विशेष: आज क्यों ज़रूरी है फ्रांस की क्रांति को याद करना
पेरिस से थोड़ी दूर पर एक छोटा सा किला था, जहाँ राजनीतिक बंदी रखे जाते थे। वहाँ पर 13 जुलाई को यह अफ़वाह फैली, कि सैनिकों को पेरिस भेजा जा रहा है, इससे उत्तेजित होकर लोगों ने हथियार इकट्ठा करने का निर्णय किया। नगर में जहाँ भी हथियार उपलब्ध हो सकते थे, वहाँ भीड़ ने लूट कर उन्हें हथिया लिया। 14 जुलाई को यह ख़बर फैली कि बास्तीय में शस्त्रों का भंडार है और यह जानकर भीड़ उधर ही उमड़ पड़ी। उस समय बास्तीय में न तो बहुत अधिक हथियार थे और न राजनीतिक कैदी, उसकी सुरक्षा का भी पूर्ण प्रबंध नहीं था, फिर भी प्रशासक द लोने ने हथियार देने से इंकार कर दिया। भीड़ को डराने के लिए जब रक्षकों ने गोली चलाई और सैकड़ों लोग हताहत हुए, तो भीड़ किले पर टूट पड़ी तथा ईंट से ईंट बजा दी गई। रक्षक मार दिए गए, कैदी जिनमें अपराधी भी थे छोड़ दिए गए। पूरा किला ध्वस्त कर दिया गया, लोग यादगार के लिए वहाँ से लोहे और पत्थर के टुकड़े अपने-अपने घर ले गए और बास्तीय का नामोनिशान मिटा दिया गया।
इस घटना का महत्व इसी बात से समझा जा सकता है कि आज भी फ्रांस अपना राष्ट्रीय दिवस 14 जुलाई को ही मानता है। वैसे तो यह कोई बड़ी बात नहीं थी, एक मामूली किले पर उग्र भीड़ ने क़ब्ज़ा करके उसे नष्ट कर दिया था, यह घटना बदले हुए समय के आगमन की स्पष्ट ही पूर्व सूचना थी।
लूई ने इस घटना का विवरण जानकर कहा, कि "अरे! यह तो विद्रोह है।" पास खड़े लिआंकूर ने कहा, कि "नहीं, मेरे आका! यह इन्कलाब है।" और सत्य ही यह क्रांति का उद्घोष था। बास्तीय का पतन एक किले का ही पतन नहीं था, सिद्धांत और परम्परा का पतन था। ब्रिटिश राजदूत ने लिखा,"फ्रांस अब एक स्वतंत्र देश हो गया है।"
यह घटना 1789 की है, इसे फ्रांस की क्रांति की शुरुआत माना जाता है। बास्तीय पर हमला करने वाले मुख्यतः मेहनतकश वर्ग के लोग थे और जिन्हें 1790 में बास्तीय के विजेता कहकर सम्मानित किया गया था। वहाँ थोड़ा अतिरेक भी हुआ था, जिसकी इतिहासकार शातों ब्रिआं ने आलोचना की थी, इसके जवाब में टामस पेन ने कहा था कि,"यह अतिरेक क्रांति पूर्व विकृत हो गए मस्तिष्कों की उपज था, क्रांति इसे ठीक करने के लिए हुई थी।"
एक ऐसी क्रांति जिसके घटित हुए 200 से अधिक वर्ष हो चुके हैं, उसका महत्व और उसकी प्रासंगिकता आज की दुनिया या अपने देश के लिए क्या है? इसका विश्लेषण ज़रूरी है, क्योंकि इस पर पहले ही से ढेरों पुस्तकें अथवा लेख उपलब्ध हैं। मानव जगत में इस क्रांति के पहले और बाद में भी तमाम क्रांतियाँ हुईं, लेकिन इस क्रांति की अनगिनत उपलब्धियों, इसकी शाश्वत गरिमा और इसका रोमांचकारी घटनाओं के समकक्ष उनमें से किसी को नहीं खड़ा किया जा सकता।
आधुनिक इतिहास की यह पहली क्रांति है, जिसमें पूरी क्रांति के लिए इसके किसी एक प्रेणेता को श्रेय नहीं दिया जा सकता। इस क्रांति की सबसे बड़ी विशेषता यह रही, कि इसके प्रत्येक दौर में नेतृत्व का एक नया वर्ग उभरकर सामने आ जाता रहा। क्रांति पूर्व के इसके दार्शनिक प्रणेताओं- वाल्तेयर ,रूसो और मोंतेस्क्यू को छोड़ भी दिया जाए, तो आब्बे सिमेंस,मिरागो, लॉफायेत, ब्रिसो दांते, मॉरा और रोबेसपियैर जैसे नेतृत्व एक के बाद एक जनता के बीच आते गए और अपनी-अपनी भूमिका का निर्वाह कर राजनीतिक पटल से ओझल होते चले गए। वास्तव में इस क्रांति का असली नायक और नेता जनता ही थी।
