बंगाल : क्या जंगल महल जातीय राजनीति के खेल का मैदान बनता जा रहा है?
पश्चिम बंगाल के जंगल महल इलाकों के कुर्मी समुदाय के सदस्यों ने एक बार फिर आदिवासियों के रूप में मान्यता की मांग को लेकर आंदोलन शुरू कर दिया है।
इस आंदोलन के तहत रेल, सड़क जाम व धरना दिया जा रहा है। आदिवासी समुदाय का एक हिस्सा कुर्मी आंदोलन के दावे के खिलाफ कभी खुले तौर पर, तो कभी पर्दे के पीछे विरोध करता रहा है। कई लोगों को लगता है कि अगर कुर्मी को आदिवासियों के रूप में मान्यता दे दी जाती है, तो अन्य जनजातीय समुदायों को नुकसान होने की संभावना है।
बांकुड़ा में आदिवासियों की रैली
जबकि दोनों पक्षों का तर्क है कि राज्य सरकार फैसला लेने से कतरा रही है। केंद्र में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार पर भी यही बात लागू होती है।
आदिवासी स्टेटस और उसके खिलाफ आंदोलन ने जंगलमहल, विशेष रूप से बांकुड़ा, पुरुलिया, पश्चिमी मिदनापुर और झारग्राम जिले में शत्रुतापूर्ण माहौल पैदा कर दिया है। कुछ दिन पहले रानीबांध-बंडवान सीमा के एक कुर्मी युवक ने फेसबुक पर अपनी भावनाएं व्यक्त करते हुए लिखा;
कि, "कुर्मी आंदोलन के नेता चुनाराम ज्याथा (चाचा) ने सभी कुर्मियों को आदिवासी दर्जा हासिल करने के लिए एकजुट होने के लिए कहा है; मैंने अपने जंगल महल इलाके में बंद स्कूलों के बारे में जब उनसे पूछा, तो जवाब मिला कि तुम्हारे पास कोई और काम नहीं है और क्या इसके लिए कोई आंदोलन होगा? चुनाराम गुस्से में वहां से चले गए और मुझसे कहा कि उनके पास लोगों को आंदोलन में लामबंद करने बड़ा काम है। जंगल महल में 26 अप्रैल की हड़ताल को सफल बनाया जाना जरूरी काम है।"
यह रिपोर्टर कुछ दिन पहले एक युवक से मिला था। उनके साथ उनके दोस्त सुशील हेम्ब्रम (नाम बदला हुआ) भी थे; दोनों ने आठ साल पहले कुर्ता कॉलेज से स्नातक की परीक्षा पास की थी और दोनों अभी भी बेरोजगार हैं।
हेम्ब्रम कहते हैं कि, 'इस बात से आप अनजान हैं कि 'पहचान की राजनीति के नाम पर क्या हो रहा है और क्या होगा। जंगल महल में जातिगत पहचान को लेकर दो समुदायों के बीच चल रही बहस और टकराव ने शत्रुतापूर्ण माहौल पैदा कर दिया है, जिसे अतीत में कभी अनुभव नहीं किया गया था।'' इस माहौल से आदिवासी और कुर्मी समुदाय के गरीब और मेहनतकश लोग सबसे अधिक पीड़ित हैं।"
झिलीमिली के बड़े आकार वाली आदिवासी बहुउद्देशीय सोसायटी (एलएएमपीएस) के एक बंद गोदाम के सामने खड़े होकर उन्होंने कहा कि इस गोदाम में कई लाख रुपये के केंदू के पत्ते (बीड़ी की सामग्री) बर्बाद हो गए हैं।
राज्य सरकार के आदिवासी विकास विभाग की एलएएमपीएस सहकारी समिति जंगल महल के लोगों की आजीविका की देखभाल करती थी।
"सही मायने में बांकुड़ा, पुरुलिया, पश्चिमी मिदनापुर और झारग्राम के जंगल महल इलाके में एलएएमपीएस करीब आठ साल से अस्तित्व में नहीं है। अब निजी कंपनियां पत्तियां खरीदने आती हैं। आपको जो भी भुगतान किया जाता है, उसे मजदूरी के रूप में लेना पड़ता है। इस काम में आदिवासी और कुर्मी दोनों समुदायों के लोग शामिल थे। क्या अस्मिता अधिकार आंदोलन या विरोध के बीच उनके खोए हुए रोज़गार की बात सामने आ रही है?"
