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बैंकिग क्षेत्र का संकट और केंद्रीय बजट 2021-22

भारत के वर्तमान यथार्थ को देखते हुए, क्या बैकिंग क्षेत्र उस इंजन का काम कर पाएगा जो विकास को प्रेरित करे?  या वह अपने ही बोझ तले डूबता जाएगा और पुनःप्राप्ति (revival) की प्रक्रिया में बाधा बनकर विकास की प्रक्रिया को पीछे धकेलेगा?
 बजट 2021-22
प्रतीकात्मक तस्वीर I

1 फरवरी 2021 को पेश होने वाले केंद्रीय बजट के समक्ष प्रमुख एजेंडा होगा देश की अर्थव्यवस्था को मंदी की स्थिति से उबारना। सिद्धान्ततः मौद्रिक नीति और बैंकों को ही मंदी की स्थिति से आर्थिक पुनः प्राप्ति (economic recovery) में अहम् भूमिका निभानी होती है।

पर भारत के वर्तमान यथार्थ को देखते हुए, क्या बैकिंग क्षेत्र उस इंजन का काम कर पाएगा जो विकास को प्रेरित करे?

या वह अपने ही बोझ तले डूबता जाएगा और पुनःप्राप्ति (revival) की प्रक्रिया में बाधा बनकर विकास की प्रक्रिया को पीछे धकेलेगा?

इस निर्णायक प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर है कि बैंकिंग क्षेत्र के लिये निर्मला सीतारमन क्या प्रस्ताव लाएंगी।

यदि बैंक विकास-उत्तेजक मौद्रिक नीति (growth-stimulating monetary policy) की मदद लेकर कम ब्याज दर पर व्यापक क्रेडिट एक्सपेंशन की ओर बढ़ते हैं, तो वे विकास में गति लाने में अहम् भूमिका निभा सकते हैं, और जल्दी अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकाल सकते हैं। दूसरी ओर, यदि बैंक स्वयं ही दीवालिया होने के कगार पर पहुंच जाएं और अपनी कार्यात्मक आवश्यकताओं के लिए पुनर्पूंजीकरण हेतु केंद्रीय बजट से भारी फंड की मांग करें, तो बहुत बुरी स्थिति होगी। तब वे वित्तीय प्राथमिकताओं को विकृत कर विशाल बजटीय संसाधानों को उत्पादक निवेश से हटा देंगे; इस प्रकार वे विकास को पीछे ले जाने का काम करेंगे। किस ओर चीज़े बढ़ेंगी वह बैंकों के लिक्विडिटी की स्थिति और उनके एनपीएज़ की दशा पर निर्भर करेगा; और बढ़े उधार देने के लिए फंड उगाही की उनकी क्षमता पर निर्भर करेगा। आइये हम बैंकों के एनपीएज़ (NPAs) स्टेटस पर नज़र डालें :-

सरकार दावा करती है कि कुल ऋण के प्रतिशत के रूप में सकल एनपीए 2019 के अंत तक 2 प्रतिशत तक गिर गया। हाल के 2020 के लॉकडाउन और मंदी ने अवश्य इस घटने की प्रवृत्ति को पलटा होगा, पर यह कितनी तेजी से हुआ है, इसका आंकलन करने के लिए डाटा उपलब्ध नहीं है। औद्योगिक क्षत्रों के कुछ बैंकों के शाखा प्रबंधकों ने न्यूज़क्लिक के लिए बताया कि उनके क्षेत्रों में व्यवसाय-बंदी की लहर के कारण वहां बैंकों के स्तर पर एनपीएज़ इस वर्ष दूने हो जा सकते हैं। क्या सरकार ने एनपीएज़ संकट में इस ‘टर्नअराउंड’ को विधिवत स्वीकार किया? अब तक कोई विश्वसनीय नीतिगत प्रतिक्रिया नहीं दिखी।

