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बिधूड़ी मुस्लिम विरोधी बयान : क्या इसके पीछे कोई नरेटिव है?

लोकसभा में भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी का रवैया न तो महिलाओं को और न ही पिछड़े वर्गों को सशक्त बना सकता है।
Ramesh Bidhuri
फ़ोटो: PTI

संसद में हाल में घटा ताज़ा घटनाक्रम, जिसमें वर्तमान लोकसभा सदस्य कुँवर दानिश अली को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सांसद रमेश बिधूड़ी ने "आतंकवादी" और "दलाल" कहा और साथ ही उन्होंने संसद के बाहर अली के साथ हिसाब-किताब करने की धमकी भी दी थी, जो शायद इस बात की तरफ इशारा करता है कि यह भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के किसी बड़े नेरेटिव की संरचना का हिस्सा है।

हालाँकि, हमें यहां उन सवालों और मीडिया रिपोर्टों और संपादकीय में प्रचलित बातों से अलग सवालों को उठाने तथा विश्लेषण पेश करने की ज़रूरत है। इस तरह की बार-बार होने वाली घटनाओं को अक्सर "छिटपुट घटनाओं" के रूप में पेश कर दिया जाता है जिन्हे अक्सर असामान्य मान लिया जाता है और इसलिए, उनकी निंदा करना और माफी मांगना सत्तारूढ़ दल के लिए कोई समस्या नहीं होती है।

याददापि, यह स्पष्टीकरण अब हमें ऐसी घटनाओं के सामाजिक चरित्र और नेरेटिव के वेग को समझने में मदद नहीं कर सकता है। उदाहरण के लिए, हम पूछ सकते हैं कि क्या अली के बारे में टिप्पणियाँ अनायास थीं या किसी नेरेटिव को बनाने का योजनाबद्ध प्रयास था। उत्तर जानने का कोई तरीका नहीं है, लेकिन कोई यह सवाल उठा सकता है कि इस तरह की "चौंकाने वाली घटना" से किस तरह के नेरेटिव और प्रदर्शन का संभावित परिणाम संभव है।

क्या ऐसी घटनाओं का कोई पैटर्न होता है, या वे उतनी ही अचानक घटी घटनाएं होती हैं जितना कि उन्हें बना कर पेश किया जाता है? क्या भाजपा ने ऐसे ही पिछले मौके पर माफी नहीं मांगी थी जब प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने नाथूराम गोडसे की "शहादत" का जश्न मनाया था? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उस समय कहा था कि उन्हें कभी भी माफ नहीं किया जा सकता है, लेकिन वह उनकी पार्टी की मुखर सांसद बनी हुई हैं। 

घर में गोडसे, दुनिया के सामने गांधी, एक काफी प्रसिद्ध रणनीति है, और इसके बारे में कुछ भी अचानक घटाने वाला और आकस्मिक नहीं लगता है।

क्या इससे कोई फर्क पड़ता है कि बिधूड़ी दक्षिणी दिल्ली सीट से सांसद हैं और अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) समुदाय की मान्यता प्राप्त गुर्जर जाति से हैं? क्या यह संभवतः एक ऐसी घटना है जो ओबीसी महिलाओं को कोटा दिए बिना महिला आरक्षण विधेयक से भाजपा को होने वाले संभावित चुनावी नुकसान को कम कर सकती है? क्या विभिन्न सामाजिक समूहों के बीच टकराव पैदा करके उन्हें एकजुट करना और अंततः उनके एकमात्र मध्यस्थ के रूप में काम  करना भाजपा की दीर्घकालिक रणनीति नहीं है?

क्या यह संभव है कि यहां "रणनीति" महिला मतदाताओं को एकजुट करना है - दोनों महिलाओं और फिर हिंदू जाति की वर्गों की महिलाओं के रूप में - और फिर मुसलमानों के खिलाफ समावेशिता के प्रतीक और भाजपा की आवाज के रूप में एक मर्दाना ओबीसी आवाज को पेश करना है? महिलाएं विधेयक से खुश हैं और ओबीसी बिधूड़ी की "वीरतापूर्ण" कठोरता से। विधेयक में प्रस्तावित महिलाओं के लिए आरक्षण एक दूर का वादा है, इसलिए संसद के पुरुष सदस्यों के लिए फिलहाल चिंता करने की कोई बात नहीं है या ओबीसी के लिए कोटा के बारे में तुरंत सोचने की कोई बात नहीं है।

जैसा कि मोदी ने संकेत दिया, इन सबको को हक़ीक़त बनाने के लिए एक निर्णायक बहुमत वाली मजबूत सरकार की जरूरत है। तो, यह पहियों के भीतर पहियों की एक कहानी है जो किसी के सामाजिक स्थान के आधार पर कई अर्थों के लिए खुली है। हालाँकि, महत्वपूर्ण सवाल यह है कि प्रतिस्पर्धी सामाजिक समूहों को सशक्त किए बिना, उनके बीच सामाजिक टकराब को बढ़ा कर, क्या उन्हें एकजुट करने की भाजपा की रणनीतिक क्षमता है; इस मामले में न तो महिलाओं और न ही ओबीसी को एकजुट करने की उसकी क्षमता नज़र आती है। 

तीन तलाक मामले में मुस्लिम पुरुषों को अपराधी करार दे दिया गया है और मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता नहीं मिल रहा है। कांग्रेस पार्टी ने समायोजन के माध्यम से जोड़ा था अजबकि भाजपा ने निकालकर "शामिल" करने का प्रयास किया है। ऐसी रणनीति बहुसंख्यकवादी तर्क का हिस्सा है जो हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के साथ शुरू या समाप्त नहीं होती है बल्कि जाति और लिंग संबंधों में भी घुस जाती है।

