ख़बरों के आगे-पीछे : चुनाव आयोग की यह कैसी तैयारियां?
चुनाव आयोग को किसी भी राज्य में विधानसभा चुनाव की तैयारी करते हुए जिन पहलुओं का खासतौर पर ध्यान रखना होता है, उनमें विधानसभा के कार्यकाल से लेकर राज्य में आने वाले त्योहारों या स्कूल-कॉलेज और प्रतियोगी परीक्षाएं आदि मुख्य होते हैं। लेकिन पूरे देश में एक साथ चुनाव कराने का दम भरने वाला चुनाव आयोग पिछले कुछ सालों से चुनाव तैयारियों की समीक्षा करते वक्त इन पहलुओं का ध्यान नहीं रख रहा है। इसीलिए हर चुनाव में उससे कहीं न कहीं कोई ऐसी गलती हो रही है, जिसे बाद में ठीक करना पड़ रहा है। अभी लोकसभा के साथ चार राज्यों के चुनाव की घोषणा में आयोग की बड़ी लापरवाही सामने आई है। आयोग ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया कि अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम विधानसभा का कार्यकाल दो जून को खत्म हो रहा है। उसने इन दोनों राज्यों में भी वोटों की गिनती चार जून को तय कर दी। अगर विधानसभा का कार्यकाल दो जून को खत्म हो रहा है तो कायदे से उससे पहले चुनाव होकर नतीजे आ जाने चाहिए ताकि दो जून या उससे पहले नई विधानसभा का गठन हो जाए। यह बड़ी चूक है, जिसे चुनाव की घोषणा के एक दिन बाद दुरुस्त किया गया। उसमें भी आयोग के पास ज्यादा गुंजाइश नहीं थी क्योंकि आखिरी चरण का मतदान एक जून को रखा गया है। इसलिए मजबूरी में इन दोनों राज्यों में दो जून को मतगणना रखी गई। अब उसी दिन नतीजों की घोषणा कर नई विधानसभा के गठन की अधिसूचना भी जारी करनी होगा। इससे पहले पिछले साल के चुनावों में यह देखने को मिला कि चुनाव आयोग ने पूर्वोत्तर के ईसाई बहुल मेघालय में भी रविवार को मतगणना रख दी थी। ईसाई समुदायों के विरोध के बाद मतगणना की तारीख बदली गई थी।
चार जून और चार सौ पार का नारा
पिछले लोकसभा चुनाव यानी 2019 में मतगणना 23 मई को हुई थी। उससे पहले यानी 2014 में 13 मई को मतगणना हुई थी। इस बार चुनाव आयोग ने मतगणना की तारीख और आगे बढ़ा कर चार जून कर दी। कायदे से इसे कम किया जाना चाहिए था ताकि अपेक्षाकृत कम गर्मी के समय चुनाव और मतगणना हो जाए। अभी चुनाव आयोग के मौजूदा शिड्यूल के हिसाब से आधे से ज्यादा राज्यों में चुनाव प्रचार और मतदान के समय लू के थपेड़े चल रहे होंगे लेकिन चुनाव आयोग ने इस पर ध्यान नहीं दिया। उसने 1952 में हुए पहले चुनाव के बाद सबसे लंबा चुनावी शिड्यूल बना दिया। बहरहाल, चार जून की तारीख तय करने का एक कारण चुनाव घोषणा के बाद हुई प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली में दिखाई दिया। चुनाव की घोषणा के अगले दिन प्रधानमंत्री मोदी ने आंध्र प्रदेश में अपनी सहयोगी पार्टियों के साथ चुनावी रैली की। उस रैली में उन्होंने कहा कि यह संयोग है कि इस बार चार जून को वोटों की गिनती होगी और पूरा देश कह रहा है 'चार जून को चार सौ पार।’ सवाल है कि यह संयोग है या प्रयोग कि वोटों की गिनती चार जून रखी गई? गौरतलब है कि प्रधानमंत्री ने एनडीए के लिए चार सौ पार का नारा काफी पहले दिया था। इस लिहाज से चार तारीख को वोटों की गिनती होने पर उसके साथ चार सौ पार का नारा जुड़ जाता। चुनाव आयोग के बारे में यूं ही नहीं कहा जाता है कि वह चुनाव कार्यक्रम प्रधानमंत्री कार्यालय की सलाह से बनाता है।
