कोरोना ने सरकारों द्वारा असंगठित मज़दूरों की नज़रअंदाज़ी का पर्दाफ़ाश किया है
लॉकडाउन के बाद हुई घटनाओं में मज़दूरों की दिक्कतें उभर कर सामने आई हैं। मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़ दिया गया, उन्हें राज्य से किसी तरह का समर्थन नहीं मिला। मज़दूरों को सैंकड़ो किलोमीटर दूर अपने घरों तक पैदल चलने के लिए मजबूर होना पड़ा है। हाल में 16 मज़दूरों को औरंगाबाद में ट्रेन ने रौंद दिया।
देश के तमाम मज़दूरों के बीच एक चीज साझा है। इन सबकी निर्भरता अनौपचारिक अर्थव्यवस्था पर है। लेकिन दो चीजों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। लॉकडाउन के पहले उनकी जिंदगी बेहद निर्मम, कठोर और थका देने वाली थी। दूसरी बात, लॉकडाउन के बाद अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले कामग़ारों में जो तनाव बढ़ा है, उसका संबंध इस क्षेत्र के ढांचागत तत्वों से है। इसके तहत असमान शक्ति संबंध, नौकरी की असुरक्षा और नियामक तंत्र की अनुपस्थिति है। संकटकाल में यह ढांचा ढह जाता है, जिसमें कई जिंदगियां बर्बाद हो जाती हैं।
अनौपचारिक अर्थव्यवस्था: आकार, किरदार और इसकी जड़ें:
भारत में बहुत बड़ी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था है। इसमें निर्यात में शामिल औद्योगिक समूह, निर्माण केंद्र, रत्नों से संबंधित व्यापारिक प्रतिष्ठान, कृषि उत्पादन का ज़्यादातर हिस्सा, रेहड़ी वाले और 'ब्लैक इकनॉमी' का एक बड़ा भाग शामिल है। 2018 के अनुमानों के मुताबिक़, भारत की कुल 46 करोड़ 10 लाख लोगों की श्रमशक्ति का 80 फ़ीसदी हिस्सा (या 36 करोड़ 90 लाख लोग) अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। यहां तक कि औपचारिक क्षेत्रों में भी कई लोगों को अनौपचारिक कामग़ारों की तरह 'कांट्रेक्ट लेबर' पर रखा गया है।
हीरा काटने का काम करने वाले कामग़ारों के एक हिस्से में औपचारिक अर्थव्यवस्था की तरह सुविधाएं मौजूद हैं। अनौपचारिक क्षेत्र के कामग़ारों की बड़ी संख्या के लिए घर और काम की जगहें एक ही हैं। इन कर्मचारियों को अपने काम की जगह पर ही खाना-रहना होता है। या फिर इनका काम सघन घरेलू जगहों पर होता है। औपचारिक क्षेत्रों के उलट, इस क्षेत्र में मज़दूरी, रहने की स्थितियों, काम के घंटों और दूसरी सामाजिक सुरक्षा के लिए कोई नियामक नहीं हैं। कम पगारों के चलते कई लोग एक-दूसरे के साथ रहने को मजबूर होते हैं।
शोधार्थियों का कहना है कि 'औपचारिक-अनौपचारिक क्षेत्रों के द्वैध' से इन्हें पूरी तरह अलग-अलग समझने की भूल नहीं करनी चाहिए। अनौपचारिक क्षेत्र, औपचारिक क्षेत्र को सुचारू बनाए रखने में बड़ी भूमिका निभाता है। औपचारिक क्षेत्र का बड़े व्यापार के साथ सहजीवी संबंध होता है। यही इन्हें सस्ता श्रम उपलब्ध करवाता है।
आखिर अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की इतनी अहमियत कैसे हो गई? बुद्धिजीवियों ने इस अवधारणा को समझने के लिए आज़ाद भारत में विकास की दिशा की तरफ ध्यान दिलाया है। उन्होंने पाया कि ग्रामीण निम्नवर्ग में बजट घाटा आम था। इसकी वजह भारतीय पूंजीवाद के विकास की दिशा थी। पश्चिमी औद्योगिक जगत में शहरी-ग्रामीण गतिशीलता ''फ्री लेबर'' के तहत नियमित होती है, मतलब मज़दूर जहां चाहें, वहां अपनी श्रम शक्ति बेच सकते हैं। लेकिन आज़ादी के बाद के भारत के लिए यह सही नहीं बैठता। खासतौर पर ज़मीन सुधारों के अभाव में ऐसा संभव नहीं था, भारतीय ग्रामीण ग़रीब वर्ग के पास विकल्पहीनता की स्थिति में सिर्फ़ प्रवास का ही विकल्प बचा।
