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बिहारः आशाओं का मानदेय बढ़ाने समेत अन्य मांगों को लेकर राज्य के पीएचसी केंद्रों पर प्रदर्शन

आशा कार्यकर्ताओं के प्रति राज्य सरकार की उदासीनता और पीएचसी में बीसीएम की घूसखोरी के ख़िलाफ़ राज्यव्यापी आंदोलन के तहत राज्य के 150 से ज़्यादा पीएचसी केंद्रों पर दो दिनों का धरना-प्रदर्शन किया गया।
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महासंघ गोप गुट और ऐक्टू से संबद्ध बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ के आह्वान पर आशाओं की लंबित मांगों को लेकर राज्यव्यापी आंदोलन के तहत दो दिनों का धरना-प्रदर्शन राज्य भर में 28, 29 सितंबर को किया गया और मांगों से संबंधित मांगपत्र चिकित्सा प्रभारी को सौंपा गया। आशा कार्यकर्ताओं के प्रति सरकार की उदासीनता और पीएचसी में बीसीएम की घूसखोरी के ख़िलाफ़ इस आंदोलन के तहत राज्य के 150 से ज़्यादा पीएचसी केंद्रों पर धरना-प्रदर्शन किया गया। राज्य भर की आशा कार्यकर्ताओं ने बड़ी संख्या में इस आंदोलन में हिस्सा लिया और अपनी मांंगों को उठाया।

आशाओं का कहना है कि यदि महागठबंधन के घोषणापत्र के मुताबिक़ मासिक मानदेय की घोषणा नहीं हुई तो राज्यव्यापी निर्णायक हड़ताल की जाएगी।

न्यूज़क्लिक से बातचीत में आशा आंदोलन की नेता और बिहार राज्य आशा कार्यकर्ता संघ (गोप गुट, ऐक्टू) की अध्यक्ष शशि यादव ने कहा कि हमने राज्य के उपमुख्यमंत्री सह स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव को आशा कार्यकर्ताओं की मांगों को लेकर ज्ञापन दिया है और मांग की है कि महागठबंधन के चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को जल्दी लागू किया जाए।

उन्होंने कहा कि भाजपा के मंत्री ने मासिक मानदेय का नामाकरण करते हए प्रोत्साहन राशि कर दिया जिसे बदला जाना चाहिए और इस शब्द को हटाकर मानदेय या वेतन कहा जाए। साथ ही उन्होंने कहा कि जीने लायक मासिक मानदेय की घोषणा सरकार को जल्द करनी चाहिए।

शशि यादव ने कहा कि सरकार अगर आशाओं-आशा फैसिलिटेटर की मांगों को पूरा नही करती है तो हम अनिश्चितकालीन हड़ताल पर जाने को मजबूर होंगे। इसकी लिखित सूचना जल्द ही विभाग को दी जाएगी।

यादव ने बातचीत में कहा कि आशाओं के मासिक मानदेय को एक हज़ार रुपये से बढ़ाकर 10 हजार रुपये किया जाए। वहीं वित्तीय वर्ष 19-20 से बकाया (अप्रैल,19 से नवंबर,20) राशि का भुगतान जल्द से जल्द किया जाए। साथ ही उन्होंने मांग की कि आशा कार्यकर्त्ताओं के जन्म तिथि में गड़बड़ी के चलते प्रोत्साहन राशि को रोकने और सेवा से हटाने की कार्रवाई पर रोक लगाई जाए।

उन्होंने कहा कि कोरोना के दौरान जान जोखिम में डालकर काम करने वाली आशाओं-फैसिलिटेटरों को 10 हजार रुपया कोरोना भत्ता दिया जाए। साथ ही आशाओं को दिए जाने वाले पोशाक (साड़ी)के साथ ब्लाउज, पेटीकोट तथा ऊनी कोट की व्यवस्था की जाए और इसके लिए पैसे का भुगतान किया जाए और फैसिलिटेटर के लिए भी पोशाक का निर्धारण और उसकी राशि के भुगतान की व्यवस्था किया जाए।

उन्होंने यह भी मांग की कि फैसिलिटेटरों को 20 दिन की जगह पूरे महीने के भ्रमण भत्ते का भुगतान किया जाए। और कोरोना से जिन आशाओं की मृत्यु हो गई है उनको राज्य योजना का 4 लाख और केंद्रीय योजना का 50 लाख रुपया के बीमा राशि का शीघ्र भुगतान किया जाए।

