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इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध राजनीतिक चंदे का समाधान नहीं है

इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से केवल राजनीतिक दलों को ही चन्दा दिया जा सकता है न कि व्यक्तिगत उम्मीदवारों को।
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प्रतीकात्मक तस्वीर। 

सवाल यह है कि क्या कानूनी या अवैध धन द्वारा वित्तपोषित इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से दिया चन्दा नीति निर्माताओं पर अनुचित प्रभाव को रोकने में मदद करता है? जबकि इलेक्टोरल बॉन्ड इस तरह के धन की अतिरिक्त राशि ही प्रदान करते हैं।

केंद्र सरकार ने इलेक्टोरल बॉन्ड योजना की शुरूआत, 2 जनवरी, 2018 को केंद्रीय बजट 2017-18 में की गई घोषणा के ज़रिए की थी। इसका उद्देश्य "देश में राजनीतिक चंदे की प्रणाली को साफ-सुथरा या कानूनी बनाना" था। जबकि कई अन्य मुद्दे अभी भी प्रासंगिक हैं, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या यह अपने लक्ष्य को हासिल कर पाया।

इलेक्टोरल बॉन्ड का मतलब यह है कि, ये बेयरर बॉन्ड होते हैं जिन्हें निजी संस्थाएं किसी भी नामित बैंक (वर्तमान में भारतीय स्टेट बैंक) से खरीद सकती हैं और उन्हें किसी भी राजनीतिक दल को दान कर सकती हैं। माना ऐसा जाता है कि राजनीतिक दलों को चन्दा देने का यह एक गुमनाम तरीका है, क्योंकि इसमें दान करने वाले की पहचान का खुलासा नहीं किया जाता है। ये बॉन्ड चुनावों के समय के आसपास उपलब्ध होते हैं, जो संभवतः राजनीतिक दलों को 'वैध' धन प्रदान करते हैं। 

आंकड़े बताते हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड के माध्यम से अधिकतर फंड सत्ताधारी दल के पास चला जाता है और जिससे उन्हें सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करने में मदद मिलती है। 

चंदे की गोपनीयता बनाए रखने के लिए, आयकर विभाग चंदे की जांच नहीं कर सकता है, चुनाव आयोग भी उनकी जानकारी नहीं मांग सकता है और इसलिए जनता को भी पता नहीं चलेगा कि कौन दान कर रहा है। तत्कालीन चुनाव आयोग ऐसी गैर-पारदर्शिता के पक्ष में नहीं थाभारतीय रिजर्व बैंक ने ऐसी किसी योजना को मंजूरी नहीं दी थी। वास्तव में, योजना की घोषणा से पहले दोनों के भीतर, किसी से भी परामर्श नहीं लिया गया था। संसद में वित्तमंत्री ने इस बात का जिक्र किया था कि लोग गुमनामी चाहते हैं लेकिन जब सूचना के अधिकार कानून के जरिए, जानने की कोशिश की गई कि चंदा देने वाले लोग कौन हैं तो कोई जवाब नहीं मिला।

बॉन्ड (जनता के लिए) की अपारदर्शिता को देखते हुए, सत्ताधारी दल पर दान के माध्यम से किए गए एहसान के लिए दाता का फ़ेवर किया जाना संभव है। वास्तव में, इसे सफ़ेद धन में दी गई रिश्वत कहा जा सकता है।

जबकि जनता और चुनाव आयोग यह पता नहीं लगा सकता कि कौन किसे दान कर रहा है, लेकिन सत्ताधारी पार्टी इस जानकारी को हासिल कर सकती है। चूंकि बॉन्ड जारी करने वाले बैंक के पास, दान देने वाली संस्था और बॉन्ड को भुनाने वाली पार्टी का रिकॉर्ड होता है। यह देखते हुए कि बैंक प्रबंधन काफी हद तक केंद्रीय वित्तमंत्रालय के नियंत्रण में हैं, सत्ताधारी पार्टी  इस सूचना को आसानी से हासिल कर सकती है।

इसके अलावा, बॉन्ड (जनता के लिए) की अपारदर्शिता को देखते हुए, सत्ताधारी दल पर दान के माध्यम से किए गए एहसान के लिए दाता का फ़ेवर किया जाना संभव है। वास्तव में, इसे सफ़ेद धन में दी गई रिश्वत कहा जा सकता है। चूंकि कोई जांच नहीं होगी, इसलिए दान किया गया धन अवैध हो सकता है।

इन विषमताओं और अपारदर्शिता को देखते हुए, सार्वजनिक हित में काम करने वाली कुछ उत्साही संस्थाएं 2018 में इस योजना के खिलाफ अदालत में गईं थीं। तब से यह मामला विचाराधीन है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने विवेक से इस योजना पर अंतरिम रोक लगाने से इनकार कर दिया था। 

