दो टूक: सरकार फ़िलिस्तीन के समर्थन में उठती आवाज़ों के दमन से बाज़ आए
सोमवार, 23 अक्टूबर को दिल्ली के इजरायली दूतावास पर प्रदर्शन कर रहे छात्रों को न सिर्फ निर्ममतापूर्वक रोका गया बल्कि हिरासत में ले लिया गया। AISA, SFI आदि तमाम संगठनों तथा JNU, जामिया, दिल्ली विश्वविद्यालय से आये छात्र गाज़ा में इजरायल के हमलावर युद्ध और जनसंहार के खिलाफ प्रोटेस्ट कर रहे थे। इसके पूर्व दिशा छात्रसंगठन के नौजवानों की जगह जगह गिरफ्तारी हुई थी।
इसे देखें: ग्राउंड रिपोर्ट : दिल्ली के छात्रों की Pro Palestine Rally!
आज देश में जहाँ भी लोग इजराइली बर्बरता और युद्ध के खिलाफ शांति और फिलिस्तीनी जनता के पक्ष में आवाज उठा रहे हैं, उनके ऊपर दमन ढाया जा रहा है और उन्हें हिरासत में लिया जा रहा है- वह दिल्ली, मुंबई हो या इलाहाबाद, लखनऊ।
लखनऊ में वामपंथी संगठनों तथा नागरिक समाज ने 21 अक्टूबर को जब गाज़ा में जनसंहार रोकने और शांति के लिए एक मार्च निकाला तो महिला फेडरेशन की बुजुर्ग नेता आशा मिश्रा, कांति मिश्रा तथा अन्य महिलाओं को थाने ले जाया गया और मुचलका भरवा कर रिहा किया गया। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में एक मुस्लिम नौजवान को फिलिस्तीन के समर्थन में फेसबुक पोस्ट के लिए गिरफ्तार कर लिया गया था।
यह सब तब हो रहा है जब मोदी जी के ' इजराइल के साथ ' वाले बयान से इतर अब भारत सरकार ने ' फिलिस्तीन की आज़ादी ' के साथ खड़े होने की परंपरागत राष्ट्रीय नीति पर कायम रहने की बात दुहराई है!
इसके विपरीत पूरी दुनिया में गाज़ा में हो रही बमबारी तथा नागरिकों, बच्चों के ताज़ा जनसंहार के खिलाफ गुस्से की लहर है और फिलिस्तीन के समर्थन में जबरदस्त प्रदर्शन हो रहे हैं।
21 अक्टूबर को लंदन के हाईड पार्क के पास जुटे 1 लाख लोगों ने गाज़ा पर इजरायली हमले के खिलाफ आवाज बुलंद की। पेरिस में ऐसे ही विराट प्रदर्शन के वीडियो वायरल हो रहे हैं। वाशिंगटन, न्यूयॉर्क, रोम, बर्लिन हर कहीं हजारों हजार लोग फिलिस्तीन के समर्थन में सड़कों पर उतर रहे हैं। यह उन पश्चिमी देशों की बात है जिन्होंने फिलिस्तीन की धरती पर इजराइल का निर्माण किया था और हमेशा से इजराइल के साथ रहे हैं। लेकिन उन देशों की जनता अपनी सरकारों की नीति के विरुद्ध इंसाफ और इंसानियत के पक्ष में तथा युद्ध के खिलाफ शांति के पक्ष में खड़ी है और इजराइली हमले के विरुद्ध सड़कों पर उतर कर अपने गुस्से का इजहार कर रही है। यहां तक कि इनमें इंसाफ-पसन्द यहूदी भी शामिल हैं।
अरब तथा दूसरे बड़ी मुस्लिम आबादी वाले देशों में तो फिलिस्तीन के समर्थन में जबरदस्त प्रदर्शन हो ही रहे हैं।
पर, पूरी दुनिया आज यह देख कर हैरान है कि भारत जिसकी शुरू से ही फिलिस्तीनी जनता के साथ दृढ़ता से खड़े होने की सुसंगत नीति रही है- सरकार चाहे जिस दल की रही हो- वहां आज उल्टी गंगा बह रही है।
देश में आज़ादी की लड़ाई के दौर से लेकर आज तक इस पर कमोबेश आम राय रही है।
फिलिस्तीन के अंदर यहूदियों का देश बनाने की बात जब शुरू ही हुई थी तभी गाँधी जी ने कहा था, " फिलिस्तीन उसी तरह अरबों का है जैसे इंग्लैंड अंग्रेजों का या फ्रांस फ्रांसीसियों का है। यहूदियों को अरबों पर थोपना गलत और अमानवीय है। स्वाभिमानी अरबों को आंशिक या पूर्ण रूप से विस्थापित कर फिलिस्तीन को यहूदियों को सौंपना और एक यहूदी राष्ट्र-राज्य की स्थापना मानवता के विरुद्ध अपराध है। "
अपनी दूरदृष्टि से उन्होंने इस बात को समझ लिया था कि वहाँ नए यहूदी राष्ट्र का निर्माण " दीर्घकालीन तबाही का नुस्खा साबित होने जा रहा है। " उन्होंने इसके लिए साम्राज्यवादी साजिश को जिम्मेदार माना था।
