विशेष: क्या और क्यों आज भी बिहारी शब्द गाली के तौर पर इस्तेमाल होता है?
बहुतेरे लोग बिहारी शब्द का इस्तेमाल एक तरह से गाली के तौर पर करते हैं। जबकि कुछ लोगों ने इसका जवाब इस तरह से देना तय किया है कि बिहारी शब्द कोई गाली नहीं है बल्कि उनकी पहचान का अभिन्न हिस्सा है, जिस पर उन्हें गर्व है। फिर भी यह बात समझने वाली है कि बिहारी शब्द का इस्तेमाल गाली के तौर पर क्यों किया जाता है?
तो सबसे पहले और बुनियादी बात यह मानवता के इतने लंबे सफर के बाद भी ज्यादातर मनुष्य की चेतना जीवन भर यह बात नहीं समझ पाती है कि कई सारे अलगाव के बावजूद भी सामने वाला मनुष्य ही है। कई सारे पहचानों में बैठे होने के बावजूद सभी मनुष्य हैं। यह छोटी सी बात जितनी आसान मालूम पड़ती है जीवन में उतरानी उतनी ही मुश्किल होती है। बिहारी पहचान के साथ भी यही है। सामने वाले के लिए कोई बिहारी मानुष उसी की तरह मनुष्य ना होकर कभी कभार महज बिहारी बनकर रह जाता है।
तमिल, मराठी, बंगाली, तेलुगू और मलयालम जैसे शब्दों का इस्तेमाल करते हुए वैसा भाव पैदा नहीं होता जैसा बिहारी शब्द का इस्तेमाल करते समय होता है। ऐसा क्यों है कि तमिल, मराठी, बंगाली, तेलुगू और मलयालम जैसे शब्द सकारात्मक एहसास पैदा करते हैं, जबकि बिहारी नकारात्मक? बिहारी के अलावा दूसरी पहचानों को नीचता के भाव से नहीं देखा जाता है। अगर भाषाई पहचान के लिहाज से देखा जाए तो इसका जवाब देना आसान है।
मराठी के साथ शिवाजी का गौरव भाव प्रतीक के तौर पर आता है। तमिल के साथ दुनिया के सबसे पुराने साहित्यों में से एक होने का गौरव भाव आता है। बंगाली भाषा अपनी साहित्यिक बौद्धिकता के लिए जानी जाती है। मगर बिहारी के साथ यह भाव नहीं आता। भारत के कई राज्यों का जन्म भाषा के आधार पर हुआ। उनकी भाषा उनकी सांस्कृतिक गौरव का प्रतीक थी। मगर बिहार के साथ ऐसा नहीं है। बिहार के साथ बिहारी पहचान वह गौरव भाव लेकर नहीं आती है, जो गौरव भाव दूसरे राज्यों के पहचानो से जुड़ी होती है।
अलग-अलग जगहों पर उस जगह से किसी भी तरह की अलग पहचान रखने वाले लोगों को 'अन्य' के तौर पर बरता जाता है। इस अन्य के तौर पर कमतर नजरिये से इस्तेमाल होने वाले शब्दों में केवल बिहारी नहीं आते बल्कि मद्रासी भी आते हैं। मद्रासियों को तो लुंगी वाला तक कहा जाता है। मद्रासियों से भी ज्यादा निकृष्ट तौर पर चिंकी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है। पूर्वोत्तर भारत से जुड़े लोगों के लिए निंदात्मक तौर पर चिंकी शब्द का इस्तेमाल किया जाता है।
कहने का मतलब यह है कि क्षेत्रीयता के तौर पर केवल बिहारी ही ऐसा शब्द नहीं है जिसे निंदात्मक तौर इस्तेमाल किया जाता है। बल्कि मद्रासी और चिंकी भी ऐसा शब्द है जिसे निंदात्मक तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। मगर यहां पर हम केवल बिहारी शब्द का निंदात्मक तौर पर इस्तेमाल किये जाने की बात करेंगे।
जब हम बिहारी शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो इसमें मोटे तौर पर बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड से लेकर कभी-कभार बंगाल के कुछ हिस्से के लोग भी शामिल हो जाते हैं। जानकार कहते हैं कि बिहारी शब्द का एक गाली के तौर इस्तेमाल होना बीसवीं सदी की परिघटना है, 21वीं सदी में इसका इस्तेमाल होता है लेकिन पहले के मुकाबले कम होता है। अब तो धारा बदल चुकी है। समाज में मजबूत पद पर बैठे बहुतेरे लोग अपनी बिहारी पहचान को सम्मान के साथ पेश करने लगे हैं। वह सामने वाले के बिहारी पूर्वाग्रह पर जमकर हमला करने के लिए तैयार रहते हैं। मगर समाज में कमतर हैसियत रखने वाले लोगों के साथ अब भी बिहारी शब्द का इस्तेमाल उन्हें नीचा दिखाने के लिए किया जाता है।
20वीं सदी के अंतिम सालों में ऐसा होता था कि आप बिहार से हैं और भारत के किस शहर में खड़े हैं? इस सवाल का जवाब तय करता था कि आपकी बिहारी पहचान को स्वीकार किया जाएगा या नकार दिया जाएगा। इसे निंदात्मक अर्थों में इस्तेमाल किया जाएगा या नहीं। बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में कमाने गए बिहारी लोगों से पूछिएगा तो वह अपना अनुभव साझा करेंगे कि किस तरह से बिहारी की पुकार उन्हें बदनाम करने के लिए लगाई जाती थी।
अब के दौर में यह बदला है। पहली बात यह कि बिहारियों की संख्या (यानी पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड) दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में पहले के मुकाबले ज्यादा बढ़ी है। दूसरी बात यह कि संख्या ज्यादा बढ़ने की वजह से मतदाताओं की सूची में इनकी मौजूदगी इस तरह से है कि यह राजनीति को ढंग से प्रभावित कर सकते हैं। इसलिए दिल्ली और मुंबई की राजनीति में अक्सरहा कुछ ना कुछ इस तरह के पद गढ़े जाते हैं जिनका संबंध बिहार से होता है। दिल्ली का प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव करते समय यह देखा जाता है कि क्या उस पद के लिए कोई बिहारी और यूपी वाला मिल पाएगा? तीसरी बात यह कि छठ पूजा को जिस तरह से शहरों में पेश किया जा रहा है इसलिए बिहारी संस्कृति को शहरों के बीच सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का काम किया है। चौथी बात - नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर बहुत लंबे समय तक कार्यभार संभाला है। उनकी पिछले 10 साल के कामकाज को देखें तो उन्होंने जनसंपर्क या किसी भी तरीके से दिल्ली और बड़े जैसे शहर में बिहार की अच्छी छवि बनाने की कोशिश की है। इसी तर्ज पर बिहार उत्सव जैसे कार्यक्रम होते हैं। पांचवी बात - जब से राजनीति में विकास की बात चल रही है, उसके बाद से कभी-कभार बौद्धिकों का एक धड़ा कहता रहता है कि बिहार में भी विकास का एक मॉडल है। बिहार ने अपने पिछड़ेपन को पीछे छोड़ना शुरू किया है। अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के लेखों में इस तरह की बातों का जिक्र मिलता है।
छठवीं बात : बिहार की तकरीबन 80 फ़ीसदी से ज्यादा की आबादी पिछड़ी जाति से जुड़ी है। यह बीसवीं सदी के अंतिम दशक में सत्ता से दूर रहा करती थी, अब यह अपनी मौजूदगी से पूरी ताकत के साथ सत्ता के समीकरण को बदलने की हैसियत रखती है। इसीलिए सामने वाला भले यह समझे कि लालू नीतीश जैसे नेता निचली जातियों के हैं और उन्हें कमतर निगाहों से देखें मगर पिछड़ी वर्ग के नेताओं के सत्ता के सबसे सफल होना आम लोगों में यह मजबूती पैदा करता है कि वह सामने वाले को चुनौती दे कि बिहारी शब्द गाली नहीं है।
यह सब तो तात्कालिक कारण है, जो बताते हैं कि बिहारी शब्द एक गाली क्यों नहीं रहा? मगर इन सबके अलावा कुछ गहरे कारण थे, उन कारणों की शिनाख्त कर लेंगे तो यह समझ जाएंगे कि बिहारी शब्द का इस्तेमाल गाली के तौर पर क्यों किया जाता था?
बिहारी होना मतलब हिंदी भाषी होना। यह बात खुलकर पता नहीं चलती मगर दबे पांव सभी हिंदी भाषी को महसूस होती है कि विद्वता की दुनिया में हिंदी भाषी होना इस बात का सूचक है कि सामने वाले का विद्वता से ज्यादा लेना-देना नहीं है। विद्वता की दुनिया में वह अपात्र है। अकादमिक इलाकों से लेकर स्कूल कॉलेज और प्रशासनिक दुनिया में हर हिंदी भाषी ने इसे महसूस किया होगा। अब यह स्थिति बदली है। यूपी, बिहार की पढ़ने लिखने वालों की दूसरी तीसरी और चौथी पीढ़ी सामने आई है। जो हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं की जानकारी रखती है। पढ़ाई लिखाई की जो चौथी पीढ़ी है, उसके साथ तो ऐसा है कि वह अपने जड़ों से कटी हुई है। अंग्रेजी के ठीक-ठाक माहौल में रच बस गई है।
दूसरी गहरी बात यह है कि नौकरी की तलाश में बिहार यूपी से दिल्ली मुंबई के शहरों में जमकर प्रवास हुआ। साल 1990 से लेकर साल 2010 का दौर अगर उठा कर देखा जाए तो प्रवासियों की बहुत बड़ी फौज दिखेगी। यह प्रवास रुका नहीं है। अब भी होता है। मगर पहले से कुछ बदला है। जब पहली बार बिहारी समाज दिल्ली मुंबई के शहरों में पहुंचा तो वह मजदूरी के काम किया करता था। जैसे ठेला लगा लेना, पान की दुकान लगा लेना, गाड़ी साफ करना, पंचर लगाना। यह सब काम वह अब भी करता है। लेकिन जो पहले गए उसमें कुछ हिस्सा ऐसा भी हो गया है जो शहरों में जाकर रच बस गया। मजदूर से मालिक की कैटेगरी में चला गया है। पहले ज्यादातर बिहारी समाज के साथ दिल्ली-मुंबई शहरों का रिश्ता मालिक और मजदूर का था। धनी और गरीब का था। ताकतवर और कमजोर का था। मालिक और किराएदार का था। मालिक दूसरे समाज के लोग होते थे और किराएदार बिहारी समाज का व्यक्ति होता था। गाड़ी दूसरों समाज के लोगों के पास होती थी और गाड़ी साफ करना बिहारी समाज का काम होता था। इसलिए स्वामित्व की हैसियत में खुद को रखने वाला समाज अपने यहां मजदूरी कर रहे लोगों को तलछट से जुड़ा समाज समझता था। इसलिए बिहारी गाली थी। अब भी ढेर सारे मजदूर दिल्ली-मुंबई जाते हैं मगर जो बीसवीं शताब्दी के अंत के दौर में गए थे उनमें से ज्यादातर अब ठीक-ठाक जगहों पर पहुंच चुके हैं। वह शहरों में ठीक ठाक हैसियत रखते हैं। उनके पास भी दिल्ली के दूरदराज के इलाकों में मकान हो गया है। अगर आर्थिक तौर पर वह कमजोर भी हैं तो उनकी दूसरी और तीसरी पीढ़ी दिल्ली में रह रही है इसलिए वह खुद को दिल्ली वाला भी बताने लगे हैं। इस तरह से बिहारी मजदूर वर्ग में बिहारी शब्द अब भी ज्यादातर गाली के तौर पर इस्तेमाल होता है लेकिन यह पहले से कम हुआ है।
तीसरी गहरी बात यह है कि जब ग्रामीण परिवेश से लोगों ने शहरों में पहली बार प्रवास किया। जिसमें ज्यादातर बिहारी समाज के लोग थे तो शहरों की कम जानकारी के अभाव में उन्होंने शहरों को अपनी तरफ से जानने की कोशिश की लेकिन शहर वासियों ने उन्हें बड़े अटपटे ढंग से देखा। जैसे जब आप पहली बार शहर में जाते हैं तो आप पूछते हैं कि यह सड़क कहां जाती है? कहां पर स्कूल होगा? एम्स में आंख का इलाज कराने वाला डॉक्टर कहां बैठता है? यह बड़ी बड़ी बिल्डिंग क्या है? यह सारे सवाल सहज जिज्ञासा के सवाल होते हैं। शहर के अजनबी परिवेश में किसी बाहरी के लिए जरूरी सवाल होते हैं। मगर हमें पता भी नहीं होता हमारे भीतर का शहरवासी इन सवालों को बड़े अटपटे ढंग से स्वीकार करता है। उसे लगता है कि आप कौन से लोग आ गए हैं? जो इस तरह अटपटा व्यवहार कर रहे हैं। मौजूदा समय में देखा जाए तो यह स्थिति पूरी तरह से कम हो गई है। अब अटैची लिए हुए सड़क पर घूमते बिहारी समाज के कम लोग दिखते हैं अगर दिखते भी हैं और कुछ पूछते भी हैं तो वह अटपटा नहीं लगता क्योंकि ऐसा संभव है कि जवाब देने वाला भी बिहारी समाज का ही हो।
मोटे तौर पर कहा जाए तो बिहारी शब्द को गाली के तौर पर तब बरता जाता था जब बिहारी समाज से हिंदी भाषी होना, मिल्कियत और स्वामित्व का ना होना और शहर से अजनबी रिश्ते का होना जैसा बोध होता था। अब यह बोध कम हुआ है। इसलिए बिहारी शब्द को गाली के तौर पर कम इस्तेमाल किया जाता है। मगर फिर भी जहां पर यह बोध बचा होगा वहां पर यह गाली के तौर पर इस्तेमाल होता होगा।
जैसे नोएडा में महिला और गार्ड के बीच जो कहा सुनी हुई - उसके भीतर यही है की महिला अपने आप को ताकतवर समूह से जोड़ती है और गार्ड को कमजोर समूह से। खुद को अंग्रेजी दा समूह से जोड़ती है और गार्ड को हिंदी और मजदूर समूह से। उसकी बातों में एक बात पर गौर कीजिएगा। उसने कई बार कहा कि तुम सोसाइटी में गार्ड का काम कर रहे हो। कहने का मतलब यह है कि उसके सामने सोसाइटी कोई बड़ी चीज है जिसमें गार्ड की नौकरी पा जाना भी बहुत बड़ी बात है। इसलिए सामने वाले को अपनी औकात समझनी चाहिए। वह सोसाइटी का हिस्सा है। वह शिष्ट है, एलीट है, अमीर है। ऐसी जगह पर तुम जैसे विचित्र प्राणी को गर्दन झुका के रहना चाहिए।
कुछ लोगों के मन में सवाल उठता है कि बिहार से पत्रकारिता की दुनिया में बहुत सारे लोग हुए हैं, प्रशासनिक पदों पर ढेर सारे लोग पहुंचे हैं, आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थानों में बहुत सारे लोग पहुंचे हैं तो बिहारी शब्द गाली की तरह क्यों इस्तेमाल किया जाता है? इस सवाल का पहला जवाब तो यह है कि आंकड़ों के तौर पर देखा जाए तो बिहारी समाज से ऊंचे पदों पर पहुंचने वाले लोग इतनी बड़ी संख्या में नहीं है कि यह कहा दिया जाए कि हरियाणा, पंजाब, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के मुकाबले भारत के ऊंचे पदों पर बिहारी समाज की दावेदारी ज्यादा है। इसके अलावा बड़ी बात तो यह है कि बिहारी समाज से जितने लोग ऊंचे पदों पर नहीं पहुंचे उससे कई गुना ज्यादा लोग आज भी मजदूर हैं। तो यह कोई बात नहीं।
लेकिन समझने वाली बात यह है कि यह बात कही क्यों जाती है की बिहारी समाज से बहुत सारे लोग ऊंचे पदों पर गए हैं इसलिए बिहारी गाली नहीं हुई। बड़े ध्यान से देखा जाए तो ऐसा कहने वाले ज्यादातर लोग बिहारी होते हैं। वह अपनी ब्रांडिंग कर रहे होते हैं ताकि बिहारी शब्द का नकारात्मक असर पीछे छूटे।
दरअसल पहचान की प्रकृति होती है कि वह एक तरफा संवाद नहीं करती। वह दो तरफा का संवाद करती है तभी जाकर पहचान का असर पड़ता है। जैसे दंगों में किसी के लाख कहने पर कि वह हिंदू है दंगाई उसे तब तक नहीं छोड़ता जब तक उसे खुद ना यकीन हो जाए कि सामने वाला हिंदू ही है वह मुस्लिम नहीं है। मतलब दो तरफा संवाद होना चाहिए। जब बिहारी समाज को लगा कि बिहारी शब्द को गाली के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है तो उन्होंने अपनी ब्रांडिंग करनी शुरू की। उन्होंने यह बताना शुरू किया की कैसे भारत के ऊंचे पदों पर उनकी मौजूदगी है और फिर भी न जाने क्यों उन्हें पिछड़ा माना जाता है। इस काम में वह कमोबेश सफल हुए हैं। मगर इसका यह मतलब नहीं कि बिहारी के आलावा दूसरे समाज के लोगों ने इसे दिल से स्वीकार कर लिया है।
एक बात और कही जाती है कि बिहार का व्यक्ति जब बिहार से बाहर निकलता है तब वह बिहार लौट कर वापस नहीं आता है। अगर आता भी है तो एक नॉस्टैल्जिया कर भाव से आता है। बिहार उसका कर्म क्षेत्र नहीं बनता। वह अपनी स्थानीयता को समृद्ध नहीं करता है। इसके पीछे बड़ा कारण यह है कि विकास की चालक शक्तियों के तहत बिहार की बसें तीन बार छूटी। पहली बार जब देश के दूसरे इलाकों में हरित क्रांति हो रही थी तब बिहार में नहीं हुई। दूसरी बार जब देश के दूसरे इलाकों में औद्योगिक क्रांति हो रही थी तब वह बिहार में नहीं घटी। देश के दूसरों इलाकों के ज्यादातर लोग बिहार में पटना के अलावा दूसरे शहर का नाम नहीं जानते। यही हाल विकास की तीसरी चालक शक्ति के साथ हुआ। बिहार में ढंग के सेवा क्षेत्र का भी निर्माण नहीं हुआ। साइबर सिटी और फाइनेंसियल सिटी बंगलुरु और अहमदाबाद जैसे शहरों में बने। बिहार में नहीं बने। बिहार से ट्रेन बेंगलुरु के लिए खुलती है। ऐसा नहीं होता कि बंगलुरु से ट्रेन बिहार के लिए खुले। व्यक्ति की कुछ निजी जेनुइन आकांक्षाएं होती हैं। वह अपने जीवन जीने की संभावनाओं को बेहतर से बेहतर करना चाहता है। उस बेहतरी के रास्ते में अब भी बिहार कईयों के लिए ढंग की जगह नहीं है।
इन सबके अलावा यह बात तो है ही कि बिहार से ज्यादा मजदूर प्रवास करते हैं। हमारे समाज में अब भी हाथ से काम करने वालों को हिकारत की नजर से देखा जाता है। श्रम को हिकारत की भावना से देखा जाता है और बुद्धि को श्रेष्ठ भावना से। बिहार की तरफ से भारत में बहुत बड़ा सांस्कृतिक निर्यात नहीं हुआ है। वैसा सांस्कृतिक निर्यात नहीं हुआ है जैसा महाराष्ट्र, बंगाल से हुआ हो। इसकी वजह से दूसरों के मन में बिहार को लेकर वैसी छवी की कमी है जो उसे अहमियत दिलाती है। मगर फिर भी एक ग्लोबलाइज्ड समाज में सारी संस्कृतियां धीरे धीरे पतन की तरफ हैं। सब का सिरा पश्चिम की तरह मुड़ा हुआ है। वैसे समय में बिहारी संस्कृति या किसी भी स्थानीय संस्कृति को लेकर के जो गंभीर सवाल उठने चाहिए वह सवाल नहीं उठते हैं। इसलिए इन नजरियों का महत्व होते हुए भी ज्यादा अहम बात यह है कि बिहारी समाज ने देश के दूसरे समाज के मन में खुद को लेकर मजदूरी का भाव पैदा। जैसे-जैसे यह भाव टूटता जा रहा है बिहारी शब्द का निंदात्मक अर्थों में इस्तेमाल कम होते जा रहा है। जहां पर यह भाव बचा है वहां पर बिहारी अब भी गाली के तौर पर इस्तेमाल होता है।
अपने टेलीग्राम ऐप पर जनवादी नज़रिये से ताज़ा ख़बरें, समसामयिक मामलों की चर्चा और विश्लेषण, प्रतिरोध, आंदोलन और अन्य विश्लेषणात्मक वीडियो प्राप्त करें। न्यूज़क्लिक के टेलीग्राम चैनल की सदस्यता लें और हमारी वेबसाइट पर प्रकाशित हर न्यूज़ स्टोरी का रीयल-टाइम अपडेट प्राप्त करें।