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चीन को एंग्लो-सैक्सन नज़रिए से नहीं समझा जा सकता

आख़िर अमेरिका या पश्चिमी देशों के लिए चीन पहेली क्यों बना हुआ है? चीन उन्हें समझ क्यों नहीं आता? ‘हैज चाइना वॉन' किताब लिखने वाले सिंगापुर के लेखक किशोर महबूबानी के अनुसार "चीन को जब तक एंग्लो-सैक्सन दृष्टिकोण से देखा जाएगा तब तक चीन समझ में नहीं आएगा। उसके लिए एक किस्म की एशियाई दृष्टि चाहिए।"
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फोटो साभार: REUTERS

"अपने चार हज़ार साल के चीन के इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले 40 साल जैसा खुशहाल वक्त कभी नहीं रहा। आज चीन दुनिया के सबसे ज़्यादा उम्मीदों से भरा देश है। जिस कम्युनिस्ट पार्टी के कारण चीन में सम्पन्नता आई है मेरे ख्याल से अगले सौ सालों तक चीन में कोई उसका बाल बांका भी नहीं कर सकता।"

जुलाई माह में जबसे चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने शताब्दी समारोह की शुरुआत की है तब से अमेरिका सहित पश्चिमी देशों ने एक प्रोपेगेंडा युद्ध जैसा छेड़ रखा है। प्रिंट, इलकेट्रॉनिक व सोशल मीडिया पर निरंतर चीन को लेकर दुष्प्रचार जारी है। एक जमाने में अमेरिका सहित पश्चिमी देश सोचा करते थे कि जिस प्रकार चीन ने अपनी अर्थव्यस्था को बाहरी दुनिया के लिए खोला है और बाहरी पूंजी वहां आने लगी है, उसी के अनुकूल चीन को अपने यहां राजनीतिक सुधार लाना होगा। अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की प्रतिक्रिया राजनीति में भी होगी और अंततः चीन में भी अमेरिकी या इंग्लिश ढंग के बुर्जुआ लोकतंत्र को जन्म देगा।

चीन को लेकर पश्चिमी देश आलोचना करते हैं कि वहां पश्चिमी ढंग का लोकतंत्र नहीं है, एक पार्टी का तानाशाहीपूर्ण शासन है जिससे समाज ठहर सा गया है, आगे नहीं बढ़ पा रहा है। लेकिन पिछले सात दशकों का इतिहास इन आलोचनाओं को पूरी तरह खारिज करता है।

1971 से 2016 तक यानी लगभग आधी सदी तक चीन व अमेरिका के संबंध ठीक ठाक रहे। पश्चिमी व अमेरिकी देशों के विशेषज्ञ यह अनुमान व्यक्त करते थे कि निरंकुश व तानाशाही शासन के कारण चीन की जनता में विक्षोभ पैदा होगा। लेकिन हार्वड-कैनेडी स्कूल के 2003 में किए एक अध्ययन के अनुसार चीन की 86 प्रतिशत जनता का समर्थन कम्युनिस्ट पार्टी के शासन को था। 2016 में हुए दोबारा अध्ययन में यह समर्थन घटने की बजाए बढ़कर 93 प्रतिशत हो गया। चीनी सरकार के प्रति संतुष्टि का भाव ग्रामीण व कस्बाई इलाकों में अधिक बढ़ा है। यह संख्या 43.6 प्रतिशत से बढ़कर 70.2 प्रतिशत हो चुका है। विशेषकर कम आय वाले लोगों में यह समर्थन अधिक देखा गया। यह समर्थन इन समूहों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता, शिक्षा तथा अन्य सामाजिक सेवाओं के साथ-साथ सरकारी पदाधिकारियों की तत्परता व सरोकारों से बढ़ा है। दरअसल चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की जड़ें चीनी जनता में बहुत गहरी हैं। इन्हीं वजहों से चीन आत्मविश्वास से भरा हुआ मुल्क है।

लेकिन आखिर अमेरिका या पश्चिमी देशों के लिए चीन पहेली क्यों बना हुआ है? चीन उन्हें समझ क्यों नहीं आता? ‘हैज चाइना वॉन' किताब लिखने वाले सिंगापुर के लेखक किशोर महबूबानी के अनुसार "चीन को जब तक एंग्लो-सैक्सन दृष्टिकोण से देखा जाएगा तब तक चीन समझ में नहीं आएगा। उसके लिए एक किस्म की एशियाई दृष्टि चाहिए।"

