दो में से क्या तुम्हें चाहिए मोहब्बत, या खौफ और नफरत
भारत के औपनिवेशिक विरोधी संघर्ष के दौरान कई तरह के सकारात्मक सामाजिक बदलाव आए. इनमें से एक था ‘हिन्दू-मुस्लिम एकता’ और सभी धर्मों के लोगों की भारतीय के रूप में एक समग्र पहचान का उदय. औपनिवेशिकता-विरोधी राष्ट्रवादी विचारधारा ने इसे प्रोत्साहित किया और इसके सर्वोत्तम प्रतीक थे महात्मा गांधी, जिन्होंने इसकी खातिर अपने खुले सीने पर तीन गोलियों का वार झेला. उन्होंने लिखा था, “हमें केवल समझौता नहीं चाहिए, हमें चाहिए दिलों का मेल जो इस असंदिग्ध सोच पर आधारित हो कि भारत के हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अटूट एकता के बिना स्वराज कभी न हासिल हो सकने वाला एक सपना बना रहेगा. हिन्दुओं और मुसलमानों में केवल युद्धविराम से काम चलने वाला नहीं है. दोनों के बीच शांति, पस्रासपर भय पर आधारित नहीं होनी चाहिए. यह एक बराबर लोगों के बीच भागीदारी होनी चाहिए, जिसमें दोनों एक दूसरे के धर्मों का सम्मान करें.”
इसके ठीक विपरीत, धर्म के मुखौटा पहने राष्ट्रवादी होने का दावा करने वाली शक्तियां न केवल उपनिवेश विरोधी संघर्ष में शामिल नहीं हुईं वरन् उन्होंने घृणा और विभाजन के बीज बोए और उन्हें खाद-पानी दिया. आरएसएस के द्वितीय सरसंघचालक गोलवलकर ने लिखा, “जर्मन नस्ल का गौरव आजकल चर्चा का विषय है. अपनी नस्ल की शुद्धता और संस्कृति कायम रखने के लिए जर्मनी ने दुनिया को चौंकाते हुए देश से यहूदियों का सफाया कर दिया. यहां अपनी नस्ल का आत्मगौरव की सर्वोच्च भावना प्रदर्शित की गई. जर्मनी ने हमें यह भी दिखाया कि कैसे मूलभूत मतभेदों वाली नस्लों और संस्कृतियों का मिलन लगभग असंभव होता है, यह हिंदुस्तान के लिए एक समझने वाली और इससे लाभान्वित होने वाली बात है” (व्ही, ऑर अवर नेशनहुड डिफाइंड, भारत पब्लिकेशन, नागपुर, 1939). इसी सोच के चलते आरएसएस ने भारत में मुसलमानों और ईसाईयों के विरूद्ध घृणा फैलाने का अभियान चलाया.
यह अभियान कई दशकों तक अधिक जोर नहीं पकड़ सका लेकिन वर्तमान समय में यह आम सामाजिक सोच का अहम् हिस्सा बनकर उभरा है, जिसके नतीजे में मुस्लिम-विरोधी हिंसा, उन्हें डराने, उनकी लिंचिंग करने और कई अन्य तरीकों से उन्हें सताने और नुकसान पहुंचाने का अंतहीन सिलसिला जारी है. इसके चलते समाज में वे अलग-थलग होकर सीमित दायरों में सिमट गए हैं और उनके दूसरे दर्जे का नागरिक बन जाने के हालात उत्पन्न हो गए हैं. यह प्रक्रिया अभी भी जारी है और भाजपा-आरएसएस के कई नेता नए-नए तरीक खोज कर घृणा को और गहरा करने में जुटे हुए हैं. वे जुबान पर आसानी से चढ़ने वाले नारों का इस्तेमाल कर मुसलमानों का दानवीकरण कर रहे हैं. “उन्हें उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है, श्मशान-कब्रिस्तान और विभिन्न प्रकार के जिहादों की बात - वोट जिहाद जिनमें सबसे ताजा है - आदि-आदि के एक लंबी सूची है. ऊपर से उसके दो शीर्षस्थ नेताओं ने वर्तमान दौर में इस प्रक्रिया को शिखर पर पहुंचा दिया है.
इनमें से एक हैं गिरिराज सिंह, जो नफरत फैलाने वाले गिरोह के प्रमुख नेताओं में से एक हैं. हाल में उन्होंने कहा, “यदि एक मुस्लिम/घुसपैठिया तुम्हें एक तमाचा मारे, तो सबको मिलकर उसे 100 तमाचे मारने चाहिए...घर में एक तलवार, एक भाला और एक त्रिशूल रखो, उसकी पूजा करो, और यदि कोई आए, तो उससे अपनी रक्षा के लिए इनका इस्तेमाल करो....”
प्रसंगवश हमें राष्ट्रपिता याद आते हैं, जिन्होंने कहा था कि यदि कोई तुम्हें एक गाल पर तमाचा मारे तो तुम दूसरा गाल सामने कर दो. मैत्री और प्रेम गांधीजी की भारतीय राष्ट्रवाद की विचारधारा के दो अहम् भाग थे लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद हिंसा और नफरत भड़काकर इसके ठीक विपरीत दिशा में काम कर रहा है. मैत्री में कमी और नफरत में बढ़ोत्तरी की यह प्रक्रिया साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद की राजनीति के समानांतर चलती रही है, विशेषकर बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने और उसके बाद चलाए गए कई विभाजक अभियानों के दौरान. केन्द्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से आरएसएस से जुड़े विभिन्न संगठनों और विभाजक राष्ट्रवाद के मैदानी कार्यकताओं को यह लगने लगा कि वे बिना किसी डर के मनमानी कर सकते हैं.