दूसरा, आज़ादी के बाद जो श्रम प्रावधान किए गए, उनके केंद्र में औद्योगिक प्रक्रियाएं थीं। उनसे नियोक्ताओं और कर्मचारियों के विवादों को सुलझाने की कोशिश की गई। इन क़ानूनी प्रावधानों के ज़रिए औपचारिक क्षेत्र में रो़ज़गार और मज़दूरों को संबोधित किया गया और इनमें भारत को एक औद्योगिक समाज में बदलने की मंशा थी। हांलाकि भारतीय अर्थव्यवस्था में इस क्षेत्र का आकार बहुत छोटा था। शहरी आबादी के एक बड़े हिस्से को नज़रअंदाज़ करने और कृषि उत्पादन में सामाजिक संबंधों की तरफ ध्यान न देने से अनौपचारिक क्षेत्र के बढ़ने की प्रक्रिया तेज़ हो गई।
कुल-मिलाकर, मज़दूरों की बड़ी संख्या को अनिश्चित स्थिति में रहने पर मजबूर करने, उन्हें उनके नियोक्ताओं की दया पर छो़ड़ने के हालात अनौपचारीकरण से तय हुए। इसे समझने के लिए आज़ादी के बाद में भारत में विकास दिशा समझनी होगी।
असमान शक्ति संबंध, बिना शक्तियों वाले क़ानूनी सुरक्षा के प्रावधान और लॉकडाउन का प्रभाव:
अनौपचारिक क्षेत्र के लिए बनाए गए क़ानूनी ढांचे में ही असमान शक्ति संबंध दिखाई दे जाते हैं। एक तरफ इन क़ानूनों को अनौपचारिक क्षेत्र में मज़दूरों के लिए बनाया गया, तो दूसरी तरफ इनमें लक्षित समूहों के बेहद जरूरी सवालों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया। दूसरी बात, क़ानून को ईमानदारी के साथ लिखा गया, लेकिन इसे लागू करने के दौर में सामाजिक शक्ति संतुलन का बहुत ज़्यादा प्रभाव पड़ा। इनसे अनौपचारिक मज़दूरों पर बुरा असर हुआ। लॉकडाउन में मज़दूरों की जो बुरी हालत हुई, उसके ज़िम्मेदार यही कारण हैं।
उदाहरण के लिए,'कांट्रेक्ट लेबर (रेगुलेशन एंड एबॉलिशन) एक्ट, 1970' के तहत सिर्फ वहीं उद्यम आते हैं, जिनमें पिछले बारह महीनों में 20 या उससे ज़्यादा मज़दूरों को कांट्रेक्ट के तहत काम पर रखा गया हो। भारत में लघु उद्योगों में अक्सर 20 से कम लोग होते हैं। अपने प्रगतिशील तत्वों के बावजूद, अनौपचारिक उद्यमों में काम करने वाली एक बड़ी संख्या इस क़ानून से बाहर हो जाती है। राज्य और कांट्रेक्टर के बीच होने वाले भ्रष्टाचार और क़ानून को लागू करने में राज्य की अक्षमता के चलते यह कई इलाकों में अप्रभावी रहा। इस क़ानून में कमियों के बावजूद, अगर इसे सही तरीके से लागू किया जाता, तो सरकार के पास अनौपचारिक क्षेत्रों में काम करने वालों का आंकड़ा होता और उन्हें लॉ़कडॉउन के दौरान मदद दी जा सकती।
इसी तरह 'इंटरस्टेट माइग्रेंट वर्कमैन एक्ट, 1979' का उद्देश्य एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवास करने वाले मज़दूरों की सेवा शर्तों को संबोधित करना था। इस क़ानून के तहत उन कांट्रेक्टर्स का पंजीकरण जरूरी होता है, जो प्रवासी मज़दूरों को काम पर रखते हैं। उन्हें अपने कर्मचारियों का रिकॉर्ड भी रखना होता है। लेकिन इस क़ानून के ढांचे में स्वरोज़गार में बड़ी संख्या में लगे प्रवासी मज़दूरों और अंतर्राज्यीय कृषिगत् और दूसरे प्रवासियों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है।