देंगे श्याओपिंग द्वारा किए गए सुधार

1978 में जब श्याओपिंग ने चीन की सत्ता संभाली तो उनका यही कहना था कि चीन जितनी तेजी से प्रगति कर रहा है उसे और ज्यादा तेजी से करना चाहिए। इसके बाद उन्होंने दो ऐसे परिवर्तन किए जैसे उस काल में पूरी दुनिया में कहीं भी नहीं किए जा रहे थे। पहला था बाजार की भूमिका अर्थात निजी क्षेत्र के लिए स्पेस। अर्थव्यवस्था में सिर्फ राज्य की ही भागीदारी न रहे, प्लान का ही महत्व नहीं रहे बल्कि दूसरे स्वरूपों को भी जगह मिले। दूसरा परिवर्तन श्याओपिंग ने किया की चीन को दुनिया से और अधिक से अधिक जोड़ दिया। अब तक कम्युनिस्ट पार्टी का जो इतिहास और परंपरा रही है उसमें ये दोनों परिवर्तन शामिल करना आसान नहीं था। इन दोनों बदलावों के चलते चीन ने जिस तरह से प्रगति की उसने उसे सही साबित किया। इस किस्म के खतरों से भरे फैसले वही पार्टी ले सकती थी जो जानती है कि वह अधिकांश जनता की आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करती है। उसी से अपनी वैधता प्राप्त करती है।

चीन से हर वर्ष 12-13 करोड़ लोग बाहर जाते हैं

अमेरिका व यूरोपीय देशों को लगता है ही कि चीन में अभिव्यक्ति की आज़ादी नहीं है, उन्हें अपनी राय रखने की स्वतंत्रता नहीं है। लेकिन ये बात सच नहीं है। 1980 में चीन के लोगों के पास कोई अवसर उपलब्ध नहीं था कि वे कहां रहेंगे? क्या पहनेंगे? क्या पढ़ेंगे? लेकिन आज अपेक्षाकृत चीन में बहुत आज़ादी है। चीन से प्रति वर्ष 12 से 13 करोड़ लोग अपने देश से बाहर जाते हैं। यदि चीन में ऐसी बुरी स्थिति रहती तो क्या बाहर गए ये चीनी दोबारा अपने देश वापस लौटते? सिर्फ अमेरिका के विश्विद्यालयों में लगभग 4 हजार चीनी छात्र पढ़ते हैं। ठीक इसी प्रकार इंग्लैंड को अपने विश्विद्यालयों में सबसे अधिक आमदनी होती है तो वह चीन से क्योंकि वहां काफी संख्या में चीनी छात्र पढ़ते हैं।

दरअसल यूरोप व अमेरिका के देश न तो चीन और न ही कम्युनिस्ट पार्टी को समझ पाते हैं। उनकी जानकारी इतनी सीमित है कि चीन की बहुत सारी बातों का भान ही नहीं होता।

तीन पश्चिमी आधारों पर चीन का मूल्यांकन

पश्चिम व अमेरिका खुद को दुनिया का केंद्र समझता है। उनके अनुसार बाकी दुनिया को भी हमारे अनुकूल होना चाहिए। 1945 के बाद से तीन पैमानों के आधार पर दुनिया के देशों को मापना शुरू किया। इसमें सार्विक मताधिकार, बहुदलीय लोकतंत्र तथा कानून का शासन शामिल है। अमेरिका व पश्चिम के देश बाकी सभी देशों को इसी तराजू पर तौलते हैं। उनके पैमानों से भिन्न भी कोई पैमाना हो सकता है जिसे वे स्वीकार करने को ही तैयार नहीं होते। लेकिन यदि इन्हें ही आधार बनाया जाए तो 1918 से लगभग 1945 तक अधिकांश यूरोपीय देशों में लोकतंत्र या सार्विक मताधिकार नहीं था। इंग्लैंड में 1928 में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त हुआ, फ्रांस ने 1945 में सार्विक मताधिकार लागू किया और सबसे पुराना लोकतंत्र कहे जाने वाले संयुक्त राज्य अमेरिका ने अश्वेत लोगों को वोट देने का अधिकार साठ के दशक में दिया। अतः जो देश खुद हाल तक अपने बनाए पैमानों पर खरे नहीं उतरते थे वह खुद दूसरों पर अपने पैमाने थोप रहे हैं। आखिर चीन जैसा चार हजार साल पुरानी सभ्यता वाला देश अमेरिका सरीखे मात्र 250 वर्ष के युवा देश के मानकों से कैसे एडजस्ट कर लेगा? सब कुछ इतना आसान नहीं है।

पिछले 70 सालों के दौरान चीन ने जैसा कि चीनी विशेषज्ञ मार्टिन जैक कहते हैं, "चीन में प्रकाश की गति से प्रगति व बदलाव आए हैं। चीन ने इतने तेज विकास को संभाल लिया। इसी चीन में महज एक पार्टी का ठहरा हुआ निरंकुश शासन होता, जैसा कि यूरोपीय देश व अमेरिका आरोप लगाते हैं, तो यह क्या सम्भव हो पाता?"

