प्रकृति के सान्निध्य में निरंतर प्रवाहित आदिवासी महिलाओं की लोककला: झारखण्ड की भित्ति चित्रण परम्परा
भारतीय लोक कलायें ही हैं कि जो भारत में सदियों से लोक कथाओं और लोकगीतों के समान निरंतर लोक जीवन में जीवंत, मधुर और उल्लसित ढंग से प्रवाहित रही हैं। जहां शास्त्रीय कलायें नगरों में भारत के विभिन्न राजवंशों के काल में पल्लवित होती रहीं, विकसित होती रहीं। समय के अनुसार उनका महत्व राजाश्रय की प्राचीर तक सीमित हो गया। विदेशी आक्रमण एवं विदेशी शासन ने उन्हें और भी ज्यादा आक्रांत किया, प्राय: नष्टप्राय भी किया। वहीं लोक कलाओं ने समय से समझौता करते हुए अपने को नष्ट नहीं होने दिया। अपनी परम्पराओं, त्योहारों रीती-रिवाजों में उन्हें आवश्यकतानुसार शामिल करते हुए खुद को जिंदा रखा। यहां तक कि विदेशी भी उनसे बहुत प्रभावित हुए।
झारखंड भारत का आदिवासी बहुल क्षेत्र है। जहां लगभग चालीस जनजातियां रहती हैं जिनमें मुण्डा, ओरांव, हो, सन्थाल बीरहोर और प्रजापति आदि जातियां रहती हैं। इन जनजातियों की अपनी परम्पराएं अपने त्योहार होते हैं जिनमें भित्ति चित्र का सृजन अनिवार्यत: होता है। सोहराई, कोहबर, जदुपतुआ व पेटकर चित्रण शैली इनकी प्रमुख चित्र परम्परा है। जो अक्टूबर से जनवरी महीने तक आदिवासियों के त्योहार और शादी ब्याह में बनाए जाते हैं।
ये जनजातियां जंगल के किनारे मैदानी इलाकों में अपने स्वनिर्मित मिट्टी के घरों में रहती हैं। ये घर बांस की टहनियों, खरपतवार और मिट्टी से बने होते हैं। ये मिट्टी के घर स्थापत्य की दृष्टि से आज के शहरों में पाये जाने वाले 'ठोस कंक्रीट' के वातानुकूलित घरों से बेहतर हैं। क्योंकि ग्रीष्म ऋतु में ये घर ठंडे और जाड़े के समय चूंकि घरों के अंदर ही महिलाएं खाना बनाती हैं इसलिए घर गर्म रहते हैं।
झारखंड में वर्षा ऋतु के समय भारी बारिश होती है। लगातार बारिश से आदिवासियों के मिट्टी के घर क्षतिग्रस्त हो जाते हैं। आदिवासी महिलायें और पुरुष बहुत मेहनती होते हैं। इनकी पूरी जिंदगी कठोर श्रम में ही गुजरती है। इन घरों के निर्माण में पुरुष और महिलाओं दोनों की भागीदारी होती है। अतः वर्षा ऋतु के पश्चात क्षतिग्रस्त घरों की दरारों को भरने के लिए उनमें साफ मिट्टी की मोटी परत लगाकर दीवारों को मजबूत बनाती हैं।
महिलाओं द्वारा सृजन की जाने वाली लोक चित्रण परम्परा में झारखंड, संथाल परगना की भित्तिचित्र कला महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है।
जंगल और पहाड़ से नजदीकियां अर्थात प्रकृति से निकटता। पहाड़ी ज़िंदगी कठिन भी है आदिवासियों के लिए। लेकिन यह जिंदगी मानव और प्रकृति के प्रगाढ़ प्रेम से भरी भी है। तो क्यों ना हो कला का जन्म और सृजन।
भित्ति चित्रण आदिवासी महिलाओं के दैनिक जीवन-शैली का महत्वपूर्ण अंग है। अक्टूबर से जनवरी महीने के दौरान जब नयी फसल की कटाई का समय आता है या फसल कट जाती है। अंजोरिया (पूर्णमासी) का समय आता है तो झारखंड में भी समस्त आदिवासी जनजातियां उत्सव के रंग में रंग जाती है महत्वपूर्ण त्योहार शुरू हो जाते हैं। शादी-ब्याह का मौसम भी शुरू हो जाता है।