हेम्ब्रम ने आदिवासी समुदायों के कुछ सदस्यों (जैसे भूमिज, शाबर, कोरा और संथाल) के बारे में बात की, जो महसूस करते हैं कि कुर्मी आंदोलन को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए, अन्यथा, वे एसटी आरक्षण में उनका हिस्सा खा जाएंगे। हालांकि, जब यह पूछा गया कि जंगल महल इलाके में आदिवासी समुदाय के युवाओं के लिए नौकरियां क्यों नहीं हैं, तो किसी नेता के पास इसका जवाब नहीं था।
राज्य में 2018 के पंचायत चुनाव से पहले कुर्मी समुदायों ने आदिवासी दर्जे के लिए आंदोलन शुरू किया था। 6 मार्च 2018 को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने बांकुड़ा के पत्रासेयर इलाके में एक सभा की थी। उसी दिन, आदिवासी कुर्मी समाज संगठन के आह्वान पर बांकुड़ा, पुरुलिया और झारग्राम में जनजातीय दर्जा के लिए विशाल सभाएँ आयोजित की गईं थीं।
सूत्रों के हवाले से, उस दिन बनर्जी ने सभा के मंच से कुर्मी आंदोलन के एक नेता अजीत महतो को बुलाया था और उनसे कहा था कि अगर वे आदिवासी का दर्जा चाहते हैं तो आंदोलन वापस ले लें। उसने उन्हें 8 मार्च को सीएम कार्यालय आने के लिए कहा था।
उनके उस भाषण के बाद कई कुर्मी नेता सीएम से मिलने पहुंचे.
कुर्मी समुदाय की एक शिक्षिका ने कहा कि, "बिना किसी शिष्टाचार के बनर्जी ने हमें बताया कि एक सर्वेक्षण शुरू हो गया है, और हमें जल्द ही आदिवासी का दर्जा मिल जाएगा। कुछ ही मिनटों में हमें कार्यालय से बाहर कर दिया गया। हम समझ गए थे कि मुख्यमंत्री अपने व्यवहार में हमें कैसे देखती हैं।" पुरुलिया से आंदोलन के नेता सीएम से मिलने वाले प्रतिनिधिमंडल के सदस्य थे। उन्होंने कहा कि उसके बाद कुछ नहीं हुआ।
"लोकसभा चुनाव के दौरान, बांकुड़ा से भाजपा उम्मीदवार सुभाष सरकार ने हमसे वादा किया था कि अगर वे जीत गए, तो इस मुद्दे को संसद में उठाएंगे। वे अब केंद्रीय शिक्षा राज्य मंत्री हैं। हम जानते हैं कि संसद में उन्होंने हमारी मांग के बारे में कुछ नहीं कहा।"
कुर्मी नेता ने इस रिपोर्टर को बताया कि कैसे कुर्मी को आजादी से पहले औपनिवेशिक जनगणना में आदिवासियों के रूप में पहचाना जाता था।
"1950 में, कुर्मी को एक सामान्य जाति माना गया था। अब, हमें ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) के रूप में माना जाता है।"
ऐसा लगता है कि आदिवासी का दर्जा वापस क्यों लिया गया, इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है। अब जब दोबारा पंचायत चुनाव होने वाले हैं तो फिर से आदिवासी दर्जा को लेकर आंदोलन शुरू हो गया है।
कुर्मी समुदाय के सदस्यों को लगता है कि वे ऐतिहासिक रूप से देश के आदिवासी हैं। इसके अलावा, जंगल महल क्षेत्रों में कुर्मी लोगों की बड़ी आबादी भी है।
बांकुड़ा में कुर्मी आंदोलन के एक नेता बादल चंद्र महतो ने कहा कि सवाल यह है कि, "क्यों कुर्मियों को आदिवासियों के रूप में मान्यता नहीं दी जानी चाहिए? हमारी तीन प्रमुख मांगें हैं। हमें एसटी सूची में शामिल किया जाए, जिससे हमें अनुचित रूप से बाहर रखा गया है। दूसरा, हम चाहते हैं कि भारत सरकार हमारी संस्कृति और विरासत को बचाने की कोशिश करे। तीसरा, हम कुर्मी भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करना चाहते हैं। इसके अतिरिक्त, अगली जनगणना में "सरना" को देसज समूहों के लिए एक अलग धर्म के रूप में शामिल किया जाना चाहिए।"
