आम चुनाव; संभावनाएं-आशंकाएं: विपक्ष के साथ नागरिक समाज की भूमिका अहम
वैसे तो आम चुनाव के पहले अभी कई महत्वपूर्ण विधानसभा चुनाव भी होने हैं, पर राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में अब 2024 का लोकसभा चुनाव ही है। उसी के मद्देनजर सारी व्यूहरचना हो रही है।
यह देश के मौजूदा असामान्य दौर का ही प्रतिबिंब है कि चुनाव को लेकर तरह तरह की सम्भावनायें/आशंकाएं हवा में तैर रही हैं। जहां एक संभावना यह जताई जा रही है कि नवम्बर में होने जा रहे विधानसभा चुनावों में हार की आशंका और फिर उसके लोकसभा चुनाव पर सम्भावित असर के पूर्वानुमान ( anticipation ) में मोदी-शाह लोकसभा चुनाव को prepone करते हुए विधानसभा चुनावों के साथ नवम्बर में ही करा सकते हैं। वहीं आशंकाओं का दूसरा छोर यहां तक जाता है कि सत्ताधारी दल की निश्चित हार का assessment होने पर शायद चुनाव ही न हों या बस चुनाव का दिखावा हो। बहरहाल, इतना तो तय है कि अब तक होते आये चुनावों जैसे normal आम-चुनाव की संभावना इस बार कम ही है।
आज जिस तरह एजेंसियों के डर और राजनीतिक-आर्थिक प्रलोभन के carrot and stick policy के खेल द्वारा विपक्षी दलों को तोड़ा जा रहा है, उनके नेताओं को ब्लैकमेल किया जा रहा है और उन्हें साथ आने या जेल जाने में से एक विकल्प चुनने के लिए विवश किया जा रहा है, उसने संसदीय लोकतंत्र को farce बना दिया है। सबसे चिंताजनक यह है कि यह सब सीधे सत्ता शीर्ष से संचालित है और देश के अंदर जनमत अथवा वैश्विक आलोचना की परवाह किये बिना खुलेआम हो रहा है। अब किसी लोकलाज, संविधान- लोकतंत्र की मर्यादा, देश-दुनिया में बदनामी, छवि खराब होने का कोई भय नहीं बचा है।
अमेरिका में " हमारे DNA में लोकतंत्र का " का भाषण झाड़ने के बाद, वहां से देश की धरती पर आते ही जिस तरह विपक्षी एकता की कोशिश में लगे नेताओं को महाभ्रष्ट बताकर धमकाया गया और उसके तुरंत बाद महाराष्ट्र में एक प्रमुख दल को तोड़कर उन्हीं "भ्रष्टों " को सीधे उपमुख्यमंत्री और मंत्री बना दिया गया, वह अमृतकाल के लोकतंत्र के खौफनाक मॉडल का नया टेम्पलेट है, जिसे आने वाले दिनों में और राज्यों में दुहराया जाने वाला है।
सत्ताशीर्ष द्वारा बेखौफ और निर्लज्ज भाव से संचालित यह निर्बाध अभियान कहाँ तक जाएगा, आने वाले दिनों में विपक्ष के कौन कौन नेता जेल में होंगे, कौन बेल पर होंगे और कौन NDA में होंगे, कोई नहीं जानता !
EVM को लेकर मतदाताओं और विपक्षी दलों की आपत्तियां, अविश्वास और शक-सुबहा तो पहले से ही है, आगे चुनावी नैरेटिव अपने पक्ष में मोड़ने, विपक्षी एकता को तोड़ने, चुनाव अभियान और मतदान/मतगणना को प्रभावित करने के लिए क्या क्या होगा, यह सब अभी भविष्य के गर्भ में है। क्या देश के तमाम चुनाव-क्षेत्रों में, विशेषकर मुस्लिम बहुल इलाकों में रामपुर मॉडल पर चुनाव होगा, जहां भारी संख्या में भाजपा-विरोधी मतदाताओं को बूथ तक पहुंचने ही नहीं दिया गया ?
2014 में तो इनकी सत्ता नहीं थी, पर 2019 में जब हार की दूर दूर तक कोई आशंका नहीं थी,तब भी पुलवामा और बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक के नाम पर उन्माद के असामान्य माहौल में चुनाव करवाया गया।
क्या इस बार फिर वैसे ही नाटकीय ढंग से manufacture किये गए असामान्य माहौल में चुनाव के लिए देश को तैयार रहना चाहिए ?