पिछले बजट में वित्त मंत्री ने घोषणा की थी कि बैंकों के पुनर्पूंजीकरण (recapitalization) के लिए और अधिक फंड का आवंटन नहीं किया जाएगा और बैंकों को अपने आंतरिक संसाधनों की उगाही के जरिये अपना काम स्वयं चलाना होगा। फिर भी इस वित्तीय वर्ष में सरकार को पुनर्पूंजीकरण के लिए कुछ पैसा खर्च करना पड़ा क्योंकि कुछ बैंक दिवालियापन के कगार पर पहुंच चुके थे और उनके पास परिचालन निधि (operational fund) तक नहीं था। और, मंदी की वजह से दसियों हजार अर्थक्षम (viable) कम्पनियां, जिन्होंने उधार लिए थे, कर्ज तले दबे हुए थे, लोन वापस नहीं कर पा रहे थे; और उनके उधार फिर से अशोध्य कर्ज में तब्दील हो गए थे।

अब वित्तमंत्री बैंकों के एनपीए संकट को अपने बजट में कैसे संबोधित करेंगी?

एनपीए संकट के विषय में और अधिक जानने के लिए और केंद्रीय बजट से बैंकिंग क्षेत्र की अपेक्षाओं का अंदाज़ा लगाने के लिए हमने बैंक ट्रेड यूनियनों के एक प्रमुख नेता श्री डीडी रुस्तगी से बात की, जो कि ऑल इंडिया बैंक एम्प्लाईज़ यूनियन के अखिल भारतीय संयुक्त सचिव और कैनरा बैंक एम्प्लॉइज़ ऐसोसिएशन के महासचिव हैं। वे कैनरा बैंक के मैनेजमेंट बोर्ड में कर्मचारियों की ओर से प्रतिनिधि भी रहे हैं।

एनपीए ट्रेंड के बारे में श्री रुस्तगी ने कहा, ‘‘हां, 2016-17 में एनपीए 7.91 लाख करोड़ था और 2017-18 में बढ़कर 10.4 लाख करोड़ हो गया, परंतु 2018-19 में घटकर 9.36 लाख करोड़ हुआ। फिर वह सितम्बर 2019 में 7.5 लाख करोड़ तक घट गया। आखिर यह कैसे संभव हुआ? यह केवल बजट द्वारा बैंक पुनर्पूंजीकरण के माध्यम से नहीं हुआ। बैंकों ने अपने शुद्ध लाभ (net profits) से 2017 में 1.70 लाख करोड़ का प्रबंध किया, 2018 में 2.70 लाख करोड़ से अधिक का प्रबंध किया और 2019 में 2.16 लाख करोड़ का प्रबंध किया ताकि बेसेल 3 कैपिटल ऐडेक्वसी नॉम्रस (Basel III Capital Adequacy Norms) (इनका मकसद है बैंक लिक्विडिटी बढ़ाकर व बैंक लेवरेज घटाकर बैंक की पूंजी आवश्यकता को मजबूत करना) को माना जा सके। कुल मिलाकर बैंकों ने अपनी कमाई से 3 सालों में 6.5 लाख करोड़ का प्रबंध किया, जबकि सरकार द्वारा बजट से केवल 3.15 लाख करोड़ रीकैपिटलाइज़ेशन फंड का अनुमोदन किया गया था।’’

श्री रुस्तगी कहते हैं,‘‘दूसरी ओर, भारी ‘राइट-ऑफ्स (write-offs) भी किये गए जिन्हें बैंकिंग की भाषा में ‘‘हेयर-कट्स’’(“hair cuts”) कहा जाता है। कॉरपोरेट्स के 82.000 करोड़ रुपये मूल्य के बुरे ऋण 2017 में ऐसे ही बैंको द्वारा माफ कर दिये गए यानी राइट-ऑफ किये गए। 2018 में राइट-ऑफ किये गए ऋण 1.28 करोड़ थे और 2019 में 1.97 करोड़ थे। एनपीए के ‘‘घटने’’ के पीछे यही रहस्य है। और इसे घटाव का एक विशिष्ट वर्ग चरित्र भी है। बड़े कारपोरेट घराने उधारकर्ता, जिनमें प्रत्येक ने 100 करोड़ ऋण लिया था, 90 प्रतिशत राइट-ऑफ किये गए लोन के हिस्सेदार थे। पिछले 10 सालों में भी, बैंको द्वारा एनपीएज़ की आंतरिक व्यवस्था 10.96 लाख करोड़ की थी। यही कारण है बैंकों की बद्तर आर्थिक स्थिति के लिए यह प्रक्रिया ‘‘हेयर-कट्स’’ की एक श्रृंखला से शुरू हुई थी अब सिर कटाने यानी ‘बिहेडिंग’(beheading) की स्थिति तक पहुंचेगी’’