इन मांगों को लेकर कुर्मी समुदाय के कई संगठनों ने 5 से 10 अप्रैल तक रेल और सड़क मार्ग को जाम कर दिया। आंदोलन के कारण दक्षिण पूर्व रेलवे डिवीजन में 496 ट्रेनें रद्द कर दी गईं। पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव के साथ बैठक में दिए गए आश्वासन के बाद आंदोलन वापस ले लिया गया था।
"आंदोलन के बीच, हमें मुख्य सचिव हरिकृष्ण द्विवेदी और अन्य अधिकारियों के साथ बैठक के लिए बुलाया गया था। बैठक का परिणाम निराशाजनक था क्योंकि राज्य सरकार ने अभी तक जनजातीय मामलों के मंत्रालय को उनकी ओर से मांग का औचित्य नहीं भेजा है। हमें मझदार में छोड़ दिया है और नहीं पता कि सरकार क्या चाहती है।" कुर्मी समाज संगठन के एक नेता ने कहा कि जो भी हो लेकिन, आंदोलन जारी रहेगा।
आंदोलन के भविष्य के बारे में कुर्मी नेता एकमत नहीं हैं। तीन समूह हैं: आदिवासी कुर्मी समाज, पूर्वांचल कुर्मी समाज और कुर्मी समाज। ये सभी आंदोलन का सही नेतृत्व करने का दावा करते हैं।
पुरुलिया कॉलेज में इतिहास के प्रोफेसर सत्य किंकर महतो (नाम बदला हुआ) ने कहा कि, "इससे समुदाय में भ्रम की स्थिति पैदा हो रही है।"
चार जिलों में घाघोरघेरा और हुरकजंप आंदोलन के नाम पर हड़ताल का आह्वान किया जा रहा है। स्थानीय रूप से, इन शब्दों का अर्थ जबरदस्ती घेरना है।
1 मई को मिदनापुर में कुर्मी समाज की एक विशाल सभा हुई। मांग है कि कोई भी कुर्मी नेता किसी चुनाव नहीं लड़ेगा। साथ ही निर्वाचित पदों पर बैठे कुर्मी नेताओं से भी इस्तीफा देने को कहा गया है। इसके अलावा, आगामी चुनावों के संदर्भ में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के खिलाफ गुस्सा है।
1 मई को पश्चिम मिदनापुर जिले में रैली का दृश्य
आंदोलन को ध्यान में रखते हुए इलाके में कुर्मी समुदाय के सदस्य, ब्राह्मण पुजारी के बिना सामाजिक कार्यक्रम कर रहे हैं। वे सोचते हैं कि आदिवासी का दर्जा पाने के लिए उन्हें अपनी संस्कृति और धर्म का पालन करना चाहिए।
स्थिति का लाभ उठाते हुए राज्य सरकार ने कुर्मी-विशिष्ट कार्यक्रम शुरू किए हैं।
बिरखम रानीबांध के मूल निवासी दुलाली मंडी ने कहा कि, "आंदोलन और उसके खिलाफ जवाबी आंदोलनन अतिवादी, घृणित वातावरण बनाया दिया है।"
उन्होंने आगे कहा कि आदिवासियों को कुर्मी समुदाय के स्वामित्व वाले तालाबों का इस्तेमाल करने से प्रतिबंधित किया जा रहा है।
आदिवासियों में यह भावना भी बढ़ रही है कि कुछ समुदायों को संथाल समुदाय जितने अवसर नहीं मिलते हैं। इसके अलावा, टीएमसी और बीजेपी दोनों सरकारों के साथ जनता में आम हताशा है।
लेखक पश्चिम बंगाल में 'गणशक्ति' अखबार के लिए बांकुड़ा इलाक़े को कवर करते हैं।
इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।
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