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बजट 2023-24 : क्यों ये बजट दलितों, आदिवासियों और ग़रीबों की अनदेखी करता है?

"मनरेगा के लिए इतना कम आवंटन स्पष्ट रूप से इस कानून की हत्या की तरफ इशारा करता है। यह आवंटन न्यूनतम सीमा को भी पूरा नहीं करता है। देश के दलितों, आदिवासियों और सबसे गरीब तबकों के लिए जीवनरेखा बनी मनरेगा के बजट में कटौती निराशाजनक है।"
MNREGA
प्रतीकात्मक तस्वीर। PTI

देश में आज तक जितनी भी सरकारें आई हैं वे हेमशा दलितों और आदिवासियों के साथ सदियों से हुए शोषण को स्वीकार करती रही हैं और इन तबकों के लिए चुनिंदा सकारात्मक कार्रवाई का प्रावधान किया जाता रहा है। लेकिन मोदी सरकार इस मामले में बिल्कुल अनोखी है जिसने दलितों और आदिवासियों के लिए बनी योजनाओं में या तो बजट प्रावधान कम कर दिया है या फिर उन्हें समाप्त ही कर दिया है।

वित्तीय वर्ष 2022-23 के लिए अनुसूचित जाति (एससी) के लिए आवंटन 1,42,342.36 करोड़ रुपये था जबकि अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए यह 89,265.12 करोड़ रुपये था। हालाँकि, कुल बजटीय आवंटन में से केवल 37.79 प्रतिशत यानी 53,794.9 करोड़ रुपये एससी लक्षित योजनाओं के लिए थे, जबकि 43.8 प्रतिशत यानि 39,113 करोड़ रुपये एसटी लक्षित योजना के लिए आवंटित किए गए थे। आपको बता दें कि लक्षित योजनाएँ वे योजनाएँ हैं जो अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति समुदाय को सीधे लाभ पहुँचाती हैं और विशेष रूप से उनके लिए हैं।

नीति आयोग के दिशा-निर्देशों के अनुसार अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कल्याण के लिए आवंटन जनसंख्या के अनुपात में करना अनिवार्य है, हालांकि इस वर्ष भी आवंटन जनसंख्या के अनुपात में नहीं किया गया है, इसलिए एससी और एसटी बजट में क्रमश: 40,634 करोड़ रुपये और 9,399 करोड़ रुपये का अंतर मौजूद है।

दलितों, आदिवासियों और गरीबों के लिए बनी ग्रामीण रोज़गार योजना में कटौती

महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) योजना जिसे ग्रामीण रोज़गार पैदा करने के लिए तैयार किया गया था उसके बजट में भी भारी कटौती की गई है और केंद्रीय बजट में 2023-24 के लिए इस योजना में केवल 60,000 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं जो चालू वर्ष के 73,000 करोड़ रुपए के बजट अनुमान से 18 प्रतिशत कम है, और योजना के ₹89,000 करोड़ के संशोधित अनुमान से 33 प्रतिशत कम है।

जैसा कि सर्वविदित है कि वित्त मंत्री ने पिछले बजट में मनरेगा आवंटन में 25 प्रतिशत की कटौती की थी और उसे 73,000 करोड़ रुपये कर दिया था जबकि ग्रामीण विकास मंत्रालय ने योजना में कमी को पूरा करने के लिए अतिरिक्त 25,000 करोड़ रुपये की मांग की थी। वित्त मंत्रालय ने केवल ₹16,000 करोड़ रूपये की मंज़ूरी दी थी जो वित्तीय वर्ष के संशोधित बजट को ₹89,000 करोड़ तक ले गया था।

ऊपर दिए गए संसोधित अनुमानों के बावजूद, मनरेगा के तहत कार्यरत 3 प्रतिशत से भी कम परिवारों को 100 दिनों का काम मिला, जिसके कि वे कानूनी रूप से हकदार हैं। इस वित्तीय वर्ष में प्रति परिवार रोज़गार के औसत दिन पांच साल के निचले स्तर पर हैं। 20 जनवरी तक, प्रति परिवार को जो रोज़गार प्रदान किया गया है उसके औसत दिन केवल 42 दिन रहे हैं जबकि पिछले चार वर्षों में यह 48 से 52 दिनों के बीच ही रहा है।

जैसा कि पीपुल्स एक्शन फॉर एम्प्लॉयमेंट गारंटी और मनरेगा संघर्ष मोर्चा के तहत काम करने वाले कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों तथा विपक्षी राजनीतिक दलों का मानना है कि, कानूनी रूप से गारंटीकृत 100 दिनों के काम को यदि सभी परिवारों को देना है तो इसके लिए चालू वर्ष में मनरेगा योजना के तहत 2.72 लाख करोड़ रुपये के आवंटन की जरूरत है। एक अनुमान के अनुसार यदि प्रत्येक सक्रिय परिवार को केवल 40 दिनों का काम दिया जाता है तब भी मौजूदा बजट में 1.24 लाख करोड़ रुपये के आवंटन की ज़रूरत होगी।

इसलिए मनरेगा के लिए इतना कम आवंटन स्पष्ट रूप से इस कानून की हत्या की तरफ इशारा करता है। यह आवंटन न्यूनतम सीमा को भी पूरा नहीं करता है। देश के दलितों, आदिवासियों और सबसे गरीब तबकों के लिए जीवनरेखा बनी मनरेगा के बजट में कटौती निराशाजनक है और ये इन तबकों की बदहाली का कारण बनेगी। इसलिए मांग-आधारित योजना होने के बावजूद भी यह कटौती बहुत ही क्रूर है। नरेंद्र मोदी सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि यह मनरेगा ही थी जिसने महामारी के दौरान भुखमरी को दूर करने में मदद की थी। इसलिए इस योजना के साथ किसी भी किस्म का खिलवाड़ गरीबी और बदहाली को और अधिक बढ़ाएगा और देश में दलितों और आदिवासी तबकों की तरक्की में बाधा पहुँचाने का काम करेगा। 

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