उन्होंने कहा कि आशा कार्यकर्ताओं को कम से कम 21 हजार रूपये प्रतिमाह मानदेय दिया जाए और स्वास्थ्य विभाग का कर्मचारी घोषित किया जाए क्योंकि वो हेल्थ सिस्टम सबसे अहम कर्मचारी के रूप में काम कर रही हैं। पूरा अस्पताल इन्हीं की बदौलत चल रहा है तो उन्हें स्वास्थ्य विभाग के चौथे दर्जे के कर्मचारी के रूप में मान्यता दिया जाए। उधर कोरोना काल में इन आशाओं को बिहार सरकार ने अपने फंड से एक रुपया भी नहीं दिया है जबकि केंद्र सरकार ने भी सिर्फ चार पांच महीन मात्र चार सौ रुपये की मामूली रक़म दी है जो बहुत ही कम है। डब्ल्यूएचओ के साथ साथ सुप्रीम कोर्ट से लेकर हाईकोर्ट तक आशाओं के काम की सराहना की है। लेकिन बिहार सरकार सिर्फ खोखली बधाई दे रही है लेकिन उनका पारिश्रमिक नहीं दे रही है। नीतीश कुमार ने उन्हें पारिश्रमिक देने की बात भी स्वीकार की थी लेकिन बिहार सरकार ने एक रुपया भी नहीं दिया।

यादव ने कहा कि आशा कार्यकर्ताओं को मासिक भुगतान नहीं दिया जाता है। उन्हें कार्यक्रम आधारित पैसे दिए जाते हैं। इनसे उन्हें तीन से चार हज़ार रुपये का मामूली आय होती है जो एक परिवार चलाने के लिए बेहद कम है। किसी किसी महीने तो इससे भी कम होता है जिससे उनके सामने आर्थिक संकट की समस्या बरकरार रहती है। सरकार उन्हें न श्रमिक की मान्यता दे रही है और न ही कर्मचारी की। राज्य में क़रीब 90 हज़ार आशा कार्यकर्ता हैं जो राज्य के स्वास्थ्य विभाग में महत्वपूर्ण कार्यों को अंजाम दे रही हैं।

गोपालगंज आशा कार्यकर्त्ता संघ(गोपगुट-ऐक्टू) की अध्यक्ष सीता पाल ने न्यूज़क्लिक से बातचीत में कहा कि जिले के कुछ प्रखंड के पीएचसी हैं जिनमें आशा कार्यकर्ताओं के साथ पीएचसी केंद्रों पर डॉक्टर और मेडिकल स्टाफ द्वारा भेदभाव किया जाता है। उन्होंने कहा कि 'पीएचसी केंद्रों पर प्रसूता को लाने का कोई समय नहीं होता है। प्रसूता को जब समस्या होती है या प्रसव का समय होता है तब उन्हें आशा कार्यकर्ता अस्पताल लाती हैं। रात हो या दिन चौबीसो घंटे वे अपने काम को लेकर मुस्तैद रहती हैं लेकिन जब वो अस्पताल आती हैं तो उन्हें बैठने या आराम करने के लिए कोई जगह नहीं होती है। उनके लिए कोई कमरा नहीं है। जब वे किसी की कुर्सी पर बैठ जाती हैं तो उन्हें उठा दिया जाता है। इतना ही नहीं उन्हें आरओ का पानी तक पीने नहीं दिया जाता है। उन्हें कहा जाता है कि आरओ आशाओं के लिए नहीं है।'

बता दें कि बिहार के उप मुख्यमंत्री-सह-स्वास्थ्य मंत्री तेजस्वी यादव के नाम राज्य की आशा कार्यकर्त्ताओं-फैसिलिटेटरों की ज्वलंत मांगों को लेकर एक सप्ताह पहले बिहार राज्य आशा कार्यकर्त्ता संघ (गोपगुट-ऐक्टू) की ओर से ज्ञापन दिया गया था।

ज्ञापन में कहा गया था कि राज्य के ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की बुनियाद के रूप में आशा कार्यकर्त्ता- फैसिलिटेटर 2005 से सेवा दे रही हैं। इनकी सेवाओं का नतीजे में सरकारी संस्थागत प्रसव की दर में उल्लेखनीय स्तर तक वृद्धि हुई है। वहीं मातृ-शिशु मृत्यु दर में राष्ट्रीय स्तर पर प्रसंशनीय कमी के अलावा कई उपलब्धियां हासिल हुई हैं। इतना ही नहीं, प्रसव-पूर्व तथा प्रसवोत्तर सहित अन्य टीकाकरण कार्य भी नियमित संचालित किया जा रहा है। इसके साथ ही, समय समय पर सरकार द्वारा सौंपे गए कार्य भी उनके द्वारा काफी परिश्रम के साथ किए जाते हैं।

उपमुख्यंत्री को दिए ज्ञापन में कहा गया कि यह पूरी दुनिया जानती है कि कोरोना महामारी के दरम्यान भी महामारी संबंधी विभिन्न कार्यक्रम को भी इन्होंने अपनी जान जोखिम में डाल कर पूरी मुस्तैदी व लगन के साथ पूरा किया है। इस दौरान कई आशाओं को अपनी जान भी गंवानी पड़ी है। वैश्विक संस्था विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इनके कार्यों की प्रशंसा की है लेकिन दुःख की बात है कि उनकी समस्याओं के समाधान नहीं किया गया। साथ ही यह कहा गया कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र स्तर पर इनके भुगतान में विभिन्न तरीक़ों से कमीशनखोरी व भ्रष्टाचार की शिकायतें लगातार मिलती रही जिसे समाप्त करने की ज़रूरत है।

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