हमने श्री रुस्तगी से यह भी पूछा कि क्या सरकार बैंकों को स्वयं फंड उगाही करने को कह रही हैं ताकि बेसेल 3 कैपिटल ऐडिक्वेसी मानदंडों को लागू करके एनपीएज़ को स्वीकृत सीमा तक रखा जा सके?

इसपर श्री रुस्तगी ने कहा,‘‘बैंकों को कहा गया था कि वे ऋण वसूल करने के लिए दोषी या डिफॉल्टर (defaulter) कम्पनियों को इन्सॉल्वेंसी ऐण्ड बैंक्रप्ट्सी कोड (IBC) के तहत इन्सॉल्वेंसी प्रक्रिया (insolvency proceedings) में ले जाएं। पर जब आरबीआई ने सभी बैंकों को इस बाबत सर्कुलर जारी किया, दुर्भाग्यवश सर्वोच्च न्यायालय ने दोषी कॉरपोरेटों को, इस सर्कुलर पर स्टे लगाकर, बचा लिया। और, जब महामारी शुरू हुई, सरकार ने लोन अदायगी पर शोध विलम्बन (moratorium) घोषित किया और लॉकडाउन के नाम पर IBC के तहत इन्सॉल्वेंसी कार्यवाही को रोक दिया गया।

बैंकों ने कुछ पैसा-करीब 2 लाख करोड़-दोषी कम्पनियों से IBC कार्यवाही की धमकी देकर वसूला। पर सभी अपेक्षाकृत अर्थक्षम (viable) कम्पनियों से जबरन वसूली करने के बाद, अब अधिक दबाव डालकर भी वृद्धिशील वसूली (incremental recovery) खास परिणाम नहीं देगा, क्योंकि जो कुछ बचा है वह कबाड़ी के यहां बिकने लायक भी नहीं है।

‘‘इसी प्रकार, बैंकों से कहा गया है कि वे अधिक विनिवेश करें। जहां तक विनिवेश की बात है, सारे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को ले लें, तो उनका बाज़ार पूंजीकरण 4 लाख करोड़ से भी कम था, जबकि एचडीएफसी जैसे एक निजी बैंक का बाज़ार पूंजीकरण 8 लाख करोड़ है और कोटक महिंद्रा बैंक व ICICI जैसे बैंकों का 4-4 लाख करोड़ बाज़ार पूंजीकरण है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के शेयरों को प्रीमियम पर खरीदने को कोई तैयार नहीं है। बजट बैंकों में सरकार के दांव (stakes) को और अधिक घटाने की घोषणा कर सकता है या वसूली की प्रक्रिया शुरू करने की बात कर सकता है, पर यह सब कागज़ पर ही होगा।’’