'स्टेंडिंग कमेटी ऑन लेबर रिकॉर्ड्स' की 2011-12 की रिपोर्ट से पता चलता है कि 11 राज्यों में इस क़ानून के तहत एक भी नियोक्ता और कांट्रेक्टर का पंजीकरण नहीं किया गया। इस क़ानून के तहत सबसे ज़्यादा पंजीकरण बिहार में हुआ, लेकिन यहां पंजीकृत नियोक्ताओं की संख्या महज़ 20 और कांट्रेक्टर्स की सिर्फ़ 56 ही थी। अगर इस पर पुनर्विचार कर ठीक तरीके से लागू किया जाता, तो सरकार को प्रवासी मज़दूरों को लॉकडाउन में मदद देने में सहूलियत होती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
'बिल्डिंग एंड अदर कंस्ट्रक्शन वर्कर्स(रेगुलेशन ऑफ एमप्लॉयमेंट एंड कंडीशन ऑफ सर्विस) एक्ट, 1996' या 'BOCW' में इस क्षेत्र की अनिश्चितता और मौसमी रुझान को माना गया है। इसलिए अगर किसी ने पिछले साल 90 दिन काम किया है, तो उसे निर्माण कार्य में लगा मज़दूर माना है। इस क़ानून के तहत पंजीकृत संस्थाओं को अपने मज़दूरों को रहने और उनके बच्चों को सुविधाएं देनी होती हैं। इस क़ानून में 'स्टेट कंस्ट्रक्शन बोर्ड' को तमाम सामाजिक योजनाओं के लिए मज़दूरों का पंजीकरण करने के लिए प्रावधान किया गया है। लेकिन इन योजनाओं का फायदा लेने के लिए हर मज़दूर को ट्रेड यूनियन या अपने नियोक्ता से खुद को मान्यता दिलवानी पड़ती है। सच्चाई यह है कि अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले ज़्यादातर मज़दूरों को इस क़ानून में संबोधित ही नहीं किया जाता, क्योंकि वह एक जगह से दूसरे जगह प्रवास करते रहते हैं, ऊपर से उनके कोई दस्तावेज़ नहीं बनाए जाते और यह लोग संगठित भी नहीं हैं।
'जन साहस' द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि BOCW क़ानून के तहत उत्तरप्रदेश में पंजीकृत 20.37 लाख मज़दूरों में से सिर्फ़ 29 फ़ीसदी के पास बैंक खाता है। इस अध्ययन में जिन कामग़ारों से बात की गई, उनमें से 90 फ़ीसदी मज़दूर इस क़ानून से बाहर हैं, क्योंकि उनके पास BOCW कार्ड नहीं है। इस स्थिति में केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों को 'BOCW सेस फंड' का इस्तेमाल करक लॉकडाउन में फंसे कामग़ारों की मदद के लिए कहना बहुत प्रभावी समझ नहीं आता।
'अनऑर्गेनाइज़्ड सेक्टर वर्कर्स सोशल सिक्योरिटी एक्ट, 2008' या USSA में राज्य सामाजिक सुरक्षा बोर्ड द्वारा अलग-अलग योजनाओं का फायदा लेने के लिए असंगठित कामग़ारों का पंजीकरण अनिवार्य किया जाता है। इसमें घर में काम करने वाले कामगार भी शामिल होते हैं। इस क़ानून में जिन योजनाओं की बात है, वो पहले से ही मौजूद हैं। लेकिन पंजीकृत अनौपचारिक कामग़ारों के विश्लेषण के लिए कोई आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं।
'नेशनल डोमेस्टिक वर्कर्स वेलफेयर ट्रस्ट' द्वारा 2013 में झारखंड हाईकोर्ट में लगाई गई PIL से पता चलता है कि पूरे झारखंड में 'मास्टर क्राफ्ट पर्सन स्कीम' में एक भी व्यक्ति का पंजीकरण नहीं हुआ। यह स्कीम, USSA के तहत चलाई जाने वाली दस योजनाओं में से एक है। एक तरफ क़ानून अंसगठित कामग़ारों के अधिकारों की सुरक्षा की बात करता है, लेकिन इसके अस्पष्ट दिशा-निर्देश और राज्य द्वारा कामग़ारों के पंजीयन में शिथिलता दिखाने के चलते कई लोग पंजीकृत ही नहीं हैं।
लॉकडाउन के दौरान कुछ राज्यों ने अपने प्रवासियों का सर्वे करना चालू कर दिया। अगर अनौपचारिक कामग़ारों के लिए लक्षित योजनाएं होतीं, जिनमें उन्हें राज्यों में पंजीकृत कराया गया होता और राज्य बोर्ड को निधि देने के साफ निर्देश होते, तो आज इस संकट काल में बेहतर तरीके से निपटा जा सकता।