सोहराई भित्ति चित्रण
'सोहराई' सर्दियों के फसल कटाई के बाद 'धन समृद्धि' के देवता और प्रकृति मां की पूजा उत्सव के दौरान बनाया जाने वाली भित्ति चित्र परम्परा है। झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल के संथाल, उरांव, मुण्डा, प्रजापति और 'सदान' जातियों द्वारा, दीपावली के तुरंत बाद मनाया जाने वाला त्योहार 'सोहराई' पर्व है। 'सोहराई' नाम पूर्व पाषाण युगीन 'सोरो' शब्द से बना है, जिसका मतलब है एक छड़ी के साथ आगे बढ़ना।
इन, चित्रों में वे अपने देवता, प्रकृति में विद्यमान- फूल-पत्तियां, पेड़-पौधे चिड़िया जैसे गौरैया, मोर, तोता गिलहरी, सरीसृप छिपकली, सांप, जानवर जैसे गाय, बारहसींगा आदि को अनगढ़ लेकिन सुन्दर ढंग से अलंकृत करती हैं। पहाड़ और जंगल के करीब निवास करने के कारण वास्तव में प्रकृति उनकी आत्मा में बसती है। प्रकृति का नैसर्गिक सौंदर्य उनकी कला में अपनी अनूठी छटा बिखेर देता है। प्रकृति उनके लिए मां के समान है।
आदिवासी चित्रकला (भित्ति पर ही प्रमुखतया) शैली भी वही है जो प्रागैतिहासिक काल से ही गुफा चित्रों में चला आ रही है। इसके मोटिफ (डिजाइन ) लगभग 10,000-4000 ईसा पूर्व से चले आ रहे हैं। हजारीबाग के गुफा चित्रों में इस तरह के ही मिलते-जुलते अभिकल्प (मोटिफ) पाये गये हैं। इन चित्रों की शैली मुक्त हस्त संचालित (फ्री हैंड), गतिशील रैखिक या रेखा प्रधान होते हैं। आदिवासी चित्रकला मोनोक्रोमिक (दो या तीन रंगों में) या रंगीन होते हैं। इनमें प्रयुक्त होने वाले रंग प्रकृति प्रदत होते हैं। जैसे खड़िया,गेरू ,रामरज और काली मिट्टी आदि। सोहराई चित्र हमेशा मिट्टी की भीत पर ही बनाए जाते हैं।
इसके लिए महिलाएं घर के बाहर और अंदर की भीत पर मौजूद पुराने चित्रों को रगड़ कर या फिर से उजली मिट्टी की मोटी परत चढ़ाने के बाद गाय के गोबर की एक परत चढ़ाती हैं। इस तैयार भित्त पर सफेद रंग की मिट्टी से फिर से पुताई करती हैं। इसके बाद अपनी उंगलियों के पोरों से या छड़ी के सिरे को कूट कर (दातौन जैसा़ ) ब्रश बनाती हैं अथवा टहनी में ही कपड़ा लपेट कर तूलिका बना लेती हैं।
सोहराई भित्ति चित्रण में सर्वप्रथम लाल रंग से गतिशील रेखाओं से आकृतियां बनाते हैं। जो पूर्वजों के रक्त, प्रजनन और उर्वरता का प्रतीक है। बाहरी काली रेखाओं से पशुपति शिव की प्रतीकात्मक चित्रांकन बनाया जाता है। पुराने चावल के घोल से उजला रंग तैयार करते हैं और बिंदुओं से अनाज वैगरह को चित्रित करते हैं। इन चित्रों में जानवरों में, ' हाथी' को प्रमुख रूप से जरूर अंकित करते हैं। उनके लिए हाथी प्रतीक है हरे-भरे धान के खेत का।
' सोहराई ' कला मां द्वारा बेटी को पीढ़ी दर पीढ़ी सिखाई जाने वाली एक अभूतपूर्व अर्थ रखने वाली जीवन से जुड़ी कला है।
