EXCLUSIVE: ज्ञानवापी विवाद के बीच बद्रीनाथ मंदिर के बौद्ध मठ होने की बहस कितनी जायज़?
उत्तर प्रदेश के वाराणसी स्थित ज्ञानवापी मस्जिद विवाद के बीच एक नई बहस छिड़ गई है कि बद्रीनाथ हिंदू मंदिर नहीं, बल्कि एक प्राचीन बौद्ध मठ था। सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने यह मुद्दा तब उठाया, जब बनारस के डिस्ट्रिक कोर्ट ने ज्ञानवापी मस्जिद का ASI सर्वे कराने का निर्देश दिया। स्वामी के उस बयान से सियासी हलकों में भूचाल आ गया है, जिसमें उन्होंने कहा है कि 8वीं सदी में आदि गुरु शंकराचार्य ने बद्रीनाथ में बौद्ध मठ को हिंदू मंदिर में बदला था। मौर्य ने हिंदू मंदिरों को लेकर जो कहा है, उस पर सीएम पुष्कर सिंह धामी, बसपा की मुखिया मयावती और बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति ने कड़ा विरोध किया है।
बनारस की ज्ञानवापी मस्जिद में ASI सर्वे का मामला शीर्ष अदालत से होते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में पहुंच गया है। मुख्य न्यायाधीश प्रीतिंकर दिवाकर की अदालत में हिंदू और मुस्लिम पक्ष अपनी बात रख चुके हैं। फैसला 03 अगस्त 2023 को आना है। इस बीच 'यह मस्जिद, कभी मंदिर था' पर एक बार फिर बहस शुरू हो गई है। ज्ञानवापी के विवाद के बीच बद्रीनाथ मंदिर के बौद्ध मठ होने की बहस ऐसे समय छिड़ी है जब देश गंभीर आर्थिक और सामाजिक चुनौतियों का सामना कर रहा है। मंदिर-मस्जिद, हिंदू-मुस्लिम, पहले किसने, कितने मंदिर तोड़े और क्यों-कैसे, इस पर बहस ज़ोर पकड़ रही है। सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने ज्ञानवापी मुद्दे की चर्चा करते हुए यह कहकर इस विवाद को गरमा दिया कि बद्रीनाथ, केदारनाथ और जगन्नाथपुरी पहले बौद्ध मठ थे। बौद्ध धर्मावलंबियों के कई मठों को तोड़कर मंदिर बनवाए गए हैं। इन प्राचीन मंदिरों में आज भी बौद्ध सभ्यता की झलक साफ-साफ परिलक्षित होती है। बद्रीनाथ मंदिर के बौद्ध मठ होने के साथ ही रामेश्वरम के संबंध में भी उन्होंने ऐतिहासिक दस्तावेज पेश किए।
आखिर मिर्ची लगी न, अब आस्था याद आ रही है। क्या औरों की आस्था, आस्था नहीं है? इसलिए तो हमने कहा था किसी की आस्था पर चोट न पहुँचे इसलिए 15 अगस्त 1947 के दिन जिस भी धार्मिक स्थल की जो स्थिति थी, उसे यथास्थिति मानकर किसी भी विवाद से बचा जा सकता है। अन्यथा ऐतिहासिक सच स्वीकार करने के…
— Swami Prasad Maurya (@SwamiPMaurya) July 28, 2023
बीजेपी पर सवाल खड़ा करते हुए स्वामी ने कहा, "हर मस्जिद में मंदिर खोजने की परंपरा भाजपा के लिए भारी पड़ेगी। ऐसा करेंगे तो लोग हर मंदिर में बौद्ध मठ खोजेंगे। ऐतिहासिक साक्ष्य, तथ्य इस बात के गवाह और पुख्ता प्रमाण हैं कि जितने भी हिंदू तीर्थ स्थल हैं, वे बौद्ध मठों के ऊपर बनाए गए हैं। आठवीं सदी की शुरुआत तक बदरीनाथ बौद्ध मठ था। आदि शंकराचार्य ने बौद्ध मठ को परिवर्तित करवाकर बदरीनाथ धाम बनाया और हिंदू तीर्थ स्थल के रूप में स्थापित किया था।"
धामी व माया भी विवाद में कूदे