तमिलनाडु के राज्यपाल का नया विवाद
तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि का राज्य की डीएमके सरकार के टकराव का सिलसिला खत्म ही नहीं हो रहा है। लोकसभा चुनाव की घोषणा के बाद दोनों के बीच नया विवाद शुरू हो गया, जो सुप्रीम कोर्ट के दखल के बाद ही खत्म हुआ। राज्यपाल रवि ने डीएमके विधायक के पोनमुडी को राज्य सरकार मे मंत्री पद की शपथ दिलाने से इनकार कर दिया था। उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला चल रहा था, जिसमें पिछले साल यानी 2023 में हाई कोर्ट ने उन्हें दोषी ठहरा कर सजा सुना दी थी, जिसके बाद उन्हें उच्च शिक्षा मंत्री के पद से इस्तीफा देना पड़ा था। अब सुप्रीम कोर्ट ने उनकी सजा पर रोक लगा दी है। राज्य के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने उन्हें फिर से मंत्री बनाने का फैसला किया लेकिन राज्यपाल रवि ने पोनमुडी को शपथ दिलाने से इनकार कर दिया। राज्यपाल ने कहा है कि सुप्रीम कोर्ट ने पोनमुडी की सजा पर सिर्फ रोक लगाई है, उनकी सजा समाप्त नहीं की है, इसलिए उन्हें शपथ दिलाना संवैधानिक नैतिकता के खिलाफ होगा। सवाल है कि इसमें संवैधानिक नैतिकता कहां से आ गई? राज्यपाल का काम कानूनी प्रावधानों को पूरा करना है। अगर कोई व्यक्ति विधायक रहने के योग्य है और विधायक है तो मुख्यमंत्री उसे मंत्री बना सकते है। राज्यपाल उसे रोक नहीं सकते हैं। इसी आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल रवि के रवैये पर चिंता जताते हुए उन्हें फटकार लगाने के अंदाज में निर्देश दिया कि वे अदालत की अवमानना न करे और 24 घंटे के भीतर संवैधानिक प्रावधानों के मुताबिक कार्यवाही करे।
ममता के भतीजे को राहत, क्या दूसरों को भी मिलेगी?
पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के सांसद और पार्टी के महासचिव अभिषेक बनर्जी को सुप्रीम कोर्ट ने बड़ी राहत दी है। सर्वोच्च अदालत ने प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी से कहा है कि वह लोकसभा चुनाव के बीच अभिषेक बनर्जी और उनकी पत्नी रूजिरा बनर्जी को समन नहीं जारी करे। अभिषेक बनर्जी तृणमूल कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता हैं और ममता बनर्जी के भतीजे हैं। इस नाते उन्हें अपने साथ-साथ पार्टी के दूसरे नेताओं का भी चुनाव संभालना है। सो, सुप्रीम कोर्ट की ओर से मिली राहत बहुत बड़ी है। कोयले और मवेशी की तस्करी से लेकर शिक्षक भर्ती व राशन घोटाले में पार्टी के कई नेता गिरफ्तार हुए हैं। उनसे पूछताछ के आधार पर ईडी अभिषेक बनर्जी को घेर रही थी। लेकिन अब चुनाव तक उनको राहत मिल गई है। सवाल है कि क्या इस तरह की राहत दूसरे नेताओं को मिल सकती है? आमतौर पर सुप्रीम कोर्ट का आदेश समान रूप से सब पर लागू होता है। लेकिन यहां हो सकता है कि हर नेता को निजी तौर पर ऐसी राहत के लिए सुप्रीम कोर्ट जाना पड़े। यह भी संभव है कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश की नजीर बना कर नेता हाई कोर्ट से राहत हासिल कर ले। इस समय दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी के कई नेता जेल में हैं। तृणमूल कांग्रेस नेता महुआ मोइत्रा को भी बार-बार समन जारी हो रहा है। इसके अलावा महाराष्ट्र, बिहार, झारखंड, तमिलनाडु, कर्नाटक, तेलंगाना आदि राज्यों में कई विपक्षी नेताओं को केंद्रीय एजेंसियां कभी भी समन जारी करके बुला रही है। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से सबको राहत मिल सकती है।
370 सीटों की हवा बनाने के लिए
इस बार का लोकसभा चुनाव कई मायने में बहुत दिलचस्प होने वाला है। चुनाव की घोषणा के तुरंत बाद तेलंगाना की राज्यपाल तमिलसाई सौंदर्यराजन ने इस्तीफा दे दिया। उनके पास पुड्डुचेरी के उप राज्यपाल का प्रभार भी था। अब वे तमिलनाडु में भाजपा की ओर से चुनाव लड़ने जा रही हैं। इस तरह भाजपा ने तमिलनाडु में मजबूती से लड़ने का मैसेज बनवाने के लिए एक राज्यपाल का इस्तीफा करा दिया है। इससे पहले यानी चुनाव की घोषणा से पहले कलकत्ता हाई कोर्ट के जज अभिजीत गंगोपाध्याय ने इस्तीफा दिया। इस्तीफा देने के दो दिन बाद ही वे भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा उन्हें बंगाल की तामलुक सीट से चुनाव लड़ा सकती है। राजस्थान में भाजपा ने चुरू सीट पर पैरा ओलंपिक के विजेता देवेंद्र झाझरिया को उतारा है तो भारतीय प्रशासनिक सेवा, विदेश सेवा और पुलिस सेवा के अनेक अधिकारी चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। पश्चिम बंगाल और पंजाब से कुछ नए अधिकारियों को चुनाव लड़ाया जा सकता है। कुल मिला कर भाजपा अपनी पार्टी के नेताओं के साथ-साथ दूसरी पार्टियों से आए नेताओं और गैर राजनीतिक लोगों को भी चुनाव में उतार रही है ताकि मजबूती से लड़ने का मैसेज बने और 370 सीटें जीतने के लक्ष्य की हवा बने।
भाजपा के मुस्लिम उम्मीदवार का क्या होगा?
भाजपा ने केरल की मल्लापुरम सीट से एक मुस्लिम उम्मीदवार उतार तो दिया है लेकिन ऐसा लग रहा है कि वह उन्हें परदे के पीछे ही रखना चाहती है। गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हाल ही में केरल के दौरे पर गए तो उन्होंने पलक्कड में एक रोड शो किया, जिसमें पार्टी के आसपास की सीटों के दो उम्मीदवार शामिल हुए। लेकिन मल्लापुरम के उम्मीदवार एम अब्दुल सलेम को उसमें नहीं बुलाया गया। सलेम कोझिकोड यूनिवर्सिटी के कुलपति रहे हैं। उन्होंने खुद भी पुष्टि की कि उन्हें प्रधानमंत्री के रोड शो में बुलाया नहीं गया था। अब सवाल है कि आगे क्या होगा? क्या प्रधानमंत्री मोदी या अमित शाह सहित कोई बड़ा नेता उनका प्रचार करने नहीं जाएगा या किसी बड़े नेता के कार्यक्रम में उन्हें नहीं बुलाया जाएगा? ऐसा नहीं है कि सलेम को अनजाने में टिकट मिली है। उन्हें सोच समझ कर टिकट दी गई है। हालांकि एक चर्चा यह भी चल रही है कि पार्टी वहां से उम्मीदवार बदल भी सकती है। गौरतलब है कि पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार नहीं उतारा था। इस बार एक मुस्लिम नेता को टिकट दी गई है। अगर भाजपा को लगता है कि इससे किसी भी स्तर पर धारणा प्रभावित हो रही है या माहौल सकारात्मक नहीं बन रहा है तो वह उम्मीदवार बदल सकती है।
