संविधान दिवस के नाम पर मनु के विचार की जयकार
हमने अपने देश की स्वाधीनता एक लम्बी लड़ाई के बाद हासिल की है जिसमें देश के सभी समुदायों ने अपना योगदान दिया है। इस लम्बे और बलिदानों से भरे स्वाधीनता आंदोलन में हम केवल अंग्रेजों के खिलाफ ही नहीं लड़ रहे थे बल्कि मंथन की इस प्रक्रिया में भी जुटे थे कि आज़ाद भारत कैसा होगा। देश की असंख्य व विविधता पूर्ण आंखें एक साझा सपना देख रहीं थी कि आज़ाद देश में नागरिकों का जीवन कैसा होगा।
कुछ अपवादों को छोड़ कर इस सपने में स्वाधीन भारत में नागरिको की समानता की आशा एक मुख्य धागा थी जो सबको इतने बड़े भू-भाग को एक देश में जोड़ रहा थी। इन सपनों की परिणति है हमारा संविधान, जो आज़ादी के बाद देश ने अपनाया। देश का संविधान स्वाधीनता आंदोलन की एक धरोहर है जिसका मुख्य आधार है समानता, धर्मनिरपेक्षता, सम्प्रुभता, समाजवाद और लोकतंत्र।
यह हमारा संविधान है जो हमारे लोकतंत्र को मज़बूत और खूबसूरत बनाता है। यह केवक एक पुस्तक नहीं बल्कि देश के नागरिकों का जीवन है। यह हमारी स्वाधीनता आंदोलन का परिणाम है जिस पर हमें गर्व है कि आज़ादी के तुरंत बाद हमारे देश ने राजनितिक तौर पर सबको बराबर मानते हुए सार्वभौमिक व्यस्क मताधिकार का प्रावधान किया। इतिहास गवाह है कि विश्व में कई मज़बूत और तथाकथित विकसित देशों ने भी अपने सभी नागरिकों को मताधिकार नहीं दिया था। अपने आप को लोकतंत्र का मॉडल घोषित करने वाले अमेरिका में भी सभी को मताधिकार एक साथ नहीं मिला। महिलाओं को मत के अधिकार के लिए लम्बी लड़ाई लड़नी पड़ी और 1920 में जाकर उनको मत का वैधानिक अधिकार मिला। इसके बाद भी अश्वेतों को मताधिकार नहीं मिला और कई तरह की बाधाओं से उनको लोकतंत्र से महरूम किया गया। कई संघर्षो के बाद वर्ष 1964 में उनको मताधिकार दिया गया। यह केवल उदाहरण है जो हमें अपने देश के लोकतंत्र की खूबी को बताता है।
हालांकि हमारे यहां भी यह अधिकार आसानी से सबको नहीं मिल गया। संविधान सभा में इस पर खूब चर्चा हुई। यहाँ भी एक धारा थी जो सबको कानूनी तौर पर बराबरी के खिलाफ थी। भारतीय संविधान की मूल भावना समानता के खिलाफ उनके पास मनु का सिद्धांत और विधान था जो न केवल महिलाओं को बल्कि दलितों और आदिवासियों को समान नहीं मानता, मत के अधिकार की तो दूर की बात है। दूसरे धर्म के लोगो के लिए उनके पास विकल्प था कि या तो वह हिन्दोस्तान छोड़ दें या दूसरे दर्जे की नागरिकता स्वीकार करें। कोशिश तो उन्होंने भी की थी की संविधान का वर्तमान रूप लागू न हो। हालाँकि इतिहास जानता है कि संविधान सभा ने उनके प्रस्तावों को और देश ने उनके विचार को नकार दिया। लेकिन उनका विरोध जारी रहा। यह केवल कागज़ी विरोध नहीं था बल्कि सक्रिय आंदोलन था।
उन्होंने देश की बहुलतावादी परिकल्पना और तिरंगे समेत आज़ादी के सभी प्रतीकों का ही विरोध नहीं किया बल्कि समानता पर आधारित संविधान को अपनाने से मना कर दिया।