सपा नेता स्वामी प्रसाद की टिप्पणी के बाद उत्तराखंड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी भी इस विवाद में कूद पड़े। विरोध जताते हुए उन्होंने ट्वीट किया, "समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य की ओर से की गई टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है। साथ ही सीएम धामी ने सपा और विपक्ष पर कटाक्ष करते हुए लिखा है कि ये उनकी धर्म विरोधी सोच को दर्शाता है। सीएम ने लिखा है इन पार्टियों की विचारधारा में एसआईएमआई और पीएफआई की झलक दिखती है।" बद्रीनाथ केदारनाथ मंदिर समिति के अध्यक्ष अजेंद्र अजय ने भी मौर्य के बयान पर तीखी प्रतिक्रिया और कहा कि समाजवादी पार्टी हिंदू विरोधी विचारधारा रखती है।
करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था के केंद्र भू बैकुंठ श्री बदरीनाथ धाम पर समाजवादी पार्टी के नेता द्वारा की गई टिप्पणी दुर्भाग्यपूर्ण है।
"महाठगबंधन" के एक सदस्य के रूप में समाजवादी पार्टी के एक नेता द्वारा दिया गया यह बयान कांग्रेस और उसके सहयोगियों की देश व धर्म विरोधी सोच को…
— Pushkar Singh Dhami (@pushkardhami) July 27, 2023
स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान आने के बाद पूर्व मुख्यमंत्री मायावती भी इस विवाद में कूद पड़ीं। उन्होंने ट्वीट किया, "समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य का ताजा बयान कि बद्रीनाथ सहित कई मंदिर बौद्ध मठों को तोड़कर बनाए गए हैं और आधुनिक सर्वे अकेले ज्ञानवापी मस्जिद का क्यों, बल्कि अन्य प्रमुख मंदिरों का भी होना चाहिए, नए विवाद को जन्म देने वाला विशुद्ध राजनीतिक बयान है।" उन्होंने सवाल किया, "मौर्य उत्तर प्रदेश की भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में लंबे समय तक मंत्री रहे, लेकिन तब उन्होंने इस संबंध में पार्टी और सरकार पर दबाव क्यों नहीं बनाया? और अब चुनावों के मौसम में ऐसा धार्मिक विवाद पैदा करना उनकी और सपा की घिनौनी राजनीति नहीं तो क्या है? लेकिन बौद्ध और मुस्लिम समाज इनके बहकावे में नहीं आने वाले हैं।"
मायावती के बयान के बाद सपा के राष्ट्रीय महासचिव स्वामी प्रसाद मौर्य ने 28 जुलाई 2023 को एक ट्वीट में कहा, "आखिर मिर्ची लगी न, अब आस्था याद आ रही है। क्या औरों की आस्था, आस्था नहीं है? यही वजह है कि हमने कहा था कि किसी की आस्था को चोट न पहुंचे, इसके लिए 15 अगस्त 1947 के दिन जिस भी धार्मिक स्थल की जो स्थिति थी, उसे यथास्थिति मानकर किसी भी विवाद से बचा जा सकता है। वरना ऐतिहासिक सच स्वीकारने के लिए तैयार रहना चाहिए।"
2. जबकि श्री मौर्य लम्बे समय तक बीजेपी सरकार में मंत्री रहे किन्तु तब उन्होंने इस बारे में पार्टी व सरकार पर ऐसा दबाव क्यों नहीं बनाया? और अब चुनाव के समय ऐसा धार्मिक विवाद पैदा करना उनकी व सपा की घिनौनी राजनीति नहीं तो क्या है? बौद्ध व मुस्लिम समाज इनके बहकावे में आने वाले नहीं।
— Mayawati (@Mayawati) July 30, 2023
स्वामी ने किया पलटवार
