के बाद से ही ठप पड़े हैं या जैसे-तैसे चल रहे हैं। ऐसे में सरकार के सामने अपना राजनीतिक जनाधार मजबूत करने के सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का ही रास्ता है। यह रास्ता उसका आजमाया हुआ भी है। अभी तक रिकॉर्ड यही बताता है कि जहां-जहां भी सांप्रदायिक दंगे होते हैं, वहां भाजपा को चुनाव में राजनीतिक रूप से फायदा होता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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