जब हम यह मान कर चल रहे है कि हमारा संविधान स्वाधीनता आंदोलन की धरोहर है तो हिंदुत्व साम्प्रदायिक धारा के इसके विरोध को भी समझा जा सकता है क्योंकि यह लोग न तो अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई में शामिल थे और न ही अंग्रेजो को असली दुश्मन मानते थे। उनको तो आज़ादी की लड़ाई में सबकी समान भागीदारी और उस भागीदारी से बन रहे समानता के आधार पर भविष्य के देश से चिंता होती थी। क्योंकि हमारे विविधता से भरे देश, जो सब धर्मों और जातियों के लोगों का देश है, के खिलाफ उनका भारतवर्ष हिंदुत्व के श्रेष्ठता के विचार से प्रेरित कुछ लोगों का देश है।
खैर यह हमारे देश की जम्हूरियत की ही जीत है कि आज आरएसएस और उसके राजनितिक गिरोह को भी संविधान को मानना पड़ रहा है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वह अपनी असली मंशा से पीछे हट गए है। लम्बे समय से देश की मुख्य राजनीति में हाशिये पर रहने के बाद, देश में अपनाई गई आर्थिक नीतियों से पैदा हुई परिस्थितियों का फायदा उठाते हुए वह आज देश की सत्ता पर काबिज़ है।
इन पूंजीवादी आर्थिक नीतियों से देश में जो ग़ुरबत और असमानता पैदा हुई उसने सांप्रदायिक राजनीति के लिए उर्वरक ज़मीन तैयार की और आरएसएस के राजनीतिक बाजू भाजपा ने सत्ता हासिल की। लेकिन अभी भी आरएसएस और भाजपा को स्वाधीनता आंदोलन से गद्दारी का खामियाजा सार्वजानिक तौर पर तो भरना ही पड़ता है। इसलिए कवायद शुरू हुई नई कहानिया गढ़ने की। ऐसा ही एक प्रयास था 26 नवम्बर 2015 संविधान दिवस मनाने की प्रथा शुरू करना।
इस चर्चा में नहीं जा रहे हैं कि संविधान दिवस क्यों मनाया जा रहा परन्तु मज़े की बात है जो संविधान को ताक पर रखे हैं वे ही संविधान दिवस जोर-शोर से मना रहे हैं। संविधान दिवस मनाने का यह मतलब नहीं कि उन्होंने संविधान को पूर्ण रूप से अपना लिया है। इसके इतर उनका प्रयास जारी है अपना संविधान बनाने का। ख़बरें आती रहती है भविष्य के हिन्दू देश के संविधान बनाने की प्रक्रिया को लेकर बड़े आयोजनों की। इसमें कुछ छुपा नहीं है। यह सभी आयोजन खुले तौर पर बड़े ही धूम धाम से आयोजित किये जाते है। इस आयोजनों में देश के संविधान के खिलाफ खुल कर भाषण दिए जाते है व इसे बदल कर हिन्दू राष्ट्र का संविधान लागू करने की साजिशों की घोषणा की जाती है। प्रशासन इनके आयोजन का पूरा प्रबंध करता है और मीडिया में इन पर बड़ी खबरें आती हैं। मजाल है सरकार इनके आयोजकों के खिलाफ कोई कार्यवाही कर दे, वो बात अलग है कि सरकार से किसी बात पर असहमति व्यक्त करने के संवैधानिक अधिकार का प्रयोग करने पर कई नागरिक देशद्रोह के मामलों में जेल में बंद हैं।