आधुनिक मानव समाज में समता, स्वतंत्रता, भाईचारा, धर्मनिरपेक्ष राज्य, मानवाधिकार एवं नागरिक अधिकार के मूल्यों की नींव रखने वाली यह क्रांति यद्यपि हुई तो फ्रांस में लेकिन इसकी उपलब्धियों की गूँज किसी न किसी रूप में प्रत्येक आधुनिक समाज में सुनाई देने लगी थी। स्वयं भारत का स्वतंत्रता संग्राम भी इसके मूल्यों और आदर्शों से कम प्रभावित नहीं हुआ था। राजाराम मोहन राय से लेकर गांधी तक ने इस क्रांति के आदर्शो से अनेक शिक्षाएँ ग्रहण की थीं।
जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुस्तक 'विश्व इतिहास की एक झलक' में इस क्रांति के बारे में लिखा है कि "क्रांतिकाल के फ्रांस में नवयुवक होना बड़े गर्व की बात है।"
क्रांति की रोशनी में एक नया फ्रांस जाग्रत हुआ। सदियों पुरानी व्यवस्था का अंत हो चुका था। सामन्ती समाज की कब्र पर पूँजीवादी फूल खिल रहे थे। सामन्तों की ज़मीन पर पहले ही किसानों ने क़ब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। धीरे-धीरे सामन्तों की ज़मीन नगर के धनिकों और मध्यवर्गीय लोगों के हाथों में आने लगी। उस समय कार्टून प्रकाशित हुआ था, पहली तस्वीर में एक बूढ़ा किसान पीठ पर बोझ लादे जा रहा है, बोझ पर लिखा है -सामन्ती और धार्मिक कर। दूसरे चित्र में वही किसान सामान्त और पादरी पर सवारी करते हुए कह रहा है- मैं जानता था कि मेरे दिन भी आएँगे। सम्भवतः यह पूरी तरह से ही सही नहीं था कि इस नयी चेतना से फ्रांस का किसान शक्तिशाली हो गया, लेकिन यह ज़रूर सच था कि सामन्त और पादरी ध्वस्त हो गए।
फ्रांस की क्रांति का सबसे बड़ा सबक राजनीतिक न होकर वैचारिक है। अट्ठारवीं शताब्दी में यूरोप में वैचारिक स्तर पर नया दृष्टिकोण अपनाया जा रहा था। कोपरनिकस और गैलेलीयो के बाद विज्ञान की बढ़ती हुई प्रगति के साथ ज्ञानोदय (एन्लाइटेनमेंट) का युग आया, जिसमें लेखक सामाजिक बुराइयों का उद्घाटन करने में अपनी लेखनी का उपयोग करने लगे। उनका नारा- तर्क, सहिष्णुता और मानवता ( रीजन, टालरेंस एण्ड ह्यूमैनिटी) था। ये लोग क्रांति नहीं चाहते थे, किन्तु इनके प्रभाव और विचारों से परिवर्तन की प्रक्रिया को बल मिला। इसमें प्रमुख नाम वाल्तेयर (1694-1778), मोंतेस्क्यू (1685-1755),रूसो 1712-1778) थे।
वाल्तेयर ने भ्रष्ट एकतंत्र की आलोचना की, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बल देते हुए उन्होंने कहा,"मैं जानता हूँ कि तुम्हारी बात ग़लत है, फिर भी उसे कहने के तुम्हारे अधिकार के लिए मैं जान देने के लिए तैयार हूँ।" उन्हें अट्ठारवीं शताब्दी के पुनर्जागरण का प्रस्तोता कहा जाता है। उन्हें फ्रांस ही नहीं सारे यूरोप में विवेक, प्रबुद्धता और प्रगति के सिध्दांत के प्रचार-प्रसार का श्रेय प्राप्त है। उन्हें विश्वास हो चला था कि फ्रांसीसी धीरे-धीरे उसकी बातें ज़रूर मानेंगे और भविष्य बेहतर होगा।