श्री रुस्तगी का मत है कि ऐसा लगता है कि सरकार निरंतर सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों के निजीकरण की ओर बढ़ रही है। खबरों के अनुसार पिछले वर्ष नीति आयोग ने पंजाब ऐण्ड सिंध बैंक, यूको बैंक और बैंक ऑफ महाराष्ट्र के निजीकरण का सुझाव दिया था। बजाय इसके कि सरकार बैंकों को प्रात्साहित करती कि वे पुनः डिफॉल्टरों के पीछे पड़कर उनसे पैसों की उगाही करें, उसका फोकस इस ओर अधिक था कि कमजोर बैंकों को दिवालियापन की ओर धकेल दे, जिसे बैंक की भाषा में ‘‘रेज़ोल्यूशन’’ कहा जाता है। इस दिशा में सरकार विचार कर रही है कि परित्यक्त फाइनेन्सियल रेज़ोल्यूशन ऐण्ड डिपॉज़िट इन्श्योरेंस बिल 2017 (Financial Resolution and Deposit Insurance Bill 2017) को नए रूप में ले आए। इस बिल में प्रावधान है कि वित्तीय रूप से रुग्ण बैंकों को दीवालिया करार दिया जाए। पहले अस्वस्थ बैंकों को बैंक-विलय के माध्यम से अपेक्षाकृत वित्तीय रूप से अर्थक्षम बैंकों पर लादने की कोशिश हुई थी पर इससे दोनों बैंकों की वित्तीय स्थिति बिगड़ गई; तो सरकार अब चाहती है कि बुरी तरह घाटे में जा रहे बैंकों को दीवालियापन की ओर धकेल दे।

बैंक एनपीए और लोन के सुरक्षाकरण (securitization) के खतरनाक रास्ते पर बढ़ रहे हैं और उन्हें निजी परिसंपत्ति पुनर्निमाण कम्पनियों (asset reconstruction companies or ARCs) को बेचने की योजना बना रही है, जैसे कि अनिल अंबानी की कम्पनी को। इस रणनीति के तहत, बैंक, बजाय इसके कि अपने तईं सीधे डिफॉल्टर से बुरे ऋण (bad loans) की वसूली करे, उदाहरण के लिए 100 करोड़ के लोन को किसी निजी एआरसी को 30 करोड़ का बेच देगा। फिर यह ARC आईबीसी कार्यवाही के जरिये उधारकर्ता की कम्पनी की परिसमाप्ति कर अपने लिए 50 करोड़ और वसूल लेगा। इस प्रकार एनपीएज़ तो कम होंगे पर जिस हद तक वे कम होंगे, बैंकों के घाटे बढ़ेंगे और निजी ARCs के द्वारा जनता का पैसा लूटा जाएगा। इसके मायने हैं कि एनपीए संकट को हल करने से बैंकों का वित्तीय संकट हल नहीं होगा। या फिर, सरकार समस्त सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों के बुरे ऋणों को एक नवनिर्मित ‘‘बुरे बैंक’’(“Bad Bank”) को हस्तांतरित कर सकती है और यह ‘‘बुरा बैंक’’ उपरलिखित प्रक्रिया अपना सकती है। पर इस प्रक्रिया के तहत सभी सार्वजनिक क्षेत्र बैंकों के बैंलेंस शीट संदिग्ध हो जाएंगे। उनके निजीकरण से भी सरकार अधिक पैसों की उगाही न कर सकेगी।

ऑल इंडिया बैंक एम्प्लाइज़ ऐसोसिएशन के भूतपूर्व नेता और सेवानिवृत्त बैंक अधिकारी वीएसएस शास्त्री ने कहा कि सरकार के समक्ष प्रमुख ऐजेंडा है कि अर्थव्यवस्था को कैसे मंदी से उबारे। वह ऐसा तभी कर सकेगी जब वह बजट के माध्यम से सार्वजनिक निवेश बढ़ाए। आत्मनिर्भर भारत के बैनर तले जो प्रोत्साहन पैकेज यानी स्टिमुलस पैकेज घोषित किये गए वे पूर्णतया अपर्याप्त हैं और इनसे विकास पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव नहीं पड़ेगा। सरकार के पास भी नकदी की तंगी है और पिछले बजट में भी राजस्व घाटा था। वर्तमान मंदी की स्थिति में पैसा कहां से आएगा? एक ही विकल्प है-ऋण लेना। पर फिस्कल रेस्पॉन्सिबिलिटी ऐण्ड बजट मैनेजमेंट ऐक्ट के तहत उधार लेने की एक सीमा है। सरकार पहले से ही राजकोषीय घाटे के टार्गेट पर डिफॉल्टर रही है और केवल तेज गति से बढ़ती मुद्रास्फीति का जोखिम उठाकर वह वित्तीय अनुशासन भंग कर सकती है। इससे विकास और भी लड़खड़ा जाएगा और एक दुष्चक्र बन जाएगा। तो सरकार के सामने लालच होगा कि वह बैंकों पर यह दायित्व थोप दे कि वे क्रेडिट एक्सपेंशन के माध्यम से निवेश और विकास को प्रोत्साहित करें।