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के बयान के बाद स्वामी प्रसाद मौर्य ने 30 जुलाई 2023 को लखनऊ में दोबारा प्रेस वार्ता बुलाई और कहा, "मैं सीएम से सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि सबकी आस्था महत्व रखती है। आपकी आस्था अगर आस्था है तो अन्य धर्मावलंबियों और पंथ की आस्था भी आस्था है। दूसरों की आस्था की भी चिंता करनी चाहिए। हवा-हवाई बयान देने से बीजेपी के लोग बाज आएं। साल 1991 में उपासना स्थल का विधेयक पारित हुआ था कि अयोध्या के अलावा किसी भी धार्मिक स्थल में बदलाव नहीं होगा। बेहतर है कि हर धार्मिक स्थल की 15 अगस्त 1947 की स्थिति को कायम रखा जाए। एक बड़ी राजनीतिक साजिश के तहत भाजपा हर रोज हिंदू और मुसलमान का मुद्दा उठाती है। वह मंदिर-मस्जिद का मुद्दा उठाकर समाज में भेदभाव फैलाने का काम कर रही है। हमारा संविधान सभी धर्मों का सम्मान करना सिखाता है।"
स्वामी ने यह भी कहा, "ज्ञानवापी मस्जिद का अगर सर्वे हो तो इस बात का भी पता लगाया जाए कि मस्जिद के पहले ही नहीं, बल्कि मंदिर के पहले भी क्या था? हम तो यह कहते हैं कि हिंदू धर्म के जितने भी स्थल हैं, पहले सब बौद्ध मठ थे। बौद्ध मठों को तोड़कर मंदिर बनाए गए थे। इतिहासकार चार्ल्स ऐलन ने भी माना है कि बौद्ध मठ को बद्रीनाथ मंदिर में बदला गया है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने बद्रीनाथ धाम जाकर जो कुछ लिखा, है हम उस पर बात कर रहे हैं। मूर्तियों का अवलोकन कीजिए। संदेह खत्म हो जाएगा। यह भी पता चल जाएगा कि बद्रीनाथ की मूर्ति बुद्ध की है। अखंड रहने पर यह मूर्ति बहुत सुंदर रही होगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। सच को छिपाने से अच्छा है कि उसे स्वीकार किया जाए। सभी धर्मों का सम्मान करने से समाज से नफरत खत्म होगी। मैं मायावती पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता, क्योंकि वो मेरी नेता रही हैं।"
मौर्य के समर्थन में पत्रकार रावत
उत्तराखंड के वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत ने बद्रीनाथ मंदिर के बौद्ध मठ होने के समर्थन में कई शोध आलेख लिखे हैं। स्वामी प्रसाद मौर्य ने मीडिया से बातचीत में इनके आलेख को साक्ष्य के रूप में पेश किया। बद्रीनाथ का मुद्दा उछलने के बाद पत्रकार रावत भी सुर्खियों में हैं। वह कहते हैं, "सियासी लाभ उठाने के लिए धार्मिक स्थलों के विवादों को बेवजह तूल दिया जा रहा है। उपासना स्थल अधिनियम-1991 बनने के बाद कई धार्मिक स्थलों की मुक्ति का अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें एक ज्ञानवापी मस्जिद का भी है। ऐतिहासिक दस्तावेजों और सबूतों को देखा जाए तो स्वामी प्रसाद मौर्य का दावा गलत नहीं हैं। सनातन और बौद्ध धर्म, दोनों का मूल भारत ही है और दोनों ही भारत के प्रचीन धर्म हैं। बौद्ध धर्म भारत से ही श्रीलंका, तिब्बत, चीन, जापान और दक्षिण पूर्व देशों तक गया। ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में गौतम बुद्ध द्वारा बौद्ध धर्म का प्रवर्तन किया गया।"