सन 1800 तक चीन एक सशक्त मुल्क था

यदि चीन या एशिया का इतिहास देखें तो पिछले दो सौ साल तक पश्चिमी देशों का वर्चस्व रहा है। उसके पूर्व यानी सन 1800 ई. तक दुनिया पर एशिया के देशों खासकर चीन व भारत सबसे प्रमुख देशों में गिने जाते थे। खासतौर से चीन दुनिया के सबके आगे बढ़े मुल्कों में गिना जाता था। चीन जब सबसे ताकतवर देशों में शुमार किया जाता था तो उस दौरान कभी भी किसी दूसरे देश को गुलाम बनाने व कब्जा करने का कोई उदाहरण नहीं है। ठीक उसी प्रकार लगभग एक शताब्दी के अपमान के बाद चीन महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर है। इस वक्त भी उसने किसी देश को अपना उपनिवेश बनाने की ख्वाहिश नहीं जाहिर की है। अंतराष्ट्रीय मामलों के कई जानकारों का मानना है कि चीन के विश्व पटल पर आने के साथ ही दो शताब्दियों के पश्चिम के दबदबे का दौर भी समाप्त हो गया है। पिछले दिनों इंग्लैंड में जी-7 देशों की बैठक के दौरान होने वाली परिचर्चाओं में चीन ने जितनी जगह घेरी है जिससे कुछ देश थोड़े बौखलाए हुए से लगे। इससे आने वाले बदलाव के संकेतों को समझा जा सकता है।

आज अमेरिका चीन को पूर्वी एशिया में घेरने का प्रयास कर रहा है। अमेरिका के अलावा इंग्लैंड सहित अन्य देशों ने अपनी जंगी बेड़ो को तैनात किया है। उससे उन्होंने चीन को नियंत्रण में रखने की रणनीति तैयार की है। सैन्य मामलों में अमेरिका अभी चीन से काफी आगे है। यदि अमेरिका के पास 6000 न्यूक्लियर मिसाइलें हैं तो चीन के पास 300 मिसाइलें। लेकिन चीन के पास नाभिकीय अस्त्र-शस्त्र हैं। यदि युद्ध हुआ तो कोई भी पक्ष विजयी न होगा। दोनों में ध्वंस होगा। अमेरिका के कम से कम 15 से 20 शहर मटियामेट होकर अस्तित्वहीन हो जाएंगे।

अमेरिका सीआईए द्वारा वित्तपोषित संस्था 'नेशनल इन्दौमेन्ट फॉर डेमोक्रेसी' के माध्यम से हॉन्गकॉन्ग में तथाकथित लोकतंत्र समर्थकों को फंडिंग करती रही है। कुछ वर्षों पहले उसका जो बजट 6 लाख डॉलर था वह अब बढ़कर 20 लाख डॉलर हो चुका है।

हॉन्गकॉन्ग, ताइवान, झिंझियांग आदि देशों द्वारा लोकतंत्र की आड़ में सामरिक रूप से चीन को घेरने का प्रयास किया जा रहा है।

लेकिन चीन सेना की बजाए इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट पर जोर दे रहा है। वह बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के जरिए व्यापार के अमेरिकी रूटों की ओर अपनी निर्भरता कम कर ही रहा है। दुनिया के अधिकांश देशों के साथ सीधे जुड़ाव होने के कारण एक दूसरे की ओर निर्भरता बढ़ेगी। चीनी रणनीतिकारों के अनुसार सेना और उस पर व्यय के बजाय यह उनके लिए ज्यादा फायदेमंद होगा। वैसे भी चीनी कहावत के अनुसार सबसे अच्छा युद्ध वही होता है जिसमें बगैर रक्त बहाए जीत हासिल की जाती है। अमेरिका सोवियत संघ की तरह चीन को रोकने के नाम पर जिस तरह से बेतहाशा खर्च कर रहा है वह उसके लिए बोझ बनता जा रहा है। वैसे भी 50 प्रतिशत अमेरिकी जनता की हालत बहुत खराब है। पिछले तीस सालों से उनकी आमदनी में इजाफा होने के बजाए घटता जा रहा है। एक अर्थशास्त्री के अनुसार, "अमेरिका में गोरे लोगों वाला मज़दूर वर्ग निराशा के समुद्र'' में जा चुका है।

वहीं दूसरी ओर चीन निराशा के बजाए उम्मीद से भरे देश के रूप में गिना जा रहा है। किशोर महबूबानी के अनुसार, "अपने चार हजार साल के चीन के इतिहास में कम्युनिस्ट पार्टी के पिछले 40 साल जैसा खुशहाल वक्त कभी नहीं रहा। आज चीन दुनिया के सबसे ज्यादा उम्मीदों से भरा देश है। जिस कम्युनिस्ट पार्टी के कारण चीन में सम्पन्नता आई है मेरे ख्याल से अगले सौ सालों तक चीन में कोई उसका बाल बांका भी नहीं कर सकता।"

(अनीश अंकुर स्वतंत्र लेखक हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)

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