अर्थव्यवस्था को मंदी से बाहर निकालने के लिए मुद्रा नीति एक प्रमुख औजार है, पर वह निम्न ब्याज दर के माध्यम से क्रेडिट एक्सपेंशन के लिए अनुकूल परिस्थितियां ही पैदा कर सकता है। पर अंत में बैंकों को ही वहनीय ढंग से इस क्रेडिट एक्सपेंशन को अंजाम देना होगा। इसलिए सरकार पहले से ही बैंकों पर दबाव बना रही है कि उद्योगों के लिए, खासकर MSMEs के लिए क्रेडिट एक्सपेंड करें, पर उनके क्रेडिट-योग्यता पर ध्यान नहीं दिया जा रहा। इस प्रकार के लापरवाह क्रेडिट एक्सपेंशन से भारतीय बैकों का अपना ‘‘सब-प्राइम मोमेंट’’ आएगा, यानी एक संकट का बिंदु आ सकता है, जैसा 2008-09 में यूएस में वित्तीय मंदी या फाइनेंसियल मेल्टडाउन के दौरान हुआ था। बैंक पहले से ही असहनीय एनपीए संकट में डूबे हैं और ऐसे लापरवाह क्रेडिट एक्सपेंशन से आनेवाले भविष्य में विस्फोटक स्थिति पैदा होगी। यहां तक कि जबकि सरकार लोन गारंटी दे रही है, बैंक प्रबंधक क्रेडिट एक्सपेंशन नहीं कर रहे हैं। ज्यादा-से-ज्यादा वे कुछ अतिरिक्त लोन को मंजूरी देते हैं पर धन देते नहीं, या फिर किश्तों में देते हैं ताकि और भी घाटे में न जाएं। एक किश्त देने के बाद वे कागजों में कोई कमी निकालकर आगे की किश्तें रोक देते हैं। तो रिवाइवल की प्रक्रिया बाधित होगी।

शास्त्री कहते हैं,‘‘बैंक यूनियन की ओर से हम सरकार को बाध्य करेंगे कि ऐसे आत्मघाती प्रलोभन से बचे। हम सरकार से लड़ेंगे कि संकट हल करने का भार हमपर न लादे। हम मांग करेंगे कि सरकार एक प्रतिचक्रीय पूंजी बफर या ‘काउंटर-साइक्लिकल कैपिटल बफर’ (Counter-cyclical Capital Buffer) गठित करे ताकि बैंकों को पुनर्वित्त या रीफायनेंस किया जा सके। (इस बफर का मकसद होता है बैंकिंग क्षेत्र को उन घाटों से सुरक्षित रखना जो अर्थव्यवस्था में बढ़ते चक्रीय प्रणलीगत रिस्क से होते हैं।) हम बैंक प्रबंधनों को बाध्य करेंगे कि एक बार फिर जोरदार तरीके से विलफुल डिफॉल्टरों (wilful defaulters) के पीछे पड़ें और बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा बैंकों की पूंजी लूटने के इरादों का पर्दाफाश करें। यदि हम यह सब नहीं करेंगे, न केवल हमारे अस्तित्व को बचाना मुश्किल होगा, बल्कि आर्थिक रिवायवल का भविष्य आगे जाकर संकट में फंसेगा।’’

(लेखक श्रम और आर्थिक मामलों के जानकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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