"प्रचलित इतिहास के आईने से देखें तो वैदिक धर्म से पहले मौर्यकाल में बौद्ध धर्म अपने चरम पर था। स्वयं सम्राट अशोक एक बौद्ध भिक्षु बन गए थे। उत्तराखंड की राजधानी देहरादून के पास कालसी में आज भी अशोक का शिलालेख मौजूद है, जो बौद्ध धर्म की मौजूदगी की गवाही देता है। मौर्यकाल के बाद पुष्यमित्र का शासन आया तो बौद्ध धर्म के महापतन की शुरूआत हो गयी। बौद्ध मठों को मंदिरों में बदला गया। जिनमें विख्यात हिमालयी मठ बद्रीनाथ भी एक है। बौद्धकाल के बाद आदि गुरु शंकराचार्य ने तो देश के चारों कोनों में चार सर्वोच्च धार्मिक पीठें स्थापित कर वैदिक धर्म का एकछत्र राज स्थापित कर दिया था।"
अपने आलेख में जय सिंह कहते हैं, "ईटी एटकिंसन ने डॉ. टेलर, डॉ बर्नेल, विल्सन ने चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के यात्रा वृत्तांत का हवाला देते हुए अपने "गजेटियर ऑफ हिमालयन डिस्ट्रिक्ट" के ग्रंथ बुद्धिज्म इन कुमाऊं इन द सेवन्टीन्थ सेंचुरी के पृष्ठ 463 से लेकर 465 में बद्रीनाथ व केदारनाथ के प्राचीन बौद्ध स्वरूप और शंकराचार्य द्वारा उनके परिवर्तन का विस्तृत वर्णन किया है। यह भी माना गया कि इन्हीं हिमालयी तीर्थों से बौद्ध धर्म तिब्बत गया। हिमालयन गजेटियर के उपरोक्त भाग के पृष्ठ 463 में बौद्ध धर्म का विनाश (एन्निहिलेशन और बुद्धिज्म) में लिखा है कि कुमाऊं में 7वीं सदी तक काफी हद तक बौद्ध धर्म स्थापित हो चुका था। लेकिन सातवीं शताब्दी के मध्य में ह्वेन त्सांग की यात्रा की तारीख और शंकराचार्य का बोलबाला स्थापित होने के बाद इस क्षेत्र में शायद ही कोई बौद्ध मठ बचा हो।"
पत्रकार रावत यह भी कहते हैं, "एटकिन्सन ने पृष्ठ-464 पर इस बात का उल्लेख किया है कि शंकराचार्य ने पहले शास्त्रार्थ से बौद्धों को हराया और फिर पशुपतिनाथ के मंदिर से उन्हें मार भगा दिया। बाद में दक्षिण के ब्राह्मणों से वहां वैदिक रीति से पूजा की व्यवस्था कराई। भारत के चौथे सर्वेयर जनरल जान हाजसन और विल्सन के अनुसंधान का हवाला देते हुए एटकिन्सन ने पृष्ठ-466 पर लिखा है कि शंकरा (शंकराचार्य) ने कुमाऊं आकर बौद्धों और नास्तिकों को भगा कर सनातन धर्म की पुनर्स्थापना की। केदार में पशुपत और बदरीनाथ में नारायण के बौद्धमार्गी पुजारियों को हटा कर उनके स्थान पर दक्खिन (दक्षिण) के पुजारी तैनात किए, जिनके वंशज अभी भी उन मंदिरों की व्यवस्था संभालते हैं।"
क्या कहते हैं इतिहासकार
स्वामी प्रसाद के बयान से उत्तर भारत में सियासत भले ही गरमा गई है, लेकिन अब से पहले कई इतिहासकारों ने बौद्ध स्तूपों, बौद्ध विहारों और बौद्ध तीर्थों की तबाही को विस्तार से लिपिबद्ध किया है। इतिहासकार डीएन झा ने अपनी किताब 'अगेंस्ट द ग्रेन- नोट्स ऑन आइडेंटिटी एंड मीडिएवल पास्ट' में ब्राह्मण राजाओं के हाथों बौद्ध धर्मावलंबियों के आस्था स्थलों की तबाही का उल्लेख किया है। हालांकि झा के दावों को चुनौती भी मिली है। डीएन झा लिखते हैं, "एक तरफ़ जहां सम्राट अशोक भगवान बुद्ध को मानने वाले थे, वहीं उनके बेटे और भगवान शिव के उपासक जालौक ने बौद्ध विहारों को बर्बाद किया। पुष्यमित्र शुंग ने बौद्धों का बड़ा उत्पीड़न किया। उनकी विशाल सेना ने बौद्ध स्तूपों को बर्बाद किया और बौद्ध विहारों को आग के हवाले कर दिया। शुंग शासनकाल में बौद्ध स्थल सांची तक कई स्थानों पर तोड़फोड़ के सबूत मिले हैं।"