कोहबर कला
झारखंड की एक दूसरी भित्ती चित्र परम्परा है 'कोहबर कला' । 'कोहबर' चित्र वास्तव में आदिवासीयों में शादी के दौरान नव वर वधू के नव जीवन शुरू करने के लिए बनाए गए 'नवगृह' के भित्तियों पर बनाया गया अभिकल्प है। जिसमें नव जीवन संरचना और ऊर्वरता से संबंधित प्रतीक चिन्ह बनाये जाते हैं। ये म्यूरल वसंत ऋतु में शादी ब्याह के मौसम में 'जनवरी से मानसून के शुरुआत में जून माह' तक बनाए जाते हैं। इस म्यूरल को नववधू की मां और गांव की अन्य महिलाएं परम्परागत विधि- विधान से तैयार करती हैं।यह भित्तिचित्र कला मां से बेटी को प्रदान किया जाता है।
'कोहबर' म्यूरल बनाने के लिए पहले काली मिट्टी ( डार्क चारकोल, अर्थ कलर ) से मिट्टी की दीवार को रंगा जाता है। इसके पश्चात दीवारों को दुध्धी मिट्टी की (व्हाइट कॉलिन क्ले ) पुताई की जाती है। काला रंग 'मां' और सफेद रंग 'पिता' का प्रतीक माना जाता है।
इस उजले रंग के सूखने से पहले ही महिलाएं टूटी हुई कंघी या अपनी उंगलियों के पोरों से लयबद्ध और गतिमय रेखाओं में प्रकृति से प्रेरित अभिकल्प को दीवार पर उकेरती हैं। इन भित्तिचित्रों में बाघ, हिरण, हाथी, मोर चिड़िया, सांप , फूल -पत्तियां आदि की सुंदर और जीवंत आकृतियां सृजित होती हैं। उरांव जाति की महिलाएं ज्यादातर इस तरह के म्यूरल बनाती हैं।
हजारीबाग के घटवाल चित्रों में एक तरह से छापा चित्रण (स्टेनशील ) तकनीक में भित्ति चित्र बनाये जाते हैं। जिन्हें 'घटवाल' चित्र भी कहते हैं।
सिंहभूम क्षेत्र में बनाए जाने वाले भित्ति चित्रों में महिलाएं मिट्टी के दीवार पर गाढ़े लाल रंग (गेरू) के पृष्ठभूमि पर सफेद रंग चढ़ा कर पत्तियों से छापकर डिजाइन बनाती हैं। ये अभिकल्प भी प्रकृति से प्रेरित होते हैं और ज्यामितीय होते हैं जिनमें बिंदुओं का भी चित्रण होता है। चित्रों में ज्यादातर फूल पत्तियां, सरीसृप, तितलियां आदी आकृतियां अलंकृत ढंग से चित्रित होते हैं।
वर्तमान समय में आदिवासी भित्ति चित्रण में बाजार से मिलने वाले रंगों (पेंट) का इस्तेमाल हो रहा है। व्यावसायिक ( प्रोफेशनल ) कलाकार इसके माध्यम से अच्छा मुनाफा कमा रहे हैं। एजेंसियां (बिचौलिया बन कर) कलाकारों को काम दे रही हैं। झारखंड के सरकारी भवन, रेलवे स्टेशन आदि आदिवासी चित्रकला से भर गये हैं। जिनकी वजह से आदिवासीयों की कला भी चर्चित हो रही है। लेकिन इन चित्रों में वो राग, लय और सौंदर्य नहीं है जो आदिवासी गांवों की महिलाएं अपने स्वयं के माटी घरों को शादी उत्सवों, त्योहारों में सजाने के लिए गीत गाते हुए, घर में ही तैयार रंगों और तूलिका से अलंकृत करती हैं। जिनमें उनकी स्त्री सुलभ आत्मा बसती है।
(लेखक डॉ. मंजु प्रसाद एक चित्रकार हैं। आप इन दिनों लखनऊ में रहकर पेटिंग के अलावा ‘हिन्दी में कला लेखन’ क्षेत्र में सक्रिय हैं।)
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