उन्होंने एक मित्र को लिखा- फ्रांसीसी लोग समझते तो हैं, मगर देर से। युवा लोग बेहतर दिन देखेंगे (फ्रेंच पीपुल कम टु थिंग्स लेट,बट दे डू कम… यंग पीपुल हैव टु सी फाइन थिंग्स)। उनकी मृत्यु के एक दशक बाद हुई क्रांति ने उनके विचारों को क्रियान्वित कर पुष्ट कर दिया।
मोंतेस्क्यू को राजनीति विज्ञान का पहला महत्वपूर्ण विचारक (फर्स्ट पॉलिटिकल सांइटिस्ट) कहते हैं। सबसे पहले उन्होंने फारस के ख़त (पर्शियन लेटर्स) नामक पुस्तक में काल्पनिक यात्रियों के माध्यम से तत्कालीन फ्रांसीसी समाज की आलोचना की। वह इंग्लैंड से बहुत प्रभावित थे और राजतंत्र के समर्थक थे, लेकिन वह राजा की शक्ति को संतुलित या नियंत्रित करने के लिए अन्य संस्थाओं को शक्तिशाली बनाना चाहते थे। उनकी दूसरी पुस्तक स्पिरिट ऑफ़ लॉज में वह राजा की निरंकुशता के स्थान पर एक वैधानिक राजतंत्र की बात करते हैं। परोक्ष रूप से उन्होंने फ्रांस के एकतंत्र और केन्द्रीकरण की आलोचना की तथा राजतंत्र को बेहतर बनाने के सुझाव रखे। उन्होंने पहली बार परम्परागत व्यवस्था का एक विकल्प प्रस्तुत किया। उनकी बातें कितनी मूल्यवान थीं, इसका प्रमाण इस बात से मिलता है, कि अमेरिकी संविधान में इसे स्वीकार किया गया और क्रांतिकारी फ्रांस में भी उनके सिद्धांतों को संवैधानिक स्वरूप प्रदान किया गया। आज भी इस सिद्धांत की प्रासंगिकता समाप्त नहीं हुई है और विभिन्न देशों के संविधान में उसे कमोबेश स्वीकार किया गया है।
भारत के संविधान में भी न्यायपालिका और कार्यपालिका को पूरी तरह अलग-अलग रखने का विधान राज्य के नीति निर्देशक तत्वों में स्वीकार किया गया।
तीसरा सबसे महत्वपूर्ण नाम रूसो का था। रूसो एक रोमांटिक व्यक्ति थे, उन्होंने अपने आचरण तथा लेखन में रूढ़ियों की अवहेलना करके स्वतंत्रता और समानता के विचार प्रस्तुत किए। उन्होंने साहित्य, शिक्षा,समाज और राज्य के विषय में नये विचार प्रस्तुत करके लोगों को भावना और विवेक दोनों स्तरों पर प्रभावित किया। उन्होंने राज्य के दैवी सिद्धांत को अस्वीकार करके बताया,कि राज्य का जन्म किसी समझौते से होता है तथा उसने समझौता करने वालों अर्थात जनता को शक्तिसम्पन्न बताया। बहुत विवेकपूर्ण और तर्कसंगत विश्लेषण न कर पाने के बावज़ूद उन्होंने तत्कालीन समाज को काफी हद तक प्रभावित किया। उनकी सबसे महत्वपूर्ण पुस्तक का यह वाक्य मानो क्रांति का उद्घोष बन गया-"मनुष्य आज़ाद पैदा होता है, लेकिन बाद में वह चारों ओर से जंजीरों से जकड़ दिया जाता है।" उनकी आस्था का केन्द्र मानव था, इसलिए स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व (लिबर्टी, इक्वैलिटी एण्ड फ्रेटरनिटी) जैसे सिद्धांत उनकी लेखनी से प्रकट हो सके, यद्यपि उनके विचार काल्पनिक माने जाते हैं, लेकिन तत्कालीन समाज के लोगों का मोहभंग करने में उन्हें सफलता मिली। मध्यवर्ग उनका भक्त हो गया तथा उनके विचारों का क्रांति पर ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा।