लगभग इसी समय समाज को विभाजित करने वाले एक और नेता योगी आदित्यनाथ, जो बुलडोजर (अ)न्याय के प्रणेता हैं, ने भी ‘बटेंगे तो कटेंगे’ का नारा बुलंद किया है जिसका अर्थ है कि यदि हिंदू बंटे तो उनका कत्लेआम कर दिया जाएगा. इस नारे के कई आयाम हैं और हिंदू राष्ट्रवाद के शीर्षस्थ संगठन ने इसे अनुमोदित कर दिया है. “राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने शनिवार (26 अक्टूबर, 2024) को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की विवादस्पद टिप्पणी - “बटेंगे तो कटेंगे” जिसके जरिए उन्होंने दावा किया कि यदि हिंदू बंटे तो मारे जाएंगे, का समर्थन कर दिया. आरएसएस के महासचिव दत्तात्रेय होसबोले ने कहा कि हिंदुओं की एकता का आव्हान करने वाला यह नारा हमेशा से संघ का संकल्प रहा है.”
इसके कई पहलू हैं. पहला यह कि आरएसएस के रणनीतिकार यह मानते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के कमजोर प्रदर्शन की वजह यह थी कि दलित मतदाताओें का झुकाव इंडिया गठबंधन की ओर हो गया था जो सामाजिक न्याय की अवधारणा के पक्ष में दृढ़ता से खड़ा था और जिसने जाति आधारित जनगणना का समर्थन किया था. लेकिन यदि दलित और अन्य पिछड़े वर्ग इंडिया गठबंधन के साथ हो लेते हैं तो हिंदुओं का कत्लेआम किसके द्वारा किया जाएगा? इस नारे के अनुसार ऐसा मुसलमान करेंगे. लेकिन, इसके विपरीत पिछले 75 सालों से तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया गया है. संघ परिवार यहां 2024 में हुए जनांदोलन के बाद बांग्लादेश में हुई हिंदुओं की दुदर्शा का अप्रासंगिक मुद्दा भी उठा सकता है. पाकिस्तान तो हिंदुओं की दुर्दशा का ढोल पीटने के लिए हमेशा से एक सदाबहार उदाहरण रहा ही है.
सभी भारतीयों का एक होना स्वतंत्रता आंदोलन का मुख्य बिंदु था. उपनिवेश विरोधी संघर्ष में भारतीयता हमारी एकता का प्रमुख आधार थी जो हमारे संविधान में भी प्रतिबिंबित होता है. 20वीं सदी के महानतम हिंदू, गांधी ने कभी हिंदुओं की एकता की बात नहीं कही. न ही मौलाना आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान ने कभी मुसलमानों की एकता का आव्हान किया.
भाजपा को ‘कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति’ के भले की कोई चिंता नहीं है. उसकी विचारधारा, क्रियाकलाप और बातें सभी एकताबद्ध भारत के विपरीत हैं. वह राहुल गांधी (आरजी) की ‘मोहब्बत की दुकान’ वाली बात का मखौल बनाती है और राहुल गांधी के आरएसएस के नेताओं से मुलाकात न करने पर सवाल उठाती है. पलटकर यह सवाल किया जा सकता है कि आरएसएस क्यों आरजी से मिलना चाहती है? आरएसएस जानता है कि उसकी राजनीति नफरत (मुसलमानों, ईसाईयों और हिंदू राष्ट्रवाद के विरोधियों के प्रति) पर आधारित है, वहीं आरजी भारत के प्रेम और मैत्री के राष्ट्रीय चरित्र में प्राण फूंकने का प्रयास कर रहे हैं, जिन पर हमारे संविधान में जोर दिया गया है. आखिर राहुल गांधी की उन विचारकों से मुलाकात करने में दिलचस्पी क्यों होगी जिनके विचारों के खिलाफ वे अपनी आवाज बुलंद कर रहे हैं?
यदि आरएसएस चाहता है कि राहुल गांधी उनसे मिलें, तो उसे अपनी विभाजक विचारधारा में आमूल बदलाव करना पड़ेगा और भारतीय संविधान के मूल्यों को अपनाना पड़ेगा, जिसके केन्द्रीय मूल्य हैं भारतीय के रूप में हमारी आपसी एकता और धर्म की सीमाओं के परे आपसी भाईचारा. ठीक इसी वजह से गांधी के शिष्य नेहरू ने कभी आरएसएस को तरजीह नहीं दी. इसी वजह से इंदिरा गांधी ने आरएसएस प्रमुख बालासाहब देवरस के मुलाकात के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया था. आरएसएस का चरित्र ऐसा है कि वह अपने राजनीतिक विरोधियों के माध्यम से भी वैधता हासिल करना चाहता है.
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया. लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
साभार : सबरंग
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