बताया जाता है कि सुप्रसिद्ध मानवतावादी वैज्ञानिक आइंस्टीन को, जो यहूदी मूल के थे, जब नवजात इजराइल का राष्ट्रपति बनने का प्रस्ताव दिया गया तब उन्होंने गांधी जी के परामर्श से ही इससे इनकार कर दिया था।
इस प्रश्न पर आज़ादी के समय से ही जो एक सर्वानुमति चली आ रही थी, साथ ही अरब-मुस्लिम देशों के साथ भारत के जो गहरे आर्थिक-व्यापारिक-कूटनीतिक रिश्ते रहे हैं, उसी का दबाव था कि आज के पहले कभी भी भाजपा की सरकारों ने इजराइल के पक्ष में सार्वजनिक स्टैंड नहीं लिया था, भले ही मुस्लिम द्वेषी हिंदुत्व की राजनीतिक धुरी पर खड़ी जनसंघ-भाजपा की स्वाभाविक सहानुभूति फिलिस्तीनी अरब अवाम पर हमलावर zionist इजराइल के साथ रही हो।
लेकिन मोदी के न्यू इंडिया में पूरी कहानी ही बदल गई है। इस समय संघ-भाजपा दुहरी रणनीति पर अमल कर रहे हैं। कूटनीतिक तक़ाज़ों के लिहाज से एक ओर सरकार और विदेश विभाग अपने आधिकारिक बयान में फिलिस्तीन के पक्ष में भारत की पारंपरिक नीति पर कायम रहने की बात दुहरा रहे हैं। दूसरी ओर सत्ता प्रतिष्ठान के इशारे पर हिंदुत्व ब्रिगेड और गोदी मीडिया द्वारा खुलकर इजराइल के पक्ष में जनमत तैयार किया जा रहा है।
दरअसल मोदी जी उन पहले वैश्विक नेताओं में थे जिन्होंने इजराइल में नागरिकों पर हमले के बाद सबसे त्वरित प्रतिक्रिया दी। उन्होंने 9 घण्टे के अंदर ट्वीट करके, भारत की स्थापित विदेश नीति को पलटते हुए इजराइल के साथ मजबूती से खड़े होने का ऐलान कर दिया। वे यह बताना भी नहीं भूले कि हमले के फ़ौरन बाद इजरायल के प्रधानमन्त्री बेंजामिन नेतन्याहू ने स्वयं उनको फोन कर जानकारी दी थी ।
जहां तक हमास द्वारा इजराइल के आम नागरिकों पर हमले का सवाल है, हर इंसाफ़- पसन्द व्यक्ति विरोध करेगा, लेकिन इसे इजराइल द्वारा फिलिस्तीन के occupation, गाज़ा के seize और फिलिस्तीनियों के साथ हो रही अमानुषिक बर्बरता के पूरे संदर्भ से काटकर इजराइल के एकतरफा समर्थन का ऐलान उसके युद्ध अपराध में शामिल होना है। गाज़ा पर इजराइल के हमलावर युद्ध को उसकी आत्मरक्षा की कार्रवाई बताना धूर्तता है और किसी इतर उद्देश्य से प्रेरित है।
इजराइल का समर्थन कत्तई आतंकवादी हिंसा के खिलाफ किसी मानवीय भावना और संवेदना से प्रेरित नहीं है। आखिर यह मानवता तब कहां गायब हो गयी है जब इजराइल वहाँ अस्पतालों तक पर बम बरसा कर हजारों मासूमों का, बच्चों का जनसंहार कर रहा है? बेहतर होता कि प्रधानमंत्री इसकी निंदा करते और इजराइल के हमलों को रोकने के लिए भारत के प्रधानमंत्री के बतौर अपने पद और क्षमता का इस्तेमाल करते।
आज हिंदुत्व का पूरे ईको सिस्टम युद्धस्तर पर इजराइल के पक्ष में सक्रिय है। जाहिर है हमारे अंतर्राष्ट्रीय हितों के लिए, विशेषकर मध्यपूर्व क्षेत्र में, इसके गम्भीर implications होंगे।
सारे संदर्भ-प्रसंग से काटकर इजराइल में हमास की कार्रवाई का उदाहरण देकर यहां यह डर पैदा किया जा रहा है कि इसी तरह हमारे ऊपर भी हमला हो सकता है ! इस तरह गम्भीर national security threat का परसेप्शन बनाया जा रहा है और 2024 में इसके राजनीतिक दोहन की तैयारी है।
वैश्विक स्तर पर हमारे राष्ट्रीय हितों का तकाजा है कि घरेलू राजनीति के संकीर्ण दलगत हितों द्वारा विदेश नीति को निर्देशित न होने दिया जाय। साथ ही देश के अंदर लोकतन्त्र की रक्षा की माँग है कि वैश्विक घटनाक्रम के देश की अंदरूनी राजनीति में प्रतिक्रियावादी इस्तेमाल की इजाजत न दी जाय।
(लेखक इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं। विचार व्यक्तिगत हैं।)
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