इसके अलावा भी अन्य अनेक ऐसे विचारक क्रांति से पूर्व हुए, जिन्होंने अपने स्वाधीनता, तर्क और विज्ञान की अवधारणा से न केवल फ्रांस में बल्कि समूचे यूरोप में तर्क बुद्धि की एक नयी लहर पैदा की तथा धर्मकेन्द्रित सामन्ती समाजों में एक नयी क्रांतिकारी लहर पैदा की, जिसके मूल में तर्क, बुद्धि और विवेक था, लेकिन इस क्रांति की सबसे महत्वपूर्ण बात नागरिक अधिकारों का घोषणापत्र है, बाद में करीब-करीब जिसकी सारी धाराओं को संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकारों के घोषणापत्र में स्वीकार किया गया, इसमें करीब 17 मुख्य बातें हैं,लेकिन उनमें भी कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण हैं, जो इसके ज़ारी होने के दो सौ वर्ष से अधिक बीत जाने के बाद भी आज भारत सहित सारे विश्व के लिए प्रासंगिक है, क्योंकि इसमें निहित अनेक लक्ष्य अभी भी दुनिया में लागू नहीं हो सके हैं।
दुनिया भर में कहीं भी जाति, धर्म या भाषा के आधार पर जब किसी मनुष्य अथवा जाति का उत्पीड़न होता है, तो इस घोषणापत्र की याद आती है। इसकी कुछ महत्वपूर्ण बातें:-
● मनुष्य के कुछ नैसर्गिक अधिकार हैं,जो उसे जन्म से प्राप्त होते हैं, जैसे अपनी सुरक्षा का अधिकार, अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य का अधिकार, सम्पत्ति रखने का अधिकार आदि।
● कानून सामान्य इच्छा की अभिव्यक्ति होती है। राज्य का जन्म व्यक्तियों के सामूहिक प्रयत्न का फल है, इसीलिए व्यक्ति को स्वयं या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से शासन और विधि निर्माण में भाग लेने का अधिकार है।
● किसी भी संस्था; चाहे वह परिवार हो या राज्य, यह कर्तव्य है कि वह नागरिक के अधिकारों की रक्षा करे।
● राज्य व्यक्ति का दमन न करे, इसके लिए उसके अधिकारों पर नियंत्रण की व्यवस्था होनी चाहिए।
● सत्ता यदि जन के अनुकूल नहीं है, तो उसे बदलने और ऐसा करने में शस्त्र तक उठाने का अधिकार है।
● दोषी घोषित होने के पूर्व तक प्रत्येक मानव निर्दोष होगा, यदि एक मानव को बंदी बनाना अत्यंत आवश्यक होगा, तो बंदी बनाने की प्रक्रिया में प्रत्येक प्रकार की प्रयुक्त की जाने वाली सख़्ती को कानून द्वारा कठोरतापूर्वक निर्धारित किया जाएगा।
● किसी व्यक्ति को उसके विचारों के लिए उत्पीड़ित नहीं किया जाएगा, यहाँ तक कि धार्मिक विचारों तक के लिए भी नहीं, जब तक कि उन विचारों की अभिव्यक्ति कानून के द्वारा स्थापित व्यवस्था को भंग करने वाली न हो।
(हिस्टोरियंस हिस्ट्री ऑफ दि वर्ल्ड : हिस्ट्री ऑफ फ्रांस,1715-1815 से उद्धृत तथा अंग्रेजी से हिन्दी में लेखक द्वारा अनूदित)
इस घोषणापत्र ने न केवल फ्रांस को बल्कि सारी दुनिया को प्रेरित किया और आज भी कर रहा है। आज जब भारत में व्यापक रूप से मानवाधिकारों तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन किया जा रहा है। धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव और उत्पीड़न किया जा रहा है, निरपराधों को जेलों में डाला जा रहा है, इस समय उस घोषणापत्र को एक बार पुनः याद करने की कितनी ज़रूरत है यह कहने की बात नहीं है। मुझे उस घोषणापत्र में एक बात सबसे महत्वपूर्ण लगती है, कि अन्याय के ख़िलाफ़ हर तरह का प्रतिरोध जायज़ है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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