वास्तव में, कोई भी यह तर्क दे सकता है कि मुसलमानों के मुकाबले ध्रुवीकरण का तरीका जातिगत गतिशीलता और संवेदनाओं से उभरा है। जाति-आधारित भेदभाव इस मायने में अद्वितीय है क्योंकि "इंचाली जातियों” को न तो गतिशीलता की अनुमति है और न ही खुद को उस व्यवस्था से अलग करने की अनुमति है। अलगाव को धर्मांतरण-विरोध के रूप में और सशक्तिकरण को जातिवाद के रूप में तिरस्कृत किया जाता है। यह "अनुपस्थित उपस्थिति" का तर्क है कि दलित औपचारिक जाति/वर्ण व्यवस्था के बाहर रहकर जाति व्यवस्था, गतिशीलता और मानस की रूपरेखा को परिभाषित करते हैं।

भारत में सांप्रदायिकता और बहुसंख्यकवादी गतिशीलता, जाति व्यवस्था और असमानताओं के जोड़ से पैदा हुई संवेदनाओं से गहराई से प्रभावित हैं। मुसलमान भी, बिना किसी समावेश के, इस व्यवस्था का अभिन्न अंग हैं। दलित और मुस्लिम बिना समावेश के आंतरिक हैं। यही सटीक कारण है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि मुसलमानों के बिना कोई हिंदुत्व नहीं हो सकता है। हिंदुत्व और बहुसंख्यकवादी व्यवस्था को हर दिन और समय-समय पर जनमत संग्रह की जरूरत होती है। इसे हक़ीक़त बनने के लिए हर दिन इसमें शामिल होना होगा। इसके लिए दैनिक पुनरीक्षण की जरूरत है और इसे कानून द्वारा पारित नहीं किया जा सकता है या प्रथा या स्मृति के माध्यम से स्थापित नहीं किया जा सकता है, हालांकि दोनों को बहुसंख्यकवादी परियोजना को मजबूत करने के लिए भी लागू किया जाता है।

विपक्षी दलों ने संसद में असभ्यता के इस बेशर्म कृत्य की आलोचना करने में संकोच नहीं किया, जिसमें कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी शामिल हैं, जिन्होंने इसे प्रेम और करुणा की एक वैकल्पिक नेरेटिव स्थापित करने और करुणा का समर्थन करने का मिशन बना लिया है। हालाँकि यह एक राहत के रूप में आता है, क्या यह प्रमुख नेरेटिव के ज़रिए बढ़ाए जा रहे मतभेदों को संबोधित करने के लिए काफी होगा? मोहब्बत और करुणा के बारे में एक नेरेटिव अस्पष्ट है, यदि अमूर्त नहीं है। यह एक विकल्प के लिए माहौल बनाता है लेकिन चीजों को समझने के लिए एक वैकल्पिक ढांचा प्रदान नहीं कर सकता है।

विपक्ष, भाजपा की रणनीति के भीतर मौजूद सूक्ष्म नेरेटिव को व्यक्त करने और उनका मुकाबला करने में विफल हो रहा है। भाजपा को ऐसा क्यों लगता है कि वह पहलवानों के साथ छेड़छाड़ के मामलों और मणिपुर में महिलाओं की परेड के मामले में महिलाओं के प्रति उदासीन हो सकती है, फिर भी वह "बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ" नारे का दावा करती रहती है और उसके बाद महिला आरक्षण विधेयक पेश करती है? वह महिलाओं के लिए ओबीसी कोटा की भी उपेक्षा कर सकती है लेकिन बिधूड़ी की आपत्तिजनक टिप्पणियों से इसका मुकाबला कर सकती है।

शायद यह इसलिए संभव है क्योंकि भाजपा इसे जीवंत नेरेटिव के चश्मे से देखती है और बिंदुओं को जोड़ती है, जिससे उसे नेरेटिव पर नियंत्रण का लाभ मिलता है, जबकि विपक्ष के पास केवल सबूतों के आधार पर बुलेट पॉइंट होते हैं और प्रत्येक घटना को एक अलग घटना के रूप में देखते हैं यहां तक कि वे हर घटना को एकदूसरे से अलग कर देखते हैं। 

यह स्थिति, विपक्ष के भीतर स्पष्टता और दृढ़ विश्वास दोनों की कमी को प्रतिबिंबित करता है क्योंकि इसे एक अधिक परिवर्तनकारी राजनीति की पेशकश करनी होगी, जिसे वर्तमान सीमाओं को पार करना होगा। भाजपा खुद को अधिक "प्रगतिशील" नेरेटिव के अग्रदूत के रूप में पेश करके आगे बढ़ी है और लैंगिक प्रश्न, मुसलमानों के भीतर जाति के मुद्दे और हिंदुओं के भीतर उप-जातियों के सवाल को उठाकर इसका फायदा उठाने की की कोशिश की है - भले ही उसने केवल बड़ी और सामान्य हिंदू पहचान को ही अपील किया है।

विपक्ष को आम-चर्चा पार्ट नियंत्रण पाने के लिए इसकी शर्तों को बदलना होगा, लेकिन फिलहाल, वह तदर्थ तरीके से जवाब देकर जगह तलाशने के लिए सावधानी से कदम बढ़ा रहा है।

लेखक, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फ़ॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं। व्यक्त विचार निजी हैं। उनकी नई किताब, पॉलिटिक्स, एथिक्स, इमोशन्स इन 'न्यू इंडिया', हाल ही में रूटलेज द्वारा प्रकाशित की गई थी।

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