यह तो हुई अलग बात लेकिन सरकारी मशीनरी का प्रयोग भी कैसे अपने विचार को स्थापित करने के लिए करना है इसके लिए तो भाजपा ने महारत हासिल की है। इस वर्ष विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों को संविधान दिवस, 26 नवंबर को 'भारत: लोकतंत्र की जननी' विषय पर व्याख्यान आयोजित करने के लिए निर्देश इसी तरह का एक प्रयास है। यूजीसी ने 45 केंद्रीय और 45 मानद (डीम्ड टू) विश्वविद्यालयों को निर्देशित किया है कि संविधान की उद्देशिका और मौलिक कर्तव्यों के पाठ के साथ उपरोक्त विषय पर व्याख्यान आयोजित किये जाए। दरअसल यह कोशिश है संविधान दिवस के नाम पर मनु के विचार का उत्सव मनाने की। इसके लिए यूजीसी ने एक नोट तैयार किया है जिसमे इन व्याख्यान के लिए 15 थीम चिह्नित किये गए हैं। हालाँकि यह नोट तो उपलब्ध नहीं है लेकिन मीडिया के अनुसार जो थीम सामने आ रहें है उनसे इस प्रयास का असल मक़सद सामने आ रहा है। इस नोट में जो थीम सामने आ रहे है उनमें से कुछ है ‘खाप पंचायते और उनकी लोकतांत्रिक परंपराएं’ तथा ‘आदर्श राजा’ के नाम पर सामंती राजाओं पर व्याख्यान। समझना मुश्किल नहीं है कि यह कोशिश है आरएसएस द्वारा प्रचारित हिन्दू राजाओं का महिमामंडन और लोकतंत्र के नाम पर सामंती मूल्यों का गुणगान।
गौरतलब है कि यह कोई नया या अकेला प्रयास नहीं है बल्कि एक सुनियोजित योजना का हिस्सा है जहाँ लोकतंत्र की पूरी अवधारणा को ही विकृत करने का प्रयास है। आपको याद होगा कि पिछले 15 अगस्त को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी लाल किले से उनके भाषण में भारत को लोकतंत्र की जननी के रूप में सम्बोधित किया था। इसी समझ के साथ भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद (Indian Council for Historical Research) एक किताब लेकर आ रही है। इस किताब में तीस लेखों का संग्रह जिसे अलग अलग तीस लेखकों ने कलमबंद किया है। यूजीसी का नोट इसी पुस्तक पर आधारित है।
दावा किया गया है कि भारत में कभी राजशाही नहीं रही बल्कि प्राचीन काल से ही देश में लोकतंत्र रहा है। द हिन्दू अख़बार के अनुसार इस किताब में लिखा गया है कि भारत अद्वितीय था क्योंकि यहां कोई निरंकुशता या अभिजात वर्ग नहीं था, क्योंकि जन्म की प्रतिष्ठा, धन और राजनीतिक कार्यालय का प्रभाव नहीं था। यह सभी ऐतिहासिक तथ्यों के विपरीत है।
जिस देश में जन्म पर आधारित कठोर जाति व्यवस्था रही हो और वर्तमान में भी मौजूद हो, उपरोक्त दावा कि भारत में 'जन्म की प्रतिष्ठा' नहीं थी, केवल एक तथ्यात्मक भूल नहीं है बल्कि एक सक्रिय साजिश का हिस्सा है। अगर यह सही है तो हमारे महाकाव्य रामायण और महाभारत में जन्म के आधार पर अपने कुल का राज्य स्थापित करने के लिए युद्ध पता नहीं किस लोकतंत्र के तहत हुए थे। यहां ऐतिहासिक तथ्य देने का कोई लाभ नहीं क्योंकि इतिहास से उपरोक्त दावों का कोई सरोकार नहीं। यह तो एक वैचारिक और राजनैतिक प्रोजेक्ट है संविधान के नाम पर संविधान विरोधी सामंती मूल्यों का हमारे उच्तम शिक्षण संस्थानों में महिमामंडन करने का। इसके जरिये कोशिश है हिंदुत्व परिवार की, जिसे देश का संविधान न गवारा रहा है, अपने बड़े प्रोजेक्ट को आगे बढ़ाने की।
यह लोकतंत्र को कभी भी नहीं मानते। इनके लिए लोकतंत्र है केवल राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए। वास्तव में लोकतंत्र केवल वोट तक सीमित नहीं है। यह हमारे देश के जीवन का हिस्सा है जहाँ नागरिको की भागीदारी होनी चाहिए नीति निर्धारण में, उनको लागू करने में। जहाँ सरकार जवाबदेह होती है नागरिको के प्रति। जहां नागरिक कठोर प्रश्न पूछते हैं सरकार से और मज़बूती से अपना पक्ष रखते हैं। परन्तु यह तमाम बातें मोदी काल में अतीत की बात हो गई है।