महुआ को चुनाव लड़ने में मुश्किल होगी
तृणमूल कांग्रेस की सांसद रही महुआ मोइत्रा की मुश्किलें बढती जा रही हैं। पैसे लेकर लोकसभा में सवाल पूछने के आरोप में संसद की आचार समिति की सिफारिश पर उनकी सदस्यता मामले की जांच-पडताल के बगैर पहले ही खत्म की जा चुकी है और अब लोकपाल ने उनके खिलाफ लगे आरोपों की सीबीआई जांच की अनुमति दे दी है। लोकपाल ने सीबीआई को मुकदमा दर्ज करके छह महीने में जांच पूरा करने को कहा है। गौरतलब है कि भाजपा के सांसद निशिकांत दुबे ने मोइत्रा के खिलाफ स्पीकर के पास शिकायत करने के साथ-साथ लोकपाल में भी शिकायत की थी। उसी शिकायत पर लोकपाल ने सीबीआई से जांच करने को कहा है। सीबीआई ने भी तुरत-फुरत कार्रवाई शुरू करते हुए महुआ के खिलाफ एफआईआर दर्ज कर शनिवार को कोलकाता सहित महुआ मोइत्रा के कई ठिकानों पर छापेमारी की है। मुश्किल यह है कि इन छह महीनों में तीन महीने चुनाव के है। गौरतलब है कि महुआ मोइत्रा को ममता बनर्जी की पार्टी ने फिर से कृष्णानगर सीट पर उम्मीदवार बनाया है। वे पार्टी की स्टार नेताओं में से एक है और भाजपा के खिलाफ उनकी एक पहचान बनी है, जिससे पार्टी के उम्मीदवार चाहते है कि वे उनके प्रचार में भी आएं। इसका मतलब है कि उनको अपना चुनाव लड़ना है और प्रचार भी करना है। लेकिन इसी बीच सीबीआई की जांच चल रही होगी। सीबीआई उन्हें पूछताछ के लिए भी बुलाएगी और गिरफ्तार भी कर सकती है।
बिहार में नीतीश को फिर मुश्किल होगी
बिहार में एनडीए के घटक दलों के बीच सीटों के बंटवारे में नीतीश कुमार को उनके मनमाफिक 16 सीटें मिली हैं। भाजपा 17 सीट पर लड़ेगी। इतने सद्भाव के बावजूद ऐसा लग रहा है कि नीतीश कुमार के लिए फिर से मुश्किल हो सकती है। पिछले यानी 2020 के विधानसभा चुनाव में भी नीतीश मुख्यमंत्री थे और भाजपा के साथ गठबंधन में थे। उस चुनाव में एक योजना के तहत चिराग पासवान ने गठबंधन से अलग होकर सिर्फ नीतीश की पार्टी के खिलाफ अपने उम्मीदवार उतारे थे। इसका नतीजा यह हुआ कि 70 सीट वाला जनता दल (यू) सिर्फ 43 सीट जीत पाया, जबकि 53 सीट वाली भाजपा 75 सीट पर पहुंच गई। इस बार चिराग पासवान भी एनडीए में हैं लेकिन नीतीश की पार्टी को दोनों सहयोगी पार्टियों यानी भाजपा और चिराग वाली लोजपा से भितरघात का खतरा है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि बिहार के गठबंधन में हर बार नीतीश अपना वोट सहयोगी को ट्रांसफर करा देते हैं लेकिन सहयोगी अपना पूरा वोट उनकी पार्टी को ट्रांसफर नहीं करा पाते हैं। इसीलिए हर बार उनका स्ट्राइक रेट सहयोगियों से कम होता है। 2015 के विधानसभा चुनाव में राजद और जनता दल यू दोनों सौ-सौ सीटों पर लड़े थे पर राजद को 80 सीट और जनता दल (यू) 71 सीटों पर रही। उससे पहले 2010 में भाजपा एक सौ सीटों पर लड़ कर 91 जीती थी, जबकि नीतीश 143 लड़ कर 116 जीते थे। इसका मतलब है कि सहयोगी चाहे भाजपा हो या राजद, उसका सौ फीसदी वोट नीतीश को नहीं मिलता है।
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