चुनावों में काला धन 

भारत एमिन चुनाव लड़ने के लिए, चाहे स्थानीय निकायों हो या राज्य या राष्ट्रीय विधायिकाओं के चुनाव हों, इस्मने बहुत अधिक अवैध धन का इस्तेमाल किया जाता है। 1998 के लोकसभा चुनावों के बाद जीते 14 सांसदों का सर्वेक्षण किया गया तो लेखक ने पाया कि उनका औसत खर्च तय खर्च की सीमा से आठ गुना था। समय के साथ यह गुणक बढ़ता गया है। साक्षात्कार में शामिल सांसदों ने कहा कि अगर वे जीते हैं तो दानदाता उनसे बदले में उनके पक्ष में कुछ करने की उम्मीद तो रखेंगे। 

चूंकि चुनावी खर्च की सीमा से ऊपर का कोई भी खर्च अवैध है, इसलिए इसे चोरी-छिपे किया जाता है। इसे बही खातों में दर्ज़ नहीं किया जाता, और इसे अवैध स्रोतों/काली आय से होना चाहिए। चुनाव के दौरान चुनाव आयोग की जांच से इसमें थोड़ी सेंध लगी है।

धन के बदले दाताओं के हित में नीतियों में उलटफेर होता है और आम मतदाताओं को हाशिए पर धकेल दिया जाता है, जो आम तौर पर कुछ उम्मीदवारों को वोट देने के लिए रिश्वत लेते हैं। हालाँकि, चुनाव के समय मतदाताओं को जो कुछ मिलता है, वह उनके खिलाफ नीतियों को उलटने से होने वाले नुकसान की तुलना में बहुत कम होता है। इसके विपरीत, उम्मीदवारों को धन देने वाले निहित स्वार्थ उनके अवैध चंदे का कई गुना बनाते हैं। यह व्यवसायों के लिए सबसे अच्छा निवेश है क्योंकि उन्हें अन्य बातों के अलावा अनुकूल नीतियां, अनुबंध और गलत काम करने के लिए अभियोजन पक्ष से सुरक्षा मिलती है।

स्पष्ट रूप से, राष्ट्र और आम लोगों के कल्याण के लिए सरकार चलाने वाले राजनेताओं को काली अर्थव्यवस्था के प्रभाव से मुक्त करने की जरूरत है। सवाल यह है कि क्या कानूनी या अवैध धन द्वारा वित्तपोषित चुनावी बॉन्ड नीति निर्माताओं पर अनुचित प्रभाव को रोकने में मदद करता है? जबकि बॉन्ड खुद ही इस तरह के अनुचित काम के लिए अतिरिक्त फंड प्रदान करते हैं।

बॉन्डस क्यों?

क्या चुनावी बॉन्ड का इस्तेमाल देश में काली आय सृजन को रोकने के बड़े उद्देश्य को पूरा कर सकता है? पांच साल के चक्र में विभिन्न चुनावों में दो लाख करोड़ रुपये का इस्तेमाल किया जाता है – जो प्रति वर्ष लगभग 40,000 करोड़ रुपए बैठता है। वर्तमान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 270 लाख करोड़ रुपए बैठता है, जो 0.15 प्रतिशत है। सालाना जारी किए जाने वाले कुछ हज़ार करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड, जीडीपी और ब्लैक इकॉनमी दोनों का और भी छोटा प्रतिशत है। चूंकि इलेक्टोरल बॉन्ड केवल एक अतिरिक्त धन हैं, इसलिए वे चुनावों में काली कमाई के इस्तेमाल की समस्या का समाधान नहीं हो सकते हैं। 

चुनाव में खर्च की सीमा से अधिक खर्च को अवैध धन के माध्यम से किया जाता है। इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल न तो इस जरूरत को पूरा करने के लिए किया जा सकता है और न ही ये व्यक्तिगत उम्मीदवारों को मिलते हैं, इसलिए अवैध फंड की जरूरत खत्म नहीं होती है। 

राजनीतिक दलों के खातों की ऑडिटिंग से चुनावों में काली कमाई के इस्तेमाल को मुश्किल से रोका जा सकता है। कंपनियों के खातों का ऑडिट किया जाता है, फिर भी वे विभिन्न माध्यमों से काली कमाई करते हैं। राजनीतिक दल भी गुप्त रूप से प्राप्त वास्तविक राशि को छिपाने के लिए समान हथकंडे अपनाते हैं। इस प्रकार, भले ही चुनावी बॉन्ड वैध धन पर आधारित हों, वे राजनीतिक दलों द्वारा जुटाए गए अवैध धन के इस्तेमाल को नहीं रोक सकते हैं।

महत्वपूर्ण रूप से, चुनावी खर्च की सीमा उम्मीदवारों पर लागू होती है न कि राजनीतिक दलों पर। इलेक्टोरल बॉन्ड केवल राजनीतिक दलों को दान किया जा सकता है न कि व्यक्तिगत उम्मीदवारों को। इसलिए, चुनाव खर्च सीमा से अधिक और व्यक्तिगत उम्मीदवार के भारी खर्च को अवैध धन के माध्यम से पूरा करना पड़ता है। जीतने वाले उम्मीदवारों को फंड दाताओं को मुआवज़े देना जारी रखना होगा और इसलिए अवैधता बनी रहेगी - बॉन्ड या कोई बॉन्ड नहीं।

भारतीय चुनावों को क्या महंगा बनाता है?