अगर हमें लोकतंत्र की चिंता है और हमें इसे मज़बूत करना है और इसके लिए शिक्षण संस्थानों में व्याख्यान करवाने हैं तो उनका विषय होना चाहिए हमारे लोकतंत्र की समस्याएं। कैसे विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में आज भी मतदान धर्म और जाति के आधार पर होता है। हमें गहन चिंता करने की आवश्यकता कि कैसे पूंजी चुनावों को केवल प्रभावित ही नहीं कर रही बल्कि अब तो नियंत्रित करती नज़र आ रही है। चुनौती है कि कैसे कॉरपोरेट फंडिंग पूरी नीति को प्रभावित कर रही है। हमें प्रयास करने होंगे की कैसे चुनावी सुधारों के जरिये लोकतंत्र को बेहतर बनाया जाये और इलेक्टोरल बांड के नाम पर राजनीतिक भ्रष्टाचार पर लगाम लगाई जाये।
सरकार को अगर कुछ चिंता है लोकतंत्र की तो उसे सवाल उठाने वालों को अपना दुश्मन नहीं मानना चाहिए। इसे भाजपा की उपलब्धि ही मानें कि वी-डेम संस्थान ने लोकतंत्र रिपोर्ट में भारत को 'चुनावी निरंकुशता' की श्रेणी में रखा है। अगर इस संविधान दिवस पर कुछ करना है तो जरूरत है इस स्थिति को बदलने की। भारत के लोकतंत्र के सामने चुनौती है वर्तमान में देश की लोकतांत्रिक प्रक्रियाएं और संस्थानों को बचाने की न कि इतिहास में लोकतंत्र के मिथक गढ़ने की।
हर देश को अपने इतिहास पर गर्व होना चाहिए। हमें भी अपने देश के इतिहास पर फख्र है। लेकिन हमारा अतीत जैसा है हमें वैसा स्वीकार करना होगा- अपनी कमजोरियों और मज़बूतियों के साथ। तमाम अच्छाइयों और बुराइयों को मानते हुए ही वर्तमान को बेहतर करने का प्रयास करना होगा। यह एक तथ्य है कि लोकतंत्र अपेक्षाकृत नया विचार है। पूरे विश्व की तरह हमारे देश में भी राजशाही या सामंतशाही थी।
हमारे देश में कुछ अतिरिक्त बाधाएं पैदा कीं जन्म के आधार पर जाति व्यवस्था ने जो मूल रूप से जनवाद के खिलाफ है। हमें इसे अपनाते हुए आज़ादी की लड़ाई की भावना के अनुरूप संविधानिक मूल्यों पर लोकतंत्र को मज़बूत करना है। लेकिन यह तो देश की जनता की बात है, आरएसएस और उसके घटकों पर लागू नहीं होती। हमें किसी भी संशय में नहीं रहना चाहिए। उनका एजेंडा स्पष्ट है- संविधान और लोकतंत्र उनको ना क़ाबिले बरदाश्त है। लोकतंत्र में उनकी मजबूरी है संविधान दिवस मनाकर अपना नाम इससे जोड़ने की परन्तु कोशिश हमेशा रहेगी मनु के श्रेष्ठता के विचार को देश में स्थापित करने की। जिम्मेवारी तो देश की जनता की है, न केवल लोकतंत्र और संविधान को बचाने की बल्कि देश की रूह विविधतता और धर्मनिरपेक्षता की भी रक्षा करने की।
(लेखक अखिल भारतीय खेतिहर मज़दूर यूनियन के संयुक्त सचिव हैं। इससे पहले वे छात्र आंदोलन से संबद्ध थे। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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