मौजूदा क़ानूनी विमर्श, कम से कम व्याख्या के आधार पर, कल्याण से नियमित होता है। लेकिन मौजूदा ''श्रमसुधारों'' के निर्देश सिर्फ़ ''व्यापार के लिए आसानी'' बनाने के लिए हैं। जैसे, हाल में मज़दूरी पर जो नया कोड बनाया गया है, उसमें राज्य सरकारों को ''एक दिन में कितना काम किया जाना है, उसके लिए घंटे तय करने की छूट है, जबकि काम के घंटों की कोई साप्ताहिक सीमा नहीं'' है। इससे पहले वाले न्यूनतम मज़दूरी (केंद्रीय)नियम, 1950 में एक सामान्य सप्ताह में 48 घंटे का काम करवाने की अनुमति थी।
इन बदले प्रावधानों से औपचारिक अर्थव्यवस्था के कामग़ारों के अधिकारों का भी हनन होगा। वहीं अनौपचारिक कामग़ारों की अपने काम के घंटों और मज़दूरी पर मोल-भाव करने की शक्ति कम होगी। इस भयावह वेतन कोड का असर यह हुआ है कि कई राज्यों ने काम के घंटे बढ़ाने के लिए अध्यादेश पारित कर दिए हैं।
इस पृष्ठभूमि में हमें अनौपचारिक मज़दूरों की दिक्कतें समझनी होंगी। लॉकडाउन के बाद जारी किए गए सरकार के दिशा-निर्देशों में ऊपर उल्लेखित क़ानूनों की तरह भलमनसाहत है। कम से कम काग़ज़ों पर तो है ही। जैसे 29 मार्च को गृहमंत्रालय ने एक आदेश जारी कर साफ कहा कि सभी कर्मचारियों को वेतन दे दिया जाए। ग़ौर किया जाए कि इस आदेश को लॉकडाउन की घोषणा करने के पांच दिन बाद जारी किया गया था। यह अनौपचारिक क्षेत्र के प्रति हमारे अंसवेदनशील इतिहास में सही बैठता है। कुछ राज्यों ने नियोक्ताओं को कामग़ारों की जरूरत पूरी करने के लिए भी कहा।
लेकिन एक भयानक शक्ति असंतुलन, बड़े पैमाने की सरकारी उदासीनता और अपर्याप्त ढांचे के दौर में किसी जादू की उम्मीद करना बेमानी है। कई राज्यों में अगर सरकारें इन चीजों को लागू करना चाहती हैं, तो भी उनके जरूरी आंकड़े नहीं हैं। इसकी वजह क़ानूनों में मौजूद ख़ामियाँ और अब तक उन्हें अक्षम तरीके से लागू किए जाने का इतिहास है।
आगे क्या रास्ता है:
एक तरफ मज़दूर घर पहुंचने के लिए कई दिन तक पैदल चल रहे हैं, तो दूसरी तरफ खाने के लिए लंबी लाइन लगा रहे हैं। कोरोना वायरस ने हमें अनौपचारिक कामग़ारों की भयावह स्थितियों से परिचय करवा दिया है। मौजूदा ढर्रे ने न तो उनके श्रम अधिकारों को संबोधित किया गया और न ही राज्य कल्याण का फायदा सही तरीके से पहुंचाया। अब केवल किसी क्रांतिकारी तरीके से इन स्थितियों में बदलाव संभव है। इसके तहत कृषि में बड़े स्तर का निवेश करना होगा, साथ में गांवों में आजीविका के लिए पर्याप्त संसाधनों को पहुंचाया जाना जरूरी है, ताकि नौकरियों की तलाश में लोग बाहर भागते न फिरें। बड़े शहरों पर निर्भरता के मुद्दे को हल करने के लिए राज्यों में नई नीतियां बनानी होंगी। मौजूदा क़ानूनों को पूरे अनौपचारिक क्षेत्र को संबोधित करने के लिए राज्य को खुद की क्षमता बढ़ानी होगी।
लेकिन इन सारी चीजों को लागू करने के लिए राज्य नीति के केंद्र में समानता का भाव होना चाहिए। दुर्भाग्य से इसका उलटा हो रहा है। कई राज्यों ने मौजूदा श्रम क़ानूनों को कमजोर करने के लिए अध्यादेश जारी कर दिए हैं। इससे अनौपचारिक क्षेत्र के मज़दूरों की ख़स्ता हालत और भी बुरी होने वाली है। इसलिए यह एक राजनीतिक स्थिति है। जैसे-जैसे यह संकट बढ़ता जाएगा और राज्य कामग़ारों की दिक़्क़तों से मुंह मोड़ते जाएंगे, तब मज़दूरों के साथ जुड़ी ताक़तों के पास सिर्फ इस स्थिति को अपने हाथ में लेने के अलावा कोई विकल्प मौजूद नहीं रहेगा।
लेखक सेंटर फ़ॉर इक्विटी स्टडीज़ में सीनियर रिसर्चर्स हैं। यह उनके निजी विचार हैं।
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