जो हो, 2014 और 2019 के विपरीत इस बार पराजय की वास्तविक ( realistic ) संभावना के मद्देनजर, चुनाव को farce में बदलने और हर हाल में जनादेश के अपहरण का प्रयास तय है।
जाहिर है, अब चुनाव तक का पूरा दौर खतरनाक आशंकाओं से भरा हुआ है। इसीलिए आने वाले दिनों में विपक्षी एकता का सवाल तो केंद्रीय महत्व का है ही, इसके साथ जनता के तमाम तबकों का लोकतांत्रिक जागरण, राजनीतिक सक्रियता और जरूरत पड़ने पर सड़क पर उतरने की तैयारी ही अंततः निर्णायक साबित होगी और जनादेश की रक्षा कर पायेगी।
यह स्वागत योग्य है कि जनता के तमाम सचेत तत्व इस चुनौती और कार्यभार के प्रति सजग हैं। जगह जगह नागरिक समाज के लोग जनता के बीच अभियान चलाने और लोकतांत्रिक आज़ादी तथा नागरिक अधिकारों के सवाल को जोरशोर से उठाने की तैयारी में हैं।
किसान तो पहले से ही MSP गारंटी कानून तथा अन्य लंबित मुद्दों पर मोदी सरकार की वायदाखिलाफी के विरुद्ध 2024 चुनाव के साथ synchronise करते हुए चरणबद्ध आंदोलन की तैयारी में हैं जिसमें उनका नारा है, " खेती बचाओ, देश बचाओ लोकतंत्र बचाओ "। अभी उनका बैठकों- सम्मेलनों का सांगठनिक तैयारी का दौर चल रहा है। मजदूर विरोधी लेबर कोड तथा निजीकरण के खिलाफ मेहनतकश तबकों की लड़ाई जारी है।
अब युवाओं ने भी रोजगार के सवाल पर अभियान छेड़ने के लिए कमर कसनी शुरू कर दी है। रोजगार के मुद्दे पर राष्ट्रीय स्तर पर युवा आंदोलन की रणनीति तय करने के लिए 15 जुलाई को 113 युवा संगठनों द्वारा गठित संयुक्त युवा मोर्चा के बैनर तले राजधानी दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में राष्ट्रीय अधिवेशन आयोजित किया जा रहा है।
इसमें प्रमुखता से यह माँग उठेगी कि देश भर में रिक्त पड़े एक करोड़ सरकारी पदों को पारदर्शिता के साथ अविलंब भरा जाए, रोजगार अधिकार को कानूनी दर्जा प्रदान किया जाए, आउटसोर्सिंग/संविदा व्यवस्था खत्म की जाए, रेलवे, बैंकिंग, बिजली-कोयला, दूरसंचार, पोर्ट समेत शिक्षा-स्वास्थ्य जैसे सार्वजनिक क्षेत्र में निजीकरण निषिद्ध हो।
संयुक्त युवा मोर्चे का लक्ष्य 2024 के आम चुनावों का रोजगार को प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनाना है ताकि भविष्य में सरकार पर रोजगार परक अर्थव्यवस्था के लिए नीतियों में बदलाव के लिए दबाव बनाया जा सके। अधिवेशन में यह मांग भी उठेगी कि सबके लिए रोजगार के लक्ष्य को हासिल करने के लिए संसाधनों की पर्याप्त व्यवस्था हेतु कारपोरेट्स पर संपत्तिकर व उत्तराधिकार-कर जैसे टैक्स लगाये जाएं, कारपोरेट टैक्स बढ़ाया जाए तथा कृषि आधारित व श्रम-सघन उद्योगों का जाल बिछाया जाय।
इसी के साथ शिक्षा व्यवस्था में जो विध्वंसकारी बदलाव मोदी सरकार ने पिछले 9 साल में किये हैं उन्हें पलटने के लिए सम्पूर्ण शैक्षणिक समुदाय तथा छात्रान्दोलन की जद्दोजहद लगातार जारी है। आने वाले दिनों में रोजगार के लिए युवा-आंदोलन के साथ जुड़कर छात्रान्दोलन को लोकतंत्र बचाने की लड़ाई में हिरावल भूमिका का निर्वाह करना होगा।
यह स्वागतयोग्य है कि कर्नाटक सरकार ने केंद्र की NEP के बरक्स अपना नई शिक्षा नीति का ड्राफ्ट पेश किया है। ज्ञातव्य है कि येदुरप्पा के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार NEP 2020 को लागू करने वाली देश की पहली सरकार थी। वर्तमान मुख्यमंत्री सिद्धरमैया ने कहा है कि केंद्र की शिक्षा नीति में अनेक विसंगतियां हैं जो देश के संविधान और लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध हैं। यह देश के संघीय ढांचे के साथ असंगत है। यूनिफार्म शिक्षा व्यवस्था विविधताओं से भरे भारत जैसे देश के अनुकूल नहीं है जहाँ अनेक धर्म, भाषाएं और संस्कृतियां हैं।"
आशा की जानी चाहिए कि विपक्षी एकता के प्रयासों के साथ मिलकर जनान्दोलन की ताकतें तथा नागरिक समाज 2024 चुनाव को लोकतंत्र की कब्रगाह में बदलने की साजिशों को नाकाम करने में सफ़ल होगा।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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