अमीर जो राजनेताओं और पार्टियों को पर्याप्त रकम दान करते हैं, वे ऐसा काले धन में करते हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि उनका नाम सामने आए। वे सभी पार्टियों को चंदा देते हैं लेकिन नहीं चाहते कि सत्ताधारी पार्टी को यह पता चले। राजनीतिक दल भी नहीं चाहते कि जनता को पता चले कि एक गरीब देश में कौन से व्यवसायी उन पर उपकार कर रहे हैं जो उनकी छवि को धूमिल कर सकते हैं। चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों को इतने पैसे की जरूरत  क्यों है?

भारत में चुनावी लोकतंत्र तब आया था जब सामंती चेतना पहले से ही कायम थी। लोग कई कारणों से मतदान करते हैं, न कि केवल निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार के प्रदर्शन के आधार पर। अक्सर लोग अपनी जाति और समुदाय के उम्मीदवारों को वोट देते हैं, चाहे वे कितने ही भ्रष्ट क्यों न हों। वे उम्मीद करते हैं कि यह व्यक्ति उनके सही या गलत काम करेगा। आजकल काम, चाहे सही हो या गलत, उसे जल्द करने की माँग करता है। अक्सर, दादा/दबंग लोग चुने जाते हैं क्योंकि वे काम कर सकते हैं। लोगों का कहना है कि वे अपने प्रदर्शन या उम्मीदवारों की ईमानदारी के बावजूद अपना वोट बर्बाद नहीं करना चाहते हैं।

ऐसे एनजीओ नेता विरले ही होते हैं जो असंख्य तरीकों से लोगों की चुनाव जीतने में मदद करते हैं। कभी-कभी, ऐसे उम्मीदवार जो निर्वाचन क्षेत्र से संबंधित भी नहीं होते हैं, निर्वाचन क्षेत्र के भीतर अपने समीकरणों के कारण जीत जाते हैं। जाहिर है, जनता मतदान के समय प्रदर्शन के अलावा कुछ और भी तलाश रही है।

उम्मीदवार अपने निर्वाचन क्षेत्र में लोगों को यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि उनका दबदबा है और वे परिणाम दे सकते हैं। दबदबा दिखाने के लिए बड़ी-बड़ी रैलियां, रोड शो, पोस्टर, कट-आउट, सोशल मीडिया की बाढ़, वोट बैंक का रखरखाव आदि की जरूरत होती है। मतदान के ठीक एक दिन पहले नकद और उपहार बांटे जाते हैं। और इन सब के लिए बहुत अधिक धन की जरूरत होती है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि लोग चाहे जिस राजनीतिक पार्टी से  उपहार ले सकते हैं, लेकिन वोट उनकी आम आदमी पार्टी के कथित ईमानदार उम्मीदवारों को दें, लेकिन प्रचलित सामंती चेतना के कारण यह सफल नहीं हुआ: क्योंकि जिसका 'नमक खाया है' वोट तो वहीं जाएगा।

चुनावी बॉन्ड अपने तय लक्ष्य को हासिल नहीं कर सकते हैं

भारतीय चुनाव महंगे हो गए हैं क्योंकि समाज में सामंती चेतना व्याप्त है और उम्मीदवारों के काम के आधार पर मतदान शायद ही कभी होता है। इसलिए चुनाव महंगा हो गया है। चुनाव में सीमा से अधिक खर्च अवैध धन के माध्यम से किया जाता है। इलेक्टोरल बॉन्ड का इस्तेमाल न तो इस जरूरत को पूरा करने के लिए किया जा सकता है और न ही ये व्यक्तिगत उम्मीदवारों को मिलता है, इसलिए अवैध धन/फंड की जरूरत खत्म नहीं होती है। 

राजनीतिक दलों को, इलेक्टोरल बॉन्ड अवैध रूप से एकत्र की गई राशि से अधिक अतिरिक्त धन देते हैं। पार्टी के खातों का ऑडिट इसमें मदद नहीं कर सकता है क्योंकि यह केवल घोषित धन का ऑडिट होता है। इस प्रकार, चुनावी बॉन्ड योजना राजनीतिक चंदे को साफ-सुथरा बनाने में सफल नहीं हो सकती है।

अरुण कुमार, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के सेवानिवृत्त प्रोफेसर हैं। 

सौजन्य: द लीफ़लेट

इस लेख को मूल अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए नीचे दिये गए लिंक पर क्लिक करें।

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