चीनी यात्री ह्वेनसांग की भारत यात्रा का हवाला देते हुए झा कहते हैं, "शिव भक्त मिहिरकुल ने 1,600 बौद्ध स्तूपों और विहार को नष्ट किया और हज़ारों बौद्धों को मार दिया। प्रसिद्ध नालंदा विश्वविद्यालय के पुस्तकालयों को 'हिंदू कट्टरपंथियों ने आग लगा दी' और इसके लिए ग़लत तरीक़े से बख़्तियार खिलजी को ज़िम्मेदार ठहरा दिया, जो वहां कभी नहीं गए थे। इस बात में कोई शक़ नहीं है कि पुरी ज़िले में स्थित पूर्णेश्वर, केदारेश्वर, कंटेश्वर, सोमेश्वर और अंगेश्वर को या तो बौद्ध विहारों के ऊपर बनाया गया या फिर उनमें उनके सामान का इस्तेमाल किया गया।"
बीबीसी की एक रिपोर्ट में दिल्ली विश्वविद्यालय में बौद्ध स्टडीज़ के पूर्व प्रोफ़ेसर केटीएस सराओ इतिहासकार डीएन झा के विचारों को 'पक्षपातपूर्ण' और 'संदेहास्पद' बताते हैं। वह कहते हैं, "ब्राह्मणों, बौद्धों के बीच बहस या बौद्धिक स्तर पर मतभेद थे, लेकिन ये कहना कि उनमें आपस में किसी तरह की हिंसा हुई, ये सही नहीं है। मुझे आश्चर्य है कि लोग कहते हैं कि हज़ारों को मार दिया गया। ऐसा नहीं हुआ। हो सकता है कि दोनों पक्षों के बीच स्थानीय या व्यक्तिगत स्तर पर हिंसा हुई हो, लेकिन कोई भी बड़े स्तर पर हिंसा नहीं हुई।"
खतरनाक होंगे विवाद के नतीजे
ज्ञानवापी मस्जिद के बारे में ब्रिटिश लाइब्रेरी में विश्वनाथ मंदिर की तस्वीर के साथ दी गई जानकारी में इस बात का जिक्र किया गया है कि 17वीं शताब्दी में मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने मंदिर को तबाह कर दिया था। मौजूदा मंदिर को 1777 में इंदौर की अहिल्या बाई होल्कर ने बनाया था। इतिहासकार हरबंस मुखिया भी कहते हैं, "काशी और मथुरा का मंदिर औरंगज़ेब ने तोड़ा था, वो उसके हुक़्म से टूटा था। उसी औरंगज़ेब ने पता नहीं कितने मंदिरों और मठों को दान भी दिया। जहां वो एक तरफ़ मंदिरों को तोड़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ़ वो मंदिरों और मठों को दान, ज़मीन और पैसे दे रहा था।"
हिंदुओं की ओर से ज्ञानवापी का मुकदमा लड़ रहे अधिवक्ता विष्णु शंकर जैन कहते हैं, "सदियों पहले एक लाख हिंदू मंदिरों को बर्बाद कर दिया। मंदिरों को वापस लेने को 'ऐतिहासिक न्याय' के चश्मे से देखा जाना चाहिए। मंदिरों पर कथित तौर पर 'अतिक्रमण' करने वालों को बाहर किया जाना जरूरी है। मुग़लों ने हजारों हिंदू मंदिरों को ढहाया और उन्हें क़ानूनी तौर पर वापस लिया जाना चाहिए।"
टाइम्स ऑफ़ इंडिया अपने संपादकीय में लिखता है, "इतिहास ख़ूबसूरत नहीं है। लेकिन एक आधुनिक देश, ख़ासकर एक विविधतापूर्ण लोकतंत्र को, जो एक बड़ी वैश्विक आर्थिक ताक़त बनना चाहता है, उसे अपनी ऊर्जा इतिहास पर दोबारा मुक़दमेबाज़ी में ख़र्च नहीं करनी चाहिए। देश पहले से ही कई सांप्रदायिक मसलों का सामना कर रहा है, तब एक और 'मस्जिद-पहले-मंदिर-था' आयाम जोड़ने के ख़तरनाक नतीजे हो सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट को निचली अदालत को सीधी भाषा में बोलना चाहिए कि वो किसी भी याचिका को सुनते वक़्त साल 1991 के उपासना स्थल विशेष प्रावधान क़ानून का पालन करें। यह भी ताकीद करें कि किसी भी दशा में न्यायिक उल्लंघन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।"
बनारस के वरिष्ठ पत्रकार एवं चिंतक प्रदीप कुमार कहते हैं, "अयोध्या के बाद काशी और मथुरा में मंदिरों को वापस करने की बात करना बहुसंख्यक शक्ति का इस्तेमाल है। मौजूदा समय में सत्ता बहुसंख्यकों के पास है। किसी ऐतिहासिक और पवित्र स्थल को वापस लेने का मक़सद धर्म नहीं है। ज्ञानवापी मस्जिद के रहने से काशी विश्वनाथ के प्रति किसी की भक्ति पर असर नहीं पड़ा है। इसे वापस लेने का मक़सद यह दिखाना है कि हिंदुओं के पास ताक़त है और मुसलमानों को उनकी जगह दिखाई जाए।"
"बीजेपी का शुरू से ही मंदिर-मस्जिद एक एजेंडा रहा है। उन्हें लगता है कि इसी एजेंडे पर वोट मिल सकता है और वो सत्ता में बने रह सकते हैं। वो इतिहास के उन्हीं हिस्सों को उठाते हैं जिसके जो पहले से विवाद में घिरे रहे हैं। देश का इतिहास मुगलकाल से शुरू नहीं होता। इससे पहले का इतिहास भी देखने की जरूरत है। ऐसे तमाम ऐतिहासिक प्रमाण हैं जिससे पता चलता है कि देश में बौद्ध संप्रदाय के तमाम मठ-मंदिर गिराए गए और उन पर कब्जा किया गया। ताजा विवाद इतिहास के उसी कड़ी से जुड़ा हुआ है। आज जब हम सभ्य और लोकतांत्रिक व्यवस्था में हैं तो गड़े मुर्दे उखाड़ेंगे तो सवाल आप पर भी खड़े होंगे।"
प्रदीप कहते हैं, "अफसोस इस बात का है कि देश की सत्ता व्यवस्था व न्याय प्रणाली जितनी तेजी और तत्परता से हिंदु मंदिरों की तलाश-सर्वेक्षण में जुट जाती है, उतनी तेजी दूसरे संप्रदाय के धार्मिक स्थलों को लेकर क्यों नहीं दिखाती? ऐसे विवादों से निपटने के लिए जब पूजा कानून बनाया जा चुका है तो उसमें छेद क्यों ढूंढा जा रहा है? स्वामी प्रसाद मौर्य का बयान एक स्वभाविक प्रक्रिया है। जब एक पक्ष जब नए विवाद को जन्म देगा तो दूसरा पक्ष शांत कैसे बैठेगा? ऐसे में विवादों का एक अंतहीन सिलसिला शुरू होगा, जिसे थाम पाना आसान नहीं होगा। सिर्फ बौद्ध मठ-मंदिर ही नहीं, जैन मंदिरों और गिरजाघरों को तोड़कर कब्जा किए जाने के तमाम साक्ष्य मौजूद हैं। अगर किसी एक धर्म स्थल का स्वरूप बदला जाएगा तो अदालतों में मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी, जिनका निस्तारण कर पाना संभव नहीं है। यह स्थिति देश और समाज के लिए खतरनाक साबित होगी।"
(लेखक बनारस के वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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