बिहार विधानसभा चुनाव के पांच अहम सबक़
बिहार चुनाव में एनडीए की जीत के बाद नीतीश कुमार के नेतृत्व में एक बार फिर सरकार बनी है। हालांकि, इस चुनाव में बीजेपी ने जेडीयू से ज्यादा सीटें हासिल कीं, बावजूद इसके उन्होंने मुख्यमंत्री का पद नीतीश कुमार को ही दिया है।
गौरतलब है कि बिहार विधानसभा की 243 सीटों पर हुए चुनाव में एनडीए ने 125 सीटें हासिल कर पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया है। विपक्षी महागठबंधन को इस चुनाव में 110 सीटें हासिल हुई हैं। अंतिम तौर पर घोषित नतीजों में भाजपा को 74, जदयू को 43, राजद को 75, कांग्रेस को 19 सीटें प्राप्त हुई हैं। वाम दलों को 16 सीटें गई हैं।
इस चुनाव में बिहार की जनता ने भी लगभग सभी सियासी दलों को एक संदेश दिया है जो आगामी दिनों में प्रदेश और देश की राह तय करेंगे। चुनाव में जीत हार से परे इस सबक़ को हम सबको जानना चाहिए।
कमज़ोर नीतीश युग की शुरुआत
नीतीश कुमार लगातार भले ही चौथे कार्यकाल के लिए राज्य के मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं लेकिन एनडीए में उनका पहले वाला रुतबा नहीं रहा। उनकी पार्टी बीजेपी से छोटी पार्टी हो गई है। साथ ही यह बात भी किसी से छिपी नहीं है कि यह उनका आखिरी कार्यकाल है। नीतीश कुमार ने कहा कि वे चाहते थे कि भाजपा का मुख्यमंत्री बने पर भाजपा के कहने पर मुख्यमंत्री बन रहे हैं। जाहिर है कि यह बयान उनकी ताकत का नहीं मजबूरी का अहसास कराता है।
बता दें कि नीतीश कुमार बिहार और भारत की राजनीति में एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। लंबे समय से राजनीति में रहने के बावजूद उन्होंने अपनी छवि पढ़े लिखे, भ्रष्टाचार से मुक्त और अच्छे प्रशासक की बनाई है। पिछड़ा वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नीतीश को सुशासन बाबू का खिताब भी जनता से मिला है। लेकिन पिछले पांच साल के कार्यकाल में उनके सुशासन की चमक फीकी पड़ गई।
इसके चलते बिहार के मतादाताओं ने उनका कद घटा दिया है। इशारा साफ है कि उन पर पहले जैसा भरोसा नहीं रहा।
सुशील मोदी का जाना और भविष्य की तैयारी
भाजपा ने बदलाव की ओर पहला कदम बढ़ाते हुए सुशील मोदी की बजाय तारकिशोर प्रसाद को विधानमंडल दल का नेता और रेणु कुमारी को उपनेता बनाया है। ऐसे में सुशील मोदी का हटना नीतीश कुमार के लिए भी संदेश है कि गठबंधन में उनके एकाधिकार का युग समाप्त हो गया है।
साथ ही भाजपा ने नया नेता चुनकर बदलाव और भविष्य का तैयारी का साफ संदेश दिया है। इसके लिए भाजपा ने सामाजिक समीकरण का भी ध्यान रखा है। 74 सीटें जीतने के बाद भाजपा जिस तरह से अपने पत्ते खेल रही है उससे साफ है कि वह सिर्फ इतने से ही संतुष्ट नहीं होने वाली है।
वह आगामी चुनावों के लिए अभी से मैदान तैयार करने लगी है। मोदी शाह के नेतृत्व वाले बीजेपी की यही खासियत उसे दूसरों से अलग बना रही है। वह ऐसा खेल कर रहे हैं कि जनता कनफ्यूज हो रही है। बिहार चुनाव कवर कर रहे ज्यादातर पत्रकारों का यह मानना था कि सत्ता विरोधी लहर नीतीश के लिए है, उसकी सहयोगी बीजेपी पर इसका असर कम है।
तेजस्वी रहे मैन ऑफ द मैच
तमाम आलोचनाओं और कमियों के बावजूद इस पूरे बिहार चुनाव के मैन ऑफ द मैच तेजस्वी यादव रहे हैं। बिहार के जनता ने इस युवा नेता पर भरोसा जताया है। उनकी पार्टी इस चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। उनके गठबंधन को चुनावों में भले ही जीत न मिली हो लेकिन तेजस्वी ने यह दिखा दिया है कि जनता अब भी विकल्पहीनता की शिकार नहीं है।
एनडीए गठबंधन के तमाम दांव पेंच, संसाधनों और लोकलुभावन योजनाओं के बीच युवा तेजस्वी को इतना वोट मिलना मायने रखता है। गठबंधन को लेकर भी उनकी सूझबूझ का लोहा इस बार सबने माना है। अपने पिता की अनुपस्थिति में उन्होंने एक लंबी लड़ाई लड़ी और बिहार की जनता ने इसमें उनका पूरा साथ दिया है।
तेजस्वी के इस प्रदर्शन ने दूसरे तमाम राज्यों के उन क्षेत्रीय दलों में उत्साह भरने का काम किया है जो कही न कही बीजेपी के उभार के बाद हाशिए में चले गए हैं। आगामी पांच साल तेजस्वी के पास एक बहुत ही परिपक्व राजनेता के रूप में उभरने का मौका है। उन्हें बस ध्यान यह रखना है कि जनता से जुड़े रहना है।
'डार्क हॉर्स' का ख़िताब वाम दलों को
बिहार में चुनावी हाशिये पर रहे वामपंथी दलों ने 16 सीटों पर जीत हासिल कर लंबे समय बाद वापसी की है। क्रमश: छह और चार सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाकपा और माकपा ने दो-दो सीटें जीती हैं। भाकपा (माले) ने 19 सीटों पर चुनाव लड़कर 12 सीटों पर जीत हासिल की है।
वाम दलों के विपक्षी महागठबंधन को भले ही सत्ता हासिल नहीं हुई हो लेकिन भाकपा, माकपा, भाकपा माले इस विधानसभा चुनावों में सबसे ज्यादा फायदे में रहने वाली पार्टियों के तौर पर उभरी हैं। अब इस प्रदर्शन के कारणों को लेकर जानकारों में तमाम तरह के मतभेद हो सकते हैं लेकिन इसका एक बड़ा कारण जमीनी स्तर पर मौजूदगी है, इससे किसी को इंकार नहीं है।
पिछले कई चुनावों से मिल रही विफलताओं से घबराए बिना भी लगातार आंदोलनों, प्रदर्शनों के जरिये मजदूरों और शोषितों की आवाज उठाने का नतीजा सीटों के रूप में इस चुनाव में दिखा है। साथ ही वाम दलों ने इस बार बिहार के विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक ताने-बाने को गहराई से समझने की कोशिश की जिसने इस परिणाम को संभव बनाया है। वाम दलों की यह सफलता दिखाती है कि जनता के बीच में रहना हमेशा ही आपके लिए फायदेमंद रहता है। उन्हें इस चुनाव के फार्मूले को दूसरे राज्यों में भी अप्लाई करना होगा।
कांग्रेस को करना होगा विचार
बिहार विधानसभा चुनाव में सबसे लचर प्रदर्शन कांग्रेस का रहा है। बिहार में महागठबंधन सत्ता से महज कुछ सीट दूर रह गया। कांग्रेस 70 सीट पर चुनाव लड़ी थी और उसे सिर्फ 19 सीटों पर ही कामयाबी मिली है।
उसके इस प्रदर्शन के बाद तारिक अनवर, कपिल सिब्बल जैसे पार्टी के नेता और शिवानंद तिवारी जैसे साथी दलों के नेता सवाल उठा रहे हैं। पूर्व केंद्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने कांग्रेस नेतृत्व की आलोचना करते हुए पार्टी में अनुभवी ज्ञान रखने वाला, सांगठनिक स्तर पर अनुभवी और राजनीतिक हकीकत को समझने वाले लोगों को आगे लाने की मांग की है। पार्टी नेतृत्व पर बिना लागलपेट के आलोचना करते हुए सिब्बल ने कहा कि आत्मचिंतन का समय खत्म हो गया है।
गौरतलब है कि कांग्रेस की इस तरह की आलोचना लंबे समय से हो रही है। बिहार चुनाव में मिले संदेश ने इसे और भी स्पष्ट किया है। निसंदेह तमाम आलोचनाओं से परे कांग्रेस को आत्